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भाग 40

2 अगस्त 2022

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(यह परिच्छेद में  बंगाल का इतिहास से संग्रहीत)

इधर शाह शुजा अपने भाई औरंगजेब की सेना द्वारा उत्पीड़ित होकर भागा फिर रहा है। इलाहाबाद के निकट युद्ध क्षेत्र में उसकी पराजय हो गई। विपक्षियों से पराक्रांत शुजा इस विपदा के समय अपने पक्ष वालों पर भी विश्वास नहीं कर पाया। वह अपमानित और भीत भाव में छद्म वेश में साधारण लोगों के समान अकेला भागा फिरने लगा। जहाँ भी जाए, शत्रु सैनिकों की धूलि पताका और उनके घोड़ों के खुरों की आवाजें उसका पीछा करने लगीं। अंत में पटना पहुँच कर उसने फिर से नवाब के वेश में अपने परिवार तथा प्रजा के सामने आने की घोषणा की। उसमें भी, जैसे ही पटना पहुँचा, उसके थोड़े ही समय बाद औरंगजेब का बेटा, शहजादा मुहम्मद सेना सहित पटना के दरवाजे पर आ धमका। शुजा पटना छोड़ कर मुँगेर भाग गया।

मुँगेर में उसके तितर-बितर हुए दलबल के कुछ-कुछ लोग उसके पास आ जुटे और वहाँ उसने नए सैनिक भी इकट्ठे कर लिए। तेरियागढ़ी और शिक्लिगली के किले साफ करके और नदी के किनारे पहाड़ पर प्राचीर का निर्माण करवा कर वह मजबूत होकर बैठ गया।

इधर औरंगजेब ने अपने कुशल सेनापति मीरजुमला को शहजादा मुहम्मद की सहायता के लिए भेज दिया। शहजादा मुहम्मद ने खुलेआम मुँगेर के किले के निकट पहुँच कर पड़ाव डाल दिया और मीरजुमला दूसरे गुप्त मार्ग से मुँगेर की ओर चल पड़ा। जब शुजा शहजादा मुहम्मद के साथ छोट-मोटे युद्ध में उलझा था, उसी समय अचानक समाचार मिला कि मीरजुमला बहुत बड़ी सेना लेकर वसंतपुर आ पहुँचा है। शुजा परेशान होकर तत्काल अपने सारे सैनिकों के साथ मुँगेर छोड़ कर राजमहल भाग गया। उसका पूरा परिवार वहीं रह रहा था। सम्राट के सैनिक बिना देर किए वहाँ भी उसके पीछे पहुँच गए। शुजा ने छह दिन तक प्राणपण से युद्ध करते हुए शत्रु-सैनिकों को आगे नहीं बढ़ने दिया। लेकिन जब देखा कि और बचाव संभव नहीं, तो एक दिन तूफानी अँधेरी रात में अपना पूरा परिवार और यथासंभव धन-संपत्ति लेकर नदी पार करके तोंडा भाग गया तथा वहाँ किले की साफ-सफाई में जुट गया।

उसी समय घनी बारिश आ गई, नदी का पाट चौड़ा और रास्ता कठिन हो गया। सम्राट के सैनिक आगे नहीं बढ़ पाए।

इस युद्ध के पहले शहजादा मुहम्मद के साथ शुजा की कन्या का विवाह तय हो गया था। किन्तु युद्ध के झंझट में दोनों ही पक्ष उस बात को भूल गए थे।

इस समय बारिश के कारण युद्ध स्थगित है और मीरजुमला अपने शिविर को राजमहल से कुछ दूर ले गया है, ऐसे समय तोंडा के शिविर से शुजा के एक सैनिक ने गुप्त रूप से आकर शहजादा मुहम्मद के हाथों में एक चिट्ठी दी। शहजादे ने खोल कर देखा, शुजा की बेटी ने लिखा है - 'शहजादे, क्या यही मेरा भाग्य था? जिसे मन-ही-मन पति-रूप में वरण करके अपना सम्पूर्ण हृदय समर्पित कर दिया, जो अँगूठियों का आदान-प्रदान करके मुझे ग्रहण करने के लिए वचनबद्ध हुआ था, वही आज निष्ठुर तलवार हाथ में लेकर मेरे पिता के प्राण लेने चला आया है, क्या मुझे यही देखना था! शहजादे, क्या यही हमारे विवाह का उत्सव है! क्या इतना बड़ा समारोह उसी के लिए है! क्या उसी कारण आज हमारा राजमहल रक्त से लाल है! क्या उसी कारण शहजादा दिल्ली से हाथों में लोहे की बेड़ियाँ लेकर आया है! यही क्या प्रेम की बेड़ी है!'

इस चिट्ठी को पढ़ते ही मानो अचानक आए प्रबल भूकंप से शहजादे मुहम्मद का हृदय विदीर्ण हो गया। वह एक पल भी चैन से नहीं रह पाया। उसने तत्क्षण साम्राज्य की आशा, बादशाह का अनुग्रह, सब कुछ तुच्छ अनभव किया। उसने प्रथम यौवन की दीप्त अग्नि में हानि-लाभ के सम्पूर्ण विचार का विसर्जन कर दिया। अपने पिता का सारा कार्य उसे अत्यंत अनुचित और निष्ठुर अनभव हुआ। इसके पहले वह पिता की षड्यंत्र-प्रवण निष्ठुर नीति के विरुद्ध पिता के सम्मुख ही अपना मत स्पष्ट रूप से व्यक्त करता था, और कभी-कभी सम्राट का क्रोध-भाजन भी बनता था। आज उसने अपने सेनाध्यक्षों में से कुछ मुख्य-मुख्य लोगों को बुला कर सम्राट की निष्ठुरता, दुष्टता और अत्याचार के सम्बन्ध में असंतोष प्रकट करके कहा, "मैं तोंडा में अपने चाचा के साथ मिलने जा रहा हूँ। तुम लोगों में से जो मुझे प्यार करता हो, मेरे पीछे चला आए!"

वे लंबा सलाम ठोंकते हुए तत्काल बोले, "शहजादे जो कह रहे हैं, वह अति यथार्थ है, देखना कल ही आधे सैनिक तोंडा के शिविर में शहजादे के साथ मिल जाएँगे।"

मुहम्मद उसी दिन नदी पार करके शुजा के शिविर में जा पहुँचा।

तोंडा में उत्सव का वातावरण छा गया। सारे के सारे युद्ध की बात एकदम भूल गए। अब तक केवल पुरुष ही व्यस्त थे, अब शुजा के परिवार में रमणियों के हाथ में भी काम का अंत नहीं रहा। शुजा ने अत्यंत स्नेह और आनंद के साथ मुहम्मद को अंगीकार किया। लगातार के रक्तपात के बाद खून का खिंचाव मानो और बढ़ गया। नृत्य-गीत-वाद्य के बीच विवाह संपन्न हो गया। नाच-गान समाप्त होते-न-होते खबर मिली कि सम्राट की सेना निकट आ गई है।

जैसे ही मुहम्मद शुजा के शिविर में गया, वैसे ही सैनिकों ने मीरजुमला को समाचार भेज दिया। एक सैनिक ने भी मुहम्मद का साथ नहीं दिया, वे समझ गए थे, मुहम्मद ने जान-बूझ कर विपत्ति के सागर में छलाँग लगाई है, वहाँ जाकर उसके दल में मिलना पागलपन है।

शुजा और मुहम्मद को विश्वास था कि सम्राट के अधिकांश सैनिक युद्ध-क्षेत्र में शहजादा मुहम्मद के साथ मिल जाएँगे। मुहम्मद इसी आशा में अपनी पताका फहराते हुए रण-भूमि में उतर गया। सम्राट के सैनिकों का एक बड़ा दल उसकी ओर बढ़ा। मुहम्मद आनंद में फूला न समाया। लेकिन वह दल निकट आते ही मुहम्मद के सैनिकों के दल पर गोले बरसाने लगा। तब मुहम्मद पूरी स्थिति समझ पाया। परन्तु तब और समय नहीं था। उसके सैनिक भाग खड़े हुए। युद्ध में शुजा का बड़ा बेटा मारा गया।

उसी रात हतभागा शुजा और उसका जामाता सपरिवार द्रुतगामी नौका पर सवार होकर ढाका भाग गए। मीरजुमला ने ढाका में शुजा का पीछा करना आवश्यक नहीं समझा। वह विजित क्षेत्र में व्यस्था कायम करने में लग गया।

दुर्दशा के दिनों में विपदा के समय जब मित्र एक-एक कर साथ छोड़ जाते हैं, तब मुहम्मद के धन-प्राण-मान को तुच्छ समझ कर - शुजा का पक्ष लेने के कारण शुजा का हृदय विगलित हो गया। वह मन-प्राण से मुहम्मद को प्यार करने लगा। उसी समय ढाका शहर में औरंगजेब का एक पत्र-वाहक गुप्तचर पकड़ा गया। उसका पत्र शुजा के हाथ लग गया। औरंगजेब ने मुहम्मद को लिखा था, 'सबसे प्यारे बेटे मुहम्मद, तुम अपने कर्तव्य की अवहेलना करके पितृ-द्रोही बन गए हो और अपने निष्कलंक यश पर कलंक लगा लिया है। रमणी की छलनामय हँसी पर मुग्ध होकर अपने धर्म का विसर्जन कर दिया है। भविष्य में जिसके हाथों में सम्पूर्ण मुगल साम्राज्य का शासन-भार आने वाला है, वह आज एक रमणी का दास बना बैठा है! जो भी हो, जब मुहम्मद ने अल्लाह के नाम की कसम खाकर अफसोस जता दिया है, तो मैंने उसे माफ किया। लेकिन जिस काम के लिए गया है, जब उसे पूरा करके आएगा, तभी वह मेरे अनुग्रह का अधिकारी होगा।'

शुजा इस चिट्ठी को पढ़ कर वज्राहत हो गया। मुहम्मद ने बार-बार कहा कि उसने कभी भी पिता के सामने अफसोस प्रकट नहीं किया। यह सब उसके पिता की चालाकी है। लेकिन शुजा का संदेह दूर नहीं हुआ। शुजा तीन दिन तक सोचता रहा। अंत में चौथे दिन बोला, "बेटा, हम लोगों के बीच विश्वास का बंधन ढीला पड़ गया है। इसलिए मैं अनुरोध कर रहा हूँ, तुम अपनी पत्नी को लेकर चले जाओ, अन्यथा हम लोगों के मन को शान्ति नहीं मिलेगी। मैंने राजकोष का दरवाजा खोल दिया है, श्वसुर के उपहार स्वरूप जितनी इच्छा हो, धन-रत्न ले जाओ।"

मुहम्मद ने आँसू बहाते हुए विदा ली, उसकी पत्नी उसके साथ चली गई।

शुजा बोला, "और युद्ध नहीं करूँगा। चट्टग्राम के बंदरगाह से जहाज पर चढ़ कर मक्का चला जाऊँगा।"

कह कर छद्म वेश में ढाका छोड़ कर चला गया।

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रचनाएँ
राजर्षि
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राजर्षि'। 'राजर्षि' में कर्तव्य अकर्तव्य की कसौटी पर पापपुण्य की विवेचना करते हुए घर्मांधता के विरुद्ध जिहाद छेड़ने का प्रयास किया गया है। साथ ही रूढ़ियों को धिक्कारते हुए धर्म, प्रकृति एवं समाज को नए परिपेक्ष्य में देखा गया है। राजर्षि के सम्बन्ध में कुछ कहने का अनुरोध किया गया है। कहने को विशेष कुछ नहीं है। इस बारे में मुख्य वक्तव्य यही है कि यह मेरा स्वप्न में उपलब्ध उपन्यास है।राजर्षि के सम्बन्ध में कुछ कहने का अनुरोध किया गया है। कहने को विशेष कुछ नहीं है। इस बारे में मुख्य वक्तव्य यही है कि यह मेरा स्वप्न में उपलब्ध उपन्यास है।
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राजर्षि (उपन्यास) : सूचना

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राजर्षि के सम्बन्ध में कुछ कहने का अनुरोध किया गया है। कहने को विशेष कुछ नहीं है। इस बारे में मुख्य वक्तव्य यही है कि यह मेरा स्वप्न में उपलब्ध उपन्यास है। बालक पत्रिका की संपादिका ने मुझे इस मासिक क

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राजर्षि भाग 1

2 अगस्त 2022
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भुवनेश्वरी मंदिर का पत्थर का घाट गोमती नदी में जाकर मिल गया है। एक दिन ग्रीष्म-काल की सुबह त्रिपुरा के महाराजा गोविन्दमाणिक्य स्नान करने आए हैं, उनके भाई नक्षत्रराय भी साथ हैं। ऐसे समय एक छोटी लडकी अप

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भाग 2

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उसके अगले दिन से नींद टूट जाने के बाद, सूर्य उगने पर भी राजा का प्रभात नहीं होता था; उनका प्रभात तभी होता होता था, जब वे दोनों छोटे भाई-बहनों का चेहरा देख लेते थे। वे प्रतिदिन उन लोगों को फूल चुन कर द

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भाग 3

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राज-सभा बैठी है। भुवनेश्वरी देवी मंदिर का पुरोहित कार्यवश राज-दर्शन को आया है। पुरोहित का नाम रघुपति है। इस देश में पुरोहित को चोंताई संबोधित किया जाता है। भुवनेश्वरी देवी की पूजा के चौदह दिन बाद देर

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भाग 4

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भुवनेश्वरी देवी मंदिर का सेवक जयसिंह जाति से राजपूत, क्षत्रिय है। उसके पिता सुचेत सिंह त्रिपुरा राज घराने में पुराने सेवक थे। सुचेत सिंह की मृत्यु के समय जयसिंह एकदम बालक था। इस अनाथ बालक को राजा ने म

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भाग 5

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प्रात:काल नक्षत्रराय ने आकर रघुपति को प्रणाम करके पूछा, "ठाकुर, क्या आदेश है?" रघुपति ने कहा, "तुम्हारे लिए माँ का आदेश है। चलो, माँ को प्रणाम करो।" दोनों मंदिर में गए। जयसिंह भी साथ-साथ गया। नक्षत्

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भाग 6

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नक्षत्रराय के चले जाने पर जयसिंह ने कहा, "गुरुदेव, ऐसी भयानक बात कभी नहीं सुनी। आपने माँ के सम्मुख माँ का नाम लेकर भाई के हाथों भाई की हत्या का प्रस्ताव कर दिया, और मुझे खड़े होकर वही सुनना पड़ा।" रघ

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भाग 7

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जयसिंह को पूरी रात नींद नहीं आई। जिस विषय पर गुरु के साथ चर्चा हुई थी, देखते-देखते उसकी शाखा-प्रशाखाएँ निकालने लगीं। अधिकांश समय आरम्भ हमारे अधिकार में होता है, अंत नहीं। चिन्ता के सम्बन्ध में भी यही

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भाग 8

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गोमती नदी का दक्षिणी किनारा एक स्थान पर बहुत ऊँचा है। बारिश की धारा और छोटे-छोटे सोतों ने इस ऊँची भूमि को नाना गुहा-गह्वरों में बाँट दिया है। इसके कुछ दूर बडे-बड़े शाल और गाम्भारी1 वृक्षों ने लगभग अर्

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भाग 9

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मंदिर बहुत दूर नहीं है। लेकिन जयसिंह निर्जन नदी के किनारे से होते हुए बहुत घूम कर धीरे-धीरे मंदिर की ओर चला। उसके मन में भारी चिन्ता उठने लगी। एक जगह नदी के किनारे पेड़ के नीचे बैठ गया। दोनों हाथों से

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भाग 10

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महाराज ने महल लौट कर नियमित राज-काज निबटाया। प्रात:कालीन सूर्यालोक ढक गया है। मेघों की छाया से दिन में ही अंधकार घिर आया है। महाराज अत्यंत अनमने हैं। और दिन नक्षत्रराय राजसभा में उपस्थित रहता है, आज न

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भाग 11

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नक्षत्रराय जब राजा का हाथ पकड़े जंगल से घर लौट रहा था, तब आकाश से थोड़ा-थोड़ा उजाला आ रहा था - किन्तु नीचे जंगल में घना अंधेरा छा रहा है। मानो अंधकार की बाढ़ आ रही है, केवल पेड़ों की चोटियाँ ऊपर से बच

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भाग 12

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जयसिंह उसके अगले दिन मंदिर में लौट कर आया। अब तक पूजा का समय निकल चुका है। रघुपति दुखी चेहरा लिए अकेला बैठा है। इसके पहले कभी ऐसा नियम भंग नहीं हुआ था। जयसिंह गुरु के निकट न जाकर अपने बगीचे में चला ग

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भाग 13

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मंदिर में अनेक लोग एकत्र हो गए हैं। खूब कोलाहल हो रहा है। रघुपति ने रूखे स्वर में पूछा, "तुम लोग क्या करने आए हो?" वे नाना कण्ठों में बोल पडे, "हम लोग ठकुराइन(देवी के काली रूप को ठकुराइन भी कहा जाता

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भाग 14

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उसके अगले दिन आषाढ़ की उनतीसवीं तिथि। आज रात चतुर्दश देवताओं की पूजा है। आज जब प्रभात में ताड़-वन की ओट से सूरज उठ रहा है, तो पूर्व दिशा में बादल नहीं हैं। जब जयसिंह स्वर्णकिरणों से भरे आनंदमय कानन मे

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भाग 15

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चतुर्दशी तिथि। बादल भी छाए हैं, चन्द्रमा भी निकला है। आकाश में कहीं आलोक है, कहीं अंधकार। कभी चन्द्रमा निकल रहा है, कभी चन्द्रमा छिप रहा है। गोमती के किनारे वाला जंगल चन्द्रमा की ओर देख कर अपनी गहन अं

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भाग 16

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राजा के आदेश के अनुसार नक्षत्रराय प्रजा के असंतोष का कारण खोजने के लिए प्रभात-काल में स्वयं बाहर निकला। उसे चिन्ता होने लगी, मंदिर कैसे जाए! रघुपति के सामने पड़ जाने पर वह कैसा सकपका जाता है, अपने को

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भाग 17

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ध्रुव उसी दिन शाम को नक्षत्रराय को देखते ही "चाचा" पुकारते हुए दौड़ा हुआ आया, छोटे-छोटे दोनों हाथ उसके गले में डाल कर, उसके कपोल से कपोल छुआ कर, मुँह के पास मुँह ले गया। धीरे से बोला, "चाचा।" नक्षत्र

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भाग 18

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अगले दिन न्याय। न्यायालय में लोगों की भीड़। न्यायाधीश के आसन पर राजा विराजमान हैं, सभासद चारों ओर बैठे हैं। दोनों बंदी सामने हैं। किसी के भी हाथों में हथकड़ी नहीं हैं। केवल सशस्त्र प्रहरी उन्हें घेरे

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भाग 19

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प्रहरियों ने जब निर्वासन के लिए तैयार रघुपति से पूछा, "ठाकुर, किस दिशा में जाएँगे," तो रघुपति ने उत्तर दिया, "पश्चिम की ओर जाऊँगा।" नौ दिन तक पश्चिम की ओर यात्रा करने के बाद बंदी और प्रहरी ढाका शहर क

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भाग 20

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विजयगढ़ का विशाल जंगल ठगों का अड्डा है। जो रास्ता जंगल में से होकर गुजरा है, उसके दोनों ओर कितने ही नर-कंकाल दबे हैं, उनके ऊपर केवल जंगली फूल खिल रहे हैं, और कोई निशान नहीं। जंगल में वट है, बबूल है, न

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भाग 21

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विजयगढ़ पहाड़ पर है। विजयगढ़ का जंगल दुर्ग के आसपास जाकर समाप्त हो जाता है। रघुपति ने जंगल से बाहर निकल कर अचानक देखा, मानो पत्थर का विशाल दुर्ग नीले आकाश की अवहेलना करते हुए खड़ा है। अरण्य जिस प्रकार

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भाग 22

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किसी प्रकार शाहशुजा को मुट्ठी में करना ही रघुपति का उद्देश्य था। उसने जैसे ही सुना, शुजा दुर्ग पर आक्रमण करने में जुटा है, वैसे ही सोच लिया, मित्र भाव से दुर्ग में प्रवेश करके किसी तरह दुर्ग पर आक्रमण

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भाग 23

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चाचा साहब के लिए क्या आनंद का दिन है। आज दिल्ल्लीश्वर के राजपूत सैनिक विजयगढ़ के अतिथि हुए हैं। प्रबल प्रतापी शाहशुजा आज विजयगढ़ का बंदी है। कार्तवीर्यार्जुन के बाद से विजयगढ़ को ऐसा बंदी और नहीं मिला

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भाग 24

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सुचेत सिंह को चाचा साहब के चंगुल से छूटने में अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ा। कल प्रात: बंदी सहित सम्राट की सेना के कूच का दिन निर्धारित हुआ है, यात्रा की तैयारी के लिए सैनिक नियुक्त हुए हैं। शाहशुजा कै

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भाग 25

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गुजुरपाड़ा ब्रह्मपुत्र के किनारे छोटा-सा गाँव है। एक छोटा-सा जमींदार है, नाम है, पीताम्बर राय; बाशिंदे अधिक नहीं हैं। पीताम्बर अपने पुराने चण्डीमण्डप में बैठा स्वयं को राजा कहता रहता है। उसकी प्रजा भी

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भाग 26

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रघुपति ने पूछा, "यह सब क्या हो रहा था?" नक्षत्रराय ने सिर खुजलाते हुए कहा, "नाच हो रहा था।" रघुपति ने घृणा से मुँह सिकोड़ते हुए कहा, "छी छी!" नक्षत्र अपराधी के समान खड़ा रहा। रघुपति ने कहा

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भाग 27

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दीर्घ पथ। कहीं नदी, कहीं घना जंगल, कहीं छायाहीन प्रांतर - कभी नौका पर, कभी पैदल, कभी टट्टू घोड़े पर - कभी धूप, कभी बारिश, कभी कोलाहल भरा दिन, कभी रात्रि का निस्तब्ध अंधकार - नक्षत्रराय बिना रुके चलता

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भाग 28

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अंतत: राजधानी पहुँच गए। पराजय और पलायन के बाद शुजा नवीन सैन्य-संगठन की कोशिश में लगा है। किन्तु राज-कोष में अधिक धन नहीं है। प्रजा-जन कर के भार से पीड़ित हैं। इसी बीच दारा को पराजित और निहत करके औरंगज

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भाग 29

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इस उपन्यास के आरम्भ काल से अब तक दो वर्ष हो गए हैं। तब ध्रुव दो बरस का बालक था। अब उसकी उम्र चार बरस है। अब वह बहुत बातें सीख गया है। अब वह अपने को बहुत बड़ा आदमी समझता है; यद्यपि सारी बातें साफ-साफ न

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भाग 30

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इस साल त्रिपुरा में एक अभूतपूर्व घटना घटी। सहसा उत्तर से झुण्ड के झुण्ड चूहे त्रिपुरा के खेतों में आ पहुँचे। सारी फसल बर्बाद कर डाली, यहाँ तक कि किसानों के घरों में जितना कुछ अनाज इकट्ठा था, वह भी अधि

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भाग 31

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नक्षत्रराय मुगल सैनिकों का स्वामी बना रास्ते में तेंतुले नाम के एक छोटे-से गाँव में विश्राम कर रहा था। प्रात:काल रघुपति ने आकर कहा, "महाराज, यात्रा पर निकलना है, तैयार हो जाइए।" रघुपति के मुँह से स

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भाग 32

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जब त्रिपुरा में चूहों का उत्पात शुरू हुआ था, तब श्रावण माह था। उस समय खेतों में केवल भुट्टे फल रहे थे और पहाड़ी खेतों में धान में दाने आने प्रारम्भ हुए थे। किसी तरह तीन महीने कट गए - अगहन के महीने में

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भाग 33

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बिल्वन ठाकुर ढेरों कामों में डूब गया। उसने चट्टग्राम के पहाड़ी क्षेत्रों में विविध प्रकार के उपहारों के साथ द्रुतगामी दूत भेज दिए। वहाँ के कुकी ग्राम-मुखियाओं से कुकी सैनिकों के रूप में सहायता की प्रा

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भाग 34

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नक्षत्रराय सैनिकों के साथ आगे बढ़ने लगा, कहीं तिलभर भी बाधा नहीं आई। त्रिपुरा के जिस भी गाँव में उसने कदम रखा, वही गाँव उसकी राजा के रूप में अगवानी करने लगा। पग-पग पर राजत्व का आस्वाद पाने लगा - क्षुध

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गोविन्दमाणिक्य नक्षत्रराय का उत्तर सुन कर बहुत मर्माहत हुए। बिल्वन ने सोचा, शायद महाराज अब आपत्ति प्रकट नहीं करेंगे। किन्तु गोविन्दमाणिक्य बोले, "यह बात कभी भी नक्षत्रराय की नहीं हो सकती। यह उसी पुरोह

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भाग 36

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बिल्वन ने लौट कर देखा, इस बीच राजा ने कुकियों को विदा कर दिया है, उन्होंने राज्य में उपद्रव आरम्भ कर दिया था। सैनिकों के दल को लगभग भंग कर दिया है। युद्ध की कोई विशेष तैयारी नहीं है। बिल्वन ने लौट कर

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नक्षत्रराय ने सैन्य-सामंतों के साथ पूर्व के द्वार से राजधानी में प्रवेश किया, थोड़ा-सा धन और कुछेक अनुचर लेकर गोविन्दमाणिक्य ने पश्चिम वाले द्वार से यात्रा प्रारम्भ की। नगर के लोगों ने बाँसुरी फूँक कर

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भाग 38

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नक्षत्रराय ने छत्रमाणिक्य नाम धारण करके विशाल समारोह में राजपद ग्रहण किया। राजकोष में अधिक धन नहीं था। प्रजा-जनों का सर्वस्व छीन कर वायदे के अनुसार धन देकर मुगल सैनिकों को विदा करना पड़ा। छत्रमाणिक्य

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रामू के दक्षिण में राजाकूल के निकट मगों का जो दुर्ग है, वे अराकान के राजा की अनुमति लेकर वहीं रहने लगे। गाँववालों के जितने बाल-बच्चे थे, सब के सब दुर्ग में गोविन्दमाणिक्य के पास आ जुटे। गोविन्दमाणिक्

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भाग 40

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(यह परिच्छेद में  बंगाल का इतिहास से संग्रहीत) इधर शाह शुजा अपने भाई औरंगजेब की सेना द्वारा उत्पीड़ित होकर भागा फिर रहा है। इलाहाबाद के निकट युद्ध क्षेत्र में उसकी पराजय हो गई। विपक्षियों से पराक्रां

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भाग 41

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जिस दुर्ग में गोविन्द माणिक्य रहते थे, एक दिन वर्षा के अपराह्न में उसी दुर्ग के मार्ग से एक फकीर के साथ तीन बालक और एक वयप्राप्त भारवाही चले आ रहे हैं। बालक अत्यधिक थके दिखाई पड़ रहे हैं। हवा तेज बह र

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