शिवपाल सिंह यादव की कहानी राजनीति शास्त्र की कक्षा में सुनाई जानी चाहिए। मुलायम सिंह यादव ने अपने इस भाई के दम पर वो सब काम किया जिनकी बारीक जानकारी हम तक नहीं पहुँची है लेकिन जिनसे बनी छवि सब तक पहुँची है। शिवपाल यादव ने उस छवि की परवाह नहीं की और वे ख़ुशी ख़ुशी शिवपाल बने रहे। उनके कंधे पर सपा का सत्ता केंद्र सवारी करता रहा और बाकी अपनी छवि में सुधार करते रहे। राजनीति जब भी अंदरखाने और बाहर से नैतिकता को कुचलती है,अपने भीतर से किसी शिवपाल को पुकारती है। इनके जैसों का होना बताता है कि लिख लो जितना लिखना है, बोल लो जितना बोलना है।
हर दल के अपने अपने शिवपाल हैं। ब्लाक स्तर से लेकर ज़िला स्तर और प्रदेश स्तर पर होते हैं। चश्मा लगाकर देखेंगे तो राष्ट्रीय स्तर पर भी शिवपाल दिख जायेंगे। ज़रूरत के हिसाब से कई शिवपाल होते हैं। जेल के भीतर शिवपाल होते हैं और जेल से बाहर आकर शिवपाल हो जाते हैं। दूसरों के ख़िलाफ़ इस्तमाल करने के लिए शिवपाल होते हैं और फिर इस्तमाल कर बाहर फेंक दिये जाने के लिए भी वही शिवपाल होते हैं। व्यापक छवि सुधार कार्यक्रम के लिए ।
सपा के शिवपाल की हालत को देखते हुए बस याद करना चाहता हूँ कि कैसे इस एक नेता की देहरी पर राजनीति की नैतिकता उधार रखी हुई थी। सपा ने जन्म से लेकर जवानी तक इनके दम पर अपना सीना फुलाया। आज कहा जा रहा है कि मुख्यमंत्री इस शिवपाल को साध कर मुक्त होना चाहते हैं। बुरी छवि को निकाल कर साफ होना चाहते हैं। राजनीति की बुराई एक व्यक्ति में होती है, संस्कृति में नहीं। ऐसा सोचने वाले न राजनीति जानते हैं न संस्कृति। मुख्यमंत्री को बताना चाहिए था कि शिवपाल सिंह यादव में क्या दोष हैं, जिनके कारण उन्हें निकालने या बसाने का खेल चल रहा है। बिना इन आरोप पत्रों के शिवपाल का विस्थापित और पदस्थापित होना कोई मायने नहीं रखता। क्या सपा से और भी बहुत से शिवपाल यादव निकाले जायेंगे। अमर सिंह, राजा भैय्या से लेकर न जाने कितने होंगे। क्या बाकी दलों से शिवपालों को अध्यक्ष पद से लेकर मंत्री पद से हटाया जाने वाला है।
आज शिवपाल के पास सब कुछ हो सकता है मगर छवि नहीं है। वे हटाये जा रहे हैं, बिठाये जा रहे हैं, फिर हटाये जा रहे हैं। उन्हें भी बताना चाहिए कि वे क्यों शिवपाल बने? उनके शिवपाल बनने से किसे लाभ हुआ और उनके सपा से निकलने पर किसे लाभ होगा? हम नहीं जानते कि शिवपाल ने अखिलेश को चुनौती दी है या अखिलेश को कुछ शक हुआ है। आज की राजनीति में ऐसे क़यास ख़ूब लगाये जा सकते हैं कि अमर सिंह के इशारे पर हो रहा है तो अमर सिंह किसके इशारे पर ये सब कर रहे होंगे । शिवपाल का निकाला जाना राजनीति में आउटसोर्स की कोई नई घटना है जिससे किसी को लाभ मिले। अचानक तथाकथित बुरी छवि वाला यह नेता इतना अवांछित क्यों हो गया है?
भारत की राजनीति शिवपाल ही है। शिवपालों में ही भारत की राजनीति है। शिवपाल ही दलों के लोकपाल हैं! हर दल में सरकार बनाने से लेकर बना हुई सरकार गिराने में शिवपाल काम आते हैं। दिल्ली, उत्तराखंड से लेकर अरुणाचल और बिहार तक में शिवपालों के नए नए ज्ञात अज्ञात संस्करण घूम रहे हैं। बिहार में भी लालू यादव की पार्टी राजद में ऐसे दो शिवपाल थे। साधु यादव और सुभाष यादव । दोनों के दम पर कभी लालू खड़े हुए तो दोनों ने लालू का दम फुला दिया। इनमें से एक कांग्रेस में गया वहाँ से निकल कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिल आया क्योंकि शिवपालों का इस्तमाल बाहर वाले भी उसी तरह करते हैं जैसे घर वाले करते हैं।
बिहार में शहाबुद्दीन के रूप में एक शिवपाल लौट आया है। इस शिवपाल को लालू यादव स्वीकार करने में बेचैन हैं। अच्छा ख़ासा उनके पुत्र उनके पुराने दौर की छाया से मुक्त हो रहे थे। तेजस्वी यादव और तेजप्रताप यादव को साधु सुभाष और शहाबुद्दीन की छाया से अलग देखा जा रहा था। कम से कम तेजस्वी अपने तौर पर नई जगह बनाते लग रहे थे लेकिन अब तो वे शहाबुद्दीन के बचाव के लिए बेचैन नज़र आते हैं। उनके भ्राता तेजप्रताप यादव शहाबुद्दीन के शूटर के साथ फोटो में दिख रहे हैं। यह बात मेरी समझ से परे हैं कि क्यों कोई पिता अपने पुत्रों पर ऐसी छायाओं को थोप देगा। राजनीतिक रुप से समझदार पिता ऐसा करे तो पर्दे के पीछे झाँककर जानने बूझने का मन करता है। बीजेपी पर आरोप लगा देने से सवालों के जवाब नहीं मिल जाते हैं। मीडिया का अतिरेक भी समझता हूँ पर यह नहीं समझ पाता कि लालू यादव अपने बच्चों पर शहाबुद्दीन के बचाव की ज़िम्मेदारी थोप पर किसका हित पूरा करना चाहते हैं। जबकि नेता के अलावा वे अपने बच्चों के इर्द गिर्द रहने वाले पिता हैं।
तो मित्रों, यूपी में शिवपाल के निकलने से हंगामा है, बिहार में आने से हंगामा है।क्या कोई अज्ञात शक्ति है जिसकी प्यास शांत करने के लिए शिवपाल का स्वागत हो रहा है। हम सब बाहरी रंग रूप को लेकर मोहित मूर्च्छित होने वाले लोग हैं। अंदर में क्या पकता है और कौन खाता है, कौन जाने। बंद कमरे में राजनीति की चालें किसी उद्योगपति के लिए होती हैं या उसके किसी राजनीतिक पसंद के लिए हम नहीं जान पायेंगे। सबके लिए धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता,हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद यह सब खेल है। मूर्खों को फँसाएँ रखकर लाल बत्ती में घूमने का खेल।
मुद्दे से इतर एक और बात। राजनीति में परिवारवाद एक समस्या है। पर इस समस्या पर हम क्यों बात करते हैं? इसीलिए न कि पार्टी में लोकतंत्र हो। भीतर लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव हो और सब कुछ पारदर्शी हो। निष्ठा के नाम पर ग़ुलामी न हो। संघ के समर्थन से भीतर की गुटबाज़ी फिक्स करने वाली भाजपा के शीर्ष पर भले परिवार न हो लेकिन वह भी कोई आदर्श उदाहरण नहीं है। वो भी एक दूसरे प्रकार के परिवार से चलती है। उसके भीतर भी परिवार पलते हैं।
लोकतंत्र के इस कैंसर से वाम दल भी बचे नहीं हैं। आम आदमी पार्टी भी नहीं है और बसपा भी नहीं है। जदयू, बीजद, तृणमूल, अकाली, द्रमुक, टी आर एस। हमारे राजनीतिक दल आंतरिक रूप से एक गिरोह की तरह संचालित होते हैं। कहीं पार्टियों में परिवार पल रहे हैं तो कहीं परिवार पार्टियों को पाल रहे हैं। सब के सब शिवपालों के भरोसे पल रहे हैं। इनमें नेता के अलावा उद्योगपति और पत्रकार भी जोड़ लीजिये। इसलिए राजनीति या पार्टी से शिवपालों का निकालना इतना आसान नहीं है। आइये सब मिलकर शिवपाल यादव की रक्षा करें। यही काम तो सब अलग अलग शिवपालों के लिए करते हैं तो एक को सूली पर क्यों चढ़ाया जाए।