3 अप्रैल का दिन भारत और भारतीय सेना के इतिहास में बेहद खास है। क्योंकि इसी
दिन 1914 को महान योद्धा सैम मानेकशा का जन्म हुआ था। मूल गुजराती और पारसी साम
होरमूसजी फराजी जमशेदजी मानेकशा ने ही सन् 1971 में पाकिस्तान को धूल
चटाकर बांग्लादेश को आजाद मुल्क बनाने में अहम भूमिका निभाई थी और 91000 पाक सैनिकों को कर
लिया था कैद| सन् 1971 के युद्ध में जनरल मानेकशा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. श्रीमती इंदिरा
गांधी से वादा किया था कि वे एक हफ्ते के अंदर ही पूर्वी पाकिस्तान को नेस्तनाबूद
कर देंगे। 3 दिसम्बर 1971 को पाकिस्तान ने ही भारत पर हमला बोल दिया था और मानेकशा की बहादुरी के सामने
पाक सेना टिक नहीं सकी। 13 दिन चले इस युद्ध में एक बार फिर पाक को मुंह की खानी
पड़ी और 16 दिसंबर को बांग्लादेश को पाक से आजाद करा दिया गया। इस जंग में 91000 पाक सैनिकों को बंदी
बना लिया गया था, लेकिन पाक सरकार के निवेदन पर सभी सैनिक रिहा कर दिए गए थे। युद्ध के बाद
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जनरल मानेकशा से बहुत खुश हुईं और उन्हें फील्ड मार्शल
बना दिया था। मानेकशा की एक सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे अपने दिल की हरेक बात
खुलकर कहा करते थे। यहां तक कि उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. श्रीमती
इंदिरा गांधी को भी ‘मैडम’ कहने से स्पष्ट मना कर दिया था। इस बारे में उनका कहना था कि यह संबोधन एक खास
वर्ग के लिए उपयोग होता है। इसलिए वे उन्हें ‘प्रधानमंत्री’ ही कहेंगे। इतना ही
नहीं, उन्होंने युद्ध के बाद 26 फरवरी 1977 को पुणे में वीर सावरकर की प्रतिमा के
अनावरण करते समय यह तक दिया था कि अगर इंदिरा गांधी की जगह वीर सावरकर भारत के
प्रधानमंत्री होते तो 1965 के युद्ध में हमारी सेना पाकिस्तान के लाहौर शहर पर
भारतीय तिरंगा फहरा देती। क्योंकि सावरकर हमें पीछे हटने के लिए कभी नहीं कहते।
मानेकशा का जन्म 3 अप्रैल 1914 को अमृतसर के एक पारसी परिवार में हुआ था।
लेकिन उनका परिवार गुजरात के वलसाड शहर से है। मानेकशा के जन्म से कुछ साल पहले ही
परिवार वलसाड से अमृतसर शिफ्ट हो गया था। मानेकशा की प्रारंभिक शिक्षा अमृतसर में
ही हुई। इसके बाद उनका दाखिला नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में हुआ। वे देहरादून स्थित
इंडियन मिल्रिटी ऐकेडमी के पहले बैच के लिए 40 छात्रों में से चुने गए थे। इसके
बाद उनकी नियुक्ति भारतीय सेना में हुई। मानेकशा 1937 में एक सार्वजनिक समारोह में
हिस्सा लेने लाहौर गए थे। जहां उनकी मुलाकात सिल्लो बोडे से हुई। दो साल तक चली
यही दोस्ती 22 अप्रैल 1939 को वैवाहिक रिश्ते में बदल गई। सन् 1969 में वे
सेनाध्यक्ष बने और 1973 में उन्हें फील्ड मार्शल का सम्मान मिला। 1973 में सेना
प्रमुख के पद से सेवानिवृत्त के बाद वे वेलिंगटन में बस गए। वृद्धावस्था में वे
फेफड़ों की घातक बीमारी से ग्रस्त हो गए और इसकी वजह से कोमा में चले गए। आखिरकार
27 जून 2008 को वेलिंगटन के सैन्य हॉस्पिटल में उनका निधन हो गया।
ज्ञातव्य हो कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 17वीं इफेंट्री डिवीजन में 4-12
फ्रंटियर फोर्स रेजीमेंट के कैप्टन के पद पर आसीन मानेकशा बर्मा अभियान के दरमियान
सेतांग नदी के तट पर जापानी सैनिकों से लड़ते हुए गंभीर रूप से घायल हो गए थे।
लेकिन वे हार मानने वालों में से नहीं थे। स्वस्थ होते ही जनरल स्लिम्स की 14वीं
सेना के 12 फ्रंटियर रायफल फोर्स में लेफ्टिनेंट बनकर बर्मा के जंगलों में फिर से
एक बार जापानी सैनिकों से दो-दो हाथ करने जा पहुंचे। घने जंगल में हुई इस भीषण
लड़ाई में वे फिर से घायल हो गए। द्वितीय विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद सैन स्टॉफ
ऑफिसर बनाकर जापानियों को आत्मसमर्पण के लिए इंडो-चाइना भेजा गया। यहां उन्होंने
लगभग 10 हजार युद्धबंदियों के पुनर्वास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सन् 1945 में वे फर्स्ट ग्रेड स्टाफ ऑफिसर बनकर मिल्रिटी ऑपरेशंस डायरेक्ट्रेट
में सेवारत रहे। देश के विभाजन के बाद 1947-48 की काश्मीर के लिए पाकिस्तान से जंग
में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत की आजादी के बाद गोरखा रेजीमेंट की
कमान संभालने वाले वे पहले भारतीय अधिकारी थे। गोरखा रेजीमेंट उन्हें “सैम बहादुर”
के नाम से पुकारा करती थी। सफलताओं का लगातार इतिहास लिखते रहे सैम को नागालैंड
समस्या सुलझाने में अविस्मरणीय योगदान के लिए 1968 में पद्मभूषण से सम्मानित किया
गया।
मानेकशा के जीवन की हाईलाइट्स...
- सख्त ट्रेनिंग पूरी करने के बाद उन्हें फ्रंटीयर फोर्स में लेफ्टिनेंट का पद
मिला।
- दूसरे विश्वयुद्ध में बर्मा की जंग में आठ गोलियां खाने के बाद भी आगे बढ़े
और दुश्मन के मुख्य अड्डे पर कब्जा कर लिया था।
- भारत की आजादी तक वे कर्नल के पद पर पहुंच चुके थे।
- 1948 में काश्मीर युद्ध के दौरान उन्होंने ऐसी चक्रव्यूह रचा था कि
पाकिस्तानी कबाइली लड़ाकों को जान बचाकर वापस पाकिस्तान भागना पड़ गया था।
- सन् 1962 में चीन से करारी शिकस्त के बाद उन्हें पूर्वी क्षेत्र की सेना का
सेनापति बनाया गया था। उनके आते ही पूरी में सेना में जान सी आ गई थी।
- सन् 1971 में पाकिस्तान से हुई जंग में उन्होंने पूरी पाकिस्तानी सेना को
भारतीय सेना के सामने गिड़गिड़ाने पर मजबूर कर दिया था। युद्ध से पहले उन्होंने
तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. श्रीमती इंदिरा गांधी को वचन दिया था कि जीत उनके
कदमों में होगी। उन्होंने ऐसा करके भी दिखाया। इसी के चलते उन्हें भारत के एकमात्र
फील्ड मार्शल का खिताब मिला। (साभार:भास्कर.कॉम)