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इन्द्रेश मैखुरी
देहरादून : गैरसैण के पास स्थित भराड़ीसैण में 17-18 नवम्बर को हुए विधानसभा सत्र में जो विधेयक पास हुए, उनमे से एक विधेयक का नाम है –“उत्तराखंड कूड़ा फेंकना और थूकना प्रतिषेध विधेयक”. संभवतः इस विधेयक का उद्देश्य कूड़े-कचरे को यत्र-तत्र फेंके जाने पर रोक लगाना होगा. लेकिन विधानसभा का सत्र खत्म होने के बाद भराड़ीसैण से प्राप्त ख़बरों से पता चला कि ‘माननीयों’ के रुखसत होने के बाद वहां चारों ओर सिर्फ कचरा ही बिखरा पड़ा है. गला तर करने के रसिया लोग बता रहे हैं कि शराब के ऐसे-ऐसे ब्रांड की बोतलें बिखरी पड़ी हैं, जिनके उन्होंने नाम तक न सुने थे. एक हजरत ने तंज कसा “खुद तो ऐसा इम्पोर्टेड माल और हमको डेनिस पिला रहे हैं”. विधानसभा सत्र के नाम पर गैरसैण में दो दिन तक जो हुआ, हमें उससे यही हासिल हुआ है. इसमें तीन करोड़ रूपये का खर्च, जिसमे से बारह लाख रूपया खाने पर खर्च हुआ बताया जा रहा है, उसे भी जोड़ लें तो विधानसभा की कार्यवाही की मुक्कमल तस्वीर बन जायेगी. उत्तराखंड के आम जन मानस को देने के लिए सत्ता के पास देने को इससे अधिक है ही क्या?
जिस गैरसैण को राजधानी बनाने के नाम पर यह सत्र का सालाना सैर-सपाटा शुरू हुआ, उसके बारे में क्या हुआ? उस पर सरकार ने गजब तमाशा किया. मुख्यमंत्री हरीश रावत ने कहा कि विपक्ष लिखित में दे कि वे गैरसैण को राजधानी बनाने के पक्ष में है ! विपक्ष तो आपको मुख्यमंत्री बनाए रखने के ही पक्ष में नहीं है तो कुर्सी छोड़ दी आपने? क्या राजधानी विपक्ष की सहमति के बगैर नहीं बन सकती ?अगर राजधानी विपक्ष की सहमति के बगैर नहीं बन सकती तो यह क्यूँ न समझा जाए कि देहरादून में राजधानी को ढांचा राज्य बनते ही भाजपा ने खड़ा किया, उसमे हरीश रावत जी आप और आपकी कांग्रेस पार्टी भी बराबर की हिस्सेदार रही होगी? दरअसल रावत साहब, फैसला तो आप कर चुके हैं कि लोगों को ऐसे ही भ्रम में डाले रखने का. पहाड़ में आओ तो गैरसैण जपो, मैदान में जाओ तो देहरादून रटो. यही आपका फैसला है, इस पर आपके साथ विपक्ष यानि भाजपा की भी सहमति है. रावत साहब ने कहा कि गैरसैण के नाम पर वे जनता का भावनात्मक बंटवारा नहीं करने देंगे.
भावनात्मक बंटवारे से ज्यादा अपने ठेकेदारों के लिए ठेके टेंडरों का बंटवारा करने में आपकी रूचि है, रावत साहब. इसलिए भराड़ीसैण का टेंडर पूरा होते ही देहरादून में रायपुर का टेंडर आपने करवा दिया है. वरना इस तेरह जिलों के छोटे से प्रदेश को तीन विधानसभा भवनों की क्या जरूरत है? मुख्यमंत्री जी, इस काम में भाजपा के साथ, आपका साझा है.मुख्यमंत्री कह रहे हैं, भाजपा लिख कर दे तो हम गैरसैण को राजधानी बनाते हैं. भाजपा वाले कह रहे हैं, आप बनाओ, हम आपके साथ हैं. भाई भाजपा वालो अगर तुम गैरसैंण के इतने हितैषी हो तो तुमने क्यूँ नहीं बनायी गैरसैण में राजधानी? आखिर राज्य बनते ही तुम्हारी सरकार थी यहाँ. उस सरकार में तुमने दो मुख्यमंत्री बनाये पर स्थायी राजधानी नहीं बनायी?
2007 से 2012 के बीच तीन बार मुख्यमंत्री की अदला-बदली की पर स्थायी राजधानी पर चुप रहे. कांग्रेस-भाजपा के स्थायी राजधानी के सवाल को मिल कर उलझाने का एक नमूना तो दीक्षित आयोग भी है. स्थायी राजधानी के चयन के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति वीरेंद्र दीक्षित की अध्यक्षता में बने इस एक सदसीय आयोग का गठन भाजपा की राज्य में बनी पहली कामचलाऊ सरकार के मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी ने किया. 2002 में कांग्रेस के सत्ता में आने पर एन.डी.तिवारी ने इस आयोग को पुनर्जीवित किया. 2007 में भुवन चन्द्र खंडूड़ी मुख्यमंत्री बने. उनके कार्यकाल में भी इस आयोग ने विस्तार पाया.कुल मिल कर 11 बार इसका कार्यकाल विस्तारित हुआ और 60 लाख से अधिक रूपया इस पर खर्च हुआ. इतने के बावजूद राज्य सरकार इस आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने को तैयार नहीं हुई. इन पंक्तियों के लेख क को सूचना के अधिकार के तहत भी उक्त रिपोर्ट को प्राप्त करने के लिए एक वर्ष तक संघर्ष करना पड़ा.
सरकार पर रिपोर्ट न देने के लिए सूचना आयोग ने दस हज़ार रूपया जुर्माना लगाया. देहरादून के रायपुर में भी विधानसभा भवन बनाने को ऐसी ही सहमति है. सूचना अधिकार में प्राप्त राज्य मंत्रिमंडल का कार्यवृत्त बताता है कि रायपुर में विधानसभा भवन बनाने के लिए राज्य सरकार को नेता प्रतिपक्ष और विधानसभा अध्यक्ष ने भी सहमति प्रदान की थी. भराड़ीसैण में जो हुआ, वह विधानसभा के सत्र से ज्यादा मंत्री,विधायकों और अफसरों की सालाना पिकनिक थी. इस सालाना कार्यक्रम में रावत साहब मंत्री, विधायकों के साथ ही प्रदेश भर के प्रशासनिक अमले को गैरसैण की सैर करवाते हैं. आलम यह था कि सत्र के लिए गैरसैण में सचल शौचालय हरिद्वार से आया था. देहरादून में विधानसभा के बाहर प्रदर्शन होता है तो वहीँ की पुलिस होती है, वहीँ का प्रशासनिक अफसर. गैरसैण में स्थायी राजधानी की मांग के लिए प्रदर्शन करने पर हमें गिरफ्तार करने वाला एस.डी.एम. हरिद्वार से आया था और पुलिस अफसर,रूडकी का एस.पी.(सिटी) था.भाजपा वालों की पिकनिक में ज्यादा रूचि नहीं थी. इसलिए उनके मुट्ठीभर विधायक आये और पहले ही दिन लौट गए.
यह सालाना पिकनिक न होती तो भराड़ीसैण में बने विधानसभा भवन को सत्र से इतर अवधि के लिए राज्य अतिथिगृह घोषित न किया जाता.इस मामले के उठने पर मुख्यमंत्री हरीश रावत ने कहा कि उक्त घोषणा का शासनादेश गलती से हो गया होगा. यह इस राज्य में प्रशासन कितनी कुशलता से चल रहा है, इसका नमूना है. राज्य के विधानसभा के एक भवन को राज्य अतिथि गृह घोषित करने का बाकायदा शासनादेश हो जाता है. साल भर तक वह शासनादेश अस्तित्व में रहता है. फिर मामला तूल पकड़ने पर मुख्यमंत्री बेहद सहजता से कह देते हैं कि गलती से हो गया होगा ! वाह,कितने कुशल प्रशासक हैं, हरीश रावत साहब आप ! और ऐसे कितने शासनादेश किये गए हैं गलती से ? कैसे होती है यह गलती? उस शराब के नशे में,जिसके कारोबार पर आपने एक समय “डेनिस कंट्रोल”स्थापित किया था या उस भांग की पिनक में,जिसे पहाड़ के खेतों में उगाने का ख़्वाब है आपका ?
जिस मुख्यमंत्री आवास में अपशकुनी होने के अंधविश्वास के चलते रावत साहब ने रहना गवारा नहीं किया, उसके राज्य अतिथि गृह होने का शासनादेश क्यूँ नहीं जारी हो गया-गलती से ? यह शासनादेश गलती से जारी नहीं हुआ,मुख्यमंत्री महोदय.यह आपकी पार्टी और इस मामले में आपके साझीदार विपक्षी भाजपा की गैरसैण के प्रति भावना को दर्शाता है और इसमें आप दोनों यानि कांग्रेस-भाजपा में कोई “भावनात्मक बंटवारा” भी नहीं है. वहां विधानसभा के सत्र को सत्ता और विपक्ष कितनी गंभीरता से लेता है, इसका एक नमूना पिछले वर्ष नवम्बर माह में हुआ विधानसभा सत्र था. कई महीनों तक उक्त सत्र की तिथि टलती रही.अंततः नवम्बर के प्रथम सप्ताह में पांच दिन के सत्र की घोषणा हुई.लेकिन दूसरे ही दिन सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही बोरिया-बिस्तर समेट कर चलते बने.
इस वर्ष भी सत्र में विपक्ष पहले ही दिन चल दिया और सत्ता पक्ष अगले दिन निकल लिया. गैरसैण का यह जाप तो कुल जमा इसलिए है कि पहाड़ के जरिये देहरादून की गद्दी पर पकड़ मजबूत की जा सके.वरना तो भराड़ीसैण में बने विधानसभा परिसर को राज्य अतिथि गृह घोषित करने वाले शासनादेश को भले ही रद्द करने की घोषणा कर दी गयी हो पर हकीकत तो यही है कि विधानसभा में बैठने वाले सभी “माननीय” वहां राजकीय अतिथि की ही हैसियत से साल में एक बार आते हैं और “कचरा” करके चल देते हैं.