गुजुरपाड़ा ब्रह्मपुत्र के किनारे छोटा-सा गाँव है। एक छोटा-सा जमींदार है, नाम है, पीताम्बर राय; बाशिंदे अधिक नहीं हैं। पीताम्बर अपने पुराने चण्डीमण्डप में बैठा स्वयं को राजा कहता रहता है। उसकी प्रजा भी उसे राजा कहती रहती है। उसकी राजा-महिमा इसी चिरौंजी-वन से घिरे छोटे-से ग्राम में विराजती है। उसका यश इसी ग्राम के निकुंजों के मध्य गूँजते हुए इसी ग्राम की सीमाओं के बीच विलीन हो जाता है। संसार के बड़े-बड़े राजाधिराजों का प्रखर प्रताप इस छायामय नीड़ में प्रवेश नहीं कर पाता। केवल तीर्थ-स्नान के उद्देश्य से नदी के किनारे त्रिपुरा के राजाओं का एक विशाल प्रासाद है, लेकिन दीर्घ काल से राजाओं में से कोई स्नान करने नहीं आता, इसीलिए ग्रामवासियों में त्रिपुरा के राजाओं के विषय में मात्र एक धुँधली-सी जनश्रुति प्रचलित है।
भाद्र माह में एक दिन गाँव में समाचार आया, त्रिपुरा का एक राजकुमार नदी किनारे वाले पुराने प्रासाद में रहने आ रहा है। कुछ दिन बाद बड़ी-बड़ी पगड़ियाँ बाँधे लोगों ने आकर प्रासाद में भारी धूम मचा दी। उसके लगभग एक सप्ताह के बाद हाथी-घोड़े, लाव-लश्कर लेकर स्वयं नक्षत्रराय गुजुरपाड़ा गाँव में आ पहुँचा। तामझाम देख कर ग्रामवासियों के मुँह से एक शब्द नहीं निकला। अब तक पीताम्बर बहुत बड़ा राजा प्रतीत होता था, लेकिन आज किसी को भी वैसा नहीं लगा; नक्षत्रराय को देख कर सभी ने एक बात कही, "हाँ, सही में राज-पुत्र ऐसा ही होता है!"
इस प्रकार पीताम्बर अपने पक्के दालान और चण्डीमण्डप सहित एकदम लुप्त तो हो गया, किन्तु उसके आनंद की सीमा न रही। नक्षत्रराय को उसने ऐसे राजा के रूप में अनुभव किया कि अपनी क्षुद्र राजा-महिमा सम्पूर्णत: नक्षत्रराय के चरणों में समर्पित करके वह परम सुखी हो गया। जब कभी नक्षत्रराय हाथी पर चढ़ कर बाहर निकलता, पीताम्बर अपनी प्रजा को बुला कर कहता, "राजा देखा है? यह देखो, राजा देखो।" पीताम्बर प्रति दिन मछली, तरकारी आदि भोज्य पदार्थ उपहार में लेकर नक्षत्रराय से मिलने आता - उसका तरुण सुन्दर चेहरा देख कर स्नेह से उच्छ्वसित हो उठता। नक्षत्रराय ही गाँव का राजा बन गया। पीताम्बर जाकर प्रजा में शामिल हो गया।
प्रति दिन तीन समय नौबत बजने लगी, गाँव के रास्ते पर हाथी-घोड़े चलने लगे, राज-द्वार पर नंगी तलवारों की बिजली खेलने लगी, हाट-बाजार जम गया। पीताम्बर और उसकी प्रजा पुलकित हो उठी। नक्षत्रराय इस निर्वासन में राजा बन कर सारे दुःख भूल गया। यहाँ राज-शासन की जिम्मेदारी तनिक भी नहीं, जबकि राजत्व का सुख पूरा है। यहाँ वह सम्पूर्णत: स्वाधीन है, स्वदेश में उसका इतना प्रबल प्रताप नहीं था। इसके अलावा, यहाँ रघुपति की छाया नहीं है। मन के उल्लास में नक्षत्रराय विलास में डूब गया। ढाका नगरी से नट-नटी आ गए, नक्षत्रराय को नृत्य-गीत-वाद्य में तिल भर अरुचि नहीं है।
नक्षत्रराय ने त्रिपुरा की राज कार्य-पद्धति का सम्पूर्णत: पालन किया। भृत्यों में से किसी का नाम रख लिया मंत्री, किसी का नाम रख लिया सेनापति, पीताम्बर को दीवानजी के नाम से जाना जाने लगा। रीति के अनुसार राज-दरबार बैठता था। नक्षत्रराय परम दिखावे के साथ न्याय करता था। नकुड़ ने आकर शिकायत की, "मथुर ने मुझे 'कुत्ता' कहा है।" विधान के अनुसार उस पर विचार आरम्भ हुआ। विविध प्रमाण एकत्रित करने के बाद मथुर के दोषी सिद्ध होने पर नक्षत्रराय ने परम गंभीर मुद्रा में न्यायाधीश के आसन से आदेश दिया - नकुड़ मथुर के दोनों कान मरोड़ दे। इस प्रकार सुखपूर्वक समय व्यतीत होने लगा। किसी-किसी दिन हाथ में बिलकुल काम न रहने पर किसी नवीन असाधारण मनोरंजन की उद्भावना के लिए मंत्री को तलब किया जाता। मंत्री राज-सभासदों को एकत्र करके नितांत हैरान-परेशान होकर नवीन खेल सोचने में जुट जाता, गहन चिंतन और सलाह-मशविरे की सीमा न रहती। एक दिन सैनिक-सामंत लेकर पीताम्बर के चण्डी-मण्डप पर आक्रमण किया गया था, उसके पोखर से मछलियाँ और उसके बगीचे से नारियल और पालक-शाक लूट के माल के रूप में अत्यंत धूमधाम के साथ बाजा बजाते हुए महल में लाया गया था। इस प्रकार के खेल से नक्षत्रराय के प्रति पीताम्बर का स्नेह और भी गाढ़ा हो जाता था।
आज महल में बिल्ली के बच्चे का विवाह है। नक्षत्रराय की एक शिशु-बिल्ली थी, मंडल परिवार के बिल्ले के साथ उसका विवाह होगा। चूडामणि घटक को घटकाली स्वरूप तीन-सौ रुपए और एक शाल मिला है। शरीर पर उबटन आदि सारी रस्में हो चुकी हैं। आज शुभ लग्न में संध्या समय विवाह होगा। इन कुछ दिन राजबाड़ी में किसी को तनिक भी फुर्सत नहीं है।
संध्या समय पथ-घाट जगमगाने लगे, नौबत बैठ गई। मंडल परिवार के घर से जरीदार रेशमी कपड़े पहन कर पालकी पर चढ़ कर अति कातर स्वर में म्याऊँ म्याऊँ करते हुए वर ने यात्रा शुरू कर दी है। मंडल परिवार का छोटा लड़का उसकी गर्दन की रस्सी थामे उसके साथ-साथ मितवर के समान आ रहा है। उलु-शंख ध्वनि के बीच पात्र विवाहोत्सव में बैठा।
पुरोहित का नाम केनाराम है, किन्तु नक्षत्रराय ने उसका नाम रख लिया था, रघुपति। दरअसल नक्षत्रराय रघुपति से डरता था, इसी कारण नकली रघुपति के साथ खेल करके सुखी होता था। यहाँ तक कि बात-बात में उसका उत्पीड़न करता था; गरीब केनाराम सब कुछ चुपचाप सहन करता था। आज देव-दुर्विपाक से केनाराम सभा से अनुपस्थित था - उसका बेटा ज्वर से मरणासन्न था।
नक्षत्रराय ने अधीर स्वर में पूछा, "रघुपति कहाँ है?"
भृत्य ने कहा, "उनके घर में कोई बीमार है।"
नक्षत्रराय दुगुने ऊँचे स्वर में बोला, "बोलाओ उस्को।"
आदमी दौड़ा। तत्क्षण रोते हुए बिल्ले के सामने नाच-गाना होने लगा।
नक्षत्रराय बोला, "साहाना (एक रागिनी का नाम) गाओ।" साहाना-गान आरम्भ हो गया।
कुछ देर बाद भृत्य ने आकर निवेदन किया, "रघुपति आए हैं।"
नक्षत्रराय रोष के साथ बोला, "बोलाओ।"
तुरंत पुरोहित ने कक्ष में प्रवेश किया। पुरोहित को देखते ही नक्षत्रराय की भृकुटी गायब हो गई, उसकी सम्पूर्ण मुद्रा बदल गई। उसका चेहरा पीला पड़ गया, माथे पर पसीना दिखाई देने लगा। साहाना-गान, सारंगी और मृदंग सहसा बंद हो गए; मात्र बिल्ले की म्याऊँ म्याऊँ की आवाज निस्तब्ध कक्ष में दुगुने वेग से गूँजने लगी।
यह तो रघुपति ही है। इसमें कोई संदेह नहीं। लंबा, पतला, तेजस्वी, बहुत दिन के भूखे कुत्ते के समान दोनों आँखें जल रही हैं। वह अपने धूल में सने दोनों पैर मखमली दरी पर जमा कर सिर उठा कर खड़ा हो गया। बोला, "नक्षत्रराय!"
नक्षत्रराय चुप रहा।
रघुपति ने कहा, "तुमने रघुपति को बुलाया। मैं आ गया हूँ।"
नक्षत्रराय ने अस्पष्ट स्वर में कहा, "ठाकुर - ठाकुर!"
रघुपति ने कहा, "उठ कर आओ।"
नक्षत्रराय धीरे-धीरे सभा से उठ गया। बिल्ली का ब्याह, साहाना और सारंगी पूरी तरह थम गए।