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भाग 10

2 अगस्त 2022

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महाराज ने महल लौट कर नियमित राज-काज निबटाया। प्रात:कालीन सूर्यालोक ढक गया है। मेघों की छाया से दिन में ही अंधकार घिर आया है। महाराज अत्यंत अनमने हैं। और दिन नक्षत्रराय राजसभा में उपस्थित रहता है, आज नहीं था। राजा ने उसे बुलावा भेजा, उसने बहाना बना कर कहलवा दिया, उसका स्वास्थ्य ठीक नहीं है। राजा स्वयं नक्षत्रराय के कक्ष में जा पहुँचे। नक्षत्रराय मुँह उठा कर राजा के चेहरे की ओर नहीं देख सका। एक लिखा हुआ कागज लेकर दिखाया कि काम में व्यस्त है। राजा बोले, "नक्षत्र, तुम्हें क्या बीमारी हुई है?"

नक्षत्रराय ने कागज को इधर से, उधर से उलट-पलट कर उँगलियों का निरीक्षण करते हुए कहा, "बीमारी? नहीं, ठीक-ठीक बीमारी नहीं - यही जरा-सा काम था - हाँ हाँ, बीमार हो गया था - थोड़ा बीमारी की तरह ही कह सकते हैं।"

नक्षत्रराय बहुत अधिक हडबडा उठा, गोविन्दमाणिक्य अत्यधिक दुखी चेहरे से नक्षत्रराय के चेहरे की ओर देखते रहे। वे सोचने लगे - 'हाय हाय, स्नेह के नीड़ में भी हिंसा घुस गई है, वह साँप की तरह छिपना चाहती है, मुँह दिखाना नहीं चाहती। क्या हमारे जंगल में हिंस्र पशु काफी नहीं हैं, अंत में क्या मनुष्य को भी मनुष्य से डरना होगा, भाई भी भाई के निकट जाकर संशयहीन मन से नहीं बैठ पाएगा! इस संसार में हिंसा-लोभ ही इतना बड़ा हो गया, और स्नेह-प्रेम को कहीं भी ठौर नहीं मिला! यही मेरा भाई है, इसके साथ प्रति दिन एक ही घर में रहता हूँ, एक आसन पर बैठता हूँ, हँस कर बातें करता हूँ - यह भी मेरे पास बैठ कर मन में छुरी सान पर चढाता रहता है!' तब गोविन्दमाणिक्य को संसार हिंस्र जंतुओं से भरे अरण्य के समान लगने लगा। घने अंधकार में चारों ओर केवल दाँतों और नाखूनों की छटा दिखाई देने लगी। दीर्घ निश्वास छोड़ते हुए महाराज ने सोचा, 'इस स्नेह-प्रेमहीन, मारकाट भरे राज्य में जीवित रह कर मैं अपनी स्वजाति के, अपने भाइयों के मन में केवल हिंसा लोभ और द्वेष की अग्नि प्रज्वलित कर रहा हूँ - मेरे सिंहासन के चारों ओर मेरे प्राणों से भी अधिक प्रिय संबंधी मेरी ओर देख कर मन-ही-मन मुँह टेढ़ा कर रहे हैं, दाँत घिस रहे हैं, पंक्तिबद्ध भयानक कुत्तों के समान चारों ओर से मुझ पर टूट पडने का अवसर खोज रहे हैं। इसकी अपेक्षा इनके तीक्ष्ण नाखूनों के आघात से छिन्न-विच्छिन्न होकर, इनके रक्त की प्यास बुझा कर यहाँ से दूर चले जाना ही अच्छा है।'

प्रभात के आकाश में गोविन्दमाणिक्य ने जो प्रेम-मुख-छवि देखी थी, वह कहाँ बिला गई!

महाराज उठ खड़े होकर गंभीर स्वर में बोले, "नक्षत्र, आज अपराह्न में हम लोग गोमती के किनारे वाले निर्जन जंगल में घूमने जाएँगे।"

राजा की इस गंभीर आदेश-वाणी के विरुद्ध नक्षत्र के मुँह से बात तक नहीं निकली, बल्कि संशय और आशंका में उसका मन व्याकुल हो उठा। उसे लगने लगा, इतनी देर तक महाराज चुपचाप दोनों नेत्र उसी के मन की ओर लगाए बैठे थे - वहाँ अँधेरे गड्ढों में जो भावनाएँ कीटों के समान किलबिल कर रही थीं, वे मानो अचानक प्रकाश देखते ही चंचल होकर बाहर निकल आई हैं। नक्षत्रराय ने डरते-डरते एक बार राजा के चेहरे की ओर देखा - देखा, उनके चेहरे पर केवल सुगभीर विषण्ण शान्ति का भाव है, वहाँ रोष का लेशमात्र नहीं है। मानव हृदय की कठोर निष्ठुरता देख कर उनके हृदय में केवल गहन शोक विराज रहा था।

दिन ढलने को आ गया। तब भी बादल घिरे हुए हैं। महाराजा नक्षत्रराय को साथ लेकर पैदल अरण्य की ओर चल दिए। अभी संध्या होने में देरी है, किन्तु मेघों के अंधकार में संध्या का भ्रम हो रहा है - कौवे अरण्य में लौट कर लगातार चीत्कार कर रहे हैं, फिर भी दो-एक चीलें अभी तक आकाश में तैर रही हैं। जब दोनों भाइयों ने निर्जन जंगल में प्रवेश किया, तो नक्षत्रराय का शरीर थरथराने लगा। बड़े-बड़े पुराने पेड़ झुण्ड बनाए खड़े हैं - वे एक बात भी नहीं बोल रहे हैं, लेकिन स्थिर होकर जैसे कीटों की पदचाप तक भी सुन रहे हैं; वे केवल अपनी छाया की ओर, नीचे मौजूद अँधेरे की ओर अनिमेष दृष्टि से देख रहे हैं। अरण्य के उस जटिल रहस्य के भीतर जाने में मानो नक्षत्रराय के पैर नहीं उठ रहे हैं - चारों ओर गहन निस्तब्धता की भृकुटी देख कर हृदय धड़कने लगा है; नक्षत्रराय के भीतर अत्यधिक भय और संदेह उत्पन्न हो गया है; भयानक अदृष्ट के समान मौन राजा इस संध्या-काल में संसार से ओट करके उसे कहाँ लिए जा रहे हैं, कुछ भी तय नहीं कर पाया। निश्चयपूर्वक सोचा, राजा की पकड़ में आ गया है, और राजा ने उसे भारी दण्ड देने के लिए इस जंगल में ला पटका है। नक्षत्रराय साँस रोक कर भागे, तो जान बचे, लेकिन लगा कि जैसे कोई हाथ-पाँव बाँध कर उसे खींचे लिए जा रहा है। किसी भी तरह और मुक्ति नहीं।

जंगल के बीच थोड़ी-सी खाली जगह है। वहाँ एक प्राकृतिक जलाशय जैसा है, वह वर्षा-काल में जल से भरा है। सहसा उसी जलाशय के किनारे घूम कर खड़े होने के बाद राजा बोले, "खड़े हो जाओ।"

नक्षत्रराय चौंक कर खड़ा हो गया। लगा कि उसी क्षण राजा का आदेश सुन कर काल का प्रवाह जैसे थम गया - उसी क्षण जैसे जंगल का वृक्ष जो जहाँ था, झुक कर खड़ा हो गया - नीचे से धरती और ऊपर से आकाश मानो साँस रोके स्तब्ध होकर देखने लगे। कौवों का कोलाहल थम गया, जंगल भर में कोई शब्द नहीं। मात्र वही 'खड़े हो जाओ' शब्द बहुत देर तक जैसे गम् गम् करता रहा - वही 'खड़े हो जाओ' शब्द मानो विद्युत-प्रवाह के समान वृक्ष से वृक्षांतर तक, शाखाओं से प्रशाखाओं तक प्रवाहित होने लगा; जंगल का हरेक पत्ता जैसे उसी शब्द के कंपन के प्रभाव से री री करने लगा। मानो नक्षत्रराय भी पेड़ की तरह स्तब्ध होकर खड़ा हो गया।

तब राजा ने नक्षत्रराय के चेहरे पर मर्मभेदी स्थिर विषण्ण दृष्टि स्थापित करके धीरे-धीरे प्रशांत गंभीर स्वर में कहा, "नक्षत्र, तुम मुझे मार डालना चाहते हो?"

नक्षत्र वज्राहत की भाँति खड़ा रहा, उत्तर देने की कोशिश भी नहीं कर पाया।

राजा ने कहा, "क्यों मार डालोगे, भाई? राज्य के लालच में? क्या तुम समझते हो, राज्य केवल सोने का सिंहासन, हीरों का मुकुट और राजछत्र होता है? जानते हो, इस मुकुट, इस राजछत्र, इस राजदण्ड का भार कितना है? शत-सहस्र लोगों की चिन्ता इस हीरे के मुकुट के नीचे ढक रखी है। राज्य पाना चाहते हो, तो हजारों लोगों के दुःख को अपना दुःख मान कर स्वीकार करो, हजारों लोगों की विपदा को अपनी विपदा मान कर वरण करो, हजारों लोगों के दारिद्र्य को अपना दारिद्र्य समझ कर कन्धों पर ढोओ - जो यह करता है, वही राजा होता है, चाहे वह पर्णकुटी में रहे या महल में। जो व्यक्ति सब लोगों को अपना समझ पाता है, सब लोग उसी के होते हैं। जो संसार के दुखों का हरण करता है, वही संसार का राजा है। जो संसार के रक्त और अर्थ का शोषण करता है, वह तो दस्यु है - हजारों अभागों के आँसू दिन-रात उसके सिर पर बरस रहे हैं, अभिशाप की उस धारा से कोई राजछत्र उसकी रक्षा नहीं कर सकता। उसके प्रचुर राज-भोगों में शत-शत उपवासियों की क्षुधा छिपी हुई है, अनाथों का दारिद्र्य गला कर वह सोने के अलंकार गढ़वा कर धारण करता है, उसके भूमि तक लटके राज-वस्त्रों में सैकड़ों-सैकड़ों ठण्ड से ठिठुरने वालों के गंदे फटे कंथे हैं। राजा का वध करके राजत्व प्राप्त नहीं होता भाई, संसार को वश में करके राजा बनना पड़ता है।"

गोविन्दमाणिक्य रुक गए। चारों ओर गहन स्तब्धता विराजने लगी। नक्षत्रराय सिर झुकाए चुप रहा।

महाराज ने म्यान से तलवार निकाल ली। नक्षत्रराय के सामने रखते हुए बोले, "भाई, यहाँ आदमी नहीं है, साक्ष्य नहीं है, कोई नहीं है - अगर भाई, भाई की छाती में छुरी भोंकना चाहता है, तो उसके लिए यही जगह है, यही समय है। यहाँ तुम्हें कोई रोकेगा नहीं, कोई तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। तुम्हारी और मेरी शिराओं में एक ही रक्त बह रहा है, एक ही पिता, एक ही पितामह का रक्त - तुम उसी रक्त को बहाना चाहते हो, बहाओ, लेकिन आदमियों की बस्ती में मत बहाना। कारण, जहाँ ये रक्त-बिंदु गिरेंगे, वहीं अलक्ष्य रूप में भ्रातृत्व का पवित्र बंधन ढीला पड़ जाएगा। कौन जाने, पाप का अंत कहाँ जाकर हो। पाप का एक बीज जहाँ पड़ जाता है, वहाँ देखते-देखते गोपन रूप में कैसे हजारों वृक्ष उत्पन्न हो जाते हैं, कैसे धीरे-धीरे सुशोभन मानव-समाज जंगल में परिणत हो जाता है, यह कोई नहीं जान पाता। अतएव नगर में, गाँव में, जहाँ निश्चिन्त हृदय से परम स्नेह में भाई भाई के साथ मिल कर रहता है, वहाँ भाइयों के घरों के मध्य भाई का रक्त मत बहाना। इसीलिए आज तुम्हें जंगल में बुला लाया हूँ।"

इतना कह कर राजा ने नक्षत्रराय के हाथ में तलवार पकड़ा दी। तलवार नक्षत्रराय के हाथ से भूमि पर गिर पड़ी। नक्षत्रराय दोनों हाथों से चेहरा ढक कर रोते हुए अवरुद्ध कंठ से बोला, "भैया, मैं दोषी नहीं हूँ - यह बात मेरे मन में कभी भी पैदा नहीं हुई... "

राजा ने उसे आलिंगनबद्ध करके कहा, "वह मैं जानता हूँ। तुम क्या मुझे कभी चोट पहुँचा सकते हो - तुम्हें और लोगों ने बुरी सलाह दी है।"

नक्षत्रराय ने कहा, "मुझे केवल रघुपति यह सलाह दे रहा है।"

राजा बोले, "रघुपति की सोहबत से दूर रहो।"

नक्षत्रराय ने कहा, "बताइए, कहाँ जाऊँ! मैं यहाँ रहना नहीं चाहता। मैं यहाँ से... रघुपति की सोहबत से भाग जाना चाहता हूँ।"

राजा बोले, "तुम मेरे पास ही रहो - और कहीं जाने की आवश्यकता नहीं - रघुपति तुम्हारा क्या करेगा!"

नक्षत्रराय ने राजा का हाथ कस कर पकड़ लिया, मानो उसे रघुपति के द्वारा खींच लिए जाने की आशंका हो रही है।

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रचनाएँ
राजर्षि
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राजर्षि'। 'राजर्षि' में कर्तव्य अकर्तव्य की कसौटी पर पापपुण्य की विवेचना करते हुए घर्मांधता के विरुद्ध जिहाद छेड़ने का प्रयास किया गया है। साथ ही रूढ़ियों को धिक्कारते हुए धर्म, प्रकृति एवं समाज को नए परिपेक्ष्य में देखा गया है। राजर्षि के सम्बन्ध में कुछ कहने का अनुरोध किया गया है। कहने को विशेष कुछ नहीं है। इस बारे में मुख्य वक्तव्य यही है कि यह मेरा स्वप्न में उपलब्ध उपन्यास है।राजर्षि के सम्बन्ध में कुछ कहने का अनुरोध किया गया है। कहने को विशेष कुछ नहीं है। इस बारे में मुख्य वक्तव्य यही है कि यह मेरा स्वप्न में उपलब्ध उपन्यास है।
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राजर्षि (उपन्यास) : सूचना

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राजर्षि के सम्बन्ध में कुछ कहने का अनुरोध किया गया है। कहने को विशेष कुछ नहीं है। इस बारे में मुख्य वक्तव्य यही है कि यह मेरा स्वप्न में उपलब्ध उपन्यास है। बालक पत्रिका की संपादिका ने मुझे इस मासिक क

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राजर्षि भाग 1

2 अगस्त 2022
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भुवनेश्वरी मंदिर का पत्थर का घाट गोमती नदी में जाकर मिल गया है। एक दिन ग्रीष्म-काल की सुबह त्रिपुरा के महाराजा गोविन्दमाणिक्य स्नान करने आए हैं, उनके भाई नक्षत्रराय भी साथ हैं। ऐसे समय एक छोटी लडकी अप

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भाग 2

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उसके अगले दिन से नींद टूट जाने के बाद, सूर्य उगने पर भी राजा का प्रभात नहीं होता था; उनका प्रभात तभी होता होता था, जब वे दोनों छोटे भाई-बहनों का चेहरा देख लेते थे। वे प्रतिदिन उन लोगों को फूल चुन कर द

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भाग 3

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राज-सभा बैठी है। भुवनेश्वरी देवी मंदिर का पुरोहित कार्यवश राज-दर्शन को आया है। पुरोहित का नाम रघुपति है। इस देश में पुरोहित को चोंताई संबोधित किया जाता है। भुवनेश्वरी देवी की पूजा के चौदह दिन बाद देर

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भाग 4

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भुवनेश्वरी देवी मंदिर का सेवक जयसिंह जाति से राजपूत, क्षत्रिय है। उसके पिता सुचेत सिंह त्रिपुरा राज घराने में पुराने सेवक थे। सुचेत सिंह की मृत्यु के समय जयसिंह एकदम बालक था। इस अनाथ बालक को राजा ने म

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भाग 5

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प्रात:काल नक्षत्रराय ने आकर रघुपति को प्रणाम करके पूछा, "ठाकुर, क्या आदेश है?" रघुपति ने कहा, "तुम्हारे लिए माँ का आदेश है। चलो, माँ को प्रणाम करो।" दोनों मंदिर में गए। जयसिंह भी साथ-साथ गया। नक्षत्

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भाग 6

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नक्षत्रराय के चले जाने पर जयसिंह ने कहा, "गुरुदेव, ऐसी भयानक बात कभी नहीं सुनी। आपने माँ के सम्मुख माँ का नाम लेकर भाई के हाथों भाई की हत्या का प्रस्ताव कर दिया, और मुझे खड़े होकर वही सुनना पड़ा।" रघ

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भाग 7

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जयसिंह को पूरी रात नींद नहीं आई। जिस विषय पर गुरु के साथ चर्चा हुई थी, देखते-देखते उसकी शाखा-प्रशाखाएँ निकालने लगीं। अधिकांश समय आरम्भ हमारे अधिकार में होता है, अंत नहीं। चिन्ता के सम्बन्ध में भी यही

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भाग 8

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गोमती नदी का दक्षिणी किनारा एक स्थान पर बहुत ऊँचा है। बारिश की धारा और छोटे-छोटे सोतों ने इस ऊँची भूमि को नाना गुहा-गह्वरों में बाँट दिया है। इसके कुछ दूर बडे-बड़े शाल और गाम्भारी1 वृक्षों ने लगभग अर्

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भाग 9

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मंदिर बहुत दूर नहीं है। लेकिन जयसिंह निर्जन नदी के किनारे से होते हुए बहुत घूम कर धीरे-धीरे मंदिर की ओर चला। उसके मन में भारी चिन्ता उठने लगी। एक जगह नदी के किनारे पेड़ के नीचे बैठ गया। दोनों हाथों से

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भाग 10

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महाराज ने महल लौट कर नियमित राज-काज निबटाया। प्रात:कालीन सूर्यालोक ढक गया है। मेघों की छाया से दिन में ही अंधकार घिर आया है। महाराज अत्यंत अनमने हैं। और दिन नक्षत्रराय राजसभा में उपस्थित रहता है, आज न

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भाग 11

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नक्षत्रराय जब राजा का हाथ पकड़े जंगल से घर लौट रहा था, तब आकाश से थोड़ा-थोड़ा उजाला आ रहा था - किन्तु नीचे जंगल में घना अंधेरा छा रहा है। मानो अंधकार की बाढ़ आ रही है, केवल पेड़ों की चोटियाँ ऊपर से बच

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भाग 12

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जयसिंह उसके अगले दिन मंदिर में लौट कर आया। अब तक पूजा का समय निकल चुका है। रघुपति दुखी चेहरा लिए अकेला बैठा है। इसके पहले कभी ऐसा नियम भंग नहीं हुआ था। जयसिंह गुरु के निकट न जाकर अपने बगीचे में चला ग

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भाग 13

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मंदिर में अनेक लोग एकत्र हो गए हैं। खूब कोलाहल हो रहा है। रघुपति ने रूखे स्वर में पूछा, "तुम लोग क्या करने आए हो?" वे नाना कण्ठों में बोल पडे, "हम लोग ठकुराइन(देवी के काली रूप को ठकुराइन भी कहा जाता

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भाग 14

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उसके अगले दिन आषाढ़ की उनतीसवीं तिथि। आज रात चतुर्दश देवताओं की पूजा है। आज जब प्रभात में ताड़-वन की ओट से सूरज उठ रहा है, तो पूर्व दिशा में बादल नहीं हैं। जब जयसिंह स्वर्णकिरणों से भरे आनंदमय कानन मे

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भाग 15

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चतुर्दशी तिथि। बादल भी छाए हैं, चन्द्रमा भी निकला है। आकाश में कहीं आलोक है, कहीं अंधकार। कभी चन्द्रमा निकल रहा है, कभी चन्द्रमा छिप रहा है। गोमती के किनारे वाला जंगल चन्द्रमा की ओर देख कर अपनी गहन अं

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भाग 16

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राजा के आदेश के अनुसार नक्षत्रराय प्रजा के असंतोष का कारण खोजने के लिए प्रभात-काल में स्वयं बाहर निकला। उसे चिन्ता होने लगी, मंदिर कैसे जाए! रघुपति के सामने पड़ जाने पर वह कैसा सकपका जाता है, अपने को

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भाग 17

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ध्रुव उसी दिन शाम को नक्षत्रराय को देखते ही "चाचा" पुकारते हुए दौड़ा हुआ आया, छोटे-छोटे दोनों हाथ उसके गले में डाल कर, उसके कपोल से कपोल छुआ कर, मुँह के पास मुँह ले गया। धीरे से बोला, "चाचा।" नक्षत्र

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भाग 18

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अगले दिन न्याय। न्यायालय में लोगों की भीड़। न्यायाधीश के आसन पर राजा विराजमान हैं, सभासद चारों ओर बैठे हैं। दोनों बंदी सामने हैं। किसी के भी हाथों में हथकड़ी नहीं हैं। केवल सशस्त्र प्रहरी उन्हें घेरे

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भाग 19

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प्रहरियों ने जब निर्वासन के लिए तैयार रघुपति से पूछा, "ठाकुर, किस दिशा में जाएँगे," तो रघुपति ने उत्तर दिया, "पश्चिम की ओर जाऊँगा।" नौ दिन तक पश्चिम की ओर यात्रा करने के बाद बंदी और प्रहरी ढाका शहर क

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भाग 20

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विजयगढ़ का विशाल जंगल ठगों का अड्डा है। जो रास्ता जंगल में से होकर गुजरा है, उसके दोनों ओर कितने ही नर-कंकाल दबे हैं, उनके ऊपर केवल जंगली फूल खिल रहे हैं, और कोई निशान नहीं। जंगल में वट है, बबूल है, न

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भाग 21

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विजयगढ़ पहाड़ पर है। विजयगढ़ का जंगल दुर्ग के आसपास जाकर समाप्त हो जाता है। रघुपति ने जंगल से बाहर निकल कर अचानक देखा, मानो पत्थर का विशाल दुर्ग नीले आकाश की अवहेलना करते हुए खड़ा है। अरण्य जिस प्रकार

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भाग 22

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किसी प्रकार शाहशुजा को मुट्ठी में करना ही रघुपति का उद्देश्य था। उसने जैसे ही सुना, शुजा दुर्ग पर आक्रमण करने में जुटा है, वैसे ही सोच लिया, मित्र भाव से दुर्ग में प्रवेश करके किसी तरह दुर्ग पर आक्रमण

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भाग 23

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चाचा साहब के लिए क्या आनंद का दिन है। आज दिल्ल्लीश्वर के राजपूत सैनिक विजयगढ़ के अतिथि हुए हैं। प्रबल प्रतापी शाहशुजा आज विजयगढ़ का बंदी है। कार्तवीर्यार्जुन के बाद से विजयगढ़ को ऐसा बंदी और नहीं मिला

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भाग 24

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सुचेत सिंह को चाचा साहब के चंगुल से छूटने में अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ा। कल प्रात: बंदी सहित सम्राट की सेना के कूच का दिन निर्धारित हुआ है, यात्रा की तैयारी के लिए सैनिक नियुक्त हुए हैं। शाहशुजा कै

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भाग 25

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गुजुरपाड़ा ब्रह्मपुत्र के किनारे छोटा-सा गाँव है। एक छोटा-सा जमींदार है, नाम है, पीताम्बर राय; बाशिंदे अधिक नहीं हैं। पीताम्बर अपने पुराने चण्डीमण्डप में बैठा स्वयं को राजा कहता रहता है। उसकी प्रजा भी

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भाग 26

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रघुपति ने पूछा, "यह सब क्या हो रहा था?" नक्षत्रराय ने सिर खुजलाते हुए कहा, "नाच हो रहा था।" रघुपति ने घृणा से मुँह सिकोड़ते हुए कहा, "छी छी!" नक्षत्र अपराधी के समान खड़ा रहा। रघुपति ने कहा

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भाग 27

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दीर्घ पथ। कहीं नदी, कहीं घना जंगल, कहीं छायाहीन प्रांतर - कभी नौका पर, कभी पैदल, कभी टट्टू घोड़े पर - कभी धूप, कभी बारिश, कभी कोलाहल भरा दिन, कभी रात्रि का निस्तब्ध अंधकार - नक्षत्रराय बिना रुके चलता

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भाग 28

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अंतत: राजधानी पहुँच गए। पराजय और पलायन के बाद शुजा नवीन सैन्य-संगठन की कोशिश में लगा है। किन्तु राज-कोष में अधिक धन नहीं है। प्रजा-जन कर के भार से पीड़ित हैं। इसी बीच दारा को पराजित और निहत करके औरंगज

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भाग 29

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इस उपन्यास के आरम्भ काल से अब तक दो वर्ष हो गए हैं। तब ध्रुव दो बरस का बालक था। अब उसकी उम्र चार बरस है। अब वह बहुत बातें सीख गया है। अब वह अपने को बहुत बड़ा आदमी समझता है; यद्यपि सारी बातें साफ-साफ न

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भाग 30

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इस साल त्रिपुरा में एक अभूतपूर्व घटना घटी। सहसा उत्तर से झुण्ड के झुण्ड चूहे त्रिपुरा के खेतों में आ पहुँचे। सारी फसल बर्बाद कर डाली, यहाँ तक कि किसानों के घरों में जितना कुछ अनाज इकट्ठा था, वह भी अधि

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भाग 31

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नक्षत्रराय मुगल सैनिकों का स्वामी बना रास्ते में तेंतुले नाम के एक छोटे-से गाँव में विश्राम कर रहा था। प्रात:काल रघुपति ने आकर कहा, "महाराज, यात्रा पर निकलना है, तैयार हो जाइए।" रघुपति के मुँह से स

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जब त्रिपुरा में चूहों का उत्पात शुरू हुआ था, तब श्रावण माह था। उस समय खेतों में केवल भुट्टे फल रहे थे और पहाड़ी खेतों में धान में दाने आने प्रारम्भ हुए थे। किसी तरह तीन महीने कट गए - अगहन के महीने में

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भाग 33

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बिल्वन ठाकुर ढेरों कामों में डूब गया। उसने चट्टग्राम के पहाड़ी क्षेत्रों में विविध प्रकार के उपहारों के साथ द्रुतगामी दूत भेज दिए। वहाँ के कुकी ग्राम-मुखियाओं से कुकी सैनिकों के रूप में सहायता की प्रा

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भाग 34

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नक्षत्रराय सैनिकों के साथ आगे बढ़ने लगा, कहीं तिलभर भी बाधा नहीं आई। त्रिपुरा के जिस भी गाँव में उसने कदम रखा, वही गाँव उसकी राजा के रूप में अगवानी करने लगा। पग-पग पर राजत्व का आस्वाद पाने लगा - क्षुध

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भाग 35

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गोविन्दमाणिक्य नक्षत्रराय का उत्तर सुन कर बहुत मर्माहत हुए। बिल्वन ने सोचा, शायद महाराज अब आपत्ति प्रकट नहीं करेंगे। किन्तु गोविन्दमाणिक्य बोले, "यह बात कभी भी नक्षत्रराय की नहीं हो सकती। यह उसी पुरोह

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भाग 36

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बिल्वन ने लौट कर देखा, इस बीच राजा ने कुकियों को विदा कर दिया है, उन्होंने राज्य में उपद्रव आरम्भ कर दिया था। सैनिकों के दल को लगभग भंग कर दिया है। युद्ध की कोई विशेष तैयारी नहीं है। बिल्वन ने लौट कर

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भाग 37

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नक्षत्रराय ने सैन्य-सामंतों के साथ पूर्व के द्वार से राजधानी में प्रवेश किया, थोड़ा-सा धन और कुछेक अनुचर लेकर गोविन्दमाणिक्य ने पश्चिम वाले द्वार से यात्रा प्रारम्भ की। नगर के लोगों ने बाँसुरी फूँक कर

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भाग 38

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नक्षत्रराय ने छत्रमाणिक्य नाम धारण करके विशाल समारोह में राजपद ग्रहण किया। राजकोष में अधिक धन नहीं था। प्रजा-जनों का सर्वस्व छीन कर वायदे के अनुसार धन देकर मुगल सैनिकों को विदा करना पड़ा। छत्रमाणिक्य

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रामू के दक्षिण में राजाकूल के निकट मगों का जो दुर्ग है, वे अराकान के राजा की अनुमति लेकर वहीं रहने लगे। गाँववालों के जितने बाल-बच्चे थे, सब के सब दुर्ग में गोविन्दमाणिक्य के पास आ जुटे। गोविन्दमाणिक्

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भाग 40

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(यह परिच्छेद में  बंगाल का इतिहास से संग्रहीत) इधर शाह शुजा अपने भाई औरंगजेब की सेना द्वारा उत्पीड़ित होकर भागा फिर रहा है। इलाहाबाद के निकट युद्ध क्षेत्र में उसकी पराजय हो गई। विपक्षियों से पराक्रां

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भाग 41

2 अगस्त 2022
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जिस दुर्ग में गोविन्द माणिक्य रहते थे, एक दिन वर्षा के अपराह्न में उसी दुर्ग के मार्ग से एक फकीर के साथ तीन बालक और एक वयप्राप्त भारवाही चले आ रहे हैं। बालक अत्यधिक थके दिखाई पड़ रहे हैं। हवा तेज बह र

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