अस्ताचल रवि, जल छलछल-छवि,
स्तब्ध विश्वकवि, जीवन उन्मन;
मंद पवन बहती सुधि रह-रह
परिमल की कह कथा पुरातन ।
दूर नदी पर नौका सुन्दर
दीखी मृदुतर बहती ज्यों स्वर,
वहाँ स्नेह की प्रतनु देह की
बिना गेह की बैठी नूतन ।
ऊपर शोभित मेघ-छत्र सित,
नीचे अमित नील जल दोलित;
ध्यान-नयन मन-चिंत्य-प्राण-धन;
किया शेष रवि ने कर अर्पण ।