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अध्याय भाग- 34

13 अक्टूबर 2021

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सिलिया का बालक अब दो साल का हो रहा था और सारे गाँव में दौड़ लगाता था। अपने साथ एक विचित्र भाषा लाया था, और उसी में बोलता था, चाहे कोई समझे या न समझे। उसकी भाषा में त, ल और घ की कसरत थी और स, र आदि वर्ण ग़ायब थे। उस भाषा में रोटी का नाम था ओटी, दूघ का तूत, साग का छाग और कौड़ी का तौली। जानवरों की बोलियों की ऐसी नक़ल करता है कि हँसते-हँसते लोगों के पेट में बल पड़ जाता है। किसी ने पूछा -- रामू, कुत्ता कैसे बोलता है? रामू गम्भीर भाव से कहता -- भों-भों, और काटने दौड़ता। बिल्ली कैसे बोले? और रामू म्याँव-म्याँव करके आँखें निकालकर ताकता और पंजों से नोचता। बड़ा मस्त लड़का था। जब देखो खेलने में मगन रहता, न खाने की सुधि थी, न पीने की। गोद से उसे चिढ़ थी। उसके सबसे सुखी क्षण वह होते, जब वह द्वार के नीम के नीचे मनों धूल बटोर कर उसमें लोटता, सिर पर चढ़ाता, उसकी ढेरियाँ लगाता, घरौंदे बनाता। अपनी उम्र के लड़कों से उसकी एक क्षण न पटती। शायद उन्हें अपने साथ खेलाने के योग्य ही न समझता था। कोई पूछता -- तुम्हारा नाम क्या है? चटपट कहता -- लामू। 

' तुम्हारे बाप का क्या नाम है? ' 

' मातादीन। ' 

' और तुम्हारी माँ का? ' 

' छिलिया। ' 

' और दातादीन कौन है? ' 

' वह अमाला छाला है। ' 

न जाने किसने दातादीन से उसका यह नाता बता दिया था। रामू और रूपा में ख़ूब पटती थी। वह रूपा का खिलौना था। उसे उबटन मलती, काजल लगाती नहलाती, बाल सँवारती, अपने हाथों कौर-कौर बनाकर खिलाती, और कभी-कभी उसे गोद में लिये रात को सो जाती। धनिया डाँटती, तू सब कुछ छुआछूत किये देती है; मगर वह किसी की न सुनती। चीथड़े की गुड़िया ने उसे माता बनना सिखाया था। वह मातृ-भावना का जीता-जागता बालक पाकर अब गुड़ियों से सन्तुष्ट न हो सकती थी। उसी के घर के पिछवाड़े जहाँ किसी ज़माने में उसकी बरदौर थी, होरी के खँडहर में सिलिया अपना एक फूस का झोपड़ा डालकर रहने लगी थी। होरी के घर में उम्र तो नहीं कट सकती थी। मातादीन को कई सौ रुपए ख़र्च करने के बाद अन्त में काशी के पण्डितों ने फिर से ब्राह्मण बना दिया। उस दिन बड़ा भारी हवन हुआ, बहुत-से ब्राह्मणों ने भोजन किया और बहुत से मन्त्र और श्लोक पढ़े गये। मातादीन को शुद्ध गोबर और गोमूत्र खाना-पीना पड़ा। गोबर से उसका मन पवित्र हो गया। मूत्र से उसकी आत्मा में अशुचिता के कीटाणु मर गये। लेकिन एक तरह से इस प्रायश्चित ने उसे सचमुच पवित्र कर दिया। हवन के प्रचंड अग्नि-कुंड में उसकी मानवता निखर गयी और हवन की ज्वाला के प्रकाश से उसने धर्म-स्तम्भों को अच्छी तरह परख लिया। उस दिन से उसे धर्म के नाम से चिढ़ हो गयी। उसने जनेऊ उतार फेंका और पुरोहिती को गंगा में डुबा दिया। अब वह पक्का खेतिहर था। उसने यह भी देखा कि यद्यपि विद्वानों ने उसका ब्राह्मणत्व स्वीकार कर लिया; लेकिन जनता अब भी उसके हाथ का पानी नहीं पीती, उससे मुहूर्त पूछती है, साइत और लग्न का विचार करवाती है, उसे पर्व के दिन दान भी दे देती है, पर उससे अपने बरतन नहीं छुलाती। जिस दिन सिलिया के बालक का जन्म हुआ उसने दूनी मात्रा में भंग पी, और गर्व से जैसे उसकी छाती तन गयी, और उँगलियाँ बार-बार मूँछों पर पड़ने लगीं। बच्चा कैसा होगा? उसी के जैसा? कैसे देखे? उसका मन मसोसकर रह गया। 

तीसरे दिन रूपा खेत में उससे मिली। उसने पूछा -- रुपिया, तूने सिलिया का लड़का देखा? 

रूपिया बोली -- देखा क्यों नहीं। लाल-लाल है ख़ूब मोटा, बड़ी-बड़ी आँखें हैं, सिर में झबराले बाल हैं, टुकुर-टुकुर ताकता है। 

मातादीन के हृदय में जैसे वह बालक आ बैठा था, और हाथ-पाँव फेंक रहा था। उसकी आँखों में नशा-सा छा गया। उसने उस किशोरी रूपा को गोद में उठा लिया, फिर कन्धे पर बिठा लिया, फिर उतारकर उसके कपोलों को चूम लिया। रूपा बाल सँभालती हुई ढीठ होकर बोली -- चलो, मैं तुमको दूर से दिखा दूँ। ओसारे में ही तो है। सिलिया बहन न जाने क्यों हरदम रोती रहती है। मातादीन ने मुँह फेर लिया। उसकी आँखें सजल हो आयी थीं, और ओठ काँप रहे थे। उस रात को जब सारा गाँव सो गया और पेड़ अन्धकार में डूब गये, तो वह सिलिया के द्वार पर आया और सम्पूर्ण प्राणों से बालक का रोना सुना, जिसमें सारी दुनिया का संगीत, आनन्द और माधुर्य भरा हुआ था। सिलिया बच्चे को होरी के घर में खटोले पर सुलाकर मजूरी करने चली जाती। मातादीन किसी-न-किसी बहाने से होरी के घर आता और कनखियों से बच्चे को देखकर अपना कलेजा और आँखें और प्राण शीतल करता। धनिया मुस्करा कर कहती -- लजाते क्यों हो, गोद में ले लो, प्यार करो, कैसा काठ का कलेजा है तुम्हारा। बिलकुल तुमको पड़ा है। मातादीन एक-दो रुपया सिलिया के लिए फेंककर बाहर निकल आता। बालक के साथ उसकी आत्मा भी बढ़ रही थी, खिल रही थी, चमक रही थी। अब उसके जीवन का भी उद्देश्य था, एक व्रत था। उसमें संयम आ गया, गम्भीरता आ गयी, दायित्व आ गया। एक दिन रामू खटोले पर लेटा हुआ था। धनिया कहीं गयी थी। रूपा भी लड़कों का शोर सुनकर खेलने चली गयी। घर अकेला था। उसी वक़्त मातादीन पहुँचा। बालक नीले आकाश की ओर देख-देख हाथ-पाँव फेंक रहा था, हुमक रहा था, जीवन के उस उल्लास के साथ जो अभी उसमें ताज़ा था। मातादीन को देखकर वह हँस पड़ा। मातादीन स्नेह-विह्वल हो गया। उसने बालक को उठाकर छाती से लगा लिया। उसकी सारी देह और हृदय और प्राण रोमांचित हो उठे, मानो पानी की लहरों में प्रकाश की रेखाएँ काँप रही हों। बच्चे की गहरी, निर्मल, अथाह, मोद-भरी आँखों में जैसे उसके जीवन का सत्य मिल गया। उसे एक प्रकार का भय-सा लगा, मानो वह दृष्टि उसके हृदय में चुभी जाती हो -- वह कितना अपवित्र है, ईश्वर का वह प्रसाद कैसे छू सकता है। उसने बालक को सशंक मन के साथ फिर लिटा दिया। उसी वक़्त रूपा बाहर से आ गयी और वह बाहर निकल गया। एक दिन ख़ूब ओले गिरे। सिलिया घास लेकर बाज़ार गयी हुई थी। रूपा अपने खेल में मग्न थी। रामू अब बैठने लगा था। कुछ-कुछ बकवाँ चलने भी लगा था। उसने जो आँगन में बिनौले बिछे देखे, तो समझा, बतासे फैले हुए हैं। कई उठाकर खाये और आँगन में ख़ूब खेला। रात को उसे ज्वर आ गया। दूसरे दिन निमोनिया हो गया। तीसरे दिन सन्ध्या समय सिलिया की गोद में ही बालक के प्राण निकल गये। लेकिन बालक मरकर भी सिलिया के जीवन का केन्द्र बना रहा। उसकी छाती में दूध का उबाल-सा आता और आँचल भींग जाता। उसी क्षण आँखों से आँसू भी निकल पड़ते। पहले सब कामों से छुट्टी पाकर रात को जब वह रामू को हिये से लगाकर स्तन उसके मुँह में दे देती तो मानो उसके प्राणों में बालक की स्फूर्ति भर जाती। तब वह प्यारे-प्यारे गीत गाती, मीठे-मीठे स्वप्न देखती और नये-नये संसार रचती, जिसका राजा रामू होता। अब सब कामों से छुट्टी पाकर वह अपनी सूनी झोंपड़ी में रोती थी और उसके प्राण तड़पते थे, उड़ जाने के लिए, उस लोक में जहाँ उसका लाल इस समय भी खेल रहा होगा। सारा गाँव उसके दुःख में शरीक था। रामू कितना चोंचाल था, जो कोई बुलाता, उसी की गोद में चला जाता। मरकर और पहुँच से बाहर होकर वह और भी प्रिय हो गया था, उसकी छाया उससे कहीं सुन्दर, कहीं चोंचाल, कहीं लुभावनी थी। मातादीन उस दिन खुल पड़ा। परदा होता है हवा के लिए। आँधी में परदे उठाके रख दिये जाते हैं कि आँधी के साथ उड़ न जायँ। उसने शव को दोनों हथेलियों पर उठा लिया और अकेला नदी के किनारे तक ले गया, जो एक मील का पाट छोड़कर पतली-सी धार में समा गयी थी। आठ दिन तक उसके हाथ सीधे न हो सके। उस दिन वह ज़रा भी नहीं लजाया, ज़रा भी नहीं झिझका। और किसी ने कुछ कहा भी नहीं; बल्कि सभी ने उसके साहस और दृढ़ता की तारीफ़ की। होरी ने कहा -- यही मरद का धरम है। जिसकी बाँह पकड़ी, उसे क्या छोड़ना! धनिया ने आँखें नचाकर कहा -- मत बखान करो, जी जलता है। यह मरद है? मैं ऐसे मरद को नामरद कहती हूँ। जब बाँह पकड़ी थी, तब क्या दूध पीता था कि सिलिया ब्राह्मणी हो गयी थी? एक महीना बीत गया। सिलिया फिर मजूरी करने लगी थी। सन्ध्या हो गयी थी। पूणर्मासी का चाँद विहँसता-सा निकल आया था। सिलिया ने कटे हुए खेत में से गिरे हुए जौ के बाल चुनकर टोकरी में रख लिये थे और घर जाना चाहती थी कि चाँद पर निगाह पड़ गयी और दर्द-भरी स्मृतियों का मानो स्रोत खुल गया। अंचल दूध से भींग गया और मुख आँसुओं से। उसने सिर लटका लिया और जैसे रुदन का आनन्द लेने गयी। सहसा किसी की आहट पाकर वह चौंक पड़ी। मातादीन पीछे से आकर सामने खड़ा हो गया और बोला -- कब तक रोये जायगी सिलिया! रोने से वह फिर तो न आ जायगा। यह कहते-कहते वह ख़ुद रो पड़ा। 

सिलिया के कंठे में आये हुए भत्र्सना के शब्द पिघल गये। आवाज़ सँभालकर बोली -- तुम आज इधर कैसे आ गये? 

मातादीन कातर होकर बोला -- इधर से जा रहा था। तुझे बैठा देखा, चला आया। 

' तुम तो उसे खेला भी न पाये। ' 

' नहीं सिलिया, एक दिन खेलाया था। ' 

' सच? ' 

' सच! ' 

' मैं कहाँ थी? ' 

' तू बाज़ार गयी थी। ' 

' तुम्हारी गोद में रोया नहीं? ' 

' नहीं सिलिया, हँसता था। ' 

' सच? ' 

' सच! ' 

' बस एक ही दिन खेलाया? ' 

' हाँ एक ही दिन; मगर देखने रोज़ आता था। उसे खटोले पर खेलते देखता था और दिल थामकर चला जाता था। ' 

' तुम्हीं को पड़ा था। ' 

' मुझे तो पछतावा होता है कि नाहक़ उस दिन उसे गोद में लिया। यह मेरे पापों का दंड है। ' 

सिलिया की आँखों में क्षमा झलक रही थी। उसने टोकरी सिर पर रख ली और घर चली। मातादीन भी उसके साथ-साथ चला। सिलिया ने कहा -- मैं तो अब धनिया काकी के बरौठे में सोती हूँ। अपने घर में अच्छा नहीं लगता। 

' धनिया मुझे बराबर समझाती रहती थी। 

' सच? ' 

' हाँ सच। जब मिलती थी समझाने लगती थी। ' 

गाँव के समीप आकर सिलिया ने कहा -- अच्छा, अब इधर से अपने घर चले जाओ। कहीं पण्डित देख न लें। मातादीन ने गर्दन उठाकर कहा -- मैं अब किसी से नहीं डरता। 

' घर से निकाल देंगे तो कहाँ जाओगे? ' 

' मैंने अपना घर बना लिया है। ' 

' सच? ' 

' हाँ, सच। ' 

' कहाँ, मैंने तो नहीं देखा। ' 

' चल तो दिखाता हूँ। ' 

दोनों और आगे बढ़े। मातादीन आगे था। सिलिया पीछे। होरी का घर आ गया। मातादीन उसके पिछवाड़े जाकर सिलिया की झोपड़ी के द्वार पर खड़ा हो गया और बोला -- यही हमारा घर है। सिलिया ने अविश्वास, क्षमा, व्यंग और दुःख भरे स्वर में कहा -- यह तो सिलिया चमारिन का घर है। मातादीन ने द्वार की टाटी खोलते हुए कहा -- यह मेरी देवी का मन्दिर है। सिलिया की आँखें चमकने लगीं। बोली -- मन्दिर है तो एक लोटा पानी उँड़ेलकर चले जाओगे। मातादीन ने उसके सिर की टोकरी उतारते हुए कम्पित स्वर में कहा -- नहीं सिलिया, जब तक प्राण है तेरी शरण में रहूँगा। तेरी ही पूजा करूँगा। 

' झूठ कहते हो। ' 

' नहीं, तेरे चरण छूकर कहता हूँ। सुना, पटवारी का लौंडा भुनेसरी तेरे पीछे बहुत पड़ा था। तूने उसे ख़ूब डाँटा। ' 

' तुमसे किसने कहा? ' 

' भुनेसरी आप ही कहता था। ' 

' सच? ' 

' हाँ, सच। ' 

सिलिया ने दियासलाई से कुप्पी जलाई। एक किनारे मिट्टी का घड़ा था, दूसरी ओर चूल्हा था, जहाँ दो-तीन पीतल और लोहे के बासन मँजे-धुले रखे थे। बीच में पुआल बिछा था। वही सिलिया का बिस्तर था। इस बिस्तर के सिरहाने की ओर रामू की छोटी खटोली जैसे रो रही थी, और उसी के पास दो-तीन मिट्टी के हाथी-घोड़े अंग-भंग दशा में पड़े हुए थे। जब स्वामी ही न रहा तो कौन उनकी देख-भाल करता। मातादीन पुआल पर बैठ गया। कलेजे में हूक-सी उठ रही थी; जी चाहता था, ख़ूब रोये। सिलिया ने उसकी पीठ पर हाथ रखकर पूछा -- तुम्हें कभी मेरी याद आती थी? 

मातादीन ने उसका हाथ पकड़कर हृदय से लगाकर कहा -- तू हरदम मेरी आँखों के सामने फिरती रहती थी। तू भी कभी मुझे याद करती थी? 

' मेरा तो तुमसे जी जलता था। ' 

' और दया नहीं आती थी? '

' कभी नहीं। ' 

' तो भुनेसरी ... ' 

' अच्छा, गाली मत दो। मैं डर रही हूँ, गाँववाले क्या कहेंगे। ' 

' जो भले आदमी हैं, वह कहेंगे यही इसका धरम था। जो बुरे हैं उनकी मैं परवा नहीं करता। ' 

' और तुम्हारा खाना कौन पकायेगा। ' 

' मेरी रानी, सिलिया। ' 

' तो ब्राह्मन कैसे रहोगे? ' 

' मैं ब्राह्मण नहीं, चमार ही रहना चाहता हूँ। जो अपना धरम पाले वही ब्राह्मण है, जो धरम से मुँह मोड़े वही चमार है। ' 

सिलिया ने उसके गले में बाहें डाल दीं।

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रचनाएँ
गोदान
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। गोदान एक शोषित किसान और ग्रामीण जीवन पर आधारित उन्न्यास है। इसके नायक होरी और उसकी धर्म पत्नी धनिया जो महाजनी व्यवस्था में चलने वाले निरन्तर शोषण और संत्रास में शिकार हैं। होरी किस्मत का मारा कर्ज के बोझ के तले दबा किसान है जो किसानी और मेहनत मजदूरी करके किसी तरह अपने परिवार का पेट पालता है। इस उपन्यास में होरी की लालसा , गांव के पूंजीपति लोगों का षड्यंत्र, नारी के प्रति लोगों की असम्मान की भावना, पंडित जी जैसे लोगों की बनाई हुई कुरीति , एक किसान की समस्या व गरीबों के साथ हो रहे शोषण का चित्रण किया है।
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गोदान, भाग-1

29 सितम्बर 2021
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<p>होरीराम ने दोनों बैलों को सानी-पानी देकर अपनी स्त्री धनिया से कहा -- गोबर को ऊख गोड़ने भेज देना।

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गोदान भाग-2

29 सितम्बर 2021
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<p>सेमरी और बेलारी दोनों अवध-प्रान्त के गाँव हैं। ज़िले का नाम बताने की कोई ज़रूरत नहीं। होरी बेलारी

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गोदान भाग -3

29 सितम्बर 2021
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<p>होरी अपने गाँव के समीप पहुँचा, तो देखा, अभी तक गोबर खेत में ऊख गोड़ रहा है और दोनों लड़कियाँ भी उ

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गोदान भाग-4

30 सितम्बर 2021
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<p>होरी को रात भर नींद नहीं आयी। नीम के पेड़-तले अपनी बाँस की खाट पर पड़ा बार-बार तारों की ओर देखता

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गोदान भाग-5

30 सितम्बर 2021
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<p>उधर गोबर खाना खाकर अहिराने में पहुँचा। आज झुनिया से उसकी बहुत-सी बातें हुई थीं। जब वह गाय लेकर चल

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गोदान भाग 6

30 सितम्बर 2021
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<p>जेठ की उदास और गर्म सन्ध्या सेमरी की सड़कों और गलियों में पानी के छिड़काव से शीतल और प्रसन्न हो र

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गोदान भाग -7

30 सितम्बर 2021
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<p>यह अभिनय जब समाप्त हुआ, तो उधर रंगशाला में धनुष-यज्ञ समाप्त हो चुका था और सामाजिक प्रहसन की तैयार

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अध्याय भाग-8

1 अक्टूबर 2021
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<p>जब से होरी के घर में गाय आ गयी है, घर की श्री ही कुछ और हो गयी है। धनिया का घमंड तो उसके सँभाल से

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अध्याय भाग - 9

1 अक्टूबर 2021
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अध्याय भाग-10

1 अक्टूबर 2021
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<p>हीरा का कहीं पता न चला और दिन गुज़रते जाते थे। होरी से जहाँ तक दौड़धूप हो सकी की; फिर हारकर बैठ र

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अध्याय भाग-11

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<p>ऐसे असाधारण कांड पर गाँव में जो कुछ हलचल मचना चाहिए था, वह मचा और महीनों तक मचता रहा। झुनिया के द

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अध्याय भाग-12

2 अक्टूबर 2021
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अध्याय भाग-13

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अध्याय भाग-14

4 अक्टूबर 2021
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अध्याय भाग-15

4 अक्टूबर 2021
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<p>मालती बाहर से तितली है, भीतर से मधुमक्खी। उसके जीवन में हँसी ही हँसी नहीं है, केवल गुड़ खाकर कौन

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अध्याय भाग-16

5 अक्टूबर 2021
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<p>राय साहब को ख़बर मिली कि इलाक़े में एक वारदात हो गयी है और होरी से गाँव के पंचों ने जुरमाना वसूल

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अध्याय भाग-17

5 अक्टूबर 2021
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<p>गाँव में ख़बर फैल गयी कि राय साहब ने पंचों को बुलाकर ख़ूब डाँटा और इन लोगों ने जितने रुपए वसूल कि

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अध्याय भाग-18

6 अक्टूबर 2021
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<p>खन्ना और गोविन्दी में नहीं पटती। क्यों नहीं पटती, यह बताना कठिन है। ज्योतिष के हिसाब से उनके ग्रह

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अध्याय भाग-19

6 अक्टूबर 2021
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अध्याय भाग-20

7 अक्टूबर 2021
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<p>मिरज़ा खुर्शेद का हाता क्लब भी है, कचहरी भी, अखाड़ा भी। दिन भर जमघट लगा रहता है। मुहल्ले में अखाड

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अध्याय भाग-21

7 अक्टूबर 2021
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<p>देहातों में साल के छः महीने किसी न किसी उत्सव में ढोल-मजीरा बजता रहता है। होली के एक महीना पहले स

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अध्याय भाग-22

8 अक्टूबर 2021
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<p>इधर कुछ दिनों से राय साहब की कन्या के विवाह की बातचीत हो रही थी। उसके साथ ही एलेक्शन भी सिर पर आ

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अध्याय भाग-23

8 अक्टूबर 2021
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<p>गोबर और झुनिया के जाने के बाद घर सुनसान रहने लगा। धनिया को बार-बार मुन्नू की याद आती रहती है। बच्

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अध्याय भाग- 24

8 अक्टूबर 2021
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<p>सोना सत्रहवें साल में थी और इस साल उसका विवाह करना आवश्यक था। होरी तो दो साल से इसी फ़िक्र में था

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अध्याय भाग- 25

8 अक्टूबर 2021
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<p>भोला इधर दूसरी सगाई लाये थे। औरत के बग़ैर उनका जीवन नीरस था। जब तक झुनिया थी, उन्हें हुक़्क़ा-पान

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अध्याय भाग- 26

9 अक्टूबर 2021
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<p>लाला पटेश्वरी पटवारी-समुदाय के सद् गुणों के साक्षात् अवतार थे। वह यह न देख सकते थे कि कोई असामी अ

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अध्याय भाग- 27

9 अक्टूबर 2021
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<p>गोबर को शहर आने पर मालूम हुआ कि जिस अड्डे पर वह अपना खोंचा लेकर बैठता था, वहाँ एक दूसरा खोंचेवाला

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अध्याय भाग- 28

9 अक्टूबर 2021
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<p>मिस्टर खन्ना को मजूरों की यह हड़ताल बिलकुल बेजा मालूम होती थी। उन्होंने हमेशा जनता के साथ मिले रह

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अध्याय भाग- 29

9 अक्टूबर 2021
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<p>नोहरी उन औरतों में न थी, जो नेकी करके दरिया में डाल देती है। उसने नेकी की है, तो उसका ख़ूब ढिंढोर

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अध्याय भाग- 30

9 अक्टूबर 2021
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<p>मिल क़रीब-क़रीब पूरी जल चुकी है; लेकिन उसी मिल को फिर से खड़ा करना होगा। मिस्टर खन्ना ने अपनी सार

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अध्याय भाग- 31

13 अक्टूबर 2021
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<p>राय साहब का सितारा बुलन्द था। उनके तीनों मंसूबे पूरे हो गये थे। कन्या की शादी धूम-धाम से हो गयी थ

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अध्याय भाग- 32

13 अक्टूबर 2021
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<p>मिरज़ा खुर्शेद ने अस्पताल से निकलकर एक नया काम शुरू कर दिया था। निश्चिन्त बैठना उनके स्वभाव में न

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अध्याय भाग- 33

13 अक्टूबर 2021
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<p>डाक्टर मेहता परीक्षक से परीक्षार्थी हो गये हैं। मालती से दूर-दूर रहकर उन्हें ऐसी शंका होने लगी है

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अध्याय भाग- 34

13 अक्टूबर 2021
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<p>सिलिया का बालक अब दो साल का हो रहा था और सारे गाँव में दौड़ लगाता था। अपने साथ एक विचित्र भाषा ला

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अध्याय भाग- 35

13 अक्टूबर 2021
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<p>होरी की दशा दिन-दिन गिरती ही जा रही थी। जीवन के संघर्ष में उसे सदैव हार हुई; पर उसने कभी हिम्मत न

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