लखनऊ ब्यूरो-: लगता है कि 2019 में होने वाले लोकसभाई चुनाव के पहले ही इस देश के नजारे में कई महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिल सकते है। रामलला की जन्मभूमि अयोध्या में मंदिर निर्माण हो सकता है। भाजपा के वरिष्ठ नेता सुब्रह्यमण्यम स्वामी ने कल ही कुछ ऐसा ही संकेत देने की कोशिश की है। इशारों में ही उन्होंने यह भी जता दिया है कि यदि दोनों समुदायों की आपसी बातचीत से यह मसला नहीं हल होता है, तो 2018 में राज्यसभा में भी भाजपा का बहुमत हो जाने पर कानून बनाकर अयोध्या में राममंदिर का निर्माण कराया जायेगा। देश में भाजपा की आज जैसी ‘अभी नहीं, तो कभी नहीं‘ वाली स्थिति पहले कभी नहीं रही है। इसलिये अब इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि मोदी सरकार के कदम भारत को हिंदूराष्ट्र बनाने की डगर पर बढ रहे हैं।
कल ही सुब्रह्यमण्यम स्वामी अयोध्या में राममंदिर के निर्माण को लेकर क्या क्या नहीं बोल गये हैं। किसके भरोसे? सिर्फ अपने बलबूते वह इतनी बडी बोल नहीं बोल सकते हैं। इसके पीछे जरूर किसी न किसी बडी ताकत का उन पर वरद हस्त हो सकता है। चाहे वह संघ का हो, भाजपा के किसी शीर्षपुरुष का हो अथवा इन दोनों का ही हो। ऐसे में लगता यह भी है कि ‘ऊपर‘ के ही इशारे पर उन्होंने शीर्ष अदालत में इस मामले की रोज सुनवाई होने के लिये याचिका दायर की थी। इस पर देश की सबसे बडी अदालत के दिये गये निर्देश का साधु, संतों, विहिप और भाजपा नेताओं ने तो स्वागत किया है। लेकिन, जिलानी जैसे मुस्लिम नेता कोई भी सुलह समझौता करने को तैयार नहीं है।
बहरहाल, ‘सुप्रीम‘ की अपेक्षा के अनुसार, अब इस मामले के दोनों पक्षकारों के बीच सुलह समझौते जरिये दोनों ही समुदायों के बीच सद्भावनापूर्ण सम्मनजनक समाधान ढूढने की कोशिशें शुरू हो गयी हैं। लेकिन, ये परवान पर चढ सकेंगी, ऐसा नहीं लगता। वजह साफ है। इस मामले को लेकर हिंदुओं की ओर से जूझने वाले पैरोकार दिगंबर अखाडे के महंत रामचंद्र परमहंस न रह गये हैं और न मुस्लिम समुदाय के पैरोकार हासिम अंसारी ही। इस मामले में एक दूसरे के विरोधी होते हुए भी निजीतौर पर इन दोनो के बीच बडे मधुर रिश्ते रहे हैं। ढाँचा ढहने के बाद हाशिम के घर में आग लगा दी गयी थी। उस समय परमहंस ने मौके पर पहुँच कर आग बुझाने और बाद में उनका मकान तक बनवाने में बडी मदद की थी। अब दोनों ही समुदायों में ऐसे पैरोकार नहीं रह गये हैं।
हासिम अंसारी का साफ कहना था कि ‘मस्जिद के मुद्दे पर लडने का मतलब यह नहीं है कि उन्हें रामलला से दुश्मनी है। रामलला के बिना तो अयोध्या का कोई मतलब ही नहीं है। रामलला तो हम लोगों के घर के हैं। मुकदमा तो सिर्फ इस बात का है कि यह मंदिर था या मस्जिद? लेकिन, इसे लेकर यदि मुल्क के अमन पर खतरा मंडराया, तो छोड दूंगा इस मामले की पैरोकारी।‘ यही वजह है कि अपनी अंतिम साँस लेने के कुछ पहले ही उन्होंने कहा था कि ‘अब मैं रामलला को तिरपाल में नहीं देख सकता हॅू।‘
बहरहाल, अब इस मामले को दोनों समुदायों की सद्भावना से शांतिपूर्वक सुलझाने के इरादे से विहिप यह कह कर मुस्लिम समुदाय को रास्ते समझाने की कोशिश कर है कि हिंदू और मुस्लिम दोनों ही एक ही पुरखे की संतान हैं। मुगल शासन में हिंदुओं में से एक तबके को विवश होकर इस्लाम धर्म अपनाना पड गया था। अपनी जान बचाने के लिये उनके पास और कोई रास्ता भी नहीं रह गया था। लेकिन, दूसरे समुदाय के कुछ लोगों ने जैसे इस मामले को आपसी समझौते के जरिये न हल होने देने की जैसे कसम खा ली है। वे केवल अदालत की बात करते हैं, जहां पुश्त दर पुश्त तक पेजीदा मुकदमे चलते ही रहते हैं।
इस स्थिति में इन्हीं बातों और घटनाक्रमों आधार पर इस बात के भी संकेत मिलना शुरू हो गये हैं कि अयोध्या में रामलला का मंदिर बनने के साथ ही अब भारत हिंदूराष्ट्र घोषित कर दिये जाने की दिशा में भी आगे बढ रहा है। इसकी भी वजह बहुत साफ है। इसके लिये स्थिति ‘अभी नहीं, तो कभी नहीं‘ जैसी है। इस समय नरेंद्र मोदी जैसे हिंदूवादी लौह पुरुष का देश का प्रधान मंत्री रहना, उत्तर प्रदेश जैसे विशालतम राज्य में सरकार की बागडोर योगी आदित्य नाथ जैसे प्रखर राष्ट्रवादी के हाथ में होना, देश के प्रायः सभी राज्यों में कांग्रेस की सरकारों का सफाया होते रहना और उसकी जगह क्रमशः भाजपा की ही सरकारों का बनते जाना, अगले साल ही राज्य सभा में भी भाजपा का बहुमत हो जाना और योगी आदित्य नाथ के नेतृत्व के उत्तर प्रदेश सरकार को ‘माडल‘ बनाकर देश के सामने पेश करने के लिये किये जा रहे प्रयासों सहित दूसरे अनेक कारणों से इसी संभावना को बल मिल रहा है।
इस संबंध में काबिलेगार बात यह है कि राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री रह चुके हैं। उस दौरान इन्हीं से प्रेरित होकर तत्कालीन बेसिक शिक्षा मंत्री रवींद्र शुक्ल ने सूबे के सभी प्राथमिक स्कूलों में बंदेमातरतम का गान अनिवार्य कर दिया था। इससे बौखलाये अल्पसंख्यक समुदाय के नेताओं ने लखनऊ के सांसद रहे तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिलकर इसके खिलाफ आवाज उठाकर रवींद्र शुक्ल की बर्खास्तगी तक की मांग की थी। इसके बाद ही उन्हें प्रदेश के बेसिक शिक्षा मंत्री के पद से तत्काल हटा कर सडक पर खडा कर दिया था। विवश कल्याण सिंह हाथ मलते ही रहे गये। ‘अटल भय‘ से वह बर्खास्त मंत्री की वह कोई भी मदद नहीं कर सके। लेकिन, इस चुनाव में पहली बार विधायक बने उनके पौत्र संदीप सिंह को राज्य मंत्री बनाकर योगी ने उनके हाथों में प्राथमिक शिक्षा विभाग की भी जिम्मेदारी सौंप दी है। नतीजतन, बचपन से ही बच्चों को राष्ट्रवादी विचारों के सांचे में ढाल देने का काम अब कहीं ज्यादा सुविधाजनक और आसान हो जायेगा।