पार्टी में रसूख और सत्ता में भागीदारी के मामले में अरविन्द केजरीवाल और कुमार विश्वास में अब तुलना नही की जा सकती है। ‘आप’ का मतलब अब अरविन्द है जबकि कुमार पार्टी के एक स्टार प्रचारक से ज्यादा कुछ नही रहे लेकिन युवाओं में लोकप्रियता को लेकर अगर अरविन्द 20 है तो कुमार 19 नही हैं। कुमार आज भी हिंदी पट्टी के एकलौते ऐसे नेता हैं जिनके सोलो प्रोग्राम देखने के लिए टिकट खरीदकर श्रोता खचाखच भरे हॉलों में जुटते हैं। जयपुर का 15 अगस्त का ‘जैम पैक्ड’ शो उनकी बढ़ती लोकप्रियता की ताजा मिसाल है।
‘आप’ में वामपंथी और नक्सल विचारधारा के पत्रकारों, चिंतकों के बढ़ते प्रभाव के चलते ‘वन्दे मातरम्’ वाले कुमार का असर घटा है। कश्मीर का मुद्दा हो, गुजरात में दलित राजनीति हो या पंजाब में प्रत्याशियों का चुनाव, पार्टी के किसी अहम फैसले में कुमार की रायशुमारी फिलहाल ना के बराबर है। यहाँ तक कि आईटीओ के पार्टी मुख्यालय में भी कुमार का अब कोई कार्यालय नही रहा। कहने को एक दरवाज़े पर काग़ज़ पर टाइप किया हुआ उनका नाम चस्पा है। शायद इसीलिए कुमार पार्टी दफ्तर में देखे भी नही जाते हैं।
अपने लोकप्रिय गीत ‘होठों पर तिरंगा हो’ और वन्दे मातरम के नारों के नये अंदाज़ से कुमार ने राम लीला मैदान पर अरविन्द के लिए ज़बरदस्त भीड़ जुटाई थी। फिर प्रशांत भूषण के दबाव में कुमार को एक विशेष उदेश्य से वन्दे मातरम के नारे बुलन्द करने से मना किया गया। तब भूषण के पैसे से महफिलें सज रही थीं। तब भूषण और उनके पिता का बोलबाला था लेकिन प्रशांत भूषण 2014 में दिल्ली के चुनाव के बाद जब ‘ईगो वार’ के चलते अरविन्द से अलग हुए तो भी पार्टी ने भूषण के चेलों और विचारधारा को नही छोड़ा।
आज पार्टी के थिंकटैंक में भूषण सरीखे वामपंथियों और नक्सली चिंतकों का प्रभुत्व है। अरविन्द खुद अपनी राजनैतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए इस थिंक टैंक के आगे अक्सर समझौता कर लेते हैं। अरविन्द और मोदी के बीच ज़रूरत से ज्यादा वाकयुद्ध के पीछे भी इस थिंक टैंक की अहम भूमिका है। सच तो ये है कि अगर कुमार और मनीष सिसोदिया को अलग कर दें तो आज पार्टी को वो थिंकटैंक चला रहा है जो संघ से जन्मजात नफरत करता है और जो कश्मीर में जनमत संग्रह का पक्षधर है। पूर्वाग्रहों से ग्रसित ये थिंकटैंक भूल गया है कि कन्हैया की ‘आजादी’ का विरोध देश में संघी ही नही वो ‘सॉफ्ट राईट’ युवा वर्ग भी कर रहा है जिसने दिल्ली में 67-3 के ऐतिहासिक जीत वाली आप को विश्विद्यालय के छात्र संघ चुनाव में जीरो का अंक दिया था।
वक्त आ गया है कि अरविन्द को अपने थिंक टैंक पर थिंक करना होगा। पार्टी को अल्ट्रा लेफ्ट और अल्ट्रा राईट दोनों से बचना होगा। बेहतर होगा पार्टी भ्रष्टाचार विरोधी अपने मूल संग्राम पर फिर वापस लौटे। बेहतर होगा अरविन्द अपनी 50वीं सालगिरह में नही 55वीं सालगिरह पर लालकिले पर चढ़ने का लक्ष्य निर्धारित करें क्योंकि कभी कभी देरी में ही भलाई होती है। अरविन्द भ्रष्टाचार के विरोध वाले रास्ते पर आगे बढ़ें क्योंकि वो भारतीय राजस्व सेवा के ध्वजा धारक भी रहे हैं। वे राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत केन्द्रीय अधिकारी रहे हैं। उन्हें कश्मीर में बुरहान वानी से हमदर्दी रखने वाले अलगावादियों से दूरी रखनी होगी। उन्हें दलितों को उकसा कर गुजरात में जीत दर्ज करने की व्यूहरचना से अलग दिखना होगा। अरविन्द को नई लकीर खींचनी है ...लेकिन वो 'चालूछाप' राजनीति में लकीर के फ़क़ीर बनते जा रहे हैं।