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भाग 8

2 अगस्त 2022

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गोमती नदी का दक्षिणी किनारा एक स्थान पर बहुत ऊँचा है। बारिश की धारा और छोटे-छोटे सोतों ने इस ऊँची भूमि को नाना गुहा-गह्वरों में बाँट दिया है। इसके कुछ दूर बडे-बड़े शाल और गाम्भारी1 वृक्षों ने लगभग अर्ध चंद्राकार रूप में इस भूमि-खण्ड को घेर रखा है, किन्तु इस थोड़ी-सी भूमि पर बीच में एक भी विशाल वृक्ष नहीं है। डूहों पर जगह-जगह छोटे-छोटे शाल के पेड़ बढ़ नहीं पा रहे हैं, टेढ़े मेढे होकर काले पड़ गए हैं। बहुत सारे पत्थर फैले पड़े हैं। एक हाथ दो हाथ चौड़े सैकड़ों छोटे-छोटे सोते टेढ़े मेढे रास्तों से घूमते-घूमते, आपस में मिलते, अलग होते जाकर नदी में समा रहे हैं। यह स्थान अति निर्जन है - यहाँ का आकाश पेड़ों से ढका हुआ नहीं है। यहाँ से गोमती नदी और उसके दूसरे किनारे वाले विलक्षण रंग की फसलों से भरे खेत बहुत दूर तक देखे जा सकते हैं। राजा गोविंदमाणिक्य यहाँ प्रति दिन सुबह घूमने आते हैं, साथ में न कोई मंत्री आता है, न अनुचर। गोमती में मछली पकडने आने वाले मछुआरे कभी-कभी दूर से देखते थे, उनके सौम्य-मूर्ति राजा योगी के समान स्थिर-भाव से आँखें मूँदे बैठे हैं, उनके चेहरे पर प्रभात की ज्योति है अथवा उनके आत्मा की ज्योति, समझ में नहीं आता था। आजकल बारिश के दिनों में रोजाना यहाँ नहीं आ पाते, लेकिन बारिश थमने पर जिस दिन आते हैं, उस दिन छोटे ताता को साथ ले आते हैं।

ताता को और ताता कहने का मन नहीं करता। एकमात्र जिसके मुँह से ताता संबोधन जँचता था, वह तो रही नहीं। पाठकों के लिए ताता शब्द का कोई अर्थ ही नहीं है। किन्तु शाल-वन में सुबह-सुबह जब हासि शैतानी करते हुए शाल के वृक्ष की आड़ में छिप कर अपने सुमधुर तीव्र स्वर में ताता पुकारती थी और उसके उत्तर में पेड़-पेड़ पर दोएल 2 पुकारने लगती थीं, दूर जंगल से प्रतिध्वनि लौट आती थी, तब वही ताता शब्द अर्थ से परिपूर्ण होकर जंगल में व्याप जाता था - तब वही ताता संबोधन एक बालिका के छोटे-से हृदय के अति कोमल स्नेह-नीड़ को छोड़ कर पक्षी के समान स्वर्ग की ओर उड़ जाता था - तब वही एक स्नेहसिक्त मधुर संबोधन प्रभात के समस्त पक्षियों के गान को लूट लेता था - प्रभात की प्रकृति के आनंदमय सौंदर्य के साथ एक छोटी-सी बालिका के आनंदमय हृदय का ऐक्य दर्शाता था। अब वह बालिका नहीं है - बालक है, लेकिन ताता नहीं है। यह बालक संसार के हजारों लोगों के लिए है, हजारों विषयों के लिए है, किन्तु ताता केवलमात्र उस बालिका के लिए ही है। महाराजगोविन्द माणिक्य इस बालक को ध्रुव बुलाते हैं, हम लोग भी वही कह कर पुकारेंगे।

महाराज पहले अकेले गोमती के तट पर आते थे, अब ध्रुव को साथ ले आते हैं। वे उसकी पवित्र सरल मुख-छवि में देवलोक की छटा देख पाते हैं। जब राजा मध्याह्न में संसार के भँवर में प्रवेश करते हैं, तो वृद्ध विज्ञ मंत्री उन्हें घेर कर खड़े हो जाते हैं, उन्हें परामर्श देते हैं। और प्रभात होने पर एक बालक उन्हें संसार के बाहर ले आता है - उसकी दो बड़ी-बड़ी आँखों के सम्मुख विषय की हजारों कुटिलाताएँ कुण्ठित पड़ जाती हैं - बालक का हाथ थाम कर महाराज विश्व-जगत के मध्य अनंत की ओर फैले एक उदार सरल विस्तृत राजपथ पर जाकर खड़े हो जाते हैं; वहाँ अनंत सुनील आकाश के चँदोवे के नीचे विद्यमान विश्व-ब्रह्माण्ड की महासभा दिखाई पडती है; वहाँ भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, सप्तलोक का अस्पष्ट संगीत सुनाई पडता है; वहाँ सरल मार्ग पर सभी कुछ सरल सहज शोभन अनुभव होता है, कवल आगे बढ़ने का उत्साह रहता है, विकट व्याकुलता-चिन्ता, व्याधि-अशांति दूर हो जाती है। महाराज को उसी प्रभात में निर्जन वन में, नदी-तट पर, मुक्त आकाश के नीचे, एक बालक के प्रेम में निमग्न होकर असीम प्रेम-समुद्र का मार्ग दिखाई पडने लगता है।

गोविन्दमाणिक्य ध्रुव को गोदी में बैठाए ध्रुवोपाख्यान सुना रहे हैं; वह कोई बहुत कुछ समझ पा रहा है, ऐसा नहीं है, लेकिन राजा की इच्छा है कि वे आधे-अधूरे स्वर में ध्रुव के मुँह से उसी ध्रुवोपाख्यान को पुन: सुनें।

कथा सुन कर ध्रुव बोला, "मैं जंगल में जाऊँगा।"

राजा बोले, "जंगल में क्या करने जाएगा?"

ध्रुव बोला, "हयि3 को देखने जाऊँगा।"

राजा बोले, "हम लोग तो जंगल में आए हैं, हरि को देखने ही आए हैं।"

ध्रुव - हयि कहाँ हैं?

राजा- यहीं हैं।

ध्रुव ने कहा, "दीदी कहाँ है?

कहते हुए उठ खड़ा होकर पीछे ताक कर देखा - उसे लगा, मानो दीदी पहले की तरह पीछे से अचानक उसकी आँखें बंद करने आ रही है। किसी को भी न पाकर गर्दन झुकाए आँखें उठा कर पूछा, "दीदी कहाँ है?"

राजा बोले, "हरि ने तुम्हारी दीदी को बुला लिया है।"

ध्रुव ने कहा, "हयि कहाँ है?"

राजा ने कहा, "उन्हें पुकारो बेटा। तुम्हें वही जो श्लोक सिखाया था, उसी का पाठ करो।"

ध्रुव हिल हिल कर बोलने लगा -

हरि तुम्हें पुकारता - बालक एकाकी,

अँधेरे अरण्य में दौड़ रहा रे।

घने तिमिर में नयन-नीर में

पथ खोजे नहीं मिल रहा रे।

लगता सदा क्या करूँ क्या करूँ,

आएगी कब काल-विभावरी,

उसी भय में डूब पुकारता 'हरि हरि' -

हरि बिन कोई नहीं रे।

नयन-नीर नहीं होगा विफल,

कहते सब तुम्हें भक्तवत्सल,

समझ रहा उसी आशा को संबल -

उसी आशा में जीवित हूँ रे।

जागते अँधियारे में तुम्हारे चक्षु-तारे,

होते नहीं भक्त तुम्हारे कभी दिशाहारा,

ध्रुव तुम्हें देखता, तुम हो ध्रुव तारा -

और किसकी ओर देखूँ रे।

'र' को, 'ल' को, 'ड' को, 'द' को उल्टा-पुल्टा करके, आधी बातें मुँह में रोक कर, आधी बातों का उच्चारण करके, डोल-डोल कर सुधामय कंठ से ध्रुव ने इस श्लोक का पाठ कर दिया। सुन कर राजा का हृदय आनंद में निमग्न हो गया, प्रभात दुगुना मधुर हो उठा, चतुर्दिक नदी कानन तरु लता हँसने लगे। उन्हें कनक-सुधा-सिक्त नील गगन में किसकी अनुपम सुन्दर सहास मुख-छवि दिखाई पड़ी! जैसे ध्रुव उनकी गोद में बैठा है - उसी प्रकार किसी ने उन्हें भी बाहुपाश में गोद में खींच लिया है। वे अपने को, अपने चतुर्दिक के सभी को, विश्व-चराचर को किसी की गोद में देखने लगे। उनके आनंद और प्रेम ने सूर्य की किरणों के समान दशों दिशाओं में विकीर्ण होकर आकाश को भर दिया।

ऐसे समय अचानक सशत्र जयसिंह गुहा मार्ग से राजा के सम्मुख आ पहुँचा।

राजा ने उसकी ओर दोनों हाथ बढ़ा दिए; कहा, "आओ जयसिंह, आओ।"

उस समय राजा बालक के साथ बालक बन गए थे, उनकी राज-मर्यादा कहाँ थी?

जयसिंह ने राजा को भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया। तब कहा, "महाराज, एक निवेदन है।"

राजा ने कहा, "क्या है, बोलो।"

जयसिंह - "माँ आपसे अप्रसन्न हो गई हैं।"

राजा - "क्यों, मैंने उन्हें असंतुष्ट करने वाला कौन-सा काम किया है? "

जयसिंह - "बलि बंद करके महाराज ने देवी की पूजा में बाधा खड़ी की है।"

राजा बोले, "क्यों जयसिंह, हिंसा की यह लालसा क्यों! तुम माँ की गोद में संतान का रक्त बहा कर माँ को प्रसन्न करना चाहते हो? "

जयसिंह धीरे-धीरे राजा के पैरों के निकट बैठ गया। ध्रुव उसकी तलवार लेकर खेलने लगा।

जयसिंह ने कहा, "क्यों महाराज, शास्त्र में तो बलि-दान की व्यवस्था है।"

राजा ने कहा, "शास्त्र के सच्चे विधान का कौन पालन करता है। सभी अपने स्वभाव के वशीभूत शास्त्र की व्याख्या करते रहते हैं। जिस समय सभी लोग देवी के सामने बलि के कीचड भरे रक्त को सर्वांग पर लपेट कर उत्कट चीत्कार करते हुए भीषण उल्लास के साथ प्रांगण में नाचते रहते हैं, क्या वे उस समय माँ की पूजा करते हैं अथवा उनके हृदय में हिंसा की जो राक्षसी है, उस राक्षसी की पूजा करते हैं! हिंसा के सम्मुख बलि चढाना शास्त्र का विधान नहीं है, बल्कि हिंसा की ही बलि चढाना शास्त्र का विधान है।"

जयसिंह बहुत देर तक चुपचाप रहा। कल रात से उसके मन भी ऐसी ही अनेक बातें हलचल मचा रही थीं।

अंत में बोला, "मैंने माँ के अपने मुँह से सुना है - इस विषय में और कोई संशय नहीं हो सकता। उन्होंने स्वयं कहा है, वे महाराज का रक्त चाहती हैं।"

कह कर सुबह की मंदिर वाली घटना राजा को सुनाई।

राजा हँस कर बोले, "यह माँ का आदेश नहीं है, यह रघुपति का आदेश है। रघुपति ने ही ओट से तुम्हारी बात का उत्तर दिया था।"

राजा के मुँह से यह बात सुन कर जयसिंह एकदम से चौंक उठा। इसी तरह का संशय एक बार उसके मन में भी आश्चर्य के रूप में उठा था, किन्तु फिर विद्युत के समान अन्तर्हित हो गया था। उसी संदेह पर राजा की बात से फिर आघात लगा।

जयसिंह अत्यंत कातर होकर बोल उठा, "नहीं महाराज, मुझे एक के बाद एक संशय से संशयांतर में मत ले जाइए - मुझे किनारे से ठेल कर समुद्र में मत गिराइए - आपकी बातों से मेरे चारों ओर का अंधकार केवल गहराता जा रहा है। मेरा जो विश्वास था, जो भक्ति थी, वही रहे - उसके बदले यह कुहासा मुझे नहीं चाहिए। आदेश माँ का हो अथवा गुरु का, वह एक ही बात है - मैं पालन करूँगा।" कहते हुए तेजी से उठ कर अपनी तलवार निकाल ली - सूर्य की किरणों में तलवार विद्युत के समान चकमक करने लगी। यह देख कर ध्रुव चीख कर रोने लगा, अपने छोटे-छोटे दोनों हाथों से राजा को लपेट कर उन्हें प्राणपण से ढक लिया - राजा ने जयसिंह की ओर ध्यान न देकर ध्रुव को छाती से चिपका लिया।

जयसिंह ने तलवार दूर फेंक दी। ध्रुव की पीठ पर हाथ फेरते हुए बोला, "कोई भय नहीं वत्स, कोई भय नहीं। मैं यह चला, तुम इसी महान आश्रय में रहो, इसी विशाल वक्ष में शोभा पाओ - तुम्हें कोई अलग नहीं करेगा।"

कहते हुए राजा को प्रणाम करके प्रस्थान को तैयार हो गया।

सहसा फिर से क्या सोच कर लौट कर बोला, "महाराज सावधान कर रहा हूँ, आपके भाई नक्षत्रराय ने आपके विनाश की मंत्रणा की है। उनतीसवीं आषाढ़ चतुर्दशी को देव-पूजा की रात आप सावधान रहिए।"

राजा ने हँस कर कहा, "नक्षत्र किसी भी तरह मेरा वध नहीं कर पाएगा, वह मुझे प्यार करता है।"

जयसिंह विदा हो गया।

राजा ने ध्रुव की ओर भक्ति-भाव से देखते हुए कहा, "आज तुम्हीं ने धरती की रक्तपात से रक्षा की है, इसी उद्देश्य के लिए तुम्हारी दीदी तुम्हें छोड़ गई है।"

कह कर ध्रुव के आँसुओं से भीगे दोनों कपोल पोंछ दिए।

ध्रुव ने गंभीर मुँह बना कर पूछा, "दीदी कहाँ है?"

उसी समय बादलों ने आकर सूर्य को ढक लिया, नदी पर काली छाया फैल गई। दूर जंगल का किनारा भी मेघों के समान काला हो उठा। बारिश के आसार देख कर राजा महल लौट आए।

1- गाम्भारी : विभिन्न समान बनाने में काम आने वाले वृक्ष, जैसे- शीशम-सागौन आदि ।

2- गोएल : गाने वाली छोटी चिड़िया, रोबिन ।

3- हयि : हरि

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रचनाएँ
राजर्षि
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राजर्षि'। 'राजर्षि' में कर्तव्य अकर्तव्य की कसौटी पर पापपुण्य की विवेचना करते हुए घर्मांधता के विरुद्ध जिहाद छेड़ने का प्रयास किया गया है। साथ ही रूढ़ियों को धिक्कारते हुए धर्म, प्रकृति एवं समाज को नए परिपेक्ष्य में देखा गया है। राजर्षि के सम्बन्ध में कुछ कहने का अनुरोध किया गया है। कहने को विशेष कुछ नहीं है। इस बारे में मुख्य वक्तव्य यही है कि यह मेरा स्वप्न में उपलब्ध उपन्यास है।राजर्षि के सम्बन्ध में कुछ कहने का अनुरोध किया गया है। कहने को विशेष कुछ नहीं है। इस बारे में मुख्य वक्तव्य यही है कि यह मेरा स्वप्न में उपलब्ध उपन्यास है।
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राजर्षि (उपन्यास) : सूचना

2 अगस्त 2022
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राजर्षि के सम्बन्ध में कुछ कहने का अनुरोध किया गया है। कहने को विशेष कुछ नहीं है। इस बारे में मुख्य वक्तव्य यही है कि यह मेरा स्वप्न में उपलब्ध उपन्यास है। बालक पत्रिका की संपादिका ने मुझे इस मासिक क

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राजर्षि भाग 1

2 अगस्त 2022
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भुवनेश्वरी मंदिर का पत्थर का घाट गोमती नदी में जाकर मिल गया है। एक दिन ग्रीष्म-काल की सुबह त्रिपुरा के महाराजा गोविन्दमाणिक्य स्नान करने आए हैं, उनके भाई नक्षत्रराय भी साथ हैं। ऐसे समय एक छोटी लडकी अप

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भाग 2

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उसके अगले दिन से नींद टूट जाने के बाद, सूर्य उगने पर भी राजा का प्रभात नहीं होता था; उनका प्रभात तभी होता होता था, जब वे दोनों छोटे भाई-बहनों का चेहरा देख लेते थे। वे प्रतिदिन उन लोगों को फूल चुन कर द

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भाग 3

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राज-सभा बैठी है। भुवनेश्वरी देवी मंदिर का पुरोहित कार्यवश राज-दर्शन को आया है। पुरोहित का नाम रघुपति है। इस देश में पुरोहित को चोंताई संबोधित किया जाता है। भुवनेश्वरी देवी की पूजा के चौदह दिन बाद देर

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भाग 4

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भुवनेश्वरी देवी मंदिर का सेवक जयसिंह जाति से राजपूत, क्षत्रिय है। उसके पिता सुचेत सिंह त्रिपुरा राज घराने में पुराने सेवक थे। सुचेत सिंह की मृत्यु के समय जयसिंह एकदम बालक था। इस अनाथ बालक को राजा ने म

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भाग 5

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प्रात:काल नक्षत्रराय ने आकर रघुपति को प्रणाम करके पूछा, "ठाकुर, क्या आदेश है?" रघुपति ने कहा, "तुम्हारे लिए माँ का आदेश है। चलो, माँ को प्रणाम करो।" दोनों मंदिर में गए। जयसिंह भी साथ-साथ गया। नक्षत्

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भाग 6

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नक्षत्रराय के चले जाने पर जयसिंह ने कहा, "गुरुदेव, ऐसी भयानक बात कभी नहीं सुनी। आपने माँ के सम्मुख माँ का नाम लेकर भाई के हाथों भाई की हत्या का प्रस्ताव कर दिया, और मुझे खड़े होकर वही सुनना पड़ा।" रघ

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भाग 7

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जयसिंह को पूरी रात नींद नहीं आई। जिस विषय पर गुरु के साथ चर्चा हुई थी, देखते-देखते उसकी शाखा-प्रशाखाएँ निकालने लगीं। अधिकांश समय आरम्भ हमारे अधिकार में होता है, अंत नहीं। चिन्ता के सम्बन्ध में भी यही

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भाग 8

2 अगस्त 2022
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गोमती नदी का दक्षिणी किनारा एक स्थान पर बहुत ऊँचा है। बारिश की धारा और छोटे-छोटे सोतों ने इस ऊँची भूमि को नाना गुहा-गह्वरों में बाँट दिया है। इसके कुछ दूर बडे-बड़े शाल और गाम्भारी1 वृक्षों ने लगभग अर्

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भाग 9

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मंदिर बहुत दूर नहीं है। लेकिन जयसिंह निर्जन नदी के किनारे से होते हुए बहुत घूम कर धीरे-धीरे मंदिर की ओर चला। उसके मन में भारी चिन्ता उठने लगी। एक जगह नदी के किनारे पेड़ के नीचे बैठ गया। दोनों हाथों से

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भाग 10

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महाराज ने महल लौट कर नियमित राज-काज निबटाया। प्रात:कालीन सूर्यालोक ढक गया है। मेघों की छाया से दिन में ही अंधकार घिर आया है। महाराज अत्यंत अनमने हैं। और दिन नक्षत्रराय राजसभा में उपस्थित रहता है, आज न

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भाग 11

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नक्षत्रराय जब राजा का हाथ पकड़े जंगल से घर लौट रहा था, तब आकाश से थोड़ा-थोड़ा उजाला आ रहा था - किन्तु नीचे जंगल में घना अंधेरा छा रहा है। मानो अंधकार की बाढ़ आ रही है, केवल पेड़ों की चोटियाँ ऊपर से बच

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भाग 12

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जयसिंह उसके अगले दिन मंदिर में लौट कर आया। अब तक पूजा का समय निकल चुका है। रघुपति दुखी चेहरा लिए अकेला बैठा है। इसके पहले कभी ऐसा नियम भंग नहीं हुआ था। जयसिंह गुरु के निकट न जाकर अपने बगीचे में चला ग

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भाग 13

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मंदिर में अनेक लोग एकत्र हो गए हैं। खूब कोलाहल हो रहा है। रघुपति ने रूखे स्वर में पूछा, "तुम लोग क्या करने आए हो?" वे नाना कण्ठों में बोल पडे, "हम लोग ठकुराइन(देवी के काली रूप को ठकुराइन भी कहा जाता

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भाग 14

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उसके अगले दिन आषाढ़ की उनतीसवीं तिथि। आज रात चतुर्दश देवताओं की पूजा है। आज जब प्रभात में ताड़-वन की ओट से सूरज उठ रहा है, तो पूर्व दिशा में बादल नहीं हैं। जब जयसिंह स्वर्णकिरणों से भरे आनंदमय कानन मे

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भाग 15

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चतुर्दशी तिथि। बादल भी छाए हैं, चन्द्रमा भी निकला है। आकाश में कहीं आलोक है, कहीं अंधकार। कभी चन्द्रमा निकल रहा है, कभी चन्द्रमा छिप रहा है। गोमती के किनारे वाला जंगल चन्द्रमा की ओर देख कर अपनी गहन अं

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भाग 16

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राजा के आदेश के अनुसार नक्षत्रराय प्रजा के असंतोष का कारण खोजने के लिए प्रभात-काल में स्वयं बाहर निकला। उसे चिन्ता होने लगी, मंदिर कैसे जाए! रघुपति के सामने पड़ जाने पर वह कैसा सकपका जाता है, अपने को

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भाग 17

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ध्रुव उसी दिन शाम को नक्षत्रराय को देखते ही "चाचा" पुकारते हुए दौड़ा हुआ आया, छोटे-छोटे दोनों हाथ उसके गले में डाल कर, उसके कपोल से कपोल छुआ कर, मुँह के पास मुँह ले गया। धीरे से बोला, "चाचा।" नक्षत्र

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भाग 18

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अगले दिन न्याय। न्यायालय में लोगों की भीड़। न्यायाधीश के आसन पर राजा विराजमान हैं, सभासद चारों ओर बैठे हैं। दोनों बंदी सामने हैं। किसी के भी हाथों में हथकड़ी नहीं हैं। केवल सशस्त्र प्रहरी उन्हें घेरे

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भाग 19

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प्रहरियों ने जब निर्वासन के लिए तैयार रघुपति से पूछा, "ठाकुर, किस दिशा में जाएँगे," तो रघुपति ने उत्तर दिया, "पश्चिम की ओर जाऊँगा।" नौ दिन तक पश्चिम की ओर यात्रा करने के बाद बंदी और प्रहरी ढाका शहर क

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भाग 20

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विजयगढ़ का विशाल जंगल ठगों का अड्डा है। जो रास्ता जंगल में से होकर गुजरा है, उसके दोनों ओर कितने ही नर-कंकाल दबे हैं, उनके ऊपर केवल जंगली फूल खिल रहे हैं, और कोई निशान नहीं। जंगल में वट है, बबूल है, न

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भाग 21

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विजयगढ़ पहाड़ पर है। विजयगढ़ का जंगल दुर्ग के आसपास जाकर समाप्त हो जाता है। रघुपति ने जंगल से बाहर निकल कर अचानक देखा, मानो पत्थर का विशाल दुर्ग नीले आकाश की अवहेलना करते हुए खड़ा है। अरण्य जिस प्रकार

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भाग 22

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किसी प्रकार शाहशुजा को मुट्ठी में करना ही रघुपति का उद्देश्य था। उसने जैसे ही सुना, शुजा दुर्ग पर आक्रमण करने में जुटा है, वैसे ही सोच लिया, मित्र भाव से दुर्ग में प्रवेश करके किसी तरह दुर्ग पर आक्रमण

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भाग 23

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चाचा साहब के लिए क्या आनंद का दिन है। आज दिल्ल्लीश्वर के राजपूत सैनिक विजयगढ़ के अतिथि हुए हैं। प्रबल प्रतापी शाहशुजा आज विजयगढ़ का बंदी है। कार्तवीर्यार्जुन के बाद से विजयगढ़ को ऐसा बंदी और नहीं मिला

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भाग 24

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सुचेत सिंह को चाचा साहब के चंगुल से छूटने में अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ा। कल प्रात: बंदी सहित सम्राट की सेना के कूच का दिन निर्धारित हुआ है, यात्रा की तैयारी के लिए सैनिक नियुक्त हुए हैं। शाहशुजा कै

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भाग 25

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गुजुरपाड़ा ब्रह्मपुत्र के किनारे छोटा-सा गाँव है। एक छोटा-सा जमींदार है, नाम है, पीताम्बर राय; बाशिंदे अधिक नहीं हैं। पीताम्बर अपने पुराने चण्डीमण्डप में बैठा स्वयं को राजा कहता रहता है। उसकी प्रजा भी

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भाग 26

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रघुपति ने पूछा, "यह सब क्या हो रहा था?" नक्षत्रराय ने सिर खुजलाते हुए कहा, "नाच हो रहा था।" रघुपति ने घृणा से मुँह सिकोड़ते हुए कहा, "छी छी!" नक्षत्र अपराधी के समान खड़ा रहा। रघुपति ने कहा

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भाग 27

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दीर्घ पथ। कहीं नदी, कहीं घना जंगल, कहीं छायाहीन प्रांतर - कभी नौका पर, कभी पैदल, कभी टट्टू घोड़े पर - कभी धूप, कभी बारिश, कभी कोलाहल भरा दिन, कभी रात्रि का निस्तब्ध अंधकार - नक्षत्रराय बिना रुके चलता

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भाग 28

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अंतत: राजधानी पहुँच गए। पराजय और पलायन के बाद शुजा नवीन सैन्य-संगठन की कोशिश में लगा है। किन्तु राज-कोष में अधिक धन नहीं है। प्रजा-जन कर के भार से पीड़ित हैं। इसी बीच दारा को पराजित और निहत करके औरंगज

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भाग 29

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इस उपन्यास के आरम्भ काल से अब तक दो वर्ष हो गए हैं। तब ध्रुव दो बरस का बालक था। अब उसकी उम्र चार बरस है। अब वह बहुत बातें सीख गया है। अब वह अपने को बहुत बड़ा आदमी समझता है; यद्यपि सारी बातें साफ-साफ न

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भाग 30

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इस साल त्रिपुरा में एक अभूतपूर्व घटना घटी। सहसा उत्तर से झुण्ड के झुण्ड चूहे त्रिपुरा के खेतों में आ पहुँचे। सारी फसल बर्बाद कर डाली, यहाँ तक कि किसानों के घरों में जितना कुछ अनाज इकट्ठा था, वह भी अधि

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भाग 31

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नक्षत्रराय मुगल सैनिकों का स्वामी बना रास्ते में तेंतुले नाम के एक छोटे-से गाँव में विश्राम कर रहा था। प्रात:काल रघुपति ने आकर कहा, "महाराज, यात्रा पर निकलना है, तैयार हो जाइए।" रघुपति के मुँह से स

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भाग 32

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जब त्रिपुरा में चूहों का उत्पात शुरू हुआ था, तब श्रावण माह था। उस समय खेतों में केवल भुट्टे फल रहे थे और पहाड़ी खेतों में धान में दाने आने प्रारम्भ हुए थे। किसी तरह तीन महीने कट गए - अगहन के महीने में

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भाग 33

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बिल्वन ठाकुर ढेरों कामों में डूब गया। उसने चट्टग्राम के पहाड़ी क्षेत्रों में विविध प्रकार के उपहारों के साथ द्रुतगामी दूत भेज दिए। वहाँ के कुकी ग्राम-मुखियाओं से कुकी सैनिकों के रूप में सहायता की प्रा

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भाग 34

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नक्षत्रराय सैनिकों के साथ आगे बढ़ने लगा, कहीं तिलभर भी बाधा नहीं आई। त्रिपुरा के जिस भी गाँव में उसने कदम रखा, वही गाँव उसकी राजा के रूप में अगवानी करने लगा। पग-पग पर राजत्व का आस्वाद पाने लगा - क्षुध

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भाग 35

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गोविन्दमाणिक्य नक्षत्रराय का उत्तर सुन कर बहुत मर्माहत हुए। बिल्वन ने सोचा, शायद महाराज अब आपत्ति प्रकट नहीं करेंगे। किन्तु गोविन्दमाणिक्य बोले, "यह बात कभी भी नक्षत्रराय की नहीं हो सकती। यह उसी पुरोह

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भाग 36

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बिल्वन ने लौट कर देखा, इस बीच राजा ने कुकियों को विदा कर दिया है, उन्होंने राज्य में उपद्रव आरम्भ कर दिया था। सैनिकों के दल को लगभग भंग कर दिया है। युद्ध की कोई विशेष तैयारी नहीं है। बिल्वन ने लौट कर

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भाग 37

2 अगस्त 2022
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नक्षत्रराय ने सैन्य-सामंतों के साथ पूर्व के द्वार से राजधानी में प्रवेश किया, थोड़ा-सा धन और कुछेक अनुचर लेकर गोविन्दमाणिक्य ने पश्चिम वाले द्वार से यात्रा प्रारम्भ की। नगर के लोगों ने बाँसुरी फूँक कर

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भाग 38

2 अगस्त 2022
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नक्षत्रराय ने छत्रमाणिक्य नाम धारण करके विशाल समारोह में राजपद ग्रहण किया। राजकोष में अधिक धन नहीं था। प्रजा-जनों का सर्वस्व छीन कर वायदे के अनुसार धन देकर मुगल सैनिकों को विदा करना पड़ा। छत्रमाणिक्य

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भाग 39

2 अगस्त 2022
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रामू के दक्षिण में राजाकूल के निकट मगों का जो दुर्ग है, वे अराकान के राजा की अनुमति लेकर वहीं रहने लगे। गाँववालों के जितने बाल-बच्चे थे, सब के सब दुर्ग में गोविन्दमाणिक्य के पास आ जुटे। गोविन्दमाणिक्

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भाग 40

2 अगस्त 2022
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(यह परिच्छेद में  बंगाल का इतिहास से संग्रहीत) इधर शाह शुजा अपने भाई औरंगजेब की सेना द्वारा उत्पीड़ित होकर भागा फिर रहा है। इलाहाबाद के निकट युद्ध क्षेत्र में उसकी पराजय हो गई। विपक्षियों से पराक्रां

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भाग 41

2 अगस्त 2022
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जिस दुर्ग में गोविन्द माणिक्य रहते थे, एक दिन वर्षा के अपराह्न में उसी दुर्ग के मार्ग से एक फकीर के साथ तीन बालक और एक वयप्राप्त भारवाही चले आ रहे हैं। बालक अत्यधिक थके दिखाई पड़ रहे हैं। हवा तेज बह र

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