क्या आपने राल्फ वाल्डो एमर्सन की बुक 'Self Reliance' पढ़ी है!
मुझे लगता है कि महिलाओं में आत्मनिर्भरता बहुत जरूरी है। महिलाओं को अपनी क्षमताओं को पहचान कर अपने प्रयासों पर भरोसा करना होगा। स्वाबलंबी बनने के लिए हमें परिस्थितियों को अपने वश में करना जरूरी है।
तू ही जननी, तू है सर्वथा।
तू बेटी है , तू ही आस्था।
हे नारी मत कर जीवन वृथा।
तू परंपरा, संस्कार, तू ही प्रथा।
ये सब सुन-सुनकर महिला खुद ही सोचने लगी कि वो अबला है।
आत्मनिर्भरता की दिशा में पहल कदम है शैक्षणिक आत्मनिर्भरता। अगर एक लड़की को पढ़ाते है तो ना केवल पूरा परिवार साक्षर बनता है बल्कि उसमे आत्मविश्वास भी आता है। सोचने समझने की शक्ति विकसित होती है जो उसके विकास का मार्ग प्रशस्त करती है। उसे समझ आता है कि 'बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ' केवल एक नारा नही बल्कि एक संकल्प है
एक महिला को आत्मनिर्भर होने के लिए सबसे ज़्यादा आर्थिक रूप से मजबूत होना बहुत जरूरी है। क्योंकि आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति का आज के समय में ना कोई अस्तित्व होता है ना ही उसके विचारों का कोई महत्व।
हाँ! आप कह सकते हैं कि ऑनलाइन एप पर अपना अस्तित्व, अपनी क्षमता कोई भी साबित कर सकता है। पर सखी, सच्चाई यह है कि उससे मन तो तृप्त होता है पर पापी पेट नही।
अगर महिलाओं को अपनी स्थिति में सुधार लाना है तो पहले अपनी आर्थिक अथिति मजबूत करनी होगी। बच्चे का ऐडमिशन कहाँ कराना है? लड़की की शादी कैसे घर में करनी है आदि उसकी बांते तभी सुनी जाएंगी, जब वह उसमें कुछ आर्थिक सहयोग कर पायेगी। हालांकि महिला तो पूरा घर ही सम्हालती है बिना सहयोग के, पर उससे उन्हें वो मान नही मिल पाता।
"पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।।
क्या कहा? आज जब लड़कियाँ, महिलाऐं नौकरी कर रहीं हैं, व्यवसाय संभाल रही है, लेकिन क्या वो सचमुच आत्मनिर्भर हैं?
सच कहा आपने, हमारे सपनों को पंख तो मिल गए लेकिन आसमान नहीं मिला, रास्ते मिल गए पर वो मंजिल नही मिली, जिसकी तलाश थी। उसे पाने के लिए तो महिलाओ को भावनात्मक- सामाजिक आत्मनिर्भरता और निर्णय लेने की आज़ादी भी कमानी होगी।
क्या कह रहै हैं ! कभी-कभी तुम्हे लगता है कि महिलाओं ने नौकरी कर के अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली? नौकरी भी करतीं है और घर का काम भी पूरा, दोहरी जिम्मेदारी निभाते-निभाते कई बार अवसाद में चली जाती हैं। क्योंकि घर का काम तो पुरूष नहीं करेंगे ना। ये उनका काम नहीं है, सदियों से यही प्रथा है।
तो सुनो! सदियों से तो महिलाएं भी बस चूल्हा-चौका ही करती थीं। शादी-ब्याह , मकान बनाने में पुरुषों को या तो अपनी कोई संपत्ति बेचने पड़ती थी या कर्ज़ लेना पड़ता था। आज तो हम बराबर ही उनका साथ देतीं है। हम तो नहीं कहते कि सदियों से कभी हमने अपनी बचत या कमाई खर्च नही की तो अब कैसे करें। तो जब महिलायें कंधे से कंधा मिलाकर सब जिम्मेदारी निभा रहीं है तो पुरूषों से भी यही अपेक्षा करती हैं, तो क्या गलत है?
जरुरत सोच में परिवर्तन लाने की है। सामाजिक बंधन, संस्कार सब जरूरी है पर आत्मसम्मान की कीमत पर नहीं। इसलिए महिलाओं को न केवल आर्थिक रूप से बल्कि हर तरह से आत्मनिर्भर होना जरूरी है।
"उठ खड़ी हो अग्निशिखा सी,
फिर रोशन करने को ये जहां।
जा प्राप्त कर अपने स्वप्न को,
हो आत्मनिर्भर तू यहां।
(मेरी कविता)
आत्मनिर्भरता से एक बात और याद आई। कोरोना काल में यह शब्द इतना ट्रेंड हुआ कि ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी ने 'आत्मनिर्भरता' को 'हिंदी वर्ड ऑफ द ईयर 2020' घोषित कर दिया।
शब्द.इन ने हमें मानसिक रूप से तो आत्मनिर्भर कर ही दिया ना!😊
गीता भदौरिया