दादासाहब
फालके का पूरा नाम धुंडीराज गोविन्द फालके है और इनका जन्म महाराष्ट्र के नाशिक
शहर (प्रसिद्ध तीर्थ) से लगभग २०-२५ किमी की दूरी पर स्थित बाबा भोलेनाथ की नगरी
त्र्यंबकेश्वर (यहाँ प्रसिद्ध शिवलिंगों में से एक स्थित भी है) में ३० अप्रैल
१८७० ई. को हुआ था। इनके पिता संस्कृत के प्रकांड पंडित थे और मुम्बई के एलफिंस्तन
कालेज में प्राध्यापक थे। इस कारण दादासाहब की शिक्षा-दीक्षा मुम्बई में ही हुई।
२५ दिसम्बर १८९१ की बात है, मुम्बई में 'अमेरिका-इंडिया थिएटर' में एक विदेशी मूक चलचित्र "लाइफ आफ क्राइस्ट"
दिखाया जा रहा था और दादासाहब भी यह चलचित्र देख रहे थे। चलचित्र देखते समय
दादासाहब को प्रभु ईसामसीह के स्थान पर कृष्ण, राम, समर्थ गुरु रामदास, शिवाजी, संत तुकाराम इत्यादि महान
विभूतियाँ दिखाई दे रही थीं। उन्होंने सोचा क्यों नहीं चलचित्र के माध्यम से
भारतीय महान विभूतियों के चरित्र को चित्रित किया जाए। उन्होंने इस चलचित्र को कई
बार देखा और फिर क्या, उनके हृदय में चलचित्र-निर्माण का
अंकुर फूट पड़ा। उनमें चलचित्र-निर्माण की ललक इतनी बड़ गई कि उन्होंने
चलचित्र-निर्माण संबंधी कई पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन किया और कैमरा लेकर चित्र
खींचना भी शुरु कर दिया। जब दादासाहब ने चलचित्र-निर्माण में अपना ठोस कदम रखा तो
इन्हें बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। जैसे-तैसे कुछ पैसों की व्यवस्था
कर चलचित्र-निर्माण संबंधी उपकरणों को खरीदने के लिए दादासाहब लंदन पहुँचे। वे
वहाँ बाइस्कोप सिने साप्ताहिक के संपादक की मदद से कुछ चलचित्र-निर्माण संबंधी
उपकरण खरीदे और १९१२ के अप्रैल माह में वापस मुम्बई आ गए। उन्होने दादर में अपना
स्टूडियो बनाया और फालके फिल्म के नाम से अपनी संस्था स्थापित की। आठ महीने की
कठोर साधना के बाद दादासाहब के द्वारा पहली मूक फिल्म "राजा
हरिश्चंन्द्र" का निर्माण हुआ। इस चलचित्र (फिल्म) के निर्माता, लेखक, कैमरामैन इत्यादि सबकुछ दादासाहब
ही थे। इस फिल्म में काम करने के लिए कोई स्त्री तैयार नहीं हुई अतः लाचार होकर
तारामती की भूमिका के लिए एक पुरुष पात्र ही चुना गया। इस चलचित्र में दादासाहब
स्वयं नायक (हरिश्चंन्द्र) बने और रोहिताश्व की भूमिका उनके सात वर्षीय पुत्र
भालचन्द्र फालके ने निभाई। यह चलचित्र सर्वप्रथम दिसम्बर १९१२ में कोरोनेशन थिएटर
में प्रदर्शित किया गया। इस चलचित्र के बाद दादासाहब ने दो और पौराणिक फिल्में
"भस्मासुर मोहिनी" और "सावित्री" बनाई। १९१५ में अपनी इन तीन
फिल्मों के साथ दादासाहब विदेश चले गए। लंदन में इन फिल्मों की बहुत प्रशंसा हुई।
कोल्हापुर नरेश के आग्रह पर १९३७ में दादासाहब ने अपनी पहली और अंतिम सवाक फिल्म
"गंगावतरण" बनाई। दादासाहब ने कुल १२५ फिल्मों का निर्माण किया। १६
फ़रवरी १९४४ को ७४ वर्ष की अवस्था में पवित्र तीर्थस्थली नासिक में भारतीय
चलचित्र-जगत का यह अनुपम सूर्य सदा के लिए अस्त हो गया। भारत सरकार उनकी स्मृति
में प्रतिवर्ष चलचित्र-जगत के किसी विशिष्ट व्यक्ति को 'दादा साहब फालके पुरस्कार' प्रदान करती है।
भारतीय
फिल्मों के जनक दादासाहब फालके को उनकी पुण्यतिथि पर भावभीनी श्रधांजलि !!!