भारत के शीर्षस्थ गायकों में से एक भारत रत्न पंडित भीमसेन जोशी के बेटे ने अपनी नई किताब में पंडितजी के निजी जीवन पर कई बड़े खुलासे किये है. परिवार में सबसे बड़े बेटे राघवेंद्र जोशी ने लिखा है कि उनके पिता यूँ तो 50 साल तक संगीत के क्षितिज पर रहे लेकिन उन्होंने कभी भी उनके आंसुओं को नही पोंछा. और जब पोछा तो काफी देर हो चुकी थी. राघवेंद्र पहली बार खुलासा करते हैं कि पंडितजी ने अपने नौकरों तक को मकान दिलवाए लेकिन अपने बच्चों की देखभाल के लिए उनके पास कभी वक्त नहीं रहा.
सौतेली माँ के दंश से जीवन भर आहत रहे राघवेंद्र
दरअसल राघवेंद्र , पंडितजी की पहली पत्नी से बेटे थे.यूँ तो राघवेंद्र घर में सबसे बड़े थे लेकिन जब पंडितजी ने दूसरी शादी कर ली तो पहला परिवार एक तरह से अनाथ हो गया. राघवेंद्र ने रुला देनी वाली इस आत्मकथा में वो क्षण साझा किये हैं जब दुनिया की नज़र से खुद को बचाने के लिए पंडितजी ने अपने ही बेटे को मंच के नज़दीक नही आने दिया. राघवेंद्र अपने पिता से मिलने के लिए तरसते रहे पर जब भी हिम्मत कर के घर गए तो सौतेली माँ निष्ठुर होकर बाप-बेटे के बीच में दीवार बन गयी.1944 में पंडितजी का पहला विवाह अपनी रिश्तेदारी में सुनंदा के साथ हुआ. उनसे उनके चार बच्चे थे जिसमे राघवेंद्र सबसे बड़े और बाद में दो बेटी और एक और बेटा हुआ. लेकिन ज्यूँ ज्यूँ भीमसेन जोशी की शोहरत बड़ी वो और भी बड़े होते गए. 1951 में उन्होंने नाट्य मंच की अपनी सहयोगी कलाकार वत्सला मुधोलकर से विवाह किया. उस दौर में मुम्बई प्रेसीडेंसी में बहु विवाह पर प्रतिबन्ध था. पंडितजी, पहली पत्नी को तलाक न देकर दोनों के साथ रहना चाहते थे इसलिए इस क़ानून से बचने के लिए वे नागपुर स्टेट में आकर सेटल हो गए. लेकिन धीरे धीरे पहली पत्नी से दूरियां बढ़ती गयी और इसका असर राघवेंद्र और भाई-बहनो पर पड़ा.
" जब हम घर चलाने के लिए पिताजी से पैसा लेने के हर महीने नागपुर वाले घर जाते थे तो बहुत अपमान का सामना करना पड़ता था. मेरी सौतेली बहने या माँ, पिताजी से कभी मिलने नही देती थीं. मुझे छोटी से छोटी चीज़ के लिए प्रताड़ित किया जाता था. उनके घर के ग़ुलाम शायद मुझसे से ज्यादा बेहतर स्थिति में थे. इसलिए जैसे ही मुझे नौकरी मिली मैंने नागपुर जाना छोड़ दिया. पिता के प्रति मेरा सम्मान था पर सौतेले रिश्तों के लिए नही, " राघवेंद्र लिखते हैं.
जब राघवेंद्र का हाथ पकड़ रो दिए भीमसेन जोशी
पिता-पुत्र के एक और भावुक प्रकरण में राघवेंद्र किताब में आगे लिखते हैं," एक बार जब पड़वा पर्व के मौके पर मै नागपुर गया तो सौतेली बहन ने ये कहकर दरवाजे के बाहर रोक दिया कि पिताजी कुछ बच्चों को संगीत का अभ्यास करा रहे हैं. मुझे उनकी तान सुनाई पड़ रही थी. वो राग अभोगी का अभ्यास करा रहे थे. मुझे पता लगा कि भीतर कुमार गन्धर्व के बेटे भी पंडितजी से शास्त्रीय संगीत के गुर सीख रहे हैं. काफी देर मैं बाहर ही खड़ा रहा ...तब कहीं जाकर पिताजी को मेरी भनक लगी और वो खुद ही बाहर आगये और मुझे देखकर मुस्कुराए. मैंने उनके पैर छुए और उन्हें पर्व के अवसर पर रामफल भेंट किया. लेकिन सम्भवता सौतेली बहन और माँ ने उन्हें ये रामफल खाने नही दिया. "
राघवेंद्र कहते हैं कि पंडितजी उन्हें चाहते थे लेकिन वो माँ वत्सला की गिरफ्त में ऐसा कैद थे कि ज़िन्दगी भर भीतर ही भीतर एक पीड़ा के साथ जिए. बीमारी के दिनों में एक बार राघवेंद्र को उनसे अकेले मिलने का मौका मिला. तब राघवेंद्र ने बिस्तर पर पड़े पिता का हाथ पकड़ लिया. " मैंने कहा...भीम अन्ना ..आप जब राग अभोगी या भैरवी गाते हैं तो श्रोता रो पड़ते हैं..कभी आप भी हमारी इस दशा पर रोये हैं. ये सुनकर उन्होंने मेरा हाथ ज़ोर से पकड़ने की कोशिश की...उनकी आँख में आंसू थे और वो धीमे से मेरे कान में फुसफुसाए ..अगर वाद्य के तार किसी और के हाथ में हो...तो जीवन में सिर्फ कोलाहल सुनाई देता है."
मूल पुस्तक मराठी में लिखी गयी है. अंग्रेजी संस्करण के अंश हिंदी में दीपक शर्मा ने अनुवादित किये हैं. राघवेंद्र अपने माता -पिता भीमसेन और सुनंदा के साथ अपने गांव बेलगाम में, तस्वीर साल 1955 की.