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अध्याय 3

8 फरवरी 2022

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होली का दिन आया। पंडित वसंत कुमार के लिए यह भंग पीने का दिन था। महीनों पहले से भंग मँगवा रखी थी। अपने मित्रों को भंग पीने का नेवता दे चुके थे। सवेरे उठते ही पहला काम जो उन्होंने किया, वह भंग धोना था।
मोहल्ले के दो-चार लौंडे और दो-चार बेफिकरे जमा हो गए। भंग धुलने लगी, कोई मिर्च पीसने लगा, कोई बादाम छीलने लगा, दो आदमी दूध का प्रबंध करने के लिए छूटे, दो आदमी सिल-बट्टा धोने लगे। ख़ासा हंगामा हो गया।
सहसा बाबू कमलाप्रसाद आ पहुँचे। यह जमघट देख कर बोले - 'क्या हो रहा है? भई, हमारा हिस्सा भी है न?'
वसंत कुमार ने आगे बढ़ कर स्वागत किया, बोले -'जरूर-जरूर, मीठी लीजिएगा कि नमकीन?'
कमलाप्रसाद - 'अजी मीठी पिलाओ, नमकीन क्या? मगर यार, केसर और केवड़ा ज़रूर हो, किसी को भेजिए मेरे यहाँ से ले आए। किसी लौंडे को भेजिए जो मेरे घर जा कर प्रेमा से माँग लाए। कहीं धर्मपत्नी जी के पास न चला जाए, नहीं तो मुफ़्त गालियाँ मिलें। त्योहार के दिन उनका मिज़ाज गरम हो जाया करता है। यार वसंत कुमार, धर्मपत्नियों को प्रसन्न रखने का कोई आसान नुस्खा बताओ। मैं तो तंग आ गया।'
वसंत कुमार ने मुस्करा कर कहा - 'हमारे यहाँ तो यह बीमारी कभी नहीं होती।'
कमलाप्रसाद - 'तो यार, तुम बड़े भाग्यवान हो। क्या पूर्णा तुमसे कभी नहीं रूठती?'
वसंत कुमार - 'कभी नहीं।'
कमलाप्रसाद - 'कभी किसी चीज़ के लिए हठ नहीं करती?'
वसंतकुमार - 'कभी नहीं।'
कमलाप्रसाद - 'तो यार, तुम बड़े भाग्यवान हो। यहाँ तो उम्र कैद हो गई है। अगर घड़ी भर भी घर से बाहर रहूँ, तो जवाब-तलब होने लगे। सिनेमा रोज जाता हूँ और रोज घंटों मनावन करनी पड़ती है।'
वसंत कुमार - 'तो सिनेमा देखने न जाया कीजिए।'
कमलाप्रसाद - 'वाह वाह! यह तो तुमने खूब कही। कसम अल्लाह पाक की, खूब कही। जिस कल वह बिठाए, उस कल बैठ जाऊँ? फिर झगड़ा ही न हो, क्यों? अच्छी बात है। कल दिन भर घर से निकलूँगा ही नहीं, देखूँ तब क्या कहती है। देखा, अब तक लौंडा केसर और केवड़ा ले कर नहीं लौटा। कान में भनक पड़ गई होगी, प्रेमा को मना कर दिया होगा। भाई, अब तो नहीं रहा जाता, आज जो कोई मेरे मुँह लगा तो बुरा होगा। मैं अभी जा कर सब चीज़ें भेज देता हूँ। मगर जब तक मैं न आऊँ, आप न बनवाइएगा। यहाँ इस फन के उस्ताद हैं। मौरूसी बात है। दादा तोले भर का नाश्ता करते हैं। उम्र में कभी एक दिन का भी नागा नहीं किया। मगर क्या मजाल कि नशा हो जाए।'
यह कहते हुए कमलाप्रसाद झल्लाए हुए घर चले गए। वसंत कुमार किसी काम से अंदर गए, तो देखा पूर्णा उबटन पीस रही है। पंडित जी के विवाह के बाद यह दूसरी होली थी। पहली होली में बेचारे ख़ाली हाथ थे, पूर्णा की कुछ खातिर न कर सके थे। पर अबकी उन्होंने बड़ी-बड़ी तैयारियाँ की थीं। परिश्रम करके कोई डेढ़ सौ रुपए ऊपर से कमाए थे। उससे पूर्णा के लिए अच्छी साड़ी लाए थे। एक-दो छोटी-मोटी चीज़ें भी बनवा दी थीं। पूर्णा आज वह साड़ी पहन कर उन्हें अप्सरा-सी दीख पड़ने लगी। समीप जा कर बोले - 'आज तो जी चाहता है, तुम्हें आँखों में बिठा लूँ।'
पूर्णा ने उबटन एक प्याली में उठाते हुए कहा -' यह देखो, मैं तो पहले ही से बैठी हुई हूँ।'
वसंतकुमार - 'जरा स्नान करता आऊँ। कमला बाबू अब दस बजे के पहले न लौटेंगे।'
पूर्णा - 'पहले जरा यहाँ आ कर बैठ जाव, उबटन तो मल दूँ, फिर नहाने जाना।'
वसंतकुमार - 'नहीं-नहीं, रहने दो, मैं उबटन न मलवाऊँगा। लाओ, मेरी धोती दो।'
पूर्णा - 'वाह, उबटन क्यों न मलवाओगे? आज की तो यह रीति है, आके बैठ जाव।'
वसंतकुमार - 'बड़ी गरमी है, बिल्कुल जी नहीं चाहता।'
पूर्णा ने लपक कर उनका हाथ पकड़ लिया और उबटन भरा हाथ उनकी देह में पोत दिया। तब बोली -'सीधे से कहती थी, तो नहीं मानते थे अब तो बैठोगे।'
वसंतकुमार ने झेंपते हुए कहा - 'मगर जरा जल्दी करना, धूप हो रही है।'
पूर्णा - 'अब गंगा जी कहाँ जाओगे। यहीं नहा लेना।।'
वसंतकुमार - 'नहीं, आज गंगा किनारे बड़ी बहार होगी।'
पूर्णा - 'अच्छा, तो जल्दी लौट आना, यह नहीं कि इधर-उधर तैरने लगो। नहाते वक्त तुम बहुत दूर तैर जाया करते हो।'
पंडित जी उबटन मलवा कर स्नान करने चले। उनका कायदा था कि घाट से जरा अलग नहाया करते थे। तैराक भी अच्छे थे। कई बार शहर के अच्छे तैराकों से बाज़ी मार चुके थे। यद्यपि आज घर से वादा करके चले थे कि न तैरेंगे, पर हवा ऐसी धीमी-धीमी चल रही थी कि जी तैरने के लिए ललचा उठा। तुरंत पानी में कूद पड़े और इधर-उधर कलोलें करने लगे। सहसा उन्हें बीच धार में कोई लाल चीज़ दिखाई दी। गौर से देखा तो कमल थे। सूर्य की किरणों में चमकते हुए वे ऐसे सुंदर मालूम होते थे कि वसंत कुमार का जी उन पर मचल पड़ा। सोचा, अगर ये मिल जाएँ, तो पूर्णा के लिए झुमके बनाऊँ। उसके हर्ष का अनुमान करके उनका हृदय नाच उठा। हृष्ट-पुष्ट आदमी थे बीच धार तक तैर जाना, उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। उनको पूरा विश्वास था कि मैं फूल ला सकता हूँ। जवानी दीवानी होती है। यह न सोचा कि ज्यों-ज्यों मैं आगे बढूँगा, फूल भी बढ़ेंगे। उनकी तरफ चले और पंद्रह मिनट में बीच धार में पहुँच गए।
मगर वहाँ जा कर देखा तो फूल इतनी ही दूर और आगे थे। अब कुछ थकान मालूम होने लगी थी, किंतु बीच में कोई रेत ऐसा न था कि जिस पर बैठ कर दम लेते। आगे बढ़ते ही गए। कभी हाथों से ज़ोर मारते, कभी पैरों से ज़ोर लगाते फूलों तक पहुँचे। पर, उस वक्त तक सारे अंग शिथिल हो गए थे। यहाँ तक कि फूलों को लेने के लिए जब हाथ लपकाना चाहा, तो हाथ न उठ सका। आखिर उनको दाँतों में दबाया और लौटे। मगर, जब वहाँ से उन्होंने किनारे की तरफ देखा तो ऐसा मालूम हुआ, मानो एक हज़ार कोस की मंज़िल है। शरीर बिल्कुल अशक्त हो गया था और जल-प्रवाह भी प्रतिकूल था। उनकी हिम्मत छूट गई। हाथ-पाँव ढीले पड़ गए। आस-पास कोई नाव या डोंगी न थी और न किनारे तक आवाज़ ही पहुँच सकती थी। समझ गए, यहीं जल-समाधि होगी। एक क्षण के लिए पूर्णा की याद आई। हाय, वह उनकी बाट देख रही होगी, उसे क्या मालूम कि वह अपनी जीवन-लीला समाप्त कर चुके। वसंत कुमार ने एक बार फिर ज़ोर मारा, पर हाथ पाँव हिल न सके। तब उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। तट पर लोगों ने डूबते देखा। दो-चार आदमी पानी में कूदे, पर एक ही क्षण में वसंत कुमार लहरों में समा गए। केवल कमल के फूल पानी पर तैरते रह गए, मानो उस जीवन का अंत हो जाने के बाद उसकी अतृप्त लालसा अपनी रक्त-रंजित छटा दिखा रही हो। 

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रचनाएँ
प्रतिज्ञा
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। 'प्रतिज्ञा' उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट घुट कर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है। प्रतिज्ञा का नायक विधुर अमृतराय किसी विधवा से शादी करना चाहता है ताकि किसी नवयौवना का जीवन नष्ट न हो। ..। नायिका पूर्णा आश्रयहीन विधवा है। समाज के भूखे भेड़िये उसके संचय को तोड़ना चाहते हैं। उपन्यास में प्रेमचंद ने विधवा समस्या को नए रूप में प्रस्तुत किया है एवं विकल्प भी सुझाया है। इसी पुस्तक में प्रेमचंद की अंतिम और अपूर्ण उपन्यास मंगल‍सूत्र भी है। इसका बहुत थोड़ा अंश ही वे लिख पाए थे। यह गोदान के तुरंत बाद की कृति है जिसमें लेखक अपनी शक्तियों के चरमोत्कर्ष पर था।
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प्रतिज्ञा अध्याय 1

8 फरवरी 2022
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काशी के आर्य-मंदिर में पंडित अमरनाथ का व्याख्यान हो रहा था। श्रोता लोग मंत्रमुग्ध से बैठे सुन रहे थे। प्रोफेसर दाननाथ ने आगे खिसक कर अपने मित्र बाबू अमृतराय के कान में कहा - 'रटी हुई स्पीच है।' अमृतरा

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अध्याय 2

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इधर दोनों मित्रों में बातें हो रही थीं, उधर लाला बदरीप्रसाद के घर में मातम-सा छाया हुआ था। लाला बदरीप्रसाद, उनकी स्त्री देवकी और प्रेमा, तीनों बैठे निश्चल नेत्रों से भूमि की ओर ताक रहे थे, मानो जंगल म

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अध्याय 3

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होली का दिन आया। पंडित वसंत कुमार के लिए यह भंग पीने का दिन था। महीनों पहले से भंग मँगवा रखी थी। अपने मित्रों को भंग पीने का नेवता दे चुके थे। सवेरे उठते ही पहला काम जो उन्होंने किया, वह भंग धोना था।

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अध्याय 4

8 फरवरी 2022
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लाला बदरीप्रसाद की सज्जनता प्रसिद्ध थी। उनसे ठग कर तो कोई एक पैसा भी न ले सकता था, पर धर्म के विषय में वह बड़े ही उदार थे। स्वार्थियों से वह कोसों भागते थे, पर दीनों की सहायता करने में भी न चूकते थे।

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अध्याय 5

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पूर्णा को अपने घर से निकलते समय बड़ा दुःख होने लगा। जीवन के तीन वर्ष इसी घर में काटे थे। यहीं सौभाग्य के सुख देखे, यहीं वैधव्य के दुःख भी देखे। अब उसे छोड़ते हुए हृदय फट जाता था। जिस समय चारों कहार उस

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अध्याय 6

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लाला बदरीप्रसाद के लिए अमृतराय से अब कोई संसर्ग रखना असंभव था, विवाह तो दूसरी बात थी। समाज में इतने घोर अनाचार का पक्ष ले कर अमृतराय ने अपने को उनकी नजरों से गिरा दिया। उनसे अब कोई संबंध करना बदरीप्रस

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अध्याय 7

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लाला बदरीप्रसाद को दाननाथ का पत्र क्या मिला आघात के साथ ही अपमान भी मिला। वह अमृतराय की लिखावट पहचानते थे। उस पत्र की सारी नम्रता, विनय और प्रण, उस लिपि में लोप हो गए। मारे क्रोध के उनका मस्तिष्क खौल

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अध्याय 8

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वैशाख में प्रेमा का विवाह दाननाथ के साथ हो गया। शादी बड़ी धूम-धाम से हुई। सारे शहर के रईसों को निमंत्रित किया। लाला बदरीप्रसाद ने दोनों हाथों से रुपए लुटाए। मगर दाननाथ की ओर से कोई तैयारी न थी। अमृतरा

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अध्याय 9

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साड़ियाँ लौटा कर और कमलाप्रसाद को अप्रसन्न करके भी पूर्णा का मनोरथ पूरा न हो सका। वह उस संदेह को जरा भी न दूर कर सकी, जो सुमित्रा के हृदय पर किसी हिंसक पशु की भाँति आरूढ़ हो गया था। बेचारी दोनों तरफ स

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आदर्श हिंदू-बालिका की भाँति प्रेमा पति के घर आ कर पति की हो गई थी। अब अमृतराय उसके लिए केवल एक स्वप्न की भाँति थे, जो उसने कभी देखा था। वह गृह-कार्य में बड़ी कुशल थी। सारा दिन घर का कोई-न-कोई काम करती

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अध्याय 11

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पूर्णा प्रातःकाल और दिनों से आध घंटा पहले उठी। उसने दबे पाँव सुमित्रा के कमरे में कदम रखा। वह देखना चाहती थी कि सुमित्रा सोती है या जागती। शायद वह उसकी सूरत देख कर निश्चय करना चाहती थी कि उसे रात की घ

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अध्याय 12

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 पूर्णा कितना ही चाहती थी कि कमलाप्रसाद की ओर से अपना मन हटा ले, पर यह शंका उसके हृदय में समा गई थी कि कहीं इन्होंने सचमुच आत्म-हत्या कर ली तो क्या होगा? रात को वह कमलाप्रसाद की उपेक्षा करके चली तो आई

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अध्याय 13

8 फरवरी 2022
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 इस वक्त पूर्णा को अपनी उद्दंडता पर पश्चाताप हुआ। उसने अगर जरा धैर्य से काम लिया होता तो कमलाप्रसाद कभी ऐसी शरारत न करता। कौशल से काम निकल सकता था, लेकिन होनहार को कौन टाल सकता है? मगर अच्छा ही हुआ। ब

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अध्याय 14

8 फरवरी 2022
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 बाबू दाननाथ के स्वभाव में मध्यम न था। वह जिससे मित्रता करते थे, उसके दास बन जाते थे, उसी भाँति जिसका विरोध करते थे, उसे मिट्टी में मिला देना चाहते थे। कई महीने तक वह कमलाप्रसाद के मित्र बने रहे। बस,

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अध्याय 15

8 फरवरी 2022
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दाननाथ यहाँ से चले, तो उनके जी में ऐसा आ रहा था कि इसी वक्त घर-बार छोड़ कर कहीं निकल जाऊँ! कमलाप्रसाद अपने साथ उन्हें भी ले डूबा था। जनता की दृष्टि में कमलाप्रसाद और वह अभिन्न थे। यह असंभव था कि उनमें

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अध्याय 16

8 फरवरी 2022
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दाननाथ जब अमृतराय के बँगले के पास पहुँचे तो सहसा उनके कदम रुक गए, हाते के अंदर जाते हुए लज्जा आई। अमृतराय अपने मन में क्या कहेंगे? उन्हें यही खयाल होगा कि जब चारों तरफ ठोकरें खा चुके और किसी ने साथ न

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अध्याय 17

8 फरवरी 2022
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दोनों मित्र आश्रम की सैर करने चले। अमृतराय ने नदी के किनारे असी-संगम के निकट पचास एकड़ जमीन ले ली थी। वहाँ रहते भी थे। अपना कैंटोमेंट वाला बँगला बेच डाला था। आश्रम ही के हाते में एक छोटा-सा मकान अपने

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