नई दिल्लीः गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज का सिस्टम अगर क्राइसिस मैनेजमेंट में फेल हुआ तो इसकी तह में घोर करप्शन है। जिस मेडिकल कॉलेज के संचालन के लिए सरकार के स्तर से ढेर सारा एडमिनिस्ट्रेटिव स्टाफ नियुक्त किया गया है, उस कॉलेज की बागडोर प्राचार्य डॉ. राजीव मिश्रा की बीवी के हाथों संचालित होने का खुलासा हुआ है। मैडम का हर हुक्म बजाने में प्रशासनिक स्टॉफ मशगूल हो जाता था। यह बात कॉलेज के कुछ चिकित्सकों और अन्य स्टाफ ने इंडिया संवाद से बातचीत में स्वीकार की है। तमाम आदेश प्राचार्य के घर से फोन पर ही जारी हो जाते थे। पूरा स्टाफ प्राचार्य की बीवी से परेशान रहता था। अब प्राचार्य ने अपनी बीवी को क्यों इतना पॉवरफुल बना रखा था, यह वही बता सकते थे। सपा सरकार में अखिलेश का बेहद करीबी होने के चलते गोरखपुर में प्राचार्य की पोस्टिंग पाए राजीव का खौफ मातहतों के सिर चढ़कर बोलता था। इस नाते उनकी बीवी का वचन ही स्टाफ के लिए आदेश होता था। लूटखसोट का आलम यह रहा कि प्राचार्य की बीवी ने कैंपस में मूंगफली बेचने वालों तक से महीने के पैसे बांध रखे हैं। इससे पहले नॉन पीजी रेजीडेंट से अवैध वसूली के आरोप भी सामने आ चुके हैं।
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मेडिकल कॉलेज में पटरी से सिस्टम कैसे उतरा, इसको लेकर प्राचार्य को घेरने वाले इंडिया संवाद के तीन सवाल
प्राचार्य से सवाल 1- सस्ते की जगह महंगे सिलेंडर की खरीद क्यों
दरअसल प्राचार्य डॉ. राजीव मिश्रा व उनकी बीवी ने मेडिकल कॉलेज को लूट का अड्डा बना लिया था। गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में लिक्विड आक्सीजन की उपलब्धता काफी आसान है। यह आक्सीजन सस्ती भी होती है। सूत्र बताते हैं कि लिक्विड आक्सीजन सप्लाई करने वाली कंपनी के प्रतिनिधि को टेंडर प्राचार्य की ओर से देने में भेदभाव किया जाता रहा। वहीं 35 फीसद महंगी सिलेंडर आक्सीजन की सप्लाई के लिए पुष्पा फर्म को टेंडर दे दिए गए। यही पुष्पा फर्म ने 66 लाख रुपये बकाए होने पर सप्लाई रोक दी। जिसके चलते 50 से ज्यादा बच्चे असमय काल के गाल में समा गए। सूत्र बताते हैं कि कमीशन के चक्कर में रोजाना करीब सवा सौ सिलेंडर मंगवाए जाते रहे। इससे पहले करीब साठ सिलिंडर ही रोजाना आते थे। लेकिन हाल के महीनों में यह संख्या दोगुनी कर दी गई।
लाख टके का सवाल है कि जब लिक्विड आक्सीजन की कीमत सिलेंडर वाली आक्सीजन से करीब 35 फीसद कम है। तो फिर महंगे सिलेंडर को खरीदने में दिलचस्पी क्यों ली गई। जाहिर सी बात है कि इसमें कमीशन का चक्कर ही रहा।
सवाल 2- भुगतान मिलने पर भी क्यों लटकाए रखा फर्म का पैसा
गोरखपुर जांच के लिए पहुंचे पहुंचे प्राविधिक एवं चिकित्सा मंत्री आशुतोष टंडन और स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह ने भी स्वीकार किया कि ऑक्सीजन आपूर्ति ठप होने की बात सामने आई है। डीलर ने एक अगस्त को भुगतान के लिए पत्रव्यहार किया था। जिस पर एक्शन के लिए पांच अगस्त को डीजी चिकित्सा को निर्देश दे दिए गए थे। वहां से सात अगस्त को पैसा प्रिंसिपल को मिला, लेकिन भुगतान 11 अगस्त को हुआ।
अगर मंत्री की बात सही तो फिर सवाल उठता है कि जब प्राचार्य को पैसा मिल गया तो फिर क्यों भुगतान में चार दिन की देरी क्यों किए। क्या कमीशन का मामला सेट करने के चक्कर में यह देरी हुई। जिसके चलते बच्चों को असमय काल के गाल में समाना पड़ गया।
सवाल 3- हालात हैंडल करने की जगह भाग गए प्रिसिंपल
जिस प्राचार्य को बिगड़े हालात को काबू में करने के लिए जी-जान लगा देना चाहिए था, वह शख्स बच्चों की मौत होने पर सिस्टम को बेबस छोड़कर भाग गया। जी हां डॉ. राजीव मिश्रा को पहले ही पता चल गया था कि उनकी लापरवाही के कारण सिलेंडर से आक्सीजन की आपूर्ति का मामला फंस गया है। अब संकट का समय है। वैकल्पिक इंतजाम करने की जगह वे मेडिकल कालेज से भाग खड़े हुए।
दैनिक जागरण ने भी किया इशारा
दैनिक जागरण ने भी प्राचार्य राजीव मिश्रा की कार्यशैली पर सवाल खड़े हैं। हालांकि अखबार ने रिपोर्ट मे नाम का उल् लेख तो नहीं किया है मगर एक बड़ा अफसर लिखकर जरूर इशारा किया है। इससे इंडिया संवाद की रिपोर्ट को बल मिलता है। दैनिक जागरण ने एक रिपोर्ट में यह बात लिखी है है कि मेडिकल कॉलेज का पूरा प्रबंधन एक प्रमुख अधिकारी के घर से संचालित होता है। कॉलेज के हर छोटे-बड़े काम न केवल वहां से संचालित होते हैं बल्कि फोन पर सीधा आदेश तक जारी होता है। डॉक्टर से लेकर अधिकारी, कर्मचारी तक परेशान रहते हैं। मगर डर के मारे कोई जुबान नहीं खोलता। लिक्विड सप्लाई करने वाले कंपनी से जुड़े व्यक्ति ने तो यहां तक आरोप लगाया कि अपने भुगतान केलिए भी उनको अधिकारी के घर के चक्कर लगाने पड़ते हैं।