अधूरी ख्वाहिश (भाग 1)
दिव्या बंगले के बाहर गार्डन में कुर्सी पर बैठी अपने चारों ओर फैले प्राकृतिक सौंदर्य को निहार रही थी।इस छोटे से पहाड़ी इलाके में प्राकृतिक सौंदर्य की ऐसी छटा बिखेरी हुई थी जिस देखकर किसी का भी मन मुग्ध हो सकता है। दिव्या भी यहां के सौन्दर्य को देखकर उसकी सुन्दरता में खो सी गई।
" दिव्या तुम यहां बैठी हुई हो मैंने तुम्हें कहां, कहां नहीं ढूंढ़ा" दिव्या की सहेली मानवी ने वहां आकर हंसते हुए कहा।
" हां मानवी यहां का सौंदर्य इतना अद्भुत है कि,इसे देखकर मन ही नहीं भरता अन्दर मुझे घुटन महसूस हो रही थी तो मैं यहां आ गई। यहां का मौसम और प्राकृतिक सौंदर्य देखकर मेरे मन को बहुत सुकून मिला जब तुमने मुझे यहां आने के लिए कहा तो मेरे मन में बार-बार यही प्रश्न उठ रहा था क्या यहां मेरे अशांत मन को शांति मिलेगी? मैं यहां आना नहीं चाहती थी पर तुम्हारे समझाने पर मैं यहां आने के लिए मान गई मां ने भी कहा कि,मन से पुरानी यादों को मिटाने के लिए स्थान परिवर्तन पुरानी दुखद यादों को भूलाने में सहायक सिद्ध होते हैं।आज मुझे अपने फ़ैसले पर खुशी हो रही है अगर मैं यहां न आती तो मुझे अफसोस होता।पर तुम मुझे क्यों ढूंढ रही थीं? आओ तुम भी मेरे साथ यही बैठकर गोधूलि बेला के अद्भुत सौंदर्य का अपनी आंखों से रसास्वादन करो" दिव्या ने सामने दिखाई दे रहे पहाड़ की उज्ज्वल आभा को देखते हुए कहा पहाड़ों के ऊपर चलते हुए बादल धवल गिरि को छूकर निकल रहे थे।
" तुम शायरा कबसे बन गई मोहतरमा"?मानवी ने हंसते हुए कहा,
"यहां का खूबसूरत नज़ारा किसी को भी शायरा बना सकता है अगर तुम यहां बैठोगी तो तुम भी शायरी करने लगोगी मानवी मैडम" दिव्या ने हंसते हुए कहा दिव्या आज कितने महीनों बाद इतना खुलकर हंसी थी। दिव्या को खिलखिला कर हंसते हुए देखकर मानवी के दिल को खुशी हुई।
" तुम यहां फ़ालतू की बातों में लगी हुई हो वहां तुम्हारा फोन बजे जा रहा है तुम्हें कुछ होश भी है कि, तुम्हें कहां जाना है।आज रानी साहिबा ने तुम्हें खाने पर बुलाया है पर तुम्हें तो समाजसेवा करने से ही फुर्सत नहीं है।दूसरो के भले के साथ, साथ कभी अपना भला भी सोच लिया करो अगर हम लोग देर से पहुंचे तो रानी साहिबा नाराज़ हो सकती हैं अगर वह हमसे नाराज़ हुई तो तुम्हारी शादी में समस्या उत्पन्न हो सकती है।
तुम्हारी सहेली तो अपना जीवन बर्बाद कर चुकी है अब वह तुम्हें बर्बाद करने के लिए यहां आ गई है।इसे कहां बर्दाश्त होगा कि, तुम्हारी शादी इतने अमीर खानदान में हो रही है जबकि बड़े घर की बहू बनने के सपने तो यह देख रही थी पर भगवान ने इसे इसकेे कर्मों का दंड दे दिया है।यह लड़की कितनी बेशर्म है तुमने बुलाया और यह यहां दौड़ी चली आई यह यहां कुछ सोचकर आई है मैंने तुमसे कहा था कि, इस लड़की को अपने पास न बुलाना कहीं ऐसा न हो तो कि,यह अपने रूप का जादू कुंवर साहब पर डालने लगे और उन्हें अपने रूपजाल में फंसा लें
पर मेरी तो कोई सुनता नहीं मैं तेरी समाजसेवा से परेशान हो गई हूं। अगर कुछ ऊंच नीच हुई तो उसकी जिम्मेदार तू स्वयं होगी, कहीं ऐसा न हो कि, तेरी जगह तेरी यह सहेली तेरे होने वाले पति के नाम की मेंहदी न लगवाने लगे। क्योंकि यह तो इसमें माहिर है जहां कोई अमीरजादा मिलेगा वहीं यह खूबसूरत जहरीली नागिन अपने रूप के ज़हर से उसको डस कर अपने वश में करने की कोशिश करेंगी।
मेरी बात को तू आज हवा में उड़ाकर इसे दूध पिला रही है देखना कल यह तुझे ही डसेगी तब सिर पकड़ कर रोती रहना" मानवी की मां सुधा ने दिव्या को हिकारत भरी नज़रों से देखते हुए अपनी बेटी मानवी से कहा।
सुधा जी के अपमान भरे शब्दों को सुनकर दिव्या की आंखों में आसूं आ गए उसने दर्द भरी मुस्कुराहट के साथ कहा " चाची जी मैं मानती हूं कि, मैंने गलती की है पर अब मुझे अपनी गलती का अहसास है गया है कि,हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती। अमीर व्यक्ति से प्यार करके हमें जीवन की खुशियां नहीं मिलती उसके लिए तो सच्चा प्यार करने वाले व्यक्ति की जरूरत होती है। मुझे अपने जीवन में सच्चा प्यार करने वाला व्यक्ति मिला मैं ही उसके प्यार की कद्र नहीं कर सकी मैं सच्चे प्यार को छोड़कर दौलत की मृगतृष्णा की ओर भागने लगी मृगतृष्णा कब प्यास बुझाती है यह जानते हुए भी मैं अपनी ख्वाहिशों को पाने की लालसा में उसके पीछे भागती रही। मैं जानती थी कि, मेरी ख्वाहिशें अधूरी रह जाएगी क्योंकि दूसरों को दर्द देकर किसकी ख्वाहिश आज तक पूरी हुई हैं? इसलिए मेरी ख्वाहिशों को तो अधूरा रहना ही था। मेरा स्वार्थ ही आज मुझे दर्द दे रहा है मैं लोगों की नजरों में इतना गिर गई कि, कोई मुझे अपने नज़दीक रखना पसंद नहीं करता।
मैं कितना भी लोगों को विश्वास दिलाऊं की अब मैं पहले वाली दिव्या नहीं हूं मैं बदल गई हूं पर कोई मुझ पर विश्वास नहीं करेगा।
क्योंकि मैंने काम ही ऐसा किया है मैंने अपने ही हाथों अपने प्यार का गला घोंटा और अपनी सबसे प्यारी सहेली के साथ विश्वासघात किया।
मेरी स्थिति तो आज उस जुआरी के जैसी है जो जुएं में अपना सब कुछ हार गया हो।
सब कुछ छिनने की चाहत में आज सब कुछ हाथ से निकल गया आज मेरे दोनों हाथ खाली हैं,
" न ख़ुदा ही मिला न बिसाले सनम,
मैंने क्या कर दिया जब सोचता है मेरा मन,
दिल तड़प उठता है मैं बताऊं किसे,
यह दर्दे जिगर मैंने खुद ही लिया,
अब ज़माने की रूसवाईयां सही जाती नहीं,
हे ख़ुदा तू मेरे कर्मों की अब दे दें सज़ा,
दिव्या ने दर्द भरी मुस्कुराहट के साथ कहा उसकी आंखों में आंसूओं के साथ-साथ दर्द का सैलाब उमड़ा हुआ था।
" यह तिरिया चरित्र् मुझे दिखाने की जरूरत नहीं है तुम्हारे मगरमच्छी आंसू मुझ पर असर नहीं करेंगे। तुम्हारी सहेली ही तुम्हारे इन आंसूओं को देखकर झांसे में आ जाती है।मानवी अगर अपनी सहेली की नौटंकी देखकर फुर्सत मिल गई हो तो चलने की तैयारी करो नहीं तो हम लोगों को वहां पहुंचने में देर हो जायेगी" सुधा जी ने नफ़रत भरी नज़र दिव्या पर डालते हुए कहा और वहां से चलीं गईं।
" दिव्या मुझे माफ़ कर दो मैं मां को तुम्हारा अपमान करने से रोक नहीं सकी तुम तो उन्हें बचपन से जानती है कि,वह झूंठ, फरेब, विश्वासघात बर्दाश्त नहीं कर सकती।यही कारण है कि,वह तुम्हें माफ़ नहीं कर पा रही हैं पर तुम थोड़ा सब्र करो मैं जल्दी ही उन्हें यह समझाने में कामयाब हो जाऊंगी की तुम अब बदल गई हो मुझे विश्वास है कि,वह जल्दी ही तुम्हें माफ़ कर देंगी। मां इसलिए भी तुम्हें माफ़ नहीं कर पा रही हैं क्योंकि तुमने रागिनी के साथ विश्वासघात किया जबकि वह तुम पर कितना विश्वास करती थी। तुमने अपनी खुशी के लिए उसके जीवन में अंधेरा करने की कोशिश की यही कारण है कि,जितने हमारे जानने वाले हैं वह सभी तुमसे दूर हो गए हैं कोई तुमसे सम्बन्ध नहीं रखना चाहता। मां को इस बात का डर है कहीं तुम मेरे साथ भी वही न करो जो तुमने रागिनी के साथ किया
दिव्या पता नहीं क्यों मां उस औरत या लड़की से नफ़रत करती हैं जो किसी शादी शुदा व्यक्ति से विवाह करने के लिए अपने पति या प्रेमी को धोखा देती है।
कुंवर साहब राजघराने से ताल्लुक रखते हैं उनके पास धन-दौलत की कोई कमी नहीं है और उनका व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली है कि, कामदेव भी उनके व्यक्तित्व को देखकर उनसे ईर्ष्या करने लगेंगे इसलिए मां को लगता है कि, कहीं तुम कुंवर साहब को मुझसे छिन न लो" मानवी ने दिव्या को समझाते हुए कहा।
" मैं समझती हूं मानवी मुझे यह सब बर्दाश्त करने की आदत पड़ गई है तुम परेशान न हो तुमने सब कुछ जानते बूझते हुए मुझे अपने घर में आश्रय दिया इसके बदले यह अपमान कुछ नहीं है।अब तुम यहां से जाओ तुम्हें तैयार भी होना हैं अगर तुम्हें देर हुई तो चाची जी की नाराज़गी फिर सहनी पड़ेगी" दिव्या ने मुस्कुराते हुए कहा।
" तुम यहां क्यों बैठी हो चलो तुम्हें भी तो तैयार होना है क्या तुम नहीं चलोगी मेरे कुंवर साहब से मिलने यहां घर में अकेली क्या करेंगी"?मानवी ने दिव्या का हाथ पकड़कर उठते हुए मुस्कुराकर कहा उसके चेहरे पर शरारत झलक रही थी।
" मैं कैसे जाऊंगी तुम्हारे साथ तुम लोग जाओ मैं यहीं घर पर रहूंगी तू क्या चाहती है कि,सुधा चाची मुझे घर से बाहर निकल दें न बाबा मैं नहीं जा सकती तुम्हारे साथ फिर कभी तुम्हारे कुंवर साहब से मिल लूंगी अब तो मैं यहीं हूं।तू मेरी चिंता न कर अब मुझे अकेले में रहना अच्छा लगता है।जब मैं अकेली होती हूं तो अपने प्यार के
सागर में डूबकर प्यार के कीमती मोतियों को फिर से ढूंढने की कोशिश करती हूं इस आशा में शायद उन्हें फिर से अपनी मुठ्ठी में भर सकूं और अपने प्यार की अधूरी ख्वाहिशें पूरी कर लूं" दिव्या ने यादों के भंवर जाल में उलझते हुए कहा।
" ठीक है ठीक है शायरा साहिबा आप एकांत में बैठकर शायरी कीजिए मैं लौटकर जब आऊंगी तो तुम से सुनूंगी" मानवी ने हंसते हुए कहा और बंगले के अंदर चली गई।
दिव्या वहीं बैठी रही अंधेरा घिर आया था तब वह उठकर अंदर की ओर चल पड़ी।
हाल में दाखिल होते ही दिव्या की नज़र मानवी पर पड़ी वह मानवी को भौचक्की होकर देखने लगी आज मानवी स्वर्ग से उतरी अप्सरा लग रही थी। उसने लाल बार्डर और क्रीम रंग की कांचीपुरम खुले पल्लू की साड़ी पहनी हुई थी लम्बे बालों का ढ़ीला जूड़ा बनाया हुआ था लाल रंग की बड़ी बिंदी होंठों पर सुर्ख लाल रंग की लिपस्टिक कानों में लाल कुंदन के जड़ाऊ झूमके और गले में जड़ाऊ हार पहना हुआ था।
दिव्या ने देखा मानवी का चेहरा प्यार की लालिमा से देदीप्यमान हो रहा था, तभी मानवी की नज़र दिव्या पर पड़ी उसने देखा दिव्या उसे ही देखकर मुस्कुरा रही है।
" ऐसे क्या देख रही हो"?मानवी ने मुस्कुराते हुए पूछा
" मैं एक स्वर्ग से उतरी हुई अप्सरा को देख रही हूं जो अपने प्रियतम से मिलने के लिए बेकरार है उसके आंखों की बेचैनी चेहरे की व्यग्रता देखकर कोई भी समझ जाएगा की उन्हें पिया मिलन की कितनी जल्दी है।आज तो कुंवर साहब आपके नयनों के तीर से घायल होकर तड़प उठेंगे यह मेरा दावा है" दिव्या ने एक आंख दबाकर मुस्कुराते हुए कहा
" तू अपनी शायरी अपने पास रख" मानवी ने शरमाते हुए कहा तभी सुधा जी वहां आ गई उन्होंने घूर कर दिव्या को देखा "क्या कह रही थी तुम" फिर गुस्से में पूछा
" कुछ नहीं चाची जी मैं तो मानवी की सुन्दरता की तारीफ कर रही थी" दिव्या ने धीरे से कहा
" मानवी और मुझे दोनों को पता है कि,मानवी बहुत सुंदर है उसकी सुन्दरता और प्यार को नज़र लगाने की जरूरत नहीं है" सुधा जी ने मुंह बनाते हुए कहा और मानवी का हाथ पकड़कर घर से बाहर निकलने लगी तभी मानवी का फोन बज उठा मानव ने फोन उठाया हेलो हां हम लोग तैयार होकर निकल रहें हैं ठीक है मानवी ने मुस्कुराते हुए कहा और फोन काट दिया।
" मां चलिए गाड़ी बाहर खड़ी हुई है" मानवी और सुधा जी बाहर निकल गई दिव्या भी उनके पीछे-पीछे बाहर आ गई उसने देखा की एक काले रंग की विदेशी लम्बी गाड़ी खड़ी हुई है। मानवी को देखकर एक वर्दीधारी ड्राईवर ने आगे बढ़कर कार का दरवाजा खोला मानवी और सुधा जी गाड़ी में बैठ गई ड्राईवर गाड़ी में बैठा और गाड़ी बंगले से बाहर निकल गई।
इतनी बड़ी गाड़ी दिव्या ने पहली बार देखी थी दिव्या सोचने लगी ऐसी ही गाड़ी में बैठने की ख्वाहिश तो की थी उसने पर जो चीज़ भाग्य में ही नहीं लिखी है वह कैसे मिल सठती है।यह सोचकर दिव्या ने गहरी सांस ली और घर के अंदर चली गई उसका खाना खाने का मन नहीं हो रहा था पर थोड़ा बहुत जो मन हुआ खाया फिर अपने कमरे में चली गई। दिव्या को नींद नहीं आ रही थी वह लिखने बैठ गई आज उसका दर्द भरी दास्तां लिखने का मन कर रहा था वह बहुत देर तक अपने मनोभावों को अपने डायरी के पन्नों पर उकेरती रही।
लिखते लिखते दिव्या को नींद ने अपनी आगोश में लेने के लिए अपनी कोमल बाहें फैला दी दिव्या ने लेखन कार्य बंद किया और बिस्तर पर लेट गई और कब वह नींद के आगोश में समां गई पता ही नहीं चला।
सुबह जल्दी ही दिव्या की नींद खुल गई उसने खिड़की के बाहर देखा तो अभी अंधेरा था फिर भी दिव्या ने बिस्तर छोड़ दिया वह घर से बाहर गार्डन में निकल गई।बाहर हवा में सिहरन थी नवम्बर की गुलाबी ठंड हवा के ठंडे ठंडे झोंके मन को बहुत सुकून दे रहे थे। दिव्या कुछ देर वहां टहलती रही फिर वही पत्थर की बनी कुर्सी पर बैठ गई और अपनी आंखों को बंद कर अपने अतीत की गहराइयों में उतरने लगी।
तभी उसे मानवी की आवाज सुनाई दी " इतनी सुबह ठंड में यहां क्या कर रही हो दिव्या"?
" यहां के प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद उठा रहीं हूं रात जल्दी ही सो गई थी तुम लोग कब आए मुझे पता ही नहीं चला सुबह नींद जल्दी खुल गई तो मैंने सोचा चलो यहां के खूबसूरत नज़ारों का लुत्फ उठाया जाए" दिव्या ने मुस्कुराते हुए कहा।
" अच्छा यह बताओ पार्टी कैसी थी वहां क्या हुआ सगाई की तारीख तय हुई की नहीं"?? दिव्या ने एक साथ सवालों की बौछार कर दी।
" अरे अरे सांस ले लो एक साथ इतने सवाल" मानवी ने हंसते हुए कहा
" क्या करूं मेरी आदत तो तुम जानती हो मुझे इंतज़ार करने की आदत नहीं है" दिव्या ने मुस्कुराते हुए कहा
" हां यह बात तो बिल्कुल सच है जो दूसरों से उनका हक़ छिनना चाहते हैं वह हमेशा जल्दी में ही रहते हैं। अगर तुम कर रही हो तो इसमें नई बात क्या है क्योंकि यदि ऐसे लोग जल्दी अपना काम ख़त्म नहीं करें तो सभी को उनकी असलियत का पता चल जाएगा" सुधा जी ने वहां आते हुए व्यंग्यात्मक लहजे में कहा।
" मां आप फिर शुरू हो गई आपसे कितनी बार कहा है कि, दिव्या को बार-बार अपमानित न किया कीजिए पर आप पर कोई असर नहीं हो रहा है। दिव्या मेरी सहेली है यह बात आप अच्छी तरह जानती है फिर भी उसे अपमानित करती रहती हैं आज के बाद आप उसे कुछ नहीं कहेंगी" मानवी ने गुस्से में झल्लाते हुए अपनी मां से कहा।
" ठीक है अब मैं कुछ नहीं कहूंगी जो चाहे कर एक मां हूं न तो अपनी बेटी के जीवन में उसी दुख की छाया कैसे पड़ने दे सकती हूं जो स्वयं उसके खुशहाल जीवन को निगल गया था।
तुम्हें मेरी बात बुरी लगती है तो आज के बाद मैं कुछ नहीं कहूंगी सुधा जी ने गम्भीर लहज़े में कहा और वहां से चलीं गईं।
"आज मां को क्या हो गया"? मानवी आश्चर्य से बड़बड़ाने हुए कहा
" मानवी तुम मेरे कारण चाची जी को दुखी न किया करो वह मां हैं तुम्हारा भला ही चाहतीं हैं" दिव्या ने मानवी को समझाते हुए कहा।
मानवी ने कोई जवाब नहीं दिया जैसे वह दिव्या की बात सुन ही नहीं रही है•••••
क्रमशः
डॉ कंचन शुक्ला
स्वरचित मौलिक