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भाग 36

2 अगस्त 2022

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बिल्वन ने लौट कर देखा, इस बीच राजा ने कुकियों को विदा कर दिया है, उन्होंने राज्य में उपद्रव आरम्भ कर दिया था। सैनिकों के दल को लगभग भंग कर दिया है। युद्ध की कोई विशेष तैयारी नहीं है। बिल्वन ने लौट कर राजा को सारा विवरण कह सुनाया।

राजा ने कहा, "तो ठाकुर, मैं विदा लेता हूँ। राज्य धन नक्षत्रराय के लिए छोड़ चला।"

बिल्वन ने कहा, "असहाय प्रजा को दूसरे के हाथों में छोड़ कर आप पलायन कर जाएँगे, यह सोच कर मैं किसी भी प्रकार प्रसन्न मन से विदा नहीं कर सकता, महाराज! विमाता के हाथों में पुत्र को सौंप कर भारमुक्त के समान शान्ति प्राप्त कर पाए, क्या ऐसी कल्पना की जा सकती है?"

राजा बोले, "ठाकुर, तुम्हारे वाक्य बींधते हुए मेरे हृदय में प्रवेश कर रहे हैं, अब मुझे क्षमा करो, मुझे और अधिक कुछ मत कहो। मुझे विचलित करने की चेष्टा मत करो। तुम्हें पता है ठाकुर, मैंने मन-ही-मन प्रतिज्ञा की थी कि रक्तपात नहीं करूँगा; मैं उस प्रतिज्ञा को नहीं तोड़ सकता।"

बिल्वन ने कहा, "तब, महाराज अब क्या करेंगे?"

राजा बोले, "तुमसे सब कुछ बताता हूँ। मैं ध्रुव को साथ लेकर वन में जाऊँगा। ठाकुर, मेरा जीवन नितांत अधूरा रह गया है। मन में जो सोचा था, उसका कुछ भी नहीं कर पाया - जीवन का जितना चला गया है, उसे वापस पाकर और नए सिरे से निर्मित नहीं कर पाऊँगा - ठाकुर, मुझे लग रहा है, भाग्य ने हम लोगों को तीर के समान छोड़ दिया है, अगर एक बार लक्ष्य से तनिक भी इधर-उधर हुए, तो हजार कोशिशें करने पर भी लक्ष्य की ओर नहीं लौट सकते। जीवन के प्रारम्भ में वही जो मैं भटक गया हूँ, अब जीवन के अंत में लक्ष्य को नहीं खोज पा रहा हूँ। जो सोचता हूँ, वह नहीं होता। जिस समय जाग कर आत्म-रक्षा कर पाता, उस समय जागा नहीं, जब डूब रहा हूँ, तब चेतना हुई है। जैसे लोग समुद्र में डूबते समय लकड़ी के टुकड़े का सहारा लेते हैं, उसी तरह मैंने बालक ध्रुव का सहारा लिया है। मैं ध्रुव में आत्म-समाधान खोज कर ध्रुव में ही पुनर्जन्म प्राप्त करूँगा। मैं शुरू से ही पालते-पोसते हुए ध्रुव का निर्माण करूँगा। ध्रुव के संग तिल-तिल मेरा भी विकास होता रहेगा। अपना मनुष्य-जन्म सम्पूर्ण बनाऊँगा। ठाकुर, मैं तो मनुष्य होने लायक ही नहीं हूँ, मैं राजा बन कर क्या करूँगा !"

राजा ने अंतिम बात बड़े भावावेश के साथ कही - सुन कर ध्रुव राजा के घुटनों पर अपना सिर रगड़ते-रगड़ते बोला, "आमि आजा।"

बिल्वन ने हँसते हुए ध्रुव को गोद में उठा लिया। बहुत देर तक उसके मुँह की ओर देखते हुए अंत में राजा से कहा, "वन में क्या कभी मनुष्य का निर्माण किया जाता है? वन में केवल एक पौधे को पाल-पोस कर बड़ा किया जा सकता है। मनुष्य मानव-समाज में ही निर्मित होता है।"

राजा बोले, "मैं एकदम से वनवासी नहीं बन जाऊँगा, मनुष्य-समाज से बस थोड़ा-सा दूर रहूँगा, किन्तु समाज के साथ सारा सम्बन्ध तोड़ नहीं डालूँगा। यह मात्र थोड़े-से दिनों के लिए।"

इधर नक्षत्रराय सैन्य सहित राजधानी के निकट आ पहुँचा। प्रजा के धन-धान्य की लूट होने लगी। प्रजा-जन केवल गोविन्दमाणिक्य को ही शाप देने लगे। कहने लगे, "यह सब केवल राजा के पाप के चलते ही घट रहा है।"

राजा ने एक बार रघुपति से मिलना चाहा। रघुपति के आने पर उससे बोले, "प्रजा को और क्यों कष्ट पहुँचा रहे हो? मैं नक्षत्रराय के लिए राज्य छोड़ कर जा रहा हूँ। अपने मुगल सैनिकों को विदा कर दो।"

रघुपति ने कहा, "जो आज्ञा, आपके विदा होते ही मैं मुगल सैनिकों को विदा कर दूँगा - त्रिपुरा को लूटा जाए, ऐसी मेरी इच्छा नहीं है।"

राजा ने उसी दिन राज्य छोड़ कर जाने की तैयारी कर ली, उन्होंने राज-वेश त्याग दिया, गेरुए वस्त्र धारण कर लिए। नक्षत्रराय को राजा के समस्त कर्तव्यों की याद दिलाते हुए एक लंबा आशीर्वाद-पत्र लिखा।

अंत में राजा ध्रुव को गोद में उठा कर बोले, "ध्रुव, मेरे साथ वन में चलेगा, बेटा?"

ध्रुव ने तत्क्षण राजा के गले से लिपटते हुए कहा, "चलूँगा।"

उसी समय राजा को अचानक याद आया, ध्रुव को साथ ले जाने के लिए उसके चाचा, केदारेश्वर की सम्मति आवश्यक है; राजा ने केदारेश्वर को बुला कर कहा, "केदारेश्वर, तुम्हारी सम्मति हो, तो मैं ध्रुव को अपने साथ ले जाऊँ!"

ध्रुव दिन-रात राजा के पास ही रहता था, उसके चाचा के साथ उसका कोई बड़ा सम्बन्ध नहीं था, लगता है, इसीलिए राजा के मन में कभी नहीं आया कि ध्रुव को साथ ले जाने में केदारेश्वर को कोई आपत्ति हो सकती है।

राजा की बात सुन कर केदारेश्वर ने कहा, "मैं ऐसा नहीं कर सकूँगा, महाराज।"

सुन कर राजा चौंक गए। उन पर सहसा वज्राघात हुआ। थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले, "केदारेश्वर, तुम भी हम लोगों के साथ चलो।"

केदारेश्वर - "नहीं महाराज, वन में नहीं जा पाऊँगा।"

राजा ने कातर होकर कहा, "मैं वन में नहीं जाऊँगा; मैं जन-धन लेकर नगर में ही रहूँगा।"

केदारेश्वर ने कहा, "मैं देश छोड़ कर नहीं जा सकता।"

राजा ने कुछ न कह कर दीर्घ निश्वास छोड़ा। उनकी सारी आशा मृतप्राय हो गई। मानो क्षण भर में सम्पूर्ण धरती का चेहरा बदल गया। ध्रुव अपने खेल में डूबा था - बहुत देर उसकी तरफ देखते रहे, किन्तु उसे जैसे आँखों से देख नहीं पाए। ध्रुव उनके कपड़े का किनारा पकड़ कर खींचते हुए बोला, "खेलो।"

राजा का सम्पूर्ण ह्रदय विगलित होकर आँसुओं के रूप में आँखों की कोरों में आ गया, बड़े कष्ट से आँसुओं का दमन किया। मुँह फेर कर टूटे हुए हृदय से कहा, "तब ध्रुव रहे, मैं अकेला ही चलता हूँ।"

मानो क्षण भर में शेष जीवन का मरुमय-पथ तड़ितालोक में उनके चक्षु-तारकों पर अंकित हो गया।

केदारेश्वर ध्रुव का खेल रोक कर उससे बोला, "आ, मेरे साथ चल।"

कहते हुए उसका हाथ पकड़ कर खींचा। ध्रुव क्रंदन भरे स्वर में बोल उठा, "नहीं।"

राजा ने चकित होकर ध्रुव की ओर घूम कर देखा। ध्रुव ने दौड़ कर राजा को कस कर पकड़ते हुए जल्दी से उनके घुटनों में सिर छिपा लिया। राजा ने ध्रुव को गोद में उठा कर उसे छाती में भींच लिया। विशाल हृदय विदीर्ण होना चाहता था, छोटे-से ध्रुव को छाती में भींच कर हृदय को नियंत्रित किया। ध्रुव को उसी अवस्था में गोद में लिए वे विशाल कक्ष में टहलने लगे। ध्रुव कंधे पर सिर टिकाए एकदम स्थिर पड़ा रहा।

अंतत: चलने का समय हो गया। ध्रुव राजा की गोद में सोया पड़ा है। सोते हुए ध्रुव को धीरे-धीरे केदारेश्वर के हाथों में सौंप कर राजा यात्रा पर निकल पड़े।

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रचनाएँ
राजर्षि
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राजर्षि'। 'राजर्षि' में कर्तव्य अकर्तव्य की कसौटी पर पापपुण्य की विवेचना करते हुए घर्मांधता के विरुद्ध जिहाद छेड़ने का प्रयास किया गया है। साथ ही रूढ़ियों को धिक्कारते हुए धर्म, प्रकृति एवं समाज को नए परिपेक्ष्य में देखा गया है। राजर्षि के सम्बन्ध में कुछ कहने का अनुरोध किया गया है। कहने को विशेष कुछ नहीं है। इस बारे में मुख्य वक्तव्य यही है कि यह मेरा स्वप्न में उपलब्ध उपन्यास है।राजर्षि के सम्बन्ध में कुछ कहने का अनुरोध किया गया है। कहने को विशेष कुछ नहीं है। इस बारे में मुख्य वक्तव्य यही है कि यह मेरा स्वप्न में उपलब्ध उपन्यास है।
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राजर्षि (उपन्यास) : सूचना

2 अगस्त 2022
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राजर्षि के सम्बन्ध में कुछ कहने का अनुरोध किया गया है। कहने को विशेष कुछ नहीं है। इस बारे में मुख्य वक्तव्य यही है कि यह मेरा स्वप्न में उपलब्ध उपन्यास है। बालक पत्रिका की संपादिका ने मुझे इस मासिक क

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राजर्षि भाग 1

2 अगस्त 2022
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भुवनेश्वरी मंदिर का पत्थर का घाट गोमती नदी में जाकर मिल गया है। एक दिन ग्रीष्म-काल की सुबह त्रिपुरा के महाराजा गोविन्दमाणिक्य स्नान करने आए हैं, उनके भाई नक्षत्रराय भी साथ हैं। ऐसे समय एक छोटी लडकी अप

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भाग 2

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उसके अगले दिन से नींद टूट जाने के बाद, सूर्य उगने पर भी राजा का प्रभात नहीं होता था; उनका प्रभात तभी होता होता था, जब वे दोनों छोटे भाई-बहनों का चेहरा देख लेते थे। वे प्रतिदिन उन लोगों को फूल चुन कर द

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भाग 3

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राज-सभा बैठी है। भुवनेश्वरी देवी मंदिर का पुरोहित कार्यवश राज-दर्शन को आया है। पुरोहित का नाम रघुपति है। इस देश में पुरोहित को चोंताई संबोधित किया जाता है। भुवनेश्वरी देवी की पूजा के चौदह दिन बाद देर

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भाग 4

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भुवनेश्वरी देवी मंदिर का सेवक जयसिंह जाति से राजपूत, क्षत्रिय है। उसके पिता सुचेत सिंह त्रिपुरा राज घराने में पुराने सेवक थे। सुचेत सिंह की मृत्यु के समय जयसिंह एकदम बालक था। इस अनाथ बालक को राजा ने म

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भाग 5

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प्रात:काल नक्षत्रराय ने आकर रघुपति को प्रणाम करके पूछा, "ठाकुर, क्या आदेश है?" रघुपति ने कहा, "तुम्हारे लिए माँ का आदेश है। चलो, माँ को प्रणाम करो।" दोनों मंदिर में गए। जयसिंह भी साथ-साथ गया। नक्षत्

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भाग 6

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नक्षत्रराय के चले जाने पर जयसिंह ने कहा, "गुरुदेव, ऐसी भयानक बात कभी नहीं सुनी। आपने माँ के सम्मुख माँ का नाम लेकर भाई के हाथों भाई की हत्या का प्रस्ताव कर दिया, और मुझे खड़े होकर वही सुनना पड़ा।" रघ

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भाग 7

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जयसिंह को पूरी रात नींद नहीं आई। जिस विषय पर गुरु के साथ चर्चा हुई थी, देखते-देखते उसकी शाखा-प्रशाखाएँ निकालने लगीं। अधिकांश समय आरम्भ हमारे अधिकार में होता है, अंत नहीं। चिन्ता के सम्बन्ध में भी यही

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भाग 8

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गोमती नदी का दक्षिणी किनारा एक स्थान पर बहुत ऊँचा है। बारिश की धारा और छोटे-छोटे सोतों ने इस ऊँची भूमि को नाना गुहा-गह्वरों में बाँट दिया है। इसके कुछ दूर बडे-बड़े शाल और गाम्भारी1 वृक्षों ने लगभग अर्

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भाग 9

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मंदिर बहुत दूर नहीं है। लेकिन जयसिंह निर्जन नदी के किनारे से होते हुए बहुत घूम कर धीरे-धीरे मंदिर की ओर चला। उसके मन में भारी चिन्ता उठने लगी। एक जगह नदी के किनारे पेड़ के नीचे बैठ गया। दोनों हाथों से

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भाग 10

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महाराज ने महल लौट कर नियमित राज-काज निबटाया। प्रात:कालीन सूर्यालोक ढक गया है। मेघों की छाया से दिन में ही अंधकार घिर आया है। महाराज अत्यंत अनमने हैं। और दिन नक्षत्रराय राजसभा में उपस्थित रहता है, आज न

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भाग 11

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नक्षत्रराय जब राजा का हाथ पकड़े जंगल से घर लौट रहा था, तब आकाश से थोड़ा-थोड़ा उजाला आ रहा था - किन्तु नीचे जंगल में घना अंधेरा छा रहा है। मानो अंधकार की बाढ़ आ रही है, केवल पेड़ों की चोटियाँ ऊपर से बच

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भाग 12

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जयसिंह उसके अगले दिन मंदिर में लौट कर आया। अब तक पूजा का समय निकल चुका है। रघुपति दुखी चेहरा लिए अकेला बैठा है। इसके पहले कभी ऐसा नियम भंग नहीं हुआ था। जयसिंह गुरु के निकट न जाकर अपने बगीचे में चला ग

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भाग 13

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मंदिर में अनेक लोग एकत्र हो गए हैं। खूब कोलाहल हो रहा है। रघुपति ने रूखे स्वर में पूछा, "तुम लोग क्या करने आए हो?" वे नाना कण्ठों में बोल पडे, "हम लोग ठकुराइन(देवी के काली रूप को ठकुराइन भी कहा जाता

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भाग 14

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उसके अगले दिन आषाढ़ की उनतीसवीं तिथि। आज रात चतुर्दश देवताओं की पूजा है। आज जब प्रभात में ताड़-वन की ओट से सूरज उठ रहा है, तो पूर्व दिशा में बादल नहीं हैं। जब जयसिंह स्वर्णकिरणों से भरे आनंदमय कानन मे

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भाग 15

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चतुर्दशी तिथि। बादल भी छाए हैं, चन्द्रमा भी निकला है। आकाश में कहीं आलोक है, कहीं अंधकार। कभी चन्द्रमा निकल रहा है, कभी चन्द्रमा छिप रहा है। गोमती के किनारे वाला जंगल चन्द्रमा की ओर देख कर अपनी गहन अं

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भाग 16

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राजा के आदेश के अनुसार नक्षत्रराय प्रजा के असंतोष का कारण खोजने के लिए प्रभात-काल में स्वयं बाहर निकला। उसे चिन्ता होने लगी, मंदिर कैसे जाए! रघुपति के सामने पड़ जाने पर वह कैसा सकपका जाता है, अपने को

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भाग 17

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ध्रुव उसी दिन शाम को नक्षत्रराय को देखते ही "चाचा" पुकारते हुए दौड़ा हुआ आया, छोटे-छोटे दोनों हाथ उसके गले में डाल कर, उसके कपोल से कपोल छुआ कर, मुँह के पास मुँह ले गया। धीरे से बोला, "चाचा।" नक्षत्र

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भाग 18

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अगले दिन न्याय। न्यायालय में लोगों की भीड़। न्यायाधीश के आसन पर राजा विराजमान हैं, सभासद चारों ओर बैठे हैं। दोनों बंदी सामने हैं। किसी के भी हाथों में हथकड़ी नहीं हैं। केवल सशस्त्र प्रहरी उन्हें घेरे

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भाग 19

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प्रहरियों ने जब निर्वासन के लिए तैयार रघुपति से पूछा, "ठाकुर, किस दिशा में जाएँगे," तो रघुपति ने उत्तर दिया, "पश्चिम की ओर जाऊँगा।" नौ दिन तक पश्चिम की ओर यात्रा करने के बाद बंदी और प्रहरी ढाका शहर क

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भाग 20

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विजयगढ़ का विशाल जंगल ठगों का अड्डा है। जो रास्ता जंगल में से होकर गुजरा है, उसके दोनों ओर कितने ही नर-कंकाल दबे हैं, उनके ऊपर केवल जंगली फूल खिल रहे हैं, और कोई निशान नहीं। जंगल में वट है, बबूल है, न

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भाग 21

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विजयगढ़ पहाड़ पर है। विजयगढ़ का जंगल दुर्ग के आसपास जाकर समाप्त हो जाता है। रघुपति ने जंगल से बाहर निकल कर अचानक देखा, मानो पत्थर का विशाल दुर्ग नीले आकाश की अवहेलना करते हुए खड़ा है। अरण्य जिस प्रकार

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भाग 22

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किसी प्रकार शाहशुजा को मुट्ठी में करना ही रघुपति का उद्देश्य था। उसने जैसे ही सुना, शुजा दुर्ग पर आक्रमण करने में जुटा है, वैसे ही सोच लिया, मित्र भाव से दुर्ग में प्रवेश करके किसी तरह दुर्ग पर आक्रमण

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भाग 23

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चाचा साहब के लिए क्या आनंद का दिन है। आज दिल्ल्लीश्वर के राजपूत सैनिक विजयगढ़ के अतिथि हुए हैं। प्रबल प्रतापी शाहशुजा आज विजयगढ़ का बंदी है। कार्तवीर्यार्जुन के बाद से विजयगढ़ को ऐसा बंदी और नहीं मिला

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भाग 24

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सुचेत सिंह को चाचा साहब के चंगुल से छूटने में अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ा। कल प्रात: बंदी सहित सम्राट की सेना के कूच का दिन निर्धारित हुआ है, यात्रा की तैयारी के लिए सैनिक नियुक्त हुए हैं। शाहशुजा कै

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भाग 25

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गुजुरपाड़ा ब्रह्मपुत्र के किनारे छोटा-सा गाँव है। एक छोटा-सा जमींदार है, नाम है, पीताम्बर राय; बाशिंदे अधिक नहीं हैं। पीताम्बर अपने पुराने चण्डीमण्डप में बैठा स्वयं को राजा कहता रहता है। उसकी प्रजा भी

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भाग 26

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रघुपति ने पूछा, "यह सब क्या हो रहा था?" नक्षत्रराय ने सिर खुजलाते हुए कहा, "नाच हो रहा था।" रघुपति ने घृणा से मुँह सिकोड़ते हुए कहा, "छी छी!" नक्षत्र अपराधी के समान खड़ा रहा। रघुपति ने कहा

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भाग 27

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दीर्घ पथ। कहीं नदी, कहीं घना जंगल, कहीं छायाहीन प्रांतर - कभी नौका पर, कभी पैदल, कभी टट्टू घोड़े पर - कभी धूप, कभी बारिश, कभी कोलाहल भरा दिन, कभी रात्रि का निस्तब्ध अंधकार - नक्षत्रराय बिना रुके चलता

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भाग 28

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अंतत: राजधानी पहुँच गए। पराजय और पलायन के बाद शुजा नवीन सैन्य-संगठन की कोशिश में लगा है। किन्तु राज-कोष में अधिक धन नहीं है। प्रजा-जन कर के भार से पीड़ित हैं। इसी बीच दारा को पराजित और निहत करके औरंगज

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इस उपन्यास के आरम्भ काल से अब तक दो वर्ष हो गए हैं। तब ध्रुव दो बरस का बालक था। अब उसकी उम्र चार बरस है। अब वह बहुत बातें सीख गया है। अब वह अपने को बहुत बड़ा आदमी समझता है; यद्यपि सारी बातें साफ-साफ न

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भाग 30

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इस साल त्रिपुरा में एक अभूतपूर्व घटना घटी। सहसा उत्तर से झुण्ड के झुण्ड चूहे त्रिपुरा के खेतों में आ पहुँचे। सारी फसल बर्बाद कर डाली, यहाँ तक कि किसानों के घरों में जितना कुछ अनाज इकट्ठा था, वह भी अधि

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भाग 31

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नक्षत्रराय मुगल सैनिकों का स्वामी बना रास्ते में तेंतुले नाम के एक छोटे-से गाँव में विश्राम कर रहा था। प्रात:काल रघुपति ने आकर कहा, "महाराज, यात्रा पर निकलना है, तैयार हो जाइए।" रघुपति के मुँह से स

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जब त्रिपुरा में चूहों का उत्पात शुरू हुआ था, तब श्रावण माह था। उस समय खेतों में केवल भुट्टे फल रहे थे और पहाड़ी खेतों में धान में दाने आने प्रारम्भ हुए थे। किसी तरह तीन महीने कट गए - अगहन के महीने में

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भाग 33

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बिल्वन ठाकुर ढेरों कामों में डूब गया। उसने चट्टग्राम के पहाड़ी क्षेत्रों में विविध प्रकार के उपहारों के साथ द्रुतगामी दूत भेज दिए। वहाँ के कुकी ग्राम-मुखियाओं से कुकी सैनिकों के रूप में सहायता की प्रा

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नक्षत्रराय सैनिकों के साथ आगे बढ़ने लगा, कहीं तिलभर भी बाधा नहीं आई। त्रिपुरा के जिस भी गाँव में उसने कदम रखा, वही गाँव उसकी राजा के रूप में अगवानी करने लगा। पग-पग पर राजत्व का आस्वाद पाने लगा - क्षुध

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गोविन्दमाणिक्य नक्षत्रराय का उत्तर सुन कर बहुत मर्माहत हुए। बिल्वन ने सोचा, शायद महाराज अब आपत्ति प्रकट नहीं करेंगे। किन्तु गोविन्दमाणिक्य बोले, "यह बात कभी भी नक्षत्रराय की नहीं हो सकती। यह उसी पुरोह

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भाग 36

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बिल्वन ने लौट कर देखा, इस बीच राजा ने कुकियों को विदा कर दिया है, उन्होंने राज्य में उपद्रव आरम्भ कर दिया था। सैनिकों के दल को लगभग भंग कर दिया है। युद्ध की कोई विशेष तैयारी नहीं है। बिल्वन ने लौट कर

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भाग 37

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नक्षत्रराय ने सैन्य-सामंतों के साथ पूर्व के द्वार से राजधानी में प्रवेश किया, थोड़ा-सा धन और कुछेक अनुचर लेकर गोविन्दमाणिक्य ने पश्चिम वाले द्वार से यात्रा प्रारम्भ की। नगर के लोगों ने बाँसुरी फूँक कर

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नक्षत्रराय ने छत्रमाणिक्य नाम धारण करके विशाल समारोह में राजपद ग्रहण किया। राजकोष में अधिक धन नहीं था। प्रजा-जनों का सर्वस्व छीन कर वायदे के अनुसार धन देकर मुगल सैनिकों को विदा करना पड़ा। छत्रमाणिक्य

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रामू के दक्षिण में राजाकूल के निकट मगों का जो दुर्ग है, वे अराकान के राजा की अनुमति लेकर वहीं रहने लगे। गाँववालों के जितने बाल-बच्चे थे, सब के सब दुर्ग में गोविन्दमाणिक्य के पास आ जुटे। गोविन्दमाणिक्

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भाग 40

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(यह परिच्छेद में  बंगाल का इतिहास से संग्रहीत) इधर शाह शुजा अपने भाई औरंगजेब की सेना द्वारा उत्पीड़ित होकर भागा फिर रहा है। इलाहाबाद के निकट युद्ध क्षेत्र में उसकी पराजय हो गई। विपक्षियों से पराक्रां

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भाग 41

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जिस दुर्ग में गोविन्द माणिक्य रहते थे, एक दिन वर्षा के अपराह्न में उसी दुर्ग के मार्ग से एक फकीर के साथ तीन बालक और एक वयप्राप्त भारवाही चले आ रहे हैं। बालक अत्यधिक थके दिखाई पड़ रहे हैं। हवा तेज बह र

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