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अनुराधा

24 जनवरी 2022

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लड़की के विवाह योग्य आयु होने के सम्बन्ध में जितना भी झूठ बोला जा सकता है, उतना झूठ बोलने के बाद भी उसकी सीमा का अतिक्रमण किया जा चुका है और अब तो विवाह होने की आशा भी समाप्त हो चुकी है। ‘मैया री मैया! यह कैसी बात है?’ से आरम्भ करके, आंखें मिचकाकर लड़की के लड़के-बच्चों की गिनती पूछने तक में अब किसी को रस नहीं मिलता। समाज में अब यह मजाक भी निरर्थक समझा जाने लगा है। ऐसी ही दशा है बेचारी अनुराधा की। और दिलचस्प बात यह है कि घटना किसी प्राचीन युग की नहीं बल्कि एकदम आधुनिक युग की है। इस आधुनिक युग में भी केवल दान-दहेज, पंचाग, जन्म-कुंड़ली और कुल-शील की जांच-पड़ताल करते-करते एसा हुआ कि अनुराधा की उम्र तेईस को पार कर गई, फिर भी उसके लिए वर नहीं मिला। हालाकिं इस बात पर सहज ही विश्वास नहीं होता फिर भी धटना बिल्कुल सच है। आज सुबह भी गांव के जमींदार कि कचहरी में इस बात की चर्चा हो रही थी. नए जमींदार का नाम है, हरिहर धोषाल। कलकत्ता के निवासी हैं। उनका छोटा बेटा विजय गांव देखने आया है।

विजय ने मुंह निकालकर चुरुट नीचे रखते हुए पूछा, ‘क्या कहा गगन चटर्जी की बहन ने? मकान नहीं छोड़ेगी?’

जो आदमी खबर लेकर आया था, बोला, ‘कहा कि जो कुछ कहना है, सो जब छोटे बाबू आएंगे तब उन्हीं से कहूंगी।’

विजय ने क्रोधित होकर कहा, ‘उसे कहना क्या है? इसका अर्थ तो यह हुआ कि उन लोगों को मकान से निकाल बाहर करने के लिए मुझे स्वयं जाना पड़ेगा, आदमियों से काम नहीं होगा?’

उस आदमी ने कोई उत्तर नहीं दिया।

‘कहने-सुनने की इसमें कोई बात नहीं है विनोद! मैं कुछ भी सुनने वाला नहीं हूं। फिर भी इसके लिए मुझे ही जाना पड़गा उसके पास? क्या वह खुद यहां आकर अपनी कठिनाई नहीं बता सकती?’ विजय ने कहा।

विनोद बोला, ‘मैंने यही बात कही थी। लेकिन अनुराधा कहने लगी-में भी भद्र परिवार की लड़की हूं विनोंद भैया! घर छोड़कर अगर निकलना ही है तो उन्हें बताने के बाद एक बार ही निकल जाऊंगी। मैं बार-बार बाहर नहीं आ-जा सकती।’

‘क्या नाम बताया तुमने?-अनुराधा नाम तो बढ़िया है। शायद इसीलिए अब तक अहंकार मिटा नहीं है।’

‘जी नहीं।’

विनोद गांव का आदमी है। अनुराधा कि दर्दशा का इतिहास बता रहा था। पतन के इतिहास का भी एक गौरवशाली प्राचीन इतिहास है। वही अब बताया जा रहा है।

गांव का नाम है गणेशपुरा। किसी जमाने में यह गांव अनुराधा के पुरखों का ही था। पांच-छः वर्ष हुए, दूसरों के हाथ में चला गया। इस जायदाद का सालाना मुनाफा दो हजार से अधिन नहीं है। किन्तु अनुराधा के पिता अमर चेटर्जी का चाल-चलन या रहन-सहन था बीस हजार जैसा, इसलिए कर्ज के कारण रहने के मकान तक की डिग्री हो गई। डिग्री तो हो गई लेकिन जारी न हो सकी। डर के मारे महाजन रुका रहा चटर्जी महाशय जैसे कुलीन थे, वैसी ही उनके जप-तप और क्रिया-कर्म की भी काफी प्रसिद्धि थी। गृहस्थी की फूटी तली वाली नाव फिजूलखर्ची के खारे पानी से मुंह तक भर आई लेकिन डूबी नहीं। हिन्दू धर्म की कट्टरता के फूले हुए पाल में जन साधारण की भक्ति और श्रद्धा की आंधी जैसे हवा ने इस डूबती नाव को धकेलते-धकेलते अमर चटर्जी की आयु की सीमा पार करा दी, इसलिए उनका जीवु काल एक तरह से अच्छा ही बीता। वह मरे भी ठाट-बाट से और उनका श्राद्ध आदि भी ठाट-बाट से हो गया, लेकिन जायदाद का अन्त भी इसी के साथ हो गया। इतने दिनों से जो नाव नाक बाहर निकाले किसी तरह सांस ले रही थी उसे बाबू घराने की सारी मान-मर्यादा लेकिन अथाह जल में डूबने में जरा-सी भी देर नहीं लगी।

पिता के देहान्त के बाद गगन को एक टूटा-फूटा ऐसा मकान मिला जिस पर डिग्री हो चुकी थी। गले तक कर्ज तक जकड़ी हुई गांव की जायदाद मिली। कुछ गाय-बकरी और कुत्ते-बिल्ली आदि जानवर मिले, और सिर पर आ पड़ी, पिता की दूसरी पत्नी की कुआंरी बेटी अनुराधा।

उसके लिए वर भी जुट गया। गांव के ही एक भद्र पुरुष थे। पांच-छः लड़के बच्चे और नाती-पोते छोड़कर उनकी पत्नी स्वर्ग सिधार चुकी थी। अब वह विवाह करना चाहते हैं।

अनुराधा ने कहा, ‘भैया, मेरे भाग्य में राजपुत्र तो बदा नहीं है। तुम उसी के साथ मेरा विवाह कर दो। रुपये वाला आदमी ठहरा, कम-से-कम खाने पहनने को तो मिलता रहेगा।’

गगन न आश्चर्य से कहा, ‘यह क्या कह रही हो? माना की त्रिलोचन के पास पैसा हे लेकिन उसके बाबा ने कुल बिगाड़कर सतीपुर के चक्रवर्तियों के यहां विवाह किया था। जानती हो उन लोगों की इज्जत ही क्या है?’

बहन ने कहा, ‘और कुछ भी न हो, रुपया तो है। कुछ लेकर उपवास करने से मुट्ठी भर दाल-भात मिल जाना कहीं अच्छा है भैया।’

गगन ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘ऐसा नहीं होता-हो ही नहीं सकता।’

‘क्यों नहीं हो सकता, बताओ तो? बाबूजी इन सब बातों को मानते थे, लेकिन तु्म्हारे निकट तो इन बातों का कोई मूल्य ही नहीं है।’

यहां यह बता देना आवश्यक है कि पिता की कट्टरता पुत्र में नहीं है। मद्यपान आदि जैसे कार्यो से भी उसे कोई मोह नहीं है। पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरे गांव की नीच जाति की एक स्त्री आज भी उसका अभाव दूर कर रही है, इस बात को सभी जानते हैं।

गगन बहन के इशारे को समझ गया। गरज कर बोला, ‘मुझमें बेकार की कट्टरता नहीं है लेकिन कन्या के लिए आवश्यक कुल की शस्त्राचार को क्या तेरे लिए तिलांजलि देकर अपनी चौदह पीढ़ियों को नरक में डुबा दुं? हम कृष्ण की संतान है, स्वभाव से कुलीन। गंदी बातें अब कभी मुंह से मत निकालना।’

यह कहकर वह गुस्सा होकर चला गया और त्रिलोचन गंगोपाध्याय का अध्याय वही दब गया।

गगन ने हरिहर घोषाल की शरण ली-‘कुलीन ब्राह्म को ऋण मुक्त करना होगा।’ कलकत्ता में लड़की के व्यापार से हरिहर धन सम्पन्न हो गए हैं। किसी जमाने में उनकी ननिहाल इसी गांव में थी। बचपन में इन बाबुओं के सुदिन उन्होंने अपनी आंखों से देख हैं। बहुत से अवसरों पर भरपेट पूड़ी-मिठाइयां भी खाई हैं। रुपया उनके लिए बड़ी बात नहीं है। इसलिए वह राजी हो गया। चटर्जियों का सारा कर्ज चुकारर उन्होंने गणेशपुरा खरीद लिया और कुंडुओं की डिग्री का रुपया देकर रहने का मकान वापस ले लिया। मौखिक रुप से यह निश्चत हुआ कि कचहरी के लिए बाहर के दो-तीन कमरे छोड़कर अंदर के हिस्से में गगन जिस तरह रह रहा है, उसी तरह रहता रहेगा।

जमींदार तो खरीद ली गई, लेकिन प्रजा ने नए जमींदार की आधीनता स्वीकार नहीं की। जायदाद थोड़ी-सी है। वसूली भी मामूली-सी है, इसलिए बड़े पैमाने पर कोई व्यवस्था नहीं की जा सकती, और फिर गगन ने एसी चाले चलीं कि हरिहर का पक्ष लेने वाला कोई भी गणेशपुरा में नहीं टिक सका। अंत में गगन ही वर्तमान जमींदार का गुमाश्ता बन गया। उसने प्रजा के वश में कर लिया। यह देखकर हरिहर ने इत्मीनान की सांस ली, लेकिन वसूली की दिशा में वही रफ्तार रही जो पहले थी। रोकड़ में एक पैसा भी जमा नहीं हुआ। इस गड़बड़ी में दो वर्ष और बीत गए। उसके बाद एक दिन अचानक खबर मिली कि गुमाश्ता चटर्जी का कहीं कोई पत्ता नहीं लग रहा। शहर से हरिहर के आदमी ने आकर जांच-पड़ताल की तो पता चला कि जो कुछ वसूल हो सकता था, हुआ है और उसे हड़पकर गगन चटर्जी लापता हो गया है। थाने में रिपोर्ट, अदालत में नालिश और घर का खाना तलाशी-जो कुछ भी कार्रवाई होनी चाहिए थी, वह सब की गई, लेकिन गगन के रुपये में से किसी का पता नहीं चला। गगन की बहन अनुराधा और उसके दूर के रिश्ते की बहन का एक बच्चा घर में रहता था। पुलिस वालों ने यथा नियम उन दोनों को खूब धिसा-मांजा, हलाया-डुलाया लेकिन परिणाम कुछ न निकला।

विजय विलायत हो आया है। उसके बार-बार परीक्षा में फेल हो जाने से हरिहर को उसके खाने-पीने और पढ़ाई-लिखाई पर बहुत रुपया खर्च करना पड़ा है, लेकिन वह परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सका। दो साल पहले ही विलायत में प्राप्त ज्ञान के फलस्वरूप बहुत ही गर्म मिजाज लेकर लौटा है। विजय का कहना है कि विलायत में पास-फेल में कोई अन्तर नहीं है। किताबे पढ़कर तो गधा भी पास हो सकता है। अगर वही उद्देश्य होता तो वह यहीं बैठकर किताबें रटा करता, विलायत न जाता। घर लौटकर उसने पिता के लड़की के व्यापार कि कल्पनिक-दुर्व्यवस्था की आशंका प्रकट की और डूबते-डगमगाते व्यापार को सुव्यवस्थित करने में जुट गया। इसी बीच कर्मचारियों पर उसका दबदबा कायम हो गया। मुनीम-गुमाश्ते इस तरह डरने लगे जैसे शेर से ड़रते हैं। जिस काम की वजह से सांस लेने तक की फुर्सत नहीं थी तब गणेशपुरा का विवरण उसके सामने पहुंचा। उसने यह, ‘यह तो जानी हुई बात है। पिताजी जो कुछ करेंगे तो ऐसा ही होगा, लेकिन अब लापरवाही से काम नहीं चल सकता, उसे खुद वहां जाकर सारी व्यवस्था करनी पड़ेगी। इसलिए वह गणेशपुरा आया है।’

लेकिन इस छोटे से काम के लिए अघिक दिन गांव में नहीं रहा जा सकता। जितनी जल्दी हो उसके उसे यहां की व्यवस्था करके कलकत्ता लौट जाना है। सब कुछ उस अकेले के ही सिर पर है। बड़े भाई अजय अटार्नी है। अत्यन्त स्वार्थी-अपने ओफिस और बाल-बच्चों को लेकर व्यसत रहते हैं। गृहस्थी की सभी बातों में अन्धे हैं लेकिन हिस्सा-बांट के बारे में उनकी दस-दस आंखे काम करती हैं। उनकी पत्नी प्रभामयी कलकत्ता विश्व विद्यालय की ग्रेजुएट है। घरवालों की खबर-सुध लेना तो दूर, सास-सकुर जीवित है या मर गए-इतनी खबर लेके की भी फुर्सत नहीं है। पांच-छः कमरे लेकर मकान के जिस हिस्से में वह रहते है, वहां परिवार के लोग आते-जाते सकुचाते हैं। उनके नौकर-चाकर अलग हैं। उड़िया बैरा है, केवल बड़े बाबू के मना कर देने के कारण वह मुसलमान बावर्ची नहीं रख सके है। यह कभी प्रभा को बहुत बुरी तरह अखरती है, लेकिन उस आशा है कि ससुर के मरते ही यह कमी पूरी हो जाएगी। देवर विजय के प्रति हमेशा से उपेक्षा की भावना रहती आई, लेकिन जब से वह विलायत घूम कर लौटा है उनके विचारों में कुछ परिवर्तन आ गया है। दो-चार बार उसे आमंत्रित करके अपने हाथ से पकाकर डिनर खिलाया है। इसी अवसर पर अपनी बहन अनीता से विजय का परिचय भी कराया है। वह इस वर्ष बी.ए. ऑनर्स पाक कर एम.ए. में एडमिशन लेने कि तैयारियां कर रही है।

विजय विधुर है। पत्नी के देहान्त के बाद ही वह विलायत चला गया था। वहां क्या किया, क्या नहीं किया? इसकी खोज करने की आवश्यकता नहीं लेकिन घर लौटने के बाद लोगों ने स्त्रियों के सम्बन्ध में उसके व्यवहार मे रुखापन महसूस किया। मां ने विवाह के लिए कहा तो उसने चीखकर विरोध करते हुए उन्हें ठंडा कर दिया। तबसे आज तक वह मामला दवा पड़ा है।

गणेशपुरा आकर उसने एक प्रजा के मकान के दो बाहरी कमर लेकर नई कचहरी स्थापित कर दी है। जमींदारी के जितने भी कागजात गगन के घर मिल सके, जबर्दस्ती यहां उठाकर लाए गए है, और इस बात की कोशिश की जा रही है कि उसकी बहन अनुराधा और उसके दूर के रिश्ते के बहनौत को घर से निकाल बाहर किया जाए। विनोद धोष के साथ अभी-अभी इसी बात पर विचार-विमर्श कर रहा था।

कलकत्ता से आते समय विजय अपने सात-आठ वर्ष के लड़के कुमार को साथ लेता आया है।

गंवई-गांव में सांप-बिच्छू आदि के डर से मां ने आपत्ति की थी लेकिन विजय ने कह दिया था, ‘तुम्हारी बड़ी बहू के प्रसाद से तुम्हारे लड्डु गोपाल पोते-पोतियों की कमी नहीं है। कम-से-कम इसे वैसा मत बनाओ। इसे आपद-विपद में पड़कर आदमी बनने दो।’

सुनते हैं विलायत के साहब लोग भी ठीक ऐसा ही कहा करते है, लेकिन साहबों की बात के अतिरिक्त यहां जरा कुछ गोपनीय बात भी है। विजय जब विलायत में था तब इस मातृहीन बालक के दिन बिना किसी लाड-प्यार के ही कटे है। कुमार की दीदी अक्सक चारपाई पर पड़ी रहती है, इसलिए पर्याप्त धन, वैभव के होते हुए भी उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था, इसलिए बेचारा कष्टों में ही इतना बड़ा हुआ है। विलायत से वापस आने पर विजय यह बात को मालूम हो गई है।

गणेशपुरा जाते समय विजय कि भाभी ने सहसा हमदर्दी दिखाकर कहा था, ‘लड़के को साथ लेकर जा रहे हो देवर जी! गंवई-गांव की नई जगह ठहरी, जरा सावधानी के रहना लौटोगे कब तक?’

‘जितनी जल्दी सम्भव हो सकेगा।’

‘सुना है वहां अपना एक मकान भी है- बाबूजी ने खरीदा था?’

‘खरीदा जरूर था, लेकिन खरीदने का अर्थ ‘होना’ नहीं है भाभी, उस मकान पर अपना कब्जा नहीं है।’

‘लेकिन अब तो तुम खुद जा रहे हो देवर जी! अब कब्जा होने में देर नहीं लगेगी।’

‘आशा तो यही है।’

‘कब्जा हो जाने पर जरा खबर भिजवा देना।’

‘क्यों भाभी?’

उत्तर में प्रभा ने कहा था, ‘पास ही तो है। गंवई-गांव कभी आंख से देखा नहीं, जाकर देख आऊंगी। अनीता का भी कॉलेज बन्द हो रहा है। वह भी मेरे संग आना चाहेगी।’

इस प्रस्ताव पर प्रसन्ना होकर विजय ने कहा था, ‘कब्जा होते ही मैं तुम्हें खबर भेज दुंगा लेकिन तब इनकार न कर सकोगी। अपनी बहन को भी जरूर लाना।’

अनीता युवती है। देखने में भी सुन्दर है। बी.ए. ऑनर्स है। सामान्य नारी जाति के प्रति विजय की वाहरी उपेक्षा होने पर भी एक विशिष्ट नारी के प्रति-एक साथ इतने गुण होते हुए भी उसकी ऐसी धारणा हो सो बात नहीं है। वहां शान्त ग्राम के निर्जन प्रांत में और कभी प्राचीन वृक्षों की छाया में शीतल संकीर्ण गांव पथ पर एकान्त में सहसा उसके आ जाने की संभावना उसके ह्दय में उस दिन रहकर झूले जैसी रोनक पैदा कर रही थी।

प्रकरण 2

विजय शुद्ध विलायती लिबास पहने, सिर पर हैट, मुंह में चुरुट दबाए और जेब में चेरी की घड़ी घुमाता हुआ बाबू परिवार के सदर मकान में पहुंचा। साथ में दो मिर्जापुरी लठैत दरबान, कुछ अनुयायी प्रजा, विनोद घोष और पुत्र कुमार।

जायदाद पर दखल करने में हालाकि झगड़े फसाद का भय है, फिर भी लड़के को लड्डु गोपाल बना देने के बयाज मजबूत और साहसी बनाने के लिए यह बहुत बड़ी शिक्षा होगी, इसलिए वह लड़के को भी साथ लाया है, लेकिन विनोद बराबर भरोसा देता रहा है कि अनुराधा अकेली और अततः नारी ही ठहरी, वह जोर-जबर्दस्ती से हरगिज नहीं जीत सकती। फिर भी जब रिवाल्वर पाक है तो साथ ले लेना ही अच्छा है।

विजन ने कहा, ‘सुना है कि यह लड़की शैतान है। पलक झपकते आदमी फकट्ठे कर लेती है, और यही गगन की सलाहकार थी। उसका स्वभाव और चरित्र भी ठीक नहीं है?’

विनोद ने कहा, ‘जी नहीं, ऐसा तो कुछ नहीं सुना।’

‘मैंने सुना है।’

वहां कोई नहीं था। विजय सूने आंगन में खड़ा होकर इधर-उधर देखने लगा। हां, है तो बाबुओं जैसा मकान। सामने पूजा का दालान है। अभी तक टूटा-फूटा नहीं है लेकिन जीर्णता की सीमा पर पहूंच चुका है। एक और क्रमानुसार बैठने के कमरे और बैठक खाना है। दशा सबकी एक जैसी है। कबूतरों, चिड़ियों और चमगादड़ो ने स्थायी आश्रय बना रखा है।

दरबान ने आवाज दी, ‘कोई है?’

दरबान के मर्यादा रहित उच्च स्वर के चीत्कार से विनोद घोष और अन्य लोग लाज से शर्मिदा हो उठे। विनोद ने कहा, ‘राधा जीजी को मैं जाकर खबर किए देता हूं साहब!’ यह कहकर वह अन्दर चला गया।

विनोद कि आवाज और बात करने के ढंग से स्पष्ट मालूम हो जाता है कि अब भी इस मकान का असम्मान करने में उसे संकोच होता है।

अनुराधा रसोई बना रही थी। विनोद ने जाकर बड़ी विनम्रता से कहा, ‘जीजी, छोटे बाबू आए हैं। बाहर खड़ा हैं।’

इस अभाग्यपूर्ण घड़ी की उसे रोजाना आशंका बनी रहती थी। हाथ धोकर उठ खड़ी हुई और संतोष को पुकार कर बोली, ‘बाहर एक दरी बिछा आ बेटा, और कहना मौसी अभी आती है।’

फिर विनोद से बोली, ‘मुझे अधिक देर नहीं होगी। बाबू नाराज न हो जाएं विनोद भैया! मेरी ओर से उन्हें जरा देर बैठने को कहा दो।’ विनोद ने लज्जित स्वर से कहा, ‘क्या करुं जीजी, हम लोग गरीब रिआया ठहरे, जमींदार हुक्म देते हैं तो ‘ना’ नहीं कर सकते । इसी से...।’

‘सो मैं जानती हूं विनोद भैया!’

विनोद चला गया। बाहर दरी बिछाई गई लेकिन उस पर कोई बैठा नहीं। विजय धड़ी घुमाता हुआ टहलने और चुरुट फूंकने लगा।

पांच मिनट बाद संतोष ने दरवाजे से बाहर आकर दरवाजे की और इशारा करके ड़रते-ड़रते कहा, ‘मौसीजी आई हैं।’

विजय ठिठककर खड़ा हो गया। सम्भ्रान्त घराने की लड़की ठहरी, उसे क्या कहकर सम्बोधित करना चाहिए, वह इस दुविधा में पड़ गया, लेकिन अपनी कमजोरी प्रकट करने से काम नहीं चलेगा, इसलिए रुखे स्वर में आड़ मे खड़ी अनुराधा को लक्ष्य करके बोला, ‘यह मकान हम लोगों का है, सो तो तुम जानती हो?’

उत्तर आया, ‘जानती हूं।’

‘तो फिर खाली क्यों नहीं कर रही हो?’

अनुराधा ने पहले की तरह संतोष की जुबानी अपनी बात कहलाने की कोशिश की, लेकिन एक तो लड़का चतुर-चालाक नहीं था, दूसरे नए जमींदार के कठोर स्वभाव के बारे में सुन चुका था, इसलिए भयभीत होकर घबरा गया। वह एक शब्द भी साफ-साफ नहीं कह सका। विजय ने पांच-सात मिनट धीरज रखकर समझने की कोशिश की। फिर सहसा डपटकर बोला, ‘तुम्हारी मौसी को जो कुछ कहना हो सामने आकर कहे। बर्बाद करने के लिए मेरे पास समय नहीं है। मैं कोई भालू चीता नहीं हूं जो उसे खा जाऊंगा। मकान क्यों नहीं छोड़ती यह बताओ।’

अनुराधा बाहर नहीं आई। उसने वहीं से बात की। संतोष के माध्यम से नहीं, स्वयं स्पष्ट शब्दों में कहा, ‘मकान छोड़ने की बात नहीं हुई थी। आपके पिता ने हरिहर बाबू ने कहा था, इसके भीतर हिस्से में हम लोग रह सकेंगे।’

‘कोई लिखा-पढ़ी है?’

‘नहीं, लिखा-पढ़ी कुछ नहीं हैं, लेकिन वह तो अभी मौजूद हैं। उनसे पूछने पर मालूम हो जाएगा।’

‘मुझे पूछने को कोई जरूरत नहीं। यह शर्त उनसे लिखवा क्यो नहीं ली?’

‘भैया ने इसकी जरूरत नहीं समझी। यह शतैं उनसे लिखवा क्यो नहीं की?’

‘भैया ने इसकी जरूरत नहीं समझी। आपके पिताजी के मुंह की बात से लिखा-पढ़ी बड़ी हो सकती है, यह बात शायद भैया को मालूम नहीं होगी।’

इस बात का कोई उचित उत्तर न सूझने के कारण विजय चुप रह गया, लेकिन दूसरे ही पल अंदर से उत्तर आया। अनुराधा ने कहा, ‘लेकिन खुद भैया की और से शर्त टूट जाने के कारण सारी शर्ते टूट गई। इस मकान में रहने का अधिकार अब हमें नहीं रहा, लेकिन मैं अकेली स्त्री ठहरी और यह बच्चा अनाथ है। इसके माता-पिता नहीं हैं। मैंने ही इस पाल-पोस कर इजना बड़ा किया है। हमारी इस दुर्दशा पर दया करके अगर आप दो-चार दिन यहां न रहने देंगे तो मैं अकेली कहां जाऊं, यही सोच रही हूं।’

विजय ने कहा, ‘इस बात का उत्तर क्या मुझको देना होगा? तुम्हारे भाई साहब कहां हैं?’

‘मैं नहीं जानती कहां है।’ अनुराधा ने उत्तर दिया, ‘और आपसे में अब तक भेंट नहीं कर सकी सो केवल इस डर से कि कहीं आप नाराज न हो जाएं।’ इतना कहकर वह पल भर के लिए चुप हो गई। इसी बीच शायद उसने अपने आपको संभाल लिया। कहने लगी, ‘आप मालिक हैं। आप से कुछ भी छिपाऊंगी नहींष अपनी विपत्ति की बात आपसे साफ-साफ कह दी हैं। वरना एक दि भी इस मकान में जबर्दस्ती रहने का दावा मैं नहीं रखती। कुछ दिन बाद खुद ही चली चाऊंगी।’

उसके कंठ स्वर से बाहर से ही समझ में आ गया कि उसकी आंखें छलक उठी हैं। विजय को दुःख हुआ और साथ ही प्रसन्नता भी हुई। उसने सोचा था। कि इस बेदखल करने में न जाने कितना समय लगेगा और कितना परेशानियां उठानी पड़ेगी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उसने तो केवल आंसुओं के द्वारा भिक्षा मांग ली। उसकी जेब में पड़ी पिस्तौल और दरबानों की लाठियां अदर-ही-अंदर उसी को लानत देने लगीं, लेकिन अपनी दर्बलता भी तो प्रकट नहीं की जा सकती। उसने कहा, ‘रहने देने में मुझे आपत्ति नहीं थी। लेकिन मकान मुझे अपने लिए चाहिए। जहां हुं, वहां बड़ी परेशानी होती है। इसके अलावा हमारे घर की स्त्रियां भी एक बार देखने के लिए आना चाहती हैं।’

अनुराधा ने कहा, ‘अच्छी बात है, चली आएं न। बाहर के कमरों मे आप आराम से रह सकते हैं। कोई तकलीफ नहीं होगी। फिर परदेश में उन्हें भी तो कोई जानकार आदमी चाहिए। सो मैं उनको बहुत कुछ सहारा पहुंचा सकती हूं।’

अबकी बार विजय शर्मिदा होकर आपत्ति प्रकट करते हुए बोला, ‘नहीं, नहीं, ऐसा भी नहीं होगा। उनके साथ आदमी वगैरह सभी आएंगे। तुम्हें कुछ नहीं करना होगा, लेकिन अंदर के कमरे क्या मैं एक बार देख सकता हूं?’

उत्तम मिला, ‘क्यों नहीं देख सकते है। है तो आप का ही मकान, अंदर घुसकर विजय ने पलभर के लिए उसका चहेरा देख लिया। माथे पर पल्ला है लेकिन घूंघट नहीं। अधमैली मामूली धोती पहने है। जेवर एक भी नहीं। केवल दोनों हाथों में सोने की दो चुडियां पड़ी है। पुराने जमाने की आड़ में से जिसकी आंसू भरी आवाज विजय को अत्यन्त मधुर मालूम हुई थी, उसने सोचा था कि शायद वह भी वैसी ही होगी। विशेष रुप से निर्धन होने पर भी वह बड़े घर की लड़की ठहरी, लेकिन देखने पर उसकी आशा के अनुरूप उसमें उसे कुछ भी नहीं मिला। रंग गोरा नहीं, मंजा हुआ सांवला, बल्कि जरा कालपेन की ओर झुका हुआ ही समझिए। गांव की सामान्य लड़कियां देखने में जैसी होती है, वैसी ही है। शरीर दुर्बल, इकहरा, लेकिन काफी सुगठित मालूम होता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि उसके दिन बैठे-बैठे या सोए-सोए नहीं बीते हैं। केवल उसमें एक विशेषता दिखाई दी-उसके माथे का गठन आश्चर्यजनक रूप से निर्दोष और सुन्दर है।

लड़की ने कहा, ‘विनोद भैया, बाबू साहब को सब दिखा दो। मैं रसोई घर में हूं।’

‘तुम साथ नहीं रहोगी राधा जीजी?’

‘नहीं।’

ऊपर पहुंचकर विजय ने घूम-फिरकर सब कुछ देखा भला। बहुत से कमरे हैं, पुराने जमाने का ढेरों सामन अब भी हर कमरे में कुछ-न-कुछ पड़ा हुआ है। कुछ टूट-फूट गया है और कुछ टूचने-फूटने की प्रतिक्षा कर रहा है। इस समय उसकी कीमति मामूली-सी थी लेकिने किसी दिन बहुत अच्छी खासी रही होगी। बाहर से कमरों की तरह यह कमरे भी जीर्ण हो चुके हैं। हडि्डयां निकल आई हो-निर्धनता का छाप सभी चीचों पर गरहाई से पड़ी हुई है।

विजय के नीचे उतर आने पर अनुराधा रसोई के द्वार पर आकर खड़ी हो गई। निर्धन और बुरी हालत होने पर भी वह भले घर की लड़की ठहरी, इसलिए विजय को अब ‘तुम’ कहकर सम्बोधित करने में झिझाक महसूस हुई। उसने पूछा, ‘आप इस मकान में और कितने दिन रहना चाहती है?’

‘ठीक-ठीक चो अभी बता नहीं सकती। जितने दिन आप दया करके रहने दें।’

‘कुछ दिन तो रहने दे सकता हूं लेकिन अधिक दिन नहीं। फिर आप कहां जाएंगी?’

‘यही तो रात-दिन सोचा करती हूं।’

लोग कहते हैं कि आप गगन का पता जानती है?’

‘वह और क्या-क्या कहते है?’

विजय इस प्रश्न का कोई उत्तर न दे सका।

अनुराधा कहने लगी, ‘मैं नहीं जानती, यह तो मैं आपसे पहले ही कह चुकी हूं, लेकिन अगर जानती भी हूं तो क्या भाई को पकड़वा दूं? यही आपकी आज्ञा है?’

उसके स्वर में तिरस्कार की झलक थी, विजय बहुत शर्मिदा हुआ। समझा गया की अभिजात्य की छाप इसके मन पर से अभी तक मिटी नहीं है। बोला, ‘नहीं, इस काम के लिए मैं आपसे नहीं कहूंगा। हो सका तो मैं खेद ही उसे खोज निकालूंगा। भागने नहीं दूंगा, लेकिन इजने दिनों से वह तो जो हमारा सत्यानाश कर रहा था। उसके बारे में कग्या आप कहना चाहती हैं कि आपको मालूम नहीं था?’

कोई उत्तर नहीं आया। विजय कहने लगा, ‘संसार में कृतज्ञता नाम की भी कोई चीज होती है? क्या आप किसी भी दिन अपने भाई को ईस बात की सलाह नहीं दे सकीं। मेरे पिता बहुत ही सीधे-सादे हैं। आपके परिवार के प्रति उनके मन में स्नेह और ममता है। विश्वास भी बहुत था, इसीलिए उन्होंने गगन को सब कुछ सौंप रखा था। इसका क्या यही बदला है? लेकिन आप निश्चित समझा लीजिए कि अगर मैं देश में रहता तो ऐसा हरगिंगज न होने देता।’

अनुराधा चुप थी। चु ही रही। किसी बात का उत्तर न पाकर विजय मन-ही-मन गर्म हो उठा। उसके मन में जो कुछ थोड़ी बहुत दया पैदा हुई थी, सब उड़ गई। कठोर स्वर में बोला, ‘इस बात को सभी जानते हैं कि मैं कठोर हूं। व्यर्थ की दया-माया मैं नहीं जानता। अपराध करके मेरे हाथ कोई बच नहीं सकता। अपने भाई से भेंट होने पर आप उनसे कम-से-कम इतना जरूर कह दीजिएगा।’

अनुराधा पूर्ववत् मौन रही। विजय कहने लगा, ‘आज से सारा मकान मेरे दखल में आ गया। बाहर के कमरे की सफाई हो जाने पर दो-तीन दिन बाद मैं यहां आ जाऊंगा। स्त्रियां उसके बाद आएंगी। आप नीचे के कमरे में तब तक रहिए-जब तक कि आप कहीं और न सकें, लेकिन किसी भी चीज को हटाने की कोशिश मत कीजिएगा।’

तभी कुमार बोला उठा, ‘बाबूजी, प्यास लगी है। पानी पाऊंगा।’ ‘यहां पानी कहां है?’

अनुराधा ने हाथ के इशारे से उसे अपने पास बुला लिया और रसोई के अंदर ले जाकर बोली, ‘जाम है, पियोगे बेटा?’

‘हा पीऊंगा।’

संतोष के बना देने पर उसने भर पेट डाम का पानी पिया। कच्ची गरी निकालकर खाई। बाहर आकर बोला, ‘बाबूजी, तुम भी पियोगे? बहुत मीठा है।’

‘नहीं।’

‘पियो न बाबूजी, बहूत है। अपने ही तो हैं सब।’

बात कोई ऐसी नहीं थी, लेकिन इतने आदमियों के बीच लड़के के मुंह से ऐसी बात सुनकर वह सहसा शर्मिदा-सा हो गया, ‘नहीं, नहीं पीऊंगा। तू चल।’

प्रकरण 3

बाबुओं के मकान पर पूरा अधिकार करके बिजय जमकर बैठ गया। उसने दो कमरे अपने लिए रखे और बाकी कमरो में कहचरी की व्यवस्था कर दी। विनोद धोष किसी जमाने में जमींदार के यहां काम कर चुका थी. इसलिए उसे गुमाश्ता नियुक्त कर दिया, लेकिन झंझट नहीं मिटे। इसका कारण यह था कि गगन चटर्जी रुपये वसूल करने के बाद हाथ-से-हाथ रसीद देना अपना अपमान समझता था। क्योंकि इससे अविश्वास की गंध आती है जो कि चटर्जी वंश के लिए गौरव की बात नहीं थी, इसलिए उसके अन्तर्ध्यान होने के बाद प्रजा संकट में फंस गई है। मौखिक साक्षी और प्रमाण ले लेकर लोग रोजाना हाजिर हो रहे हैं। रोते झींकते हैं। किसने कितना दिया और किस पर कितना बाकी है इसका निर्णय करना एक कष्ट साध्य और जटिल प्रश्न बन गया है। विजय जितनी जल्दी कलकत्ता लौटने की सोचकर आया था, उतनी जल्दी नहीं जा सका। एक दिन, दो दिन करत-करते दस-बाहर दिन बीत गए।

इधर लड़के की संतोष से मित्रता हो गई। उम्र में वह दो-तीन वर्ष छोटा है। सामाजिक और पारिवारिक अंतर भी बहुत बड़ा है, लेकिन किसी अन्य साथी के अभाव में वह उसी के साथ हिल-मिल गया है। वह उसी के साथ रहता है-घर के अंदर। बाग-बगीचों और नदी किनारे घूमा-फिरा करता है। कच्चे आम और चिड़ियो के घोसलों की खोज में। संतोष की मौसी के पास ही अक्सर खा-पी लेता है। संतोष की देखा-देखी वह भी उसे मौसीजी कहा करता है। रुपये-पैसे के हिसाब के झंझट में विजय बाहर ही फंसा रहता है जिसके कारण वह रह समय लड़के की खोज-खबर नहीं रख सकता, और जब खबर लेने की फुर्सत मिलती है तो उसका पता नहीं लगता। अगर कभी किसी दिन डांट-फटकार कर अपने पास बैठा भी लेता है तो छुटकारा पाते ही वह दौड़कर मौसीजी के रसोई घर में जा घुसता है। संतोष के साथ बैठकर दोपहर को दाल-भात खाता है। शाम को रोटी और गरी के लड्डु।

उस दिन शाम को लोगबाग आए नहीं थे। विजय ने चाय पीकर चुरुट सुलगाते हुए सोचा, चलें नदी किनारे घूम आएं। अचानक याद आया, दिन भर से आज लड़का दिखाई ही नहीं दिया। पुराना नौकर खड़ा था। उससे पूछा, ‘कुमार कहां है रे?’

उसने इशारा करते हुए कहा, ‘अंदर।’

‘रोटी खाई थी आज?’

‘नहीं।’

‘पकड़कर जबर्दस्ती क्यों नहीं खिला देता?’

‘यह खाना जो नहीं चाहता मालिक! गुस्सा होकर फेंक-फांक कर चल देता है।’

‘कल से उस खाने मेरे साथ बैठाना।’ यह कहकर मन में न जाने क्या आया कि टहलने के लिए जाने के बजाए वह सीधा अंदर चला गया। लंबे-चौड़े आंगन के दूसरी ओर से लड़के की आवाज सुनाई दी, ‘मौसीजी, एक रोटी और दो गरी के लड्डु-जल्दी।’

जिसे आदेश दिया गया था, उसने कहा, ‘उत्तर आओ न बेटा, तुम लोगों पर पैर रखकर इस छोटी डाल को पकड़कर आसानी से चढ आओगी।’

विजय पास जाकर खड़ा हो गया। रसोई घर के सामने आम का एक बड़ा-सा पेड़ है। उसी की दो मोटी डालों पर कुमार और संतोष बैठे हैं। पैर लटकाकर तने से बीठ टिकाए दोनों खा रहे थे। विजय को देखते ही दोनों सिटपिटा गए। अनुराधा रसोई घर के किवाड़ के पीछे छिपकर खड़ी हो गई।

विजय ने पूछा, ‘यह क्या इन लोगों के खाने की जगह है?’

किसी ने उत्तर नहीं दिया। विजय ने अंदर खड़ी अनुराधा को लक्ष्य करके कहा, ‘देखता हूं आप पर यह जोर-जूल्म किया करता है।’

अबकी बार अनुराधा ने मुक्त कंठ से उत्तर दिया, ‘हां।’

‘फिर भी आप सिर चढ़ाने में कसर नहीं रखती। क्यों सिर चढ़ा रही है?’

‘नहीं चढ़ाने से और भी ज्यादा ऊधम मचाएंगे। इस डर से।’

लेकिन घर पर तो ऐसा ऊधम करता नहीं था?

‘संभव है न करता हो। उसकी मां नहीं है। दीदी बीमार रहा करती हैं। आप कामकाज में बाहर फंसे रहेत हैं। ऊधम मचाता किसके आगे?’

विजय को यह बात मालूम न हो, सो नहीं, लेकिन फिर भी लड़के की मां नहीं है-यह बात दूसरे के मुंह से सुनकर उसे दुःख हुआ। बोला, ‘आप तो मालूम होता है बहुत कुछ जान गई हैं। किसने कहा आप से? कुमार ने?’

अनुराधा ने धीर से कहा, ‘अभी उसकी उम्र कहन लायक नहीं हुई है। फिर भी उसी के मुंह से सुना है। दोपहर को मैं ईन लोगों का बाहर निकलने नहीं देती, तो भी आंख बचाकर भाग जाते हैं। जिस दिन नहीं जा पाते, उस दिन मेरे पास लेटकर घर की बाते किया करते हैं।’

विजय उसका चेहरा न देख सका, लेकिन उस पहले दिन की तरह आज भी उसकी आवाज अत्यन्त मीठी मालूम हुई, इसलिए कहने के लिए नहीं, बल्कि सिर्फ सुनने के लिए बोला, ‘अबकी बार इसे घर ले जाकर बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ेगा।’

‘क्यों?’

‘क्योंकि ऊधम मचाना एक तरह का नशा है। न मचा पाने की तकलीफ होती है। हुड़क-सी आने लगती है। दूसरा, वहां इसके नशे खुराक कौन जुटाएगा? दो ही दिन में भागना चाहेगा।’

अनुराधा ने धीरे से कहा, ‘नहीं, नहीं, भूल जाएगा। कुमार उत्र आओ बेटा, रोटी ले जाओ।’

कुमार तश्तरी हाथ में लिए उत्तर साया और मौसी के हाथ से और बी रोटियां औक गरी के लड्डु लेकर उससे सटकर खड़ा-खड़ा खाने लगा। पेड़ पर नहीं चढ़ा। विजय ने देखा की वह चीजें धन-सम्पन्न घर की अपेक्षा पद-गौरव में कितनी ही तुच्छ क्यों न हो लेकिन वास्तविक सम्मान की दृष्टिसे कतई तुच्छ नहीं थीं। लड़का मौसी की रसोई के प्रति इजना आसक्त क्यो हो गया है, विजय इसका कारण समझ गया। सोचकर तो यह आया था कि कुमार के चटोरेपन पर इन लोगों की ओर से अकारण और अतिरिक्त खर्च की बात कहकर शिष्टता के प्रचलित वाक्यों से पुत्र के लिए संकोच प्रकट करेगा और करने भी जा रहा था, लेकिन बाधा आ गई। कुमार ने कहा, ‘मौसीजी, कल जैसी चन्द्र पूली आज भी बनाने के लिए कहा था, सो क्यों नहीं बनाई तुमने?’

मौसी ने कहा, ‘कसूर हो गया बेटा! जरा-सी आंख चूक गई, सो बिल्ली ने दूध उलय दिया। कल ऐसा नहीं होगा।’

‘कोन-सी बिल्ली ने? बताओ तो, सफेद ने?’

‘वही होगी शायद’, कहकर अनुराधा उसके माथे पर बिखरे हुए बालों को संभालने लगी।

विजय ने कहा ‘ऊधम तो देखता हूं, धीरे-धीरे अत्याचार में बदल रहा है।’

कुमार ने कहा, ‘पीने का पानी कहां है?’

‘अरे, याद नहीं रहा बेटा, लाए देती हूं।’

‘तुम सब भूल जाती हो मौसी, तुम्हें कुछ भी याद नहीं रहता?’

विजय ने कहा, ‘आप पर डांट पड़नी चाहिए। कदम-कदम पर गलती करती है?’

‘हां’, कहकर अनुराधा हंस दी। असावधानी के कारण यह हंसी विजय ने देख ली। पुत्र के अवैध आचरण के लिए क्षमा-याचना न कर सका। इस ड़र से कि कहीं उसके भद्र वाक्य अभद्र व्यंग्य से न सुनाई दें। कहीं वह ऐसा न समझ बैठे कि उसकी गरीबी और बुरे दिनों पर यह कटाक्ष कर रहा है।

दूसरे दिन दोपहर को अनुराधा कुमार और संतोष को भात परोस कर साग, तरकारी परोस रही थी। सिर खुला था। बदन का कपड़ा कहीं-का-कहीं जा गिरा था। इतने में अचानक दरवाजे के पास किसी आदमी की परछाई दिखाई दी। अनुराधा ने मुंह उठाकर देखा तो छोटे बाहू थे। एकदम सकुचाकर उसने सिर पर कपड़ा खींच लिया और उठाकर खड़ी हो गई।

विजय ने कहा, एक जरूरी सलाह के लिए आपके पास आया हूं। विनोद घोष इस गांव का आदमी ठहरा। आप तो उसे जानती ही होंगी। कैसा आदमी है, बता सकती हो? गणेशपुरा का नया गुमाश्ता नियुक्त किया है। पूरी तरह उसे पर विश्वास किया जा सकता है या नहीं, आपका क्या ख्याल है?’

एक सप्ताह से अधिक हो गया, विनोद यथाशक्ति काम तो अच्छा ही कर रहा है। किसी की गड़बड़ी नहीं थी। आज सहसा उसके चाल-चलन के बारे में खोज-खबर लेने की ऐसी क्या जरूरत आ पडी? -अनुराधा को कुछ समझ में नहीं आया। उसने बड़ी मीठी आवाज में पूछा,‘विनोद भैया कुछ कर बैठे है क्या?’

‘मैं तो उन्हें अच्छा ही आदमी समझती आई हूं।’

‘हैं क्यों नहीं । वह तो आप को ही प्रामाणिक साक्षी मानता है।’

अनुराधा ने कुछ सोच-विचार कर कहा, ‘हैं तो अच्छे ही आदमी। फिर भी जरा निगाह रखिएगा। अपनी लापरवाही से अच्छे आदमी का बूरा आदमी बन जना कोई असम्भव बात नहीं है।’

विजय ने कहा, ‘सच बात तो यह है कि अगर अपराध का कारण खोजा जाए तो अधिकांश मामलों में दंग रह जाना पड़ता हा।’

फिर लड़के को लक्ष्य करके विजय ने कहा, ‘तरा भाग्य अच्छा है जो अचानक मौसी मिल गई तुझे। वरना इस जंगल मे आधे दिन तो तुझे बिना खाए ही बिताने पड़ते।’

अनुराधा न धीरे से पूछा ‘क्या वहां आपको खाने-पीने की तकलीफ हो रही है?’

विजय ने हंसकर कहा, ‘नहीं तो, ऐसे ही कहा है। हमेशा से परदेश में ही दिन बिताएं है। खाने-पीने की तकलीफ की कोई खास परवाह नहीं करता।’

यह कहकर वह चला गया। अनुराधा ने खिड़की की सेंध में से देखा, अभी तक नहाया-निबटा भी नहीं गया था।

प्रकरण 4


इस प्रकार में आने के बाद एक पुरानी आराम कुर्सी मिल गई थी। शाम को उसी के हत्थों पर दोनों पैर पसाक कर विजय आंखें नीचे किए हुए चुरुट पी रहा था। तभी कान मं भनका पड़ी, ‘बाबू साहब?’ आंख खोलकर देखा-पास ही खड़े एम वृद्ध सज्जन बड़े सम्मान के साथ सम्बोधित कर रहे हैं। वह उठकर बैठ गयाय़ सज्जन की आयु साठ के ऊपर पहुंच चुकी है, लेकिन मजे का गोल-मटोल, ठिगना, मजबूत और समर्थ शरीर है। मूंछे पक कर सफेद हो गई है, लेकिन गंजी चांद के इधर-उधर के बाल भंवरों जैसे काले है। सामने के दो-चार दांतो के अतिरिक्त बाकी सभी दांत बने हुए है। वार्निशदार जूते हैं और घड़ी के सोने की चेन के साथ शेर का नाखून जड़ा हुआ लॉकेट लटक रहा है। गंवई-गांव में यह सज्जन बहुत धनाढ्य मालूम होते है। पाक ही एक टूटी चौकी पर चुरुट का सामान रखा था, उसे खिसकाकर विजय ने उन्हें बैठने के लिए कहा। वद्ध सज्जन ने बैठकर कहा, ‘नमस्कार बाबू साहब।’

विजय ने कहा, ‘नमस्कार।’

आगंतुक ने कहा, ‘आप लोग गांव के जमींदार ठहरे। आपके पिताजी बड़े प्रतिष्ठित और लखपति आदमी है। नाम लेते सुप्रभात होता है। आप उन्हीं के सुपुत्र हैं। उस बेचारी पर दया न करने पर बड़े संकट में पड़ जाएगी।’

‘कौन बेचारी? उस पर कितने रुपये निकलते है?’

सज्जन ने कहा, ‘रुपये पैसे का मामला नहीं है। जिसका मैं जिक्र कर रहा हूं। वह है स्वर्गीय अमर चटर्जी की कन्या। वह प्रातःस्मरणीय व्यक्ति थे। गगन चटर्जी की सौतेली बहन। यह उसका पैतृक मकान है। वह रहेगी नहीं, चली जाएगी। उसका इंतजाम हो गया है, लेकिन आप जो उसे गर्दन पकड़ कर निकाले दे रहे हैं सो क्या आपके लिए उचित है?’

इस अशिक्षित वद्ध पर क्रोध नहीं किया जा सकता। इस बात को विजय मन-ही-मन समझ गया, लेकिन बात करने के ढंग से एकदम जलभून गया। वोला, ‘अपना उचित-अनुचित मैं खुद समझ लूंगा, लेकिन आप कौन है जो उसकी ओर से वकालत करने आए है?’

वद्ध ने कहा, ‘मेरा नाम है त्रिलोचन गंगोपाध्याय। पास के गांव मसजिदपुर में मकान है। सभी जानते है मुझे। आपके माता-पिता के आशीर्वाद से इधर कोई आदमी मिलना मुश्किल है जिसे मेरे पाक हाथ न पसारना पड़ता हो। आपको विश्वास न हो तो विनोद घोष से पूछ सकते है।’

विजय ने कहा, ‘मुझे हाथ पसारने की जरूरत होगी तो महाशयजी का पत्ता लगा लूंगा, लेकिन जिनकी आप वकालत करने आए है उनके आप लगते कौन है, क्या मैं जान सकता हूं?’

सज्जन मजाक के तौर पर जरा मुस्करा दिए। फिर बोले, ‘मेहमान....वैशाख के कुछ दिन बीतने पर ही मैं उससे विवाह कर लूंगा।’

विजय चौक पड़ा। बोला, ‘आप विवाह करेगें अनुराधा से?’

‘जी हां, मेरा यद इरादा पक्का है। जेठ के बाद फिर जल्दी कोई विवाह का मुहूर्त नहीं। नहीं तो यह शुभ कार्य इसी महीने में सम्पन्न हो जाता रहेने देने की यह बात मुझे आपसे कहनी ही न पड़ती।’

कुछ देर आवाक् रहकर विजय ने पूछा, ‘वर देखककर विवाह किसने अनिश्चय किया? गगन चटर्जी ने?’

वृद्ध ने क्रुद्ध दृष्टि से देखते हुए कहा, ‘वह तो फरारी आसामी है साहब-प्रजा का सत्यानाश करके चम्पत हो गया। इतने दिनों से वही तो विध्न डाल रहा था। नहीं तो अगहन में ही विवाह हो जाता। कहता था, हम लोग जातिगत कुलीन ठहरे, कृष्ण की संतान-वंशज के घर बहन को नही ब्याहेंगे। यह छा उसका बोल। अब वह धमंड कहा गया? वंशज के घर ही तो अंत में गरजमंद बनकर आना पड़ा। आजकल के जमाने में कुल कौन खोजता-फिरता है साहब? रुपया ही कुल है-रुपया ही मान-सम्मान रुपया ही सब कुछ है-कहिए, ठीक है कि नहीं।’

विजय ने कहा, ‘हां, सो तो ठीक है, अनुराधा ने मंजूर कर लिया है?’

सज्जन ने बड़े गर्व के साथ अपनी जांध पर हाथ मारकर कहा, मंजूर? कहते क्या हैं, साहब?खुशामदें की जा रही हैं। शहर से आकर आपने जो एक घुड़की दी, बस फिर क्या था। आंखों के आगे अंधेरा छा गया। मैयारी दैयारी पड़ गई। वरना मेरा तो इरादा ही बदल गया था। लड़को की मर्जी नहीं, बहुओं की राय नहीं, लड़कियां और दामाद भी विरुद्ध हो गये थे, और फिर मैंने भी सोच, जाने दो गोली मारो। दो बार गृहस्थी बस चुकी-अब रहने दो, लेकिन जब अनुराधा ने स्वयं आदमी भेजकर मुझे बुलवाकर कहा कि,‘गंगोली महाशय. चरणों में स्थान दीजिए। तुम्हारा घर-आंगन बुहारकर खाऊंगी, तब क्या करता? मंजूर करना ही पड़ा।’

विजय अवाक् हो रहा।

वृद्ध महाशय कहने लगे, ‘विवाह तो इसी मकान में होना चाहिए। देखने में जरा भद्दा मालूम होगा। वरना मेरे मकान में भी हो सकता था। गगन चटर्जी की कोई एक बुआ है, वही कन्यादान करेंगी। अब सिर्फ आप राजी हो जाएं तो सब काम ठीक हो जाए।’

विजय ने गर्दन उठाकर कहा, ‘राजी होकर मुझे क्या करना पड़ेगा, बताइए। मैं मकान खाली करने के लिए न कहूं-यही तो? अच्छी बात है, ऐसा ही होगा। आप जा सकते है-नमस्कार।’

‘नमस्कार महाशय जी नमस्कार। सो तो है ही-सो तो है ही। आपके पिता ठहरे लखपति। प्रातः स्मरणीय व्यक्ति। नाम लेने से सुप्रभात होता है।’

‘सो तो है। अब आप पधारिए’

‘तो जाता हूं महाशय जी-नमस्कार।’ कहकर त्रिलोचन बाबू चल दिए। वृद्ध के जाने के बाद विजय चुपचाप बैठा अपने मन को समझाने लगा कि उस इस मामले में सिर खपाने की क्या जरूरत है? वास्तव में इसके सिवा इस लड़को के लिए चारा ही क्या है? कोई ऐसी बात नहीं होने जा रही जो संसार में पहले कभी न हुई हो। संसार में ऐसा तो होता ही रहता है। फिर उसके लिए सोचना ही क्या?

सहसा उसे विनोद घोष की बात याद आ गई। उस दिन वह कह रहा था-अनुराधा अपने भैया से इसी बात पर झगड़ने लगी थी कि कुल के गौरव से उसे क्या लेना-देना। आसानी से खाने-पहनने भर को मिल जाए, इतना ही बहुत है।

प्रतिवाद में गगन ने गुस्से में आकर कहा था, ‘तू क्या मां-बाप का नाम डुबो देना चाहती है?’ अनुराधा ने उत्तर दिया था, ‘तुम उनके वंशधर हो। नाम बनाए रख सके तो रखना, मैं नहीं रख सकूंगी।’

इस बात की वेदना की विजय नहीं समझ कसा। वह स्वयं कुल के गौरव और सम्मान पर जरा-सा विश्वास रखता हो सो बात नहीं। फिर भी गगन के लिए सहानुभूति जाग उठी। और अनुराधा के तीखे उत्तर की मन-ही-मन ज्यों-ज्यों आलोचना करने लगा त्यों-त्यों वही निर्लज्ज, लोभी, हीन और तुच्छ मालूम होने लगी।

बाहर आंगन में धीरे-धीरे आदमियों की भीड़ इकट्ठी होती जा रही थी। उनको लेकर काम करना है, लेकिन आज उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगा। दरबान से कहकर सबको विदा कर दिया। फिर जब बैठक में अकेला बैठा न रहा गया तो न जाने क्या सोचकर सीधा अन्दर चला गया रसोईघर मे बरामदे में चटाई पर अनुराधा लेटी हुई थी। उसके दोनों और लड़के है-कुमार-संतोष। महाभारत की कहानी चल रही थी। रात की रसोई का काम के जल्दी निबटाकर वह रोजाना शाम के बाद वह इसी तरह लड़को के साथ लेटकर कहानियां सुनाया करती है और फिर खिला-पिला कर कुमार को उसके बाप के पास भेज दिया करती है। चांदनी रात है-सघन पत्तों वाले आम के पेड़ के पत्तों की सेंधों में से चन्द्रमा की चांदनी छन-छनकर उसके बदन पर और चेहरे पर पड़ रही है। पेड़ की छाया में किसी आदमी को इधर आते देखा तो अनुराधा ने चौंकरकर पूछा ‘कौन?’

‘मैं हुं, विजय।’

तीनों जने भड़भडाकर उठ बैठे। संतोष छोटे बाबू से अधिक डरता है। पहले दिन कि बात अभी भूला नहीं है। वह जैसे-तैसे उठकर भाग गया। कुमार ने भी अपने मित्र का अनुसरण किया।

विजय ने पूछा, ‘त्रिलोचन गंगोली को आप जानती हैं? वह आज मेरे पास आए थे।’

अनुराधा को आश्चर्य हुआ। उसने कहा, ‘आपके पास? लेकिन आप तो उनके कर्जदार नहीं है?’

‘नहीं, लेकिन होता तो शायद आपको लाभ होता। मेरे एक दिन के अत्याचार का बदला आप और किसी दिु चुका सकतीं।’

अनुराधा चुप रही।

विजय ने कहा, ‘वह जता गए हैं कि आपके साथ उनका विवाह होना निश्चित हो गया है। क्या यह सच है?’

‘हां।’

‘आपने स्वयं भिखारिन बनकर उन्हें राजी किया?’

‘हां, यही बात हैं।’

‘अगर यही बात है तो बड़ी लज्जा की बात है। केवल आपके लिए ही नहीं, मेरे लिए भी।’

‘आपके लिए क्यों?’

‘वही बताने के लिए आया हूं। त्रिलोचन कह गए हैं कि मेरी ज्यादती से ही शायद आपने एसा प्रस्ताव रखा है। कहते थे, आपके लिए कहीं कोई ठौर नहीं। आपने बड़ी अनुनय-विनय से उन्हें राजी किया है। नहीं तो इस बुढापे में उन्होने विवाह की इच्छा छोड़ दी थी। केवल आपके रोने-धोने पर ही वह राजी हुए हैं।’

‘हा, यह सच है।’

विजय ने कहा, ‘अपनी ज्यादती मैं वापस लेता हूं। और अपने व्यवहार के लिए आपसे क्षमा मांगता हूं।’

अनुराधा चुप रही।

विजय कहने लगा, ‘अब अपनी ओर से इस प्रस्ताव को वापल ले लीजिए।’

‘नहीं, यह नहीं हो सकता। मैंने वचन दे दिया है-सब कोई सुन चके है, लोग उनका मजाक उड़ाएंगे।’

‘और इसमें नहीं उड़ाएंगे? बल्कि और अधिक उड़ाएंगे। आपके बराबर के उनके लड़के-लड़कियां हैं। उनके साथ लड़ाई-झगड़ा होगा। उनकी घर-गृहस्थी में उपद्रव उठ खड़ा होगा। स्वयं आपके लिए भी अशांति की सीमा नहीं रहेगी। इन सब बातों पर आपने विचार किया है?’

अनुराधा ने बड़ी नर्मी से कहा, ‘विचार कर लिया है। मेरा विश्वास है कि यह सब कुछ नहीं होगा।’

सुनकर विजय दंग रह गया। बोला, ‘वृद्ध हैं। कितने किन जियेंगे-आप आशा करती हैं।’

अनुराधा ने उत्तर दिया, ‘पति की दीर्धायु संसार में सभी स्त्रियां चाहती हैं। ऐसा भी हो सकता है कि सुहाग लिए मैं पहले ही मर जाऊं।’

विजय को इस बात का उत्तर पर भी नहीं मिला। स्तब्ध खड़ा रहा। कुछ पल इसी तरह स्तब्धता में बीत जाने के बाद अनुराधा ने विनीत स्वर में कहा, ‘यह सच है कि आपने मुझे चले जाने की आज्ञा दे दी है, लेकिन उसके बाद किसी भी दिन आपने इस बात की चर्चा नहीं की। दया के योग्य मैं नहीं हूं फिर भी आपने दया की है। इसके लिए मैं मन-ही-मन कितनी कृतज्ञ हूं, बता नहीं सकती।’

विजय की और से कोई उत्तर न पाकर अनुराधा फिर कहने लगी, ‘भगवान साक्षी हैं। आपके विरूद्ध मैंने किसी से भी कोई बात नहीं कही। कहने से मेरी ओर से अन्याय होता। मेरा कहना झूठा होता। गंगोली महाशय ने अगर कुछ कहा हो तो वह उनकी बात है, मेरी नहीं। फिर भी मैं उनकी ओर से क्षमा मांगती हूं।’

विजय ने पूछा, ‘आप लोगों का विवाह कब है? जेठ वदी तेरर को? तब तो लगभग एक महीना ही रह गया है न?’

‘हां।’

‘अब इसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता शायद?’

विजय बहुत देर तक चुपचाप खड़ा रहा। फिर बोला, ‘तो फिर मुझे और कुछ नहीं कहना, लेकिन आपने अपने भविष्य और जीवन के बारे में जरा-सा भी विचार नहीं किया, मुझे इस बात का दुःख है।’

अनुराधा ने कहा, ‘एक बार नहीं, सौ-सौ बार विचार कर लिया है। यही मेरी दिन-रात की चिन्ता है। आप मेरे शुभाकांक्षी हैं। आपके प्रित कृतज्ञता प्रकट करने के लिए खोजने पर भी शब्द नहीं मिलते, लेकिन आप स्वयं ही मेरे बारे में सारी बातें सोचकर देखिए। पैसा नहीं, रूप नहीं, घर नहीं। बिना अभिभावक के अकेली गांव के अनाचार अत्याचारों से बचकर कहीं जा खड़े होने तक के लिए ठौर नहीं-उम्र हो गई तेईस-चौबीस। उनके अतिरिक्त और कौन मेरे साथ विवाह करना चाहेगा? आप ही बताइए? तब फिर दाने-दाने के लिए किसके सामने हाथ पसारती फिरूंगी?’

यह सभी बातें सच हैं। इसका प्रतिवाद नहीं किया जा सकता। दो-तीन मिनट निरुतर खड़े रहकर विजय ने गंभीर वेदना के साथ कहा, ‘ऐसे समय में क्या मैं आपका कोई भी उपहार नहीं कर सकता? कर सकता तो बड़ी प्रसन्नता होती।’

अनुराधा ने कहा, ‘आपने मुझ पर बहुत उपकार किया है, जो कोई भी न करता। आपके आश्रय में मैं निडर हूं। दोनों बच्चे मेरे चांद-सूरज हैं, यही मेरे लिए बहुत है। आपसे केवल इतना ही प्रार्थना है कि मन-ही-मन आप मुझे भैया के अपराध की भागीनी न बना रखिएगा। मैने जान बूझकर कोई अपराध नहीं किया।’

‘मझे मालूम हो गया है। आपको कहने की आवश्यकता नहीं?’ इतना कहकर विजय बाहर चला गया।


प्रकरण 5

कलकत्ता से कुछ साग-सब्जी, फल और मिठाई आदि आई थीं। विजय ने नौकर से रसोईघर के सामने टोकरी उतरवाकर कहा, ‘अंदर होंगी जरूर?’

अंदर से मीठी आवाज में उत्तर आया, ‘हूं।’

विजय ने कहा, ‘आपको पुकारना भी कठिन है। हमारे समाज में होती तो मिस चटर्जी या मिस अनुराधा कहकर आसानी से पुकारा जा सकता था, लेकिन यहां तो यह बात विल्कुल नहीं चल सकती। आपके लड़को में से कोई होता तो उनमें से किसी को ‘अपनी मौसी को बुला दो’ कहकर अपना काम निकाल लिया जा सकता था, लेकिन इस समय वह भी फरार हैं। क्या कहकर बुलाऊं, बताइए?’

अनुराधा दरवाजे के पास आकर बोली, ‘आप मालिक ठहरे। मुझे राधा कहकर पुकारा कीजिए।’

विजय ने कहा, ‘बुलाने में कोई आपत्ति नहीं। लेकिन मालिकाना अधिकार के जोर पर नहीं। मालिकाना अधिकार था गगन चटर्जी पर, लेकिन वग तो चम्पत हो गया। आप क्यों मालिक बनाने लगीं? आपको किस बात की गरज है?’

अंदर से सुनाई दिया, ‘ऐसी बात मत कहिए। आप हैं तो मालिक ही।’

विजय ने कहा, ‘उसका दावा मैं नहीं करता, लेकिन उम्र का दावा जरूर रखता हूं। मैं आपसे बहुत बड़ा हूं। नाम लेकर पुकारा करूंगा तो नाराज न होइएगा।’

‘नहीं।’

विजय ने यह बात महसूक की है कि घनिष्ठता पैदा करने का आग्रह स्वयं उसकी ओर से कितना ही प्रबल क्यों न हो, दूसरे पक्ष की ओर से बिल्कुल नहीं है। वह किसी भी तरह सामने नहीं आना चाहती और हमेशा संक्षिप्त, लेकिन सम्मान सहिट ओट में छिपे उत्तर देती है।

विजय ने कहा, ‘घर से कुछ साग-सब्जी, फल और मिठाइयां आदि आई है। इस टोकरी को उठाकर रख लीजिए। लड़को को दे दिया कीजिएगा।’

‘नहीं, सो मत किजिएगा। मेरा रसोइया ठीक से रसोई बनाना नही जानता। दोपहर से देख रहा हूं कि चादर तानकर पड़ा हुआ है। पता नहीं कहीं आपके देश में मलेरिया ने न धेर लिया हो। बिमार पड़ गया तो परेशान कर ड़ालेगा।’

‘लेकिन मलेरिया तो हमारे यहां है नहीं। वह अगर न उठा तो आपकी रसोई कौन बनाएगा।?’

विजय ने कहा, ‘इस बेला की तो कोई बात नहीं, कल सवेरे विचार किया जाएगा और ‘कूकर’ तो साथ में है ही। कुछ नहीं हुआ तो नौकर से ही उसमें कुछ बनवा-बुनवू लूंगा।’

‘लेकीन तकलीफ तो होगी ही?’

‘नहीं। मुझे आदत पड़ी गई है। हां, लड़के को तकलीफ पाते देखता तो जरूर कष्ट होता। उसका भार आपने ले ही रखा है। क्या बना रही हैं इस बेला? चोकरी खोलकर देखिए न, शायद कोई चीज काम आ जाए।’

‘काम तो आएगी ही, लेकिन इस बेला मुझे रसोई नहीं बनानी है।’

‘नहीं बनानी। क्यो?’

‘कुमार की देह कुछ गर्म-सी मालूम होती है। रसोई बनाने पर वह खाने के लिए मचलेगा। उस बेला का जो कुछ बचा है उससे संतोथ का काम चल जाएगा।’

‘देह गर्म हो रही है उसकी? कहां हे वह?’

‘मेरे बिछौने पर लेटा संतोष के साथ गप-शप करता है। आज कह रहा था बाहर नहीं जाएगा, मेरे पास ही सोएगा।’

विजय ने कहा, ‘सो सोया रहे, लेकिन अधिक लाड़-प्यार पाने पर वह फिर मौसी को छो़ड़कर घर नहीं जाना चाहेगा। तब फिर एक नई परेशानी उठानी पड़ी जाएगी।’

‘नहीं उठानी पड़ेगीष कुमार कहना न मानने वाला लड़का नहीं हैं।’

विजन ने कहा, ‘क्या होने से कहना न मानने वाला होता है सो आप जानें। लेकिन मैंने तो सुना है कि वह आपको कम परेशान नहीं करता।’

अनुराधा कुछ देर चुप रहकर बोली, ‘परेशान करता है तो केवल मुझे ही तो परेशान करता है, और किसी को तो नहीं करता।’

विजय ने कहा, ‘सो में जानता हूं, लेकिन मौसी ने-मान लो कि सह लिया लेकिन उसकी ताईजी तो सहने वाली हैं नहीं और अगर किसी दिन सौतेली मां आ गई तो जरा भी बर्दाश्त नहीं करेगी। आदत बिगड़ जाने से खुद उसी के लिए बुरा होगा।’

‘लड़के के लिए बुरी हो ऐसी विमाता। आप घर में लाये ही क्यों? न सही।’

विजय ने कहा, ‘लानी नहीं पड़ती, लड़के का भाग्य फूटने पर विमाता अपने आप घर में आ जाती है। तब उस खराबी को रोकने के लिए मौसी की शरण लेनी पड़ती है, लेकिन हा, अगर वह राजी हो।’

अनुराधा ने कहा, ‘जिसके मां नहीं है, मौसी उसे छोड़ नहीं सकती। कितने ही दुःख में क्यों न हो, पाल-पोसकर बड़ा करती ही है।’

‘याद रखूंगा।’ कहकर विजय चला जा रहा था। फिर लौटकर बोला, ‘अगर अभद्रता के क्षमा करें तो एक बात पूछूं?’

‘पूछिए।’

‘कुमार की चिन्ता बाद में की जाएगी। कारण-उसका बाप जीवित है। आप उसे जितना निठुर समझती हैं, उतना वह है नहीं। लेकिन संतोष-उसके मां-बाप दोनों ही जाते रहे हैं। नए मौसा त्रिलोचन के घर अगर उसके लिए ठौर न हुआ तो उसका क्या करेंगी? इस बात पर विचार किया है?’

अनुराधा ने कहा, ‘मौसी के लिए ठौक होगा, बहनोत के लिए नहीं होगा?’

‘होना तो चाहिए, लेकिन जितना मैं उन्हें देख सकता हूं उससे तो अधिक भरोसा नहीं होता।’

इस बात का उत्तर अनुराधा तत्काल न दे सकी। सोचने में जरा समय लग गया। फिर शांत और दृढ स्वर में कहने लगी, ‘तब पेड़ के नीचे दोनों के लिए ठौर होगा। इसे कोई नहीं रोक सकता।’

विजय ने कहा, ‘बात तो मौसी के अनुरूप है, इसमें इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन यह सम्भव नहीं है। तब उसे मेरे पाक भेज दीजिएगा। कुमार का साथी है वह। अगर कुमार बन सका तो वह भी बन जाएगा।’

अंदर से फिर कोई उत्तर नही आया। विजय कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद बाहर चला गया।

दो-तीन घंटे के बाद संतोष ने आकर दरवाजे के बाहर से कहा, ‘मौसी जी आपको खाने के लिए बुला रही है।’

‘हां।’ कहकर संतोष चला गया।

अनुराधा के रसोईघर में आसन बिछा हुआ था। विजय आसन पर बैठकर बोला, ‘रात आसानी से कट जाती, आपने इतनी तकलीफ क्यो उठाई?’

अनुराधा पास ही खड़ी थी। चुप रही।

परोसी हुई चीजों में कोई अधिकता नहीं थी, लेकिन जतन से बनाए और परोसे जाने का परिचय हर चीज में झलक रहा था। कितने सुन्दर ढंग से वह चीजें हुई थीं। खाते-खाते विजय ने पूछा, ‘कुमार ने क्या खाया?’

‘साबूदाना पीकर सो गया है।’

‘लड़ा नहीं आज?’

अनुराधा हंस पड़ी। बोली, ‘मेरे पास सोएगा इसलिए वह आज बिल्कुल शांत है कतई नहीं लड़ा।’

विजय ने कहा, ‘उसके कारण आपकी झंझटें बढं गई है, लेकिन इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। वह स्वयं आपकी गृहस्थी में चुपचाप आकर शामिल हो गया, में यही सोचता हूं।’

‘मैं भी यही सोचती हूं।’

‘मालूम होता है उसके चले जाने पर आपको दुःख होगा।’

‘अनुराधा पहले तो चुप रही। फिर बोली, ‘उसे घर ले जाने से पहले आपको एक वचन देकर जाना होगा। आपको इस बात की निगरानी रखनी होगी कि उसे किसी बात की तकलीफ न होने पाए।’

‘लेकिन मैं तो बाहर रहूंगा। काम-काज के झंझटों में अपने वचन की रक्षा कर सकूंगी, इस बात का भरोसा नहीं हो रहा।’

‘तो फिर इसे मेरे पास छो़ड़ जाना होगा।’

‘आप गलती करती हैं। यह और भी असंभव है।’ इतना कहकर विजय हंसता हुआ खाना खाने लगा। फिर खाते-खाते बीच में बोल उठा, ‘भाभी वगैरा के आने की बात थी, शायद अब वह आएंगी नहीं।’

‘क्यों?’

‘जिस धुन में कहा था वह धुन शायद जाती रही होगी। शहर के लोग गंवई-गांव की और जल्दी पांव बढ़ाना नहीं चाहते। एक तरह से अच्छा ही हुआ। मैं अकेला ही आपको असुविधा पहुंचा रहा हूं, उन लोगों के आने से आपको और परेशानी होती।’

अनुराधा ने प्रतिसाद करते हुए कहा, ‘आपका यह कहना अनुचित है। घर मेरा नहीं, आपका है। फिर भी, मैं ही सारी जगह घेर की बैठी रहूं-उनके आने पर बुरा मानूं, इससे बढ़कर अन्याय और कुछ हो ही नहीं सकता मेरे विषय में ऐसी बात सोचकर आप सचमुच ही अन्याय कर रहे है। कितनी कृपा आपने मुझ पर की है, क्या मेरी ओर से यही प्रतिदान है?’

इतनी बातें उसने इस ढंग से पहले कभी नहीं की थी। उत्तर सुनकर विजय हैरान रह गया। गांव इस लड़की को उसने जितना अशिक्षित समझ रखा था, उतनी वह नहीं है। थोड़ी दर चुप रहकर अपना अपराध स्वीकार करते हुए बोला, ‘वास्तव में मेरा यह कहना उचित नहीं हुआ। जिनके विषय में यह बात उचित हो सकती है उनसे आप अधिक बड़ी है, लेकिन दो-तीन दिन बाद ही में घर चला जाऊंगा। यहां आकर शुरू-शुरू में मैंने अपके साथ बहुत बुरा व्यवहार किया था, लेकिन वह बिना पहचाने हुए था। सचमुच संसार में ऐसा ही हुआ करता है। अकसर यही होता है। फिर भी जाने से पहले मैं अत्यधिक शर्मिन्दगी के साथ क्षमा याचना करता हूं।’

अनुराधा ने मीठे स्वर में कहा, ‘क्षमा आपको मिल नहीं सकती।’

‘नहीं मिल सकती? -क्यों?’

‘अब तक जितना अत्याचार किया है आपने, उसकी क्षमा नहीं, कहकर वह हंस पड़ी।

दीपक के मद्धिम प्रकाश में उसके हंसी भरे चेहरे पर विजय की नजर पड़ गई और पल भर के लिए एक अज्ञात आश्चर्य से उसका समूचा ह्दय डोल उठा। पलभर चुप रहकर बोला, ‘यही अच्छी है। मुझे क्षमा करने की आवश्यकता नहीं। अपराधी के रूप में ही मैं हमेशा याद आता रहूं।’

दोनों चुप रहे। दो-तीन मिनट तक रसोईघर में एकदम सन्नाटा छाया रहा।

निस्तब्धता भंग की अनुराधा ने। उसने पूछा, ‘फिर आप कब तक आएंगे?’

‘बीच-बीच में आना तो होगा ही। हालांकि आपसे भेंट नहीं होगी।’

दूसरे पक्ष से प्रतिवाद नहीं किया गया। समझ में आ गया कि बात सच है। खाना समाप्त करके विजय के बाहर जाते समय अनुराधा ने कहा, ‘टोकरी में अनेक तरह की तरकारियां हैं, लेकिन अब बाहर नहीं भेजूंगी। कल सुबह भी आप यही भोजन कीजिएगा।’

‘तथास्तु, लेकिन समझ तो गई होंगी कि शायद औरों की अपेक्षा मेरी भूख अधिक है। अन्यथा प्रस्ताव प्रस्तुत करता कि सिर्फ सवेरे ही नहीं, निमंत्रण की मियाद और भी बढ़ा दिजिए। जितने दिन मैं यहा रहूं-और आपके हाथ का ही खाकर घर जा सकूं।’

‘यह मेरा सौभाग्य है।’

दूसरे ही दिन सवेरे-सवेरे अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थ अनुराधा के रसोईघर के बरामदे में आ पहुचे। उसने कोई आपत्ति नहीं की। उठाकर रख लिए।

इसके बाद तीन दिन के बजाए पांच दिन बीत गए। कुमार बिल्कुल स्वस्थ हो गया। इन कोई दिनों में विजय ने दुःख के साथ महसूस किया कि आतिथ्य में तो कहीं कोई कमी नहीं थी, लेकिन परिचय की दूरी वैसी ही अविचलित बनी हुई है। किसी भी बहाने वह तिल भी भी निकट नहीं हुई। बरमदे में भोजन के लिए स्थान बनाकर अनुराधा अन्दर से ही ढंग से थाली लगा देती है और संतोष परोसता रहता है। कुमार आकर कहता, ‘बाबूजी, मौसीजी कहती है कि मछली की तरकारी इतनी छोड़ देने से काम नहीं चलेगा, और जरा-सी खानी पड़ेगी।’

विजय कहता, ‘अपनी मौसी से कह दे कि बाबूजी को राक्षस समझाना ठीक नहीं है।’

कुमार लौटकर कहता, ‘माछली की तरकारी रहने दो। शायद अच्छी न बनी होगी, लेकिन कल की तरह कटोरे में दूध पड़ा रहने से उन्हें दुःख होगा।’

विजय ने सुनकर कहा, ‘तेरी मौसीजी अगर कल कटोरे के बदले नांद में दूध दिया करेगी तो भी न पड़ा रहेगा।’

प्रकरण 6

इसी तरह से पांच-दिन बीत गए। स्त्रियों के आदर और देख-रेख का चित्र विजय के मन में आरंभ से ही अस्पष्ट था। अपनी मां को वह आरंभ से ही अस्वस्थ और अकुशल देखता आया है। एक गृहणी के नाते वह अपना कोई भी कर्तव्य पूर्ण रूप से निभा नहीं पाती थीं। उसकी अपनी पत्नी भी केवल दो-ढ़ाई वर्ष ही जीवित रही थी। तब वह पढ़ना था। उसके बाद उसका लम्बा समय सुदूर प्रवास में बीता। उस प्रवास के अपने अनुभलों की भली-बुरी स्मृतियां कभी-कभी उसे याद आ जाती है, लेकिन वह सब जैसे किताबों में पड़ी हुई कल्पित कहानियों की तरह वास्तविकता से दूर मालूम होती है। जीवन की वास्तविकता आवश्यकताओं के उनका कोई सम्बन्ध ही नहीं।

और रही भाभी प्रभामयी, सो जिस परिवार में भाभी की प्रधानता है, जहां हर समय भले-बुरे की आलोचना होती रहती है, वह परिवार उसे अपना नहीं मालूम होता। मां को उसने अनेक बार रोते देखा है। पिता को उदास और अप्रसन्न रहेत देखा है, लेकिन इन बातों को उसने स्वयं ही असंगत और अनाधिकार चर्चा समझा है। ताई अपने देवर के बेटे की खबर-सुध न ले, या बहु अपने सास-ससुर की सेवा न करे तो बड़ा भारी अपराध है-ऐसी धारणा भी उसकी नहीं थी और स्वयं अपनी पत्नी को भी अगर ऐसा व्यवहार करते देखता तो उसे दुःख होता-सो बात भी नहीं, लेकिन आज उसकी इतने दिनों की धारणा को ईन अन्तिम पांच दिनों ने जैसे धक्के देकर शिथिल कर दिया। आज शाम की गाड़ी से उसके कलकत्ता रवाना होने की बात थी। नौकर-चाकर सामान बांधकर तैयारी कर रहे थे। कुछ हीं घंटो की देर थी। इतने में संतोष ने आकर आड़ में से कहा, ‘मौसीजी बुला रही हैं।’

‘इस समय?’

‘हां।’ कहकर संतोष वहां से खिसक गया।

विजय ने अंदर जाकर देखा, बरामदे में बकायदा आसन बिछाकर भोजन के लिए जगह कर दी गई है। मौसी की गर्दन पकड़कर कुमार लटक रहा था। उसके हाथ से अपने को छुड़ाकर अनुराधा रसोईघर में घुस गई।

आसन पर बैठकर विजय ने कहा, ‘इस समय यहा क्या?’

ऊपर से अनुराधा ने कहा, ‘जरा-सी खिचडी बनाई है। खाते जाइए।’

उत्तर देते समय विजय को अपना गला जरा साफ कर लेना पड़ा। बोला, ‘बेवक्त आपने क्यो कष्ट किया? इसकी अपेक्षा आप चार-छः पूड़ियां ही उतार देती तो काम चल जाता।’

‘पूड़ी तो आप खाते नहीं। घर पहुंचते रात को दो-तीन बजे जाएंगे। बिना खानए आप जाते तो क्या मुझे क्म दुःख होता? बराबर यही ख्याल आता रहता कि लड़का बिना खाए-पिए यों ही गाड़ी में सौ गया होगा।’

विजय चुपचाप खाता रहा। फिर बोला, ‘विनोद को कह दिया है, वह आपकी देख-रेख करता रहेगा। जितने दिन आप इस मकान में हैं, आपको किसी तरह की कोई तकलीफ नहीं होगी।’

फिर कुछ देर चुप रहने के बाद कहने लगा, ‘और एक बात आपसे कहे जाता हूं। अगर कभी भेंट हो तो गगन से कह दीजिएगा कि मैंने उसे क्षमा कर दिया, लेकिन वह इस गांव में न आए। आने पर क्षमा नहीं करूंगा।’

‘कभी भेंट हुई तो उनसे कह दूंगी।’ इतना कहकर अनुराधा चुप हो गई। फिर पलभर बाद बोली, ‘मुश्किल है कुमार के मारे। आज वह किसी भी तरह जाने को राजी नहीं हो रहा, और क्यों नहीं जाना चाहता सो भी नहीं बताया।’

विजय ने कहा, ‘इसलिए नहीं बताता कि वह खुद नहीं जानता, और मन-ही-मन यह भी समझता हे कि वहां जाने पर उसे तकलीफ होगी।’

‘तकलीफ क्यों होगी?’

‘उस घर का यही नियम है, लेकिन हो तकलीफ, आखिर इतना बड़ा तो वहीं हुआ है।’

‘उसे ले जाने की जरूरत नहीं। यहीं रहने दीजिए मेरे पास।’

विजय ने हंसते हुए कहा, ‘मुझे तो कोई आपत्ति नहीं। लेकिन अधिक-से-अधिक एक महीने रह सकता है। इससे अधिक तो नहीं रह सकता। इससे क्या लाभ?’

दोनों कुछ देर मौन रहे। फिर अनुराधा ने कहा, ‘इसकी जो विमाता आएगी, सुना है पढ़ी-लिखी है।’

‘हां, बी.ए. पास है।’

‘लेकिन बी.ए. तो उसकी ताई ने भी पास किया है।’

‘जरूर किया है, लेकिन बी.ए. पास करने वाली किताबों में देवर के बेटे को लाड़-प्यार से रखने की बात नहीं लिखी होती। इस विषय की परीक्षा उन्हें नहीं देनी पड़ी होगी।’

‘और बीमार सास-ससुर की? क्या यह बात भी किताबों में नहीं लिखी रहती।’

‘नहीं। यह प्रस्ताव तो और भी अधिक हास्यास्पद है।’

‘है। जरा बी किसी प्रकार की शिकायत न करना ही हमारे समाज का सुभद्र विधान है।’

अनुराधा पलभर मौन रहकर बोली, ‘यह विधान आप ही लोगों तक सीमित रहे, लेकिन जो विधान सबके लिए समान हे वह यह है कि लड़के से बढ़कर बी.ए.पास होना नहीं है। ऐसी बहु को घर में लाना उचित नहीं है।’

‘लेकिन लाना तो किसी-न-किसी को पड़ेगी ही। हम लोग जिस समाज के वातावरण में रह रहे हैं वहां बी.ए.पास किए बिना समाज सुरक्षित नही रहता। मन भी नहीं मानता और शायद गृहस्थी भी नहीं चलती। अनाथ बहनौत के लिए पेड़ के नीचे रहना मंजूर करने वाली बहू के साथ हम बनवास तो कर सकते है लेकिन समाज में नहीं रह सकते।’

अनुराधा की आवाज पलभर को तीखी हो उठी। बोली, ‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। आप इस किसी निष्ठुर विमाता के हाथ नहीं सौंप सकते।’

विजय ने कहा, ‘सो कोई डर नहीं। कारण सौंप देने पर भी कुमार हाथों से फिसलकर नीचे आ गिरेगा, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वह निष्ठुर है-अपनी भावी पत्नी की ओर से आपकी बात का तीव्र प्रतिवाद करता हूं। परिमार्जित रुचि के अनुकूल अदास अवहेलना के कारण मरझाई हुई आत्मीयता की बर्बरता उनमें रत्ती भर भी नहीं है। यह दोष आप उन्हें मत दीजिए।’

अनुराधा हंकार बोली, ‘प्रतिवाद आप जितना चाहे करे, लेकिन जरा मुझे मुरझाई हुई आत्मीयता का अर्थ तो समझा दीजिए।’

विजय ने कहा, ‘यह हम लोगों के बड़े सर्किल का पारिवारिक बन्धन है। उसका ? ‘कोड’ ही अलग है और शक्ल भी अलग है। उसकी जड़ रस नहीं खींचती। पत्तों का रंग हरा भी नहीं होने पाता कि पीलापन आने लगता है। आप गंवई-गांव के गृहस्थ घर की लड़की है-स्कूल-कॉलेज में पढ़कर पास नहीं हुई। किसी पार्टी या पिकनिक में सम्मिलित नहीं हुई इसलि इसका गूढ़ अर्थ मैं आपको समझा नहीं सकता। केवल इतना-सा आभास दे सकता हूं कि कुमार की विमाता आकर न तो उसे जहर पिलाने की तैयारी करेगी और न हाथ में चाबुक लेकर उसके पीछे ही पड़ जाएगी, क्योंकि वह आचरण परिमार्जित रुचि के भिन्न है। इसलिए इस सम्बन्ध में आप निश्चिन्त हो सकती है।’

अनुराधा ने कहा, ‘मैं उनकी बात छो़ड़े देती हूं। लेकिन वचन दीजिए कि स्वयं भी देखगें-भालेंगे। मेरी केवल इतनी ही प्रार्थना है।’

विजय ने कहा, ‘वचन देने को तो जी चाहता है, लेकिन मेरा स्वभाव और ही तरह का है, आदतें भी दुनिया से अलग है। आपके आग्रह को याद करके बीच-बीच में देखने-भालने की कोशिश करता रहूंगा, लेकिन जितना आप चाहती हैं उतना हो सकेगा-ऐसा लगता नहीं है। अच्छा, अब मैं खा चुका, जाता हूं। चलने की तैयारी करनी है।’

इतना कहकर वह उठ बैठा। बोला, ‘कुमार आपके पास ही रहेगा। घर छोड़ने के दिन आ जाए तो इस विनोद के साथ कलकत्ता भिजवा देना। जरूरत समझें तो उसके साथ संतोष को भी बिना किसी संकोच के भेज दें। आरम्भ में आपके साथ जैसा व्यवहार किया है, मेरा स्वभाव ठीक वैसा ही नहीं है। चलते समय फिर आपको विश्वास दिलाए जाता हूं कि मेरे घर कुमार से अधिक अनादर संतोष का नहीं होगा।’

मकान के सामने ही धोड़ा गाड़ी खड़ी है। सामान लादा जा चुका है। विजय गाड़ी पर चढ़ना ही चाहता हैकि कुमार ने आकर कहा, ‘बाबूजी, मौसी बुला रही है।’

अनराधा सदर दरवाजै के पास खड़ी थी। ‘प्रणाम करने के लिए बुलवा लिया फिर कब कर सकूंगी, मालूम नहीं।’ कहकर उसने गले में आचल डालकर दूस से प्रणाम किया। फिर उठकर खड़ी हो गई और कुमार को अपनी गोद के पाक खींचकर बोली, ‘दादीजी से कह दीजिएगा कि चिन्ता न करें। जितने दिन भी मेरे पास रहेगा, इसे किसी प्रकार की तकलीफ नहीं होगी।’

विजयने हंसकर कहा, ‘विश्वास होना कठिन है।’

‘कठिनाई किसके लिए है? क्या आपके लिए भी?’ कहकर वह हंस दी और दोनों की आंखें चार हो गई । विजय ने स्पष्ट देख लिया कि उसकी पलकें भीगी हुई है। मुंह झुकाकर उसने कही, ‘किन्तु कुमार को ले जाकर इसे कष्ट मत दीजिए। फिर कहने का अवसर नहीं मिलेगा, इसीलिए कह रही हूं। आपके घर की बात याद आते ही इसे भेजने को जी नहीं चाहता।’

‘तो मत भेजिए।’

उत्तर में वह एक निःश्वास लेककर चुप हो गई।

विजय ने कहा, ‘जाने से पहले आपको वायदे की एक बार फिर याद दिलाता जाऊं आपने वचन दिया हे कि जब कभी कोई आवश्यकता पड़ेगी तो आप मुझे पत्र लिखेगीं।’

‘मुझे याद है। मैं जानती हूं कि गंगोली महाशय से मुझे भिखारिन की तरह ही मांगना होगा। अंतर के सम्पूर्ण धिक्कार को तिलांजलि देकर ही मांगना पड़ेगा, लेकिन आपके साथ ऐसा नहीं है। जब जो भी चाहूंगी बिना किसी संकोच के आसानी के साथ मांग लूंगी।’

‘लेकिन याद रहे,’ कहकर विजय जाना ही चाहता था कि अनुराधा ने कहा, ‘आप तो भी एक वचन देते जाइए। कहिए कि आवश्यकता पड़ने पर मुझे भी बताएंगे।’

‘बताने के योग्य मुझे क्या आवश्यकता पड़ेगी अनुराधा?’

‘सो कैसे बता दू? मेरे पास औक कुछ नहीं है लेकिन आवश्यकता पड़ने पर तन-मन से सेवा तो कर सकती हूं।’

‘आप वह करने देंगी?’

‘मुझे कोई भी रोक नहीं सकता।’

प्रकरण 7

कुमार नही आया, यह सुनकर विजय की मां मारे भय के कांप उठी ‘यह केसी बात है रे? जिसके साथ लडाई है उसी के पाक लड़के को छोड़ आया?’

विजय ने कहा, ‘जिसके साथ लड़ाई थी वह पाताल मे जाकर छिप गया है। मां, किसकी मजाल है जो उसे खोज निकाले। तुम्हारा पोता अपने मौसी के पास है। कुछ दिु बाद आ जाएगा।’

‘अचानक उसकी मौसी कहां से आ गई?’

विजय ने कहा, ‘मां भगवान के बनाए हुए इस संसार में कौन कहां से आ पहुचता है कोई नहीं बता सकता। जो तुम्हारे रुपये-पैसे लेकर डुबकी लगा है, यह उसी गगन चटर्जी की छोटी बहन है। मकान से उसी की निकाल भगाने के लिए लाठी-सोटा और प्यादे-दरबान लेकर युद्ध करने गया था लेकिन तुम्हारे पोते ने सब गड़बड़ कर दिया। उसने उसका आंचल एसा पकड़ा कि दोनों को एक साथ निकाले बिना उस निकाला ही नहीं जा सकता था।’

मां ने अनुमान से बात को समझकर कहा, ‘मामूली होता है, कुमार उसके वश में हो गया है। उस लड़की ने उस खूल लाड़-प्यार किया होगा शायद। बेचारे को लाड़-प्यार मिला ही नहीं कभी,’ कहकर उन्होंने अपनी अस्वस्थता की याद करके एक गहरी सांस ली।

विजय ने कहा, ‘मैं तो वहा रहता था। धर के अंदर कौन किसे लाड़-प्यार कर रहा है, मैंने आंखों से नहीं देखा। लेकिन जब चलने लगा तो देखा कि कुमार अपनी मौसी को छोड़कर किसी तरह आना ही नहीं चाहता था।’

मां का सन्देह इतने पर भी नहीं मिटा। कहने लगी, ‘गंवइ-गांव की लड़कियां बहुत तरह की बातें जानती हैं। साथ न लाकर तूने अच्छा नहीं किया।’

विजय ने कहा, ‘मां, तुम खुद गंवई-गांव की लड़की होकर गंवई-गांव की लड़कियों कि शिकायत कर रही हो। क्या तुम्हें शहर की लड़कियों पर अंत में विश्वास हो ही गया?’

‘शहर की लड़किया ? उनके चरणों में लाखों प्रणाम,’ यह कहकर मां ने दोनों हाथ जोड़कर माथे से लगा लिए।

विजय हंस पड़ा। मां ने कहा, ‘हंसा क्या है रे? मेरा दुःख केवल मैं ही जानती हूं और जानते है वे,’ कहते-कहते आंखें डबडबा आई। बोली, ‘हम लोग जहां की है, वह गांव क्या अब रहे हैं बेटा? जमाना बिल्कुल ही बदल गया है।’

विजय ने कहा, ‘बिल्कुल बदल गया है। लेकिन जब तक तुम लोग जीती हो तब तक शायद तुम्हीं लोगों के पुण्य से गांव बने रहेंगे मां। बिल्कुल लोप नहीं होगा उनका। उसी की थोड़ी-सी झांकी अबकी बार देख आया हूं, लेकिन तुम्हें तो यह चीज दिखाना कठिन है, यही दुःख रह गया मन में।’ इतना कहकर वह ऑफिस चला गया। ऑफिस के काम के तकाजे से ही उसे यहां चला आना पड़ा है।

शाम को ऑफिस से लौटकर विजय भैया-भाभी सासे भेंट करने चला गया। जाकर देखा कि कुरुक्षेत्र का युद्ध छिड़ रहा है। श्रृंगार की चीजें इधर-उकर बिखरी पड़ी हैष भैया आरामकुर्सी के हत्थे पर बैठे जोर-जोर से कह रहे हैं, ‘हरगिज नहीं। जाना हो तो अकेली चली जाओ। ऐसी रिश्तेदारी पर मैं-आदि-आदि।’

अचानक विजय को देखते ही प्रभा एक साथ जोर से रो पड़ी। बोली, ‘अच्छा देवर जी, तुम्ही बताओ। उन लोगों ने अगर सितांशु के साथ अनीता का विवाह पक्का कर दिया तो इसमें मेरा क्या दोष? आज उसकी सगाई होगी। और यह कहते हैं कि मैं नहीं जाऊंगा। इसके माने तो यही हुए कि मुझे भी नहीं जाने देंगे।’

भेया गरज उठे, ‘क्या कहना चाहती हो तुम? तुम्हें मालूम नहीं था? हम लोगों के साथ एसी जालसाजी करने की क्या जरूरत थी इतने दिनों तक?’

माजरा क्या है? सहसा समझ पाने से विजय हतबु्द्धि-सा हो गया। लेकिन समझने में उसे अधिक देर न लगी। उसने कहा, ‘ठहरो-ठहरो, बताओ भी तो? अनीता के साथ सितांशु घोषाल को विवाह होना तय हो गया है। यही ना? आज ही सगाई पक्की होगी? आई एम थ्रो कम्पलीटली ओवर बोर्ड (मैं पूरी तरह से समुद्र में फेंक दिया गया)।’

भैया ने हुकर के साथ कहा, ‘हूं और यह कहना चाहती हैं कि इन्हें कुछ मालूम ही नहीं।’

प्रभा रोती हुई बोली, ‘भला मैं क्या कर सकती हूं देवर जी? भैया हैं, मां है। लड़की खूद सयानी हो चुकी है। अगर वह अपना वचन भंग कर रहे हैं तो इसमें मेरा क्या दोष?’

भैया ने कहा, ‘दोष यही कि वे धोखेबाज हैं, पाखंडी है और झूठे है। एक ओर जबान देकर दूसरी ओर छिपे-छिपे जाल फेलाए बैठे थे। अब लोग हसेंगे ओर कानाफूसी करेगें-मैं शर्म के मारे क्लब में मुंह नहीं दिखा सकूंगा।’

प्रभा उसी तरह रुआंसे स्वर में कहने लगी, ‘ऐसा क्या कहीं होता नहीं? इसमें तुम्हारे शर्माने की क्या बात है?’

‘मेरे शरमाने का कारण यह है कि वह तुम्हारी बहन है। दूसरे मेरी ससुराल वाले सब-के-सब धोखेबाज है, इसलिए, उसमें तुम्हारा भी एक बड़ा हिस्सा है इसलिए।’

भैया के चेहरे को देखकर विजय इस बार हंस पड़ा, लेकिन तभी उसने झुककर प्रभा के पैरों की धूल माथे पर लगाकर बड़ी प्रसन्नता से कहा, ‘भाभी भले ही कितने क्यों न गरजें। न मुझे क्रोध आएगा न अफसोस होगा। बल्कि सचमुच ही इसमें तुम्हारा हिस्सा हो तो मैं तुम्हारा आजीवन कुतज्ञे रहूंगा।’

फिर भैया की और मुड़कर बोला, ‘भैया, तुम्हारा नाराज होना सचमुच बहुत बड़ा अन्याय है। इस मामले में जबान देने के कोई मान नहीं होते, अगर उसे बदलने का मौका मिले। विवाह तो कोई बच्चों का खेल नहीं है। सितांशु विलायत से आई.सी.एस. होकर लौटा है। उच्च श्रेणी का आदमी ठहरा। अनीता देखने में सुन्दर है, बी.ए. पास है-और मैं? यहां भी पास नहीं कर सका और विलायत में भी सात-आठ वर्ष बिताकर एक डिग्री प्राप्त नहीं कर सका और अब लड़की की दुकान पर लड़की बेचकर गुजर करता हूं। न तो पद गौरव है, न कोई डिग्री। इसमें अनीता ने कोई अन्याय नहीं किया भैया।’

भैया ने गुस्से के साथ कहा, ‘हजार बार अन्याय किया है। तू क्या कहना चाहता है कि तुझे जरा भी दुःख नहीं हुआ?’

विजय ने कहा, ‘भैया, तुम बड़े ही पूज्य हो, तुमसे झूठ नहीं बोलूंगा। तुम्हारे पैर छूकर कहता हूं, मुझे रत्ती भर भी दुःख नहीं हुआ। अपने पुण्य से तो नहीं, किसके पुण्य से तो नहीं, किसके पुण्य से बचा सो भी नहीं मालूम। लेकिन ऐसा लगता है कि मैं बच गया। भाभी मैं ले चलता हूं। भैया चाहें तो रुठकर घर में बैठे रहें, लेकिन हम-तुम चलें। तुम्हारी बहन की सगाई में भरपेट मिठाई खा आएं।’

प्रभा ने उसके चेहरे की ओर देखकर कहा, ‘तुम मेरा मजाक उड़ा रहे हो देवर जी?’

‘नहीं भाभी, मजाक नहीं उड़ाता। आज मैं अन्तःकरण से तुम्हारा आशीर्वाद चाहता हूं। तुम्हारे वरदान से भाग्य मेरी ओर फिर से मुंह उठाकर देखे, लेकिन अब देर मत करो। तुम कपड़े पहन लो। मैं भी ऑफिस के कपड़े बदल आऊं।’

यह कहकर विजय जल्दी से जाना चाहता था कि भैया बोल उठे, ‘तेरे लिए निमंत्रण नहीं है। तू वहां कैसे जाएगा?’

विजय ठिठक कर ख़डां हो गया। बोला- ‘ठीक है। शायद यह शर्मिन्दा होंगे, लेकिन बिना बुलाए कहीं भी जाने में मुझे आज संकोच नहं है। जी चाहता है कि दौड़ते हुए जाऊं और कह आऊं कि अनीता, तुमने मुझे धोखा नहीं दिया। तुम पर न तो मुझे कोई क्रोध है, न कोई ईर्ष्या। मेरी प्रार्थना है कि तुम सुखी होओ। भैया, मेरी प्रार्थना मानो, क्रोध शान्त कर दो। भाभी को लेकर जाओ। कम-से-कम मेरी ओर से ही सही। अनीता को आशीर्वाद दे आओ तुम दोनों।’

भैया ओर भाभी दोनों ही हतबुद्धि से होकर एक दूसरे की और देखते लगे। सहसा दोनों की निगाहें विजय के चेहरे पर व्यंग्यं का वास्तव में कोई चिन्ह नहीं था। क्रोध या अभिमान के लेशमात्र भी छाया उसकी आवाज में नहीं थी। सचमुच ही जैसे किसी सुनिश्चित संकट के जाल से बच जाने से उसका मन शाश्वत आनंद से भर उठा था। आखिर प्रभा अनीता की बहन ठहरी। बहु के लिए यह संकेत लाभप्रद नहीं हो सकता। अपमान के धक्के से प्रभा का ह्दय एकदम जल उठा। उसने कुछ कहना चाहा लेकिने गला रुंध गया।

विजय ने कहा, ‘भाभी, अपनी सारी बातें कहने का अभी समय नहीं आया है। कभी आएगा या नहीं, सो भी मालूम नहीं, लेकिन अगर किसी दीन आया तो तुम भी कहोगी कि देवरजी तुम भाग्यवान हो। तुम्हे मैं आशीर्वाद देती हूं।’

समाप्त 

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अनुराधा
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लड़की के विवाह योग्य आयु होने के सम्बन्ध में जितना भी झूठ बोला जा सकता है, उतना झूठ बोलने के बाद भी उसकी सीमा का अतिक्रमण किया जा चुका है और अब तो विवाह होने की आशा भी समाप्त हो चुकी है। ‘मैया यह कैसी बात है?’ समाज में अब यह मजाक भी निरर्थक समझा जाने लगा है। ऐसी ही दशा है बेचारी अनुराधा की। और दिलचस्प बात यह है कि घटना किसी प्राचीन युग की नहीं बल्कि एकदम आधुनिक युग की है। इस आधुनिक युग में भी केवल दान-दहेज, पंचाग, जन्म-कुंड़ली और कुल-शील की जांच-पड़ताल करते-करते एसा हुआ कि अनुराधा की उम्र तेईस को पार कर गई,

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