देवी दुर्गा की प्रकताये कथा अनुसार हिरण्याक्ष के वंश में एक माह शक्तिशाली दैत्य हुआ जो रुरु का पुत्र था उसका नाम दुर्गमासुर था । उसने ब्रह्मा जी की घोर तपस्या कर वर प्राप्त किया । उसके बाद उसने घोर अन्याय प्रारंभ किया । सभी देवता और पृथ्वी उससे त्रस्त हो गयी थी । अब उसके मन मे इंद्र बनने की लालसा उत्पन्न हुई उसने इंद्र की नगरी अमरावती को घेर लिया । उसके कारण सभी देवता शक्तिहीन हो गए । फलस्वरूप सभी देवताओं ने स्वर्ग का त्याग कर दिया । और दुर्गमासुर के भय के कारण पर्वतों और कंदराओं में छिपकर रहने लगे और अपनी रक्षा हेतु माता अम्बिका की स्तुति और आराधना करने लगे । देवताओं की स्तुति से प्रसन्न होकर देवी प्रकट हुई और देवताओं को निर्भीक होने का आशिर्वाद दिया ।
तभी दुर्गमासुर के दूत ने यह सब बातें दुर्गमासुर को बतायी की देवताओं की रक्षा के लिए एक दिव्यसुन्दरी देवी प्रकट हुई है । जो नाना प्रकार के अस्त्रों-शास्त्रों से सुशोभित है ।
जो मंदहस लिए हुए है और सिंहसन पर बैठी हुई है । दैत्यराज आप उनको देख सकते है । उनके शरीर की कांति से ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे एक नवीन सूर्य उग आया हो । वह देवी अत्यंत दिव्य है और संसार की सभी शक्तियां उसके अंदर समाहित है ऐसा प्रतीत हो रहा है ।
दुर्गमासुर ने यह सुनकर की देवताओं की रक्षा के लिए देवी प्रकट हुई है । अत्यंत क्रोधित हुआ और अपनी सेना अस्त्र सत्र के साथ युद्ध के लिये निकल पड़ा ।
पास जाकर उसने देवी को देखा और क्रोध में भरकर आक्रमण का आदेश दे दिया । तब देवी और दुर्गमासुर की सेना के साथ घोर युध्द हुआ और देवी दुर्गमासुर के सभी अस्त्रों को खेल में ही काट देती थी । जिससे दैत और क्रोधित होता । फिर एक दिन देवी ने क्रोध में भरकर दैत्य की समस्त सेना को मात्र अपनी क्रोधाग्नि से ही भस्म कर दिया । तत्प्रचात देवी ने दुर्गमासुर का वध कर दिया
जिसके बाद संसार मे देवी दुर्गा दुर्गविनाशनी के नाम से विख्यात हुई ।