नई दिल्ली: बात महज़ छह माह पुरानी है। तब भाजपा के सुल्तानपुर सांसद वरुण गांधी यूपी में ख़ुद को मुख्यमंत्री का तगड़ा दावेदार मानकर चल रहे थे. उत्साह चेहरे पर साफ दिखता था. समर्थक भी पूरे सूबे में दौड़ भागकर फ़िज़ा बनाने में जुटे थे, मगर वही वरुण आज परिदृश्य से ग़ायब हैं जबकि मौसम चुनाव का चल रहा. चुनाव ही किसी नेता की खेती-बाड़ी होती है, जिसमें की गई मेहनत से उगाई फ़सल वो पाँच साल तक खाता है. मगर वरुण चुनावी खेती-बारी से दूर हैं. हम आपको चार वजह बता रहे, जो वरुण के बाग़ी होने की वजह है तो अमित शाह की उनसे नाराज़गी का सबब भी.
क़रीबियों को टिकट नहीं मिला तो वरुण नहीं उतरे प्रचार में
भाजपा ने वरुण गांधी को तीसरे और चौथे चरण के लिए स्टार प्रचारक बनाया था. कई जिलों में सभाओं का प्रोग्राम भी तय हुआ. प्रत्याशी इंतज़ार करते रहे मगर वरुण संबंधित विधानसभा क्षेत्रों में चुनावी सभाएं करने गए ही नहीं. वरुण के क़रीबी लोग इसके पीछे वजह बताते हैं. उनका कहना है कि वरुण गांधी दो बार से सांसद हैं. उनके लोकसभा क्षेत्र सुल्तानपुर व आसपास की सीटों पर प्रत्याशी तय करने में वरुण की राय नहीं ली गई. कुछ क़रीबियों के टिकट के लिए वरुण ने सिफ़ारिश की थी मगर अमित शाह ने नज़रअंदाज़ कर उल्टे वरुण के इलाक़े में उनके विरोधियों को टिकट दे दिया.
भाजपाई वरुण का अचानक 'गांधी' बन जाना
अमित शाह की ओर से वरुण को नापसंद करने के पीछे एक वजह है उनका पार्टीलाइन से विपरीत चले जाना. कभी राहुल गांधी की तारीफ़ कर बैठते हैं तो कभी उन मुद्दों पर बेबाक़ी से निजी राय रखकर पार्टी को मुश्किल में डाल देते हैं, जिन मुद्दों को हथियार बनाकर कांग्रेस भाजपा को घेरती रही है. नज़ीर के तौर पर मंगलवार को इंदौर के स्कूल का प्रोग्राम काबिलेगौर है. वरुण ने रोहित वेमुला, अल्पसंख्यकों की परेशानियों, किसानों की आत्महत्या और विजय माल्या के भागने पर खुलकर अपनी प्रतिक्रिया दी. तमाम ऐसी बातें कहीं जिसने भाजपा के लिए मुश्किलें खडीं कर दीं. इन मुद्दों पर वरुण कांग्रेस की विचारधारा के काफ़ी करीब दिखे. जिससे अमित शाह को वरुण को साइडलाइन करने का आधार मिल गया. यही वजह है कि स्कूल के कार्यक्रम में वरुण के बयान की चर्चा तेज़ होने के बाद स्टार प्रचारक लिस्ट से वरुण की विदाई कर दी गई.
न संघ का भरोसा न शाह का
वरुण के नाम के साथ लगा गांधी उपनाम ही उनकी भाजपा की स्वीकार्यता की राह में सबसे बड़ा रोड़ा साबित होता रहा है. भाजपा और वरुण दोनों को लगता है कि वे अपनी ख़ास सियासी मजबूरियाँ के चलते ही एक दूसरे के साथ हैं. भाजपा में अमित शाह सहित तमाम बड़े नेता मेनका और पुत्र वरुण को खाँटी भाजपाई नहीं मानते. क्योंकि इनका संघ से जुड़ाव नहीं रहा है. दूसरी तरफ़। राष्ट्रीय अध्यक्ष शाह का भरोसा भी वरुण नहीं जीत सके हैं. अविश्वास का ही नतीजा रहा कि जब शाह के हाथ में पार्टी की पूरी तरह कमान आई तो उन्होंने 2014 में राष्ट्रीय महासचिव पद से वरुण गांधी को विदा कर दिया.
वरुण के क़रीबी भाजपा को हरवाने में जुटे
भाजपा के एक प्रदेश स्तरीय नेता का कहना है कि अमित शाह ने वरुण की सिफ़ारिश पर किसी को टिकट नहीं दिया. जिससे नाराज़ होकर वरुण के क़रीबी करीब तीन दर्जन भाजपा नेता बाग़ी होकर सुल्तानपुर सहित आसपास के जिलों की सीटों पर काल ठोंक रहे हैं. इससे भाजपा को कुछ नुक़सान हो सकता है. कहा जाता है कि इन सब बातों को देखते हुए शाह ने वरुण को औक़ात में लाने का फ़ैसला किया.