(3)
सुनैना आयने के सामने बैठी अपने रूप को निहार रही हैं।तरह-तरह की बिन्दी लगाके देख चुकी पर मन को न भाई जो उसकें रूप को सितारों सी चमक मिलें।
द्रोण अपना सूट पहनते हुआ आया:-तुम अभी तक तैयार नहीं हुई?तुम, सब औरते घंटे-घंटे भर क्या निहारती रहती हो।निहारने से रूप रंग बदल तो नही जायेंगा।जैसा है बैसा ही रहेगा।
सुनैना को गुस्सा आया तारीफ़ की जगह़,भद्दे शब्द जो सुनने पड़े।:-कम से कम एक बार नज़र भरके देख तो लेते तो सुनैना का रूप और निखर आता।मेरे साथ ऐसा क्यों करते हो?तुम तो मर्द हों, कुछ करना नहीं बस कपड़े पहने कंघी की और तैयार हो गयें।हम औरतों से पूँछो,16श्रृंगार से सजना पढ़ता है।यह सब हम किसके लिए करते है ,ताकि अपने पत्ति को काबू में रख सकें।अगर मैं भी गँवारिन बन जाऊँ तो तुम ही इधर-उधर नज़र गड़ाओगें।
द्रोण:-जा,जा रहने भी दे।मुझे दिखाने के लिए सज रही है कि ओरो को दिखाने के लिए सज रही हे।आज जैसी सजी-धजी है,बैसी तू कभी घर में नहीं रहती।
-मुझे सजने में क्या जाता हैं।दो-चार नौकरानियाँ और लगा दों।इन कपड़ो में काम-धाम होता हैं।
-तो तुम्हारा क्या होगा?मूर्ति बनाकर आले में बैठा़ना है क्या!
-तो तुम मुझे नौकरानी समझते हो?
-मैंने ऐसा कब कहाँ?
-और क्या मतलब है?
-अरी पनवेश्वरी मैं तुझसे जीत नहीं पाऊँगा।चलना भी है या नही तुम्हारे मांयके बाले राह देख रहे होगें।
-तुम जैसे खंडूस को मुझे ही झेलना हैं।जाने का देखा,बाबा ने मुझे फँसा दिया।
-अब तू बात आगे मत बड़ा।मुझ जैसा सौ में एक ही हैं।
अम्मा ने द्रोण और सुनैना की चौक-झौक सुनी तो अंदर आ गई।:-तुम दोनों को जाना नहीं है?जो लड़े ही जा रहे हो,चुप भी हो जाओ।बच्चे कब से तैयार हैं।
सुनैना:-अम्मा हम तो कब के तैयार है,ये ही है।बस ऐसे ही खिच-खिच थी।अम्मा चलते हैं।
सुनैना रिया के कमरे में गई जो स्वेटर बुन रही थीं।व्यस्थ थी कि सुनैना की आने की खब़र भी ना हुई।
सुनैना ने खाँसा:-रिया तुम तो स्वेटर बुनने में इतनी व्यस्थ हों ,मेरी तरफ़ ध्यान ही नहीं हैं।
रिया:-दीदी,वो...जाने कैसे मस्त हो गई।
सुनैना:-मैं यह कहने आई हूँ कि तुमको भी शादी में आना हैं।मेरी बहिन भी तुम्हारी बहिन जैसी हैं।
रिया:-दीदी,आपने कहाँ तो जरूर आऊँगी।
सुनैना:-अब मैं चलती हूँ।
रिया सुनैना को छोड़ने दरबाजे तक आई।
सुनैना:-वृंदा और भानवी,अपनी माँ के साथ आना।अम्मा अब हम चलते हैं।
सब लोग बस में बैठ कर जाने लगें।बीच राह में सुनैना को कुछ याद आया।अपना बैग खोलके देखने लगीं।कपड़े पलट-पलट कर टटोलने लगीं।
द्रोण ने देखा तो पूँछा,"तुम क्या देख रही हो?"
सुनैना:-कुछ नहीं।
द्रोण:-कुछ तो जरूर देख रही हो।आखिर बात का है?
सुनैना:-मै हार लाना भूल गई।अब शादी में क्या पहनूँगी?
द्रोण:-ठीक है।अभी शादी में दो दिन शेष है,मैं ला दूँगा।
सुनैना:-मैं आपसे पूछनाँ तो भूल ही गई।
द्रोण:-मुझे पता है ,क्या पूछनाँ चाहती हो?
द्रोण ने मुँह पर ऊँगली रखी और चुप होने को कहाँ।
सुनैना चुप हो गई।जो हमेशा बड़-बड़ करने बाली कैसे चुप हो सकती थी।पास की ही सींट पर बैठी महिला से पूछाँ, जो सो रही थी।सोने के कारण गर्दन एक तरफ़ झुकी थी-
बहिन-बहिन उठ़ोना...
(ब्रज बोली और कनपुरिया बोली में सम्बाद)
वह महिला बड़बडा़ के उठी और पूँछा,"का टूण्डला आ गयो।"
सुनैना:-टूण्ड़ला जा रही हैं।
महिला:-और तू का जाबत हों?
सुनैना:-मोहि मथुरा जाऩो हैं।
-का बच्चुओं को घुमान बास्ते ले जातु हो?
-नाही।मथुरा के नहीच गोकुल नगरी में हमरो मायका हैं।वही जाबत है।तुम कहाँ से आई हो?
-मैं कानपुर से आई हूँ।अपनी लड़की की पिहर जाबत हूँ।
-अच्छा और कोई है साथ में?
-कहाँ है?हमरी एक ही बिटियाँ है, वो खुश तो हमहु खुश हैं।देखन को बहुत परिवार देखे है,जिनके घर में छोरा ही छोरा है।छाती फार के सब करों,वो बुढ़ापे में एक गिलास पानी भी ना पूछँत हैं।जितनी बिटियाँ पूछँत है,सेबा करत रही उतनी बिटवा ना करत।
-सब बिटवा एकन से न होबत हैं।
-हाँ !यह भी बात चोखी हैं।
मन में सुनैना सोचनें लगी।..और औलाद हुई नहीं होगी।तो और कछु कहेगी क्या।छोरी से ही संतोष करना होंगा।ससुराल में कितने भी दुख हो फिर भी जानकर भी न कहेगी।
तभी फिरोजाब़ाद आ गया,विख्यात ने कहाँ,माँ माँ मोहि चने की दाल खानी हैं।
(चने की दौली नाम से प्रसिद्ध हैं।नीबू मिर्ची मसाला डा़लकर बनाया जाता हैं।)
द्रोण ने चिल्लाया:-जाने क्या उल्टी-सीधी चींज खात रहित हों।घर से निकले कितनी देर भई हैं।
सुनैना:-जब देखो तब चिल्लाते रहते हों।पर्स में से पाँच रूपये दिए।ले लेले।
द्रोण:-तुमने ही आदत बिगाड़ी है।
सुनैना:-हाँ,अभी सोख पूरे न करेगे तो का बुढ़ापे में करेगें।तुम अपने रुपयें बचाके रखों।प्राग्रिया के काम आयेगें।
जो पास महिला बैठी थी,उससे चुप न रहा गया:-यह बात तो गलत कही है।एक औरत होकर छोरी के साथ कैसन बर्ताब करत हो?एक न एक दिन ससुराल जावन ही पड़त हैं।अंन्जाने लोगो के बीच महसूस करेगी।भगवान न चाहे कुछ बुरा हो,ऐसा कुछ हो भी जायें तो सोंचो छोरी के नहीच(नजद़ीक) माँ ही होबत हैं।तुम ही उखड़ी-उखड़ी हो तो किससे दुख- सुख कहेगी।
सुनैना को उस महिला के शब्द जले पर नमक जैसा प्रतीत हो रहे है।कब तक बाते सुने ,जो अपने पति की एक नहीं सुनती हों वो कैसे चुप रह सकती थीं।
ऐसा है चुप रहो,बात क्या की।टे टे प्रवचन बाँचने लगीं।शिक्षा तो हमहू दे सकत है,खुद पर भी लागू करों।एक टकें की बात हम कह रहे है,काँन को खोलकर सुन लो।तो सुनो,तेरी बिटियाँ दुखी होगी जो उससे मिलने जा रही हों।
महिला:-भलाई को तो जमाना नाहि हैं।तेरी बाते तो गिरी हुई है।मेरे कहने न कहने से कछु ना होंगो।भविष्य सब दिखायेगो।
सुनैना:-जा जा।बकबक बकबक चुप हो जा।मैं अभी शालीनता से बात कर रही हूँ।
नाँक सुकोड़ के दोंनो पीठ देकर बैठ गई। टूण्ड़ला स्टोप पर बस रूक गई।उस महिला को लेने ,शायद दामाद और बिटियाँ आयें।
विख्यात:-माँ ,माँ,देखो, " आण्टी को लेने, गाड़ी आई हैं।"
सुनैना को उस महिला की बात रास न आई,"मुझे नहीं देखना।"
सुनैना ने विख्यात से कह तो दिया,पर मन न माना और खिड़की से झाकाँ"बाहर का दृश्य देखकर दंग रह गई।"
उस महिला के पास बेटी और दामाद खड़े थे।उस महिला का सामान एक व्यक्ति डिगीं में रख रहा था।शायद ड्राईवर होगा।दोंनो हँस-हँसकर बाते कर रहे थें।महिला ने अपने दामाद से कुछ कहाँ,"आवाज के कारण कुछ सुनाई न दिया।"दामाद ने ड्राईवर से कुछ लाने का संकेत किया।
बस चली फिर रुकी ....महिला की बेटी ने खिड़की से चॉकलेट का डिब्बा विख्यात को दिया,"इसमें चॉकलेट है तुम्हारे लिए और तुम्हारी बहिन के लिए हैं।"
द्रोण:-नही नही!आपने क्यों दिया?
महिला:-बस मेरी तरफ़ से बच्चों के लिए छोटी सी भेट।फिर हम कभी मिले ऐसा शायद ही हों।सुनैना की तरफ़ हाथ जोड़कर माँफी माँगी।बहिन जी भूल-चूक के लिए,ऐसी कोई बात कही हो जिससे मन को ठेस लगीं हो तो माँफ करना।
बस चलने लगी लेकिन सुनैना ने कोई उत्तर नहीं दिया।दोंनो बच्चों ने हाथ हिलाकर टाटा,हाथ जोड़कर नमस्ते कहाँ।
बस चलने लगी.
द्रोण ने सुनैना से कहाँ,"महिला से कुछ सीख़ भी लो,देखा उसकी बेटी कितनी खुश है।"
सुनैना ने टोंका:-बस !बाहर के सब अच्छें ही लगते है,सबकी तारीफ के फुल बाँध देते हो।दुनियाँ की सारी बुराईयाँ तो मुझमें ही दिखाई देती।
-तुमसे तो बात करना ही बेकार हैं।
-हाँ,हाँ,किसी की तारीफ अपनी मेरारू के सामने करोगें तो कौन क्रोध न करेगी।
जुबान हर समय कैची की तरह कच-कच -कच चलती है ,इसको आराम दिया कर।
-मैं कैची की तरह चलती हूँ,तो तुम मशीन की तरह धड़ -धड़-धड़ चलते हों।
-तुझसे तो बात करना ही बेकार हैं।
शान्त हो गयें।जैसे कमरें में कोई परीक्षा चल रही हों।दोंनो की नौक-झौक बस में बैठे सब यात्री देख रहे थें।किसी ने कुछ नहीं कहाँ,"जानते है वो भी नौक-झौक का हिस्सा ही हैं।"घर में होती होगी।बच्चे भी शान्त हो गयें।बस तो अपनी रफ्तार से चल ही रही थीं।मथुरा भी आ गया।सब उतर कर अपनी-अपनी मंजिल को जाने लगें। राधाकृष्ण के चित्र से मथुरा सजा था।एक दूसरे को अभिन्नद के लिए राधे राधे कर रहे थें।साधु संन्तो और अंग्रेज साधु राधेकृष्ण की भक्तरस में कीर्तन कर रहे थें।
गोकुल जाने के लिए ऑटो में बैठ गयें।
सुनैना:-सुनो !आपने मिठाई तो ले ली?
द्रोण ने माथे पर हाथ रखके कहाँ,"तुमने अच्छी याद दिलाई।"अभी पाँच मिनट में आता हूँ।
द्रोण मिठाई लेने चला गया।सुनैना की नज़र अपने भाई पर पड़ी जो ट्रैक्टर पर थें।सुनैना उतर कर ट्रैक्टर के पास गई
सुनैना के भाई दिव्य की नज़र सुनैना पर पड़ी।उतर के पैर छुएँ।जीजी राधे राधे।
दिव्य:-जीजी अकेली आई हो?
-नही!तुम्हारे जीजाजी भी आयें है।
-बच्चे कहाँ है?
-उस ऑटो में बैठे है।
-जीजी तुम बैठो,बच्चों को लाता हूँ।
-बच्चों चलो।
-मामा जी नमस्ते!
-हाँ,नमस्ते!राधे राधे कहो।तुम्हारे पापा नहीं आये?
-राधे राधे!मामा जी पापा आपके पीछे हैं।
-साले साहब सब ठीकठाक?
पैर हुए राधे राधे।हाँ सब भले चगें हैं।जीजा आपकी कृपा हैं।
-राधे राधे!हमारी मेहरबानी तो मिल ही जायेगी।
-बतियात तो रहेगे ही....चलों।
विख्यात:-मामा जी आपका ट्रैक्टर तो खटारा हैं।
-अरे भाँजे हम भी खट़ारा ही हैं।
सुनैना ने टोका,विख्यात मामा से ऐसा नहीं कहते हैं।
दिव्य:-जीजी रहन दों,यह तो मामा भाँजे की जुगत हैं।
सुनैना:-दिव्य यह बताओ,माँ बाबूजी ठीक तो हैं?
दिव्य:-सब भले चगें है।यह बाताओ कि निशान्त क्यों नहीं आया?
-उसकी पढ़ाई चल रही हैं।कोचिंग भी है,इस साल इण्टर की परीक्षा भी तो हैं।
-जीजी एक दिन निशान्त सबका नाम रोशन करेगा।
-तुम्हारे मुँह में घ्री शक्कर।
-बातो-बातो में पता ही नहीं चला कि घर कब आ गया।नाना-नानी देखेगें कितने खुश होंगे।जीजी आप चलों मैं अभी आता हूँ।
सब लोग दरबाजे पर पहुँच जाते हैं।विख्यात नाना-नानी की रट लगायें अन्दर जाता हैं।
नानी ने देखा तो खुशी का ठिकाना न रहा और अपनी गौदी में बैठा लिया,और लाड़ प्यार ,हाथ पुचकारने लगीं।
नाना-नानी,दादा-दादी,का दुलार ही ऐसा होता है।आँखो में एक अलग ही रोनक दिखाई देंती हैं।आंसमा में चाँद को देखकर 15दिन की खुशी मिलती है,15दिन अंधकार में गुजरता हैं।अंधकार के दिनों में तारों की चाँदनी मन को भाती हैं।जितना प्रेम खुद के बच्चो के प्रति नहीं होता।एक कहावत"मूर से जायदा व्याज प्यारी है।"यह कहावत यहाँ ठीक देखने को मिलती हैं।नाती नवाजे से होती हैं,यही व्याज हैं।
सुनैना भी आ जाती हैं:-माँ के गले लगी।माँ विख्यात परेशान तो नहीं कर रहा?
नानी:-नाहि सुनैना।बच्चों को देखकर घर में खुशी दौड़ जाबत हैं।बच्चों के बिन घर काँटन को दौड़त हैं।
अब लगत है,घर में शादी हैं।
सुनैना:-विख्यात बाहर जाकर खेलों।प्राग्रिया सामान अंदर रख दों।
प्राग्रिया:-जी माँ।
सुनैना:-सुनो जी आप लाये हो?
द्रोण:-हाँ लाया हूँ।
द्रोण ने अन्दर बाली जेब से रुपयें निकाले...यह रहे पचास हजार रुपयें।लो दिव्य गिन लो,अब तो हो गई मेहरबानी।
सुनैना ने जब देखा तो बहुत खुश हुई:-आप इतने अच्छे हो मुझे नहीं पता था।
द्रोण:-आखिर मैं भी चाहता हूँ कि साली की शादी अच्छे घर में हो जायें तो बार-बार रोने धोने का कलेश नहीं होंगा।
दिव्य ने हाथ जोड़कर जीजाजी के चरणों में गिर गया।जीजाजी मैं आपकी रकम चुका दूँगा।रकम देकर भार कम कर दिया।
द्रोण ने उठाकर कहाँ"नही!यह कैसा भार है।"एक रिश्तेदार को दूसरे रिश्तेदार की मदद तो करनी ही चाहिए।इसमें एहसान की क्या बात हैं।
दिव्य:-हर रिश्तेदार आप जैसा थोड़े ही होते हैं।
सुनैना ने आगे आकर दिव्य के सिर पर हाथ रखा:-दिव्य तू मेरा भाई है।तेरे ऊपर बैसे भी बहुत सी जिम्मेदारी हैं।माँ बापू की थोडा़ बोझ ही हल्का कर दिया हैं।कोई एहसान थोड़े ही किया है,आखिर मेरा भी कर्तव्य बनता हैं।
दिव्य:-जीजी!जल्द से जल्द रकम चुका दूगाँ।
सुनैना:-लौटा देना।लौटा देना।अभी कल्पी की शादी की तैयारियाँ देखो।कल्पी कहाँ है?मैंने उसे देखा ही नहीं।
कल्पी मेहदीं लगवा रही थी,और सोच रही थी।हाथों पर शादी की मेहदी लग रही थी, जिससे यादगार बना दें।शहनाई,ढोल नगाडे,डो़ली में बैठी दुल्हन,घोड़ी पर आता दूल्हा,स्वप्न को हाथो पर उतारने प्रयत्न था।कोहिनी तक मेहदी से भर दिए थें।दोंनो हाथों में मेहदी की महक शुशोभित हो रही हैं।ऐसा प्रतीत हो रहा था कि आसमां के सितारे चमक रहे हों।दुल्हन हर रस्म को जीवन का यादगार पल बनाना चाहती हैं।एक मीठी याद,मीठा ख्आब,यही यादों को समेट कर पिया घर जाना चाहती हैं।यही यादें उसकी सहेलियाँ है जो ससुराल में टूटने-बिखरने नहीं देती है।बचपन से यौवन तक हर याद को समेट कर आँखो में बसाकर ले जाना चाहती हैं।दुल्हन के मन में एक डर भी है,अजनवी लोगों के बीच घर के सदस्य का रिश्ता कैसे बना पाऊँगी।सबकी पंसद- नापंसद अलग-अलग हैं।सास- ससुर के बीच़ अपने माता-पिता के समक्ष समझ भी पाऊँगी या नहीं।उन सबका व्यवहार कैसा होगा?सुना तो ऐसा ही है कि छोटी सी गलती का बखेडा़ बना देते हैं।बहू की गलती को चौबारे में पंचायत का स्वरूप ले लेती हैं।बेटे में लाख बुराई हो एक शब्द भी बाहर नहीं कहते हैं।गलती को क्षमा करेगे या बखेड़ा बनायेगें।जाने कैसे-कैसे ख्यालों का सैलाब शुरू हो जाता हैं।जिस दिन से शादी तय होती है उस दिन से ही अनकही,अनसुलझी पहेली को हल करने की कोशिश में जुट जाती हैं।
कल्पी भी मेंहदी रचाकर जीजी के पास आई,नाराज होने की सूरत बना ली....जीजी हम आपसे नाराज हैं।आज आ रही हो हमारी तो कोई चिन्ता ही नहीं हैं।
सुनैना ने कल्पी के गालों पर चुटकी कॉटते हुए स्नेह जताया:-अपनी प्यारी बहिन से नाराज हो सकते हैं...भला।हमकों मेहदी तो दिखाना?
द्रोण ने कल्पी से मझांक करना चाहा...और चिड़ाते हुए कहाँ,"एक बात तो सुनी है कि अगर मेंहदी का रंग गहरा रचे तो.....कहते कहते रूक गया।
कल्पी को शर्म आ गई और बिन कहे चली गई।
सुनैना:-क्या आप भी।क्यों कल्पी से मझ़ाक करते हैं।आप जानते है कि आज तक बात नहीं की हैं।शर्म लगती हैं।कितनी भी मझ़ाक कर लेना,पलट के जवाब नहीं देगी।फिर भी उससे ऐसी बाते करते हैं।पता है ना,हमारी शादी में कल्पी प्राग्रिया जितनी थी।
द्रोण:-कही भी शुरू हो जाती हो।थोडा़ मझ़ाक कर भी लिया तो क्या गुना कर दिया।इकलौती साली है,तब बचपन था।इतना तो हक बनता हैं।
-आज मैं बहुत खुश हूँ।मुझे नहीं पता था कि आप इतने अच्छे हैं।दिव्य की मदद की है,मुझे विश्वास नहीं था।
-मैं तुमसे क्रोध में लड़ता हूँ वो सिर्फ दिखावा हैं।मेरा संसार हमारा परिवार हैं।मैं तुम्हे दुखी कैसे देख सकता हूँ।
-लड़के बालों ने और भी माँग की हैं।उसका क्या होगा?
-तुम काहि चिन्ता करती हों।सब कुछ हो जायेगा।यही ना एक टीवी,फ्रिज और मोटर साईकल सब कुछ शादी के दिन आ जायेगा।
-बस एक बात का डर है।
-किस बात का?
-कृपा को पता न चलें।एकबार अच्छे ससुराल में लड़की चली जायें तो जीवन-भर का कलेश मिट जायेगा।
-कौन बतायेगा?चिन्ता छोडों।आन्नद लो,आन्नद।