प्रधानमंत्री मोदी चौतरफा घिरे हैं और यही उनकी सफलता है। क्योंकि जिस नेता को केन्द्र को रखकर समूची राजनीति सिमट गई है। वह नेता जनता की नजर में भारतीय राजनीति की खलनायकी में खलनायक होकर भी नायक ही दिखायी देगा। क्योंकि राजनीतिक सत्ता को चुनौती देने की स्थिति में जनतंत्र है नहीं और राजनीतिक लोकतंत्र अपने गीत गाने के लिये वक्त-दर वक्त नायक खोज कर खुद को पाक साफ दिखाने से चूका नहीं है। तो सवाल यह नहीं है कि कांग्रेस हो या वामपंथी या फिर मुलायम या मायावती, संसद में सभी की जुबां पर मोदी हैं तो सड़क पर ममता और केजरीवाल के निशाने पर भी मोदी हैं। तो मोदी का कद झटके में सियासी पायदान पर सबसे उपर है। और जो दबाव धंधे वालों से लेकर गांव-खेत में दिखायी दे रहा है, उसकी बदहाली के लिये वही राजनीति जिम्मेदार है, जिसे मोदी डिगाना चाहते हैं। तो क्या पहली बार सत्ता ही जनवादी सोच लिये भ्रष्ट पारंपरिक राजनीति को ही अंगूठा दिखा रही है।
यानी इतिहास के पन्नों को पलटें तो जेपी चाहे संपूर्ण क्रांति का नारा देकर चूक गये। अन्ना हजारे चाहे जनलोकपाल की गीत गाकर चूक गये। लेकिन मोदी कालाधन का राग गाते हुये चूकेंगे नहीं क्योंकि सत्ता उनके पास है। और वह सीधे राजनीतिक सत्ताधारियों के तौर तरीकों के खिलाफ बोल ही रहे है। यानी राजनीतिक दलों की जिस कमाई पर पहले सत्ता खामोश रहती थी, अब मोदी ने उस डिब्बे को खोल दिया है। तो चिटफंड से लेकर दलाली और कैश चंदे से लेकर उघोगों को लाभ पहुंचा कर कमाई पर भी सीधे बोल है। तो क्या ये रास्ता राजनीतिक सफाई का साबित होगा। या फिर राजनीति के कटघरे में मोदी अभिमन्यु साबित होंगे। क्योंकि तीन सवाल नोटबंदी के बाद देश को डरा भी रहे हैं। पहला जब सिस्टम भ्रष्ट है तो वही सिस्टम भ्रष्टाचार को खत्म कैसे करेगा। दूसरा ,जब राजनीतिक सत्ताधारियों में लूट का समाजवाद रहा है तो मोदी का जनतंत्र कैसे काम करेगा। और तीसरा 1991 से कन्ज्यूमरइज्म यानी उपभोक्तावाद के आसरे ग्रोथ देखने वाले झटके में सोशल जस्टिस कैसे करेंगे । जाहिर है तीनों सवाल 2019 के लोकसभा चुनाव के लिये रेफरेन्डम यानी जनमत संग्रह वाले हो सकते हैं। और उससे पहले कमोवेश हर राज्य के चुनाव में मोदी इसी नोटबंदी के आसरे आसमानता का जिक्र कर चुनावी जमनत संग्रह वाले हालात बनाने की दिशा में जायेंगे भी। क्योंकि सत्ता संभालने के 30 महीने बाद मोदी जिस मुहाने पर खडे है, वहां से सत्ता बरकरार रखने की जोडतोड़ में फंसना मोदी का इतिहास के पन्नों में गुम हो जाना साबित होता। और मोदी इस सच को समझ रहे हैं कि उन्होंने जो जुआ खेल ा है वह है तो सही लेकिन है वह जुआ ही। जिसे अभी तक रईस खेलते रहे पहली बार आम जनता भी इस सियासी जुए में भगीदार हैं।
लेकिन मौजूदा वक्त में अगर पीएम मोदी को क्लीन चीट दे भी दी जाये तो क्या बीजेपी या बीजेपी के साथ जुडे किसी भी चेहरे को लेकर कोई कह सकता है कि कोई दागदार नहीं है। वह चेहरा चाहे मध्यप्रदेश सीएम शिवराज से लेकर छत्तीसगढ सीएम रमन सिंह या राजस्धान की सीएम वसुंधरा राजे सिंधिया का हो। या फिर पंजाब के बादल। बिहार के पासवान , महाराष्ट्र के उद्दव ठाकरे या यूपी में बीएसपी छोड बीजेपी में शामिल हुये स्वामी प्रसाद मौर्य का। यानी चेहरे चाहे बीजेपी के हो या बीजेपी के साथ अगल अलग राज्यों में साथ खडे चेहरे। दागदार तो हर कोई है। कोई व्यापम तो कोई पीडीएस। कोई ललित मोदी। तो पंजाब, बिहार. महाराष्ट्र और यूपी में बीजेपी के साथियों का दामन भी पाक साफ नहीं है। और मोदी की नोटबंदी के खिलाफ कतारों में खड़े
मुलायम हो या मायावती। ममता बनर्जी हो या करुणानिधि या जयललिता। जब देश में हर राजनेता का दामन दागदार है तो फिर राजनीतिक ईमानदारी का पाठ नोटबंदी के जरीये पढाया जा सकता है इसे सच माने कौन। क्योंकि मोदी खुद उस राजनीतिक तालाब में खड़े हैं, जहां कालाधन राजनीति की जरुरत है। इसीलिये बीते दस बरस में 3146 करोड़ से ज्यादा कैश राजनीतिक दलों ने चंदे के तौर पर लिया। और किसी भी राजनीतिक दल ने कैश की जानकारी चुनाव आयोग को नहीं दी । फिर चुनाव आयोग के मुताबिक 20 हजार से ज्यादा कैश लेने पर जानकारी देनी होती है। तो हर राजनीतिक दलों ने सारे कैश 20 हजार से कम बताये। यानी किसी भी राजनीतिक दल ने नहीं कहा कि कैश 20 हजार से ज्यादा लिया। मायावती ने तो नब्ब फिसदी चंदा कैश में लिया। और हर से सिर्फ 20 हजार रुपये से कम बतायें। को क्या राजनीतिक सफाई की दिशा में मोदी बढ़ रहे हैं। या फिर प्रधानमंत्री ने चाहे अनचाहे विपक्ष को ही एक ऐसा हथियार दे दिया है जो सरोकार का सवाल उठाकर अभी तक के अपने दाग को इसलिये धो सकते हैं क्योंकि जनता परेशान हैं। इन्फ्रास्ट्रक्चर है नहीं। निर्णय लागू कराने में सिस्टम सक्षम नहीं है।
यानी जिस राजनीतिक व्यवस्था से लोगों का मन टूट रहा था वह मन फिर से समाधान के लिये उसी राजनीतिक व्यवस्था की तरफ देखने को मजबूर हो रहा है। जबकि जनता के पैसे पर सबसे ज्यादा रईसी राजनेता ही करते हैं। मसलन कुल 4120 विधायक और 426 एमएलसी है यानी कुल 4582 विधायक, जिन्हे औसत प्रतिमाह 2 लाख वेतन और भत्ता प्रतिमाह मिलता है । जिसे जोड़ दें तो 91,640000 रुपये बनते हैं। यानी सालाना करीब 1100 करोड । इसी तर्ज पर अगर सांसदों का भी हाल देख लें । तो लोकसभा और राज्यसभा मिलाकार कुल 776 सांसदों को हर महीने औसतन 5 लाख रुपये वेचन और भत्ते केतौर पर मिलता है। जिसे जोड़े तो 38 करोड 80 लाख रुपये होते हैं। यानी लाना 465 करोड, 360 लाख रुपये। यानी विधायकों और सांसदों के वेतन भत्ते को मिला दे तो करीब 15 अरब 65 करोड 60 लाख रुपये होंगे। और इसमें आवास , यात्रा भत्ता, इलाज, विदेशी सैर सपाटा शामिल नहीं है। लेकिन सुविधाओं की पोटली यही खत्म नहीं होती बल्कि हर चुने हुये नुमाइन्दे को सुरक्षा चाहिये। सुरक्षा के लिहाज से हर विधायक को 2 बॉडीगार्ड और एक सेक्शन हाउस गार्ड यानी 5 पुलिस कर्मी। तो कुल 7 सुरक्षाकर्मी एक विधायक के पीछे रहते हैं। हर पुलिस कर्मी को औसतन 25 हजार रुपये के लिहाज से कुल एक लाख 75 हजार होते हैं। यानी कुल 4582 विधायकों पर 1 लाख 75 हजार के लिहाज से हर महीने 80 करोड 18 लाख रुपये होते हैं। और सालाना 9 अरब 62 करोड 22 लाख रुपये। इसी तर्ज पर अगर सांसदों की सुरक्षा में लगे सुरक्षाकर्मियों के खर्च को जोड़ लें तो सांसदों की सुरक्षा में हर बरस 164 करोड रुपये खर्च होते हैं। इसके अलवा पीएम सीएम कुछ मंत्री और कुछ राजनेताओं को जेड प्लस की सुरक्षा मिली हो होती है, उसके लिये 16 हजार सुरक्षाकर्मियों की तैनाती देश में होती है। जिनपर सालाना खर्चा 776 करोड़ के करीब होता है। यानी कुल 20 अरब का खर्चा चुने हुये नुमाइन्दो की सुरक्षा पर होता है। यानी हर साल चुने हुये नेताओ पर 50 अरब खर्च हो जाता है। और इस फेहरिस्त में राज्यपाल, पूर्व नेताओं की पेंशन, पार्टी अध्यक्ष या पार्टी नेता या फिर जिन नेताओं को सरकारें मंत्रियो का दर्जा दे देती है, अगर उन पर खर्च होने वाला देश या कहे जनता का पैसा जोड़ दिया जाये तो करीब 100 अरब रुपया खर्च हो जाता है। अब ये ना पूछिएगा गरीबों को या जनता को ही इससे मिलता क्या है।