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भूमिका

13 अगस्त 2022

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 जब दो साहित्यकारों की तुलना की जाती है तो उनके व्यक्तित्व, रचनागत साम्य-वैषम्य, कृतियों की विषयवस्तुगत विशिष्टताएं, सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण और युगीन प्रवृत्तियों आदि को आधार बनाया जाता है। इस प्रकार तुलना करके यह जानने-समझने का प्रयास किया जाता है कि वे कहाँ एक-दूसरे के समीप हैं और कहाँ भिन्नता रखते हैं। उनमें वैचारिक मतभेद या समानता भी हो सकती है। क्योंकि प्रकृति का नियम है, दो वस्तुएं देखने में भले ही एक जैसी लगें लेकिन ठीक-ठीक एक जैसी होती नहीं। एक ही माँ के पेट से पैदा होने वाले बच्चे भी रंग-रूप, आदत, व्यवहार, रूचि आदि में एक जैसे नहीं होते। दो जुड़वाँ बच्चे भी कार्य-व्यवहार आदि में समान स्तर पर नहीं होते। उक्त तथ्यों को ध्यान में रखकर देखें तो दो साहित्यकारों की तुलना करना और भी कठिन कार्य हो सकता है। फिर भी समान स्तर के दो साहित्यकारों में कुछ विषयवस्तुगत ऐसी विशेषताएँ अवश्य हो सकती हैं, जो उन्हें समीप ले आती है और अलग भी करती है। उनमें भले ही काल वैविध्य क्यों न हो? तुलना करने से दोनों साहित्यकारों को निकटता से जानने-समझने का अच्छा अवसर बन सकता है। एक-दूसरे पर पड़ने वाले प्रभाव को भी उनमें देखा जा सकता है। लेकिन वह प्रभाव पड़ता है या नहीं, यह कह पाना थोड़ा कठिन है। क्योंकि कुछ वर्ष पूर्व मुझे कालिदास का ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ नाटक पढ़ने का अवसर मिला, उसके कुछ दिन बाद ही मैंने शेक्सपियर का ‘As you like it’ नाटक पढ़ा। कालिदास ने जिस तरह से शकुंतला के सौन्दर्य का वर्णन किया है, लगभग वैसा ही शेक्सपियर ने नाटक की नायिका रोजालिंड का किया है। इसके साथ ही कालिदास और शेक्सपियर के प्रकृति चित्रण में भी गज़ब की समानताएं दिखाई देती हैं। अब यह किसी भी प्रकार नहीं कहा जा सकता कि शेक्सपियर के ऊपर कालिदास का प्रभाव है। क्योंकि कालिदास संस्कृत के कवि हैं और शेक्सपियर अंग्रेजी के। दोनों के बीच हज़ार वर्ष से भी अधिक समय का अंतर है। शेक्सपियर के समय तक कालिदास की किसी भी कृति का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद नहीं हुआ था। अत: इस उदाहरण के आधार पर कहा जा सकता है कि शायद कुछ ऐसी रचनात्मक प्रवृत्तियां या विशेषताएं होती हैं जो दो साहित्यकारों को समान स्तर पर ला खड़ा कर देती हैं। 

एक बार मैं एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय के विद्वान प्रोफ़ेसर से पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ और सआदत हसन मंटो की तुलना के विषय को लेकर चर्चा कर रहा था। उन्होंने मुझसे सवाल किया कि आप ‘उग्र’ और मंटो में से किस पर एक-दूसरे का प्रभाव स्वीकार करते हैं? सवाल थोड़ा विचित्र था, क्योंकि उक्त दोनों साहित्यकारों को पढ़ते हुए मुझे लगा था कि उनमें से किसी का एक-दूसरे पर कोई प्रभाव नहीं है। फिर भी उनका जीवनवृत्त और रचनाधर्मिता को अलग-अलग रूप में पढ़ते हुए भी उनमें गज़ब की समानताएं दिखती हैं। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में जो समानताएं-विसमताएं हैं वह मात्र संयोग से ही हैं। मैंने अपनी बातें पुष्ट करने के लिए कुछ तथ्यों के उदाहरण दिए तो, उन प्रोफ़ेसर महोदय ने मेरे साथ अपनी सहमति जताई। दोनों लेखक समकालीन थे, लेकिन उनकी कभी आपस में मुलाकात हुई हो मुझे इस प्रकार का भी कोई उदाहरण नहीं मिला है। इस पुस्तक में मैंने ‘उग्र’ और मंटों के व्यक्तित्व और कृतित्व को लेकर कुछ ऐसी ही विशेषताओं की पड़ताल करने का प्रयास किया है, जो उन्हें एक-दूसरे के निकटस्थ ला खड़ा करती है।  

पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ और सआदत हसन मंटो, हिन्दी-उर्दू के ऐसे मूर्धन्य रचनाकार हैं जो अपने समय में काफी विवादास्पद रहे और किन्ही अंशों में आज भी हैं। उनके बहिष्कार के बाकायदा आन्दोलन तक चले। जब उन्होंने समाज की नंगई दिखाई तो उन्हें प्रकृतवादी, अश्लील और भौंडा कहकर उनके खिलाफ़ मुकदमें तक हुए। साजिशें रचकर उन्हें बदनाम किया गया। ऐसा प्राय: कम होता है कि किसी साहित्यकार की लोकप्रियता उसकी दुश्मन बनती हो, लेकिन इन दोनों के साथ ऐसा ही कुछ हुआ। दोनों साहित्यकारों पर विवाद का मुख्य कारण यही था कि वे फहस, अश्लील और साहित्य की उच्च पृष्ठभूमि को न पूरा करने वाला साहित्य लिखते हैं। लेकिन इस सत्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने अपने समय में और बाद की पीढ़ी को न केवल प्रभावित किया बल्कि साहित्य में सामाजिक सरोकार और इंसानी वजूद के प्रश्नों पर सोचने-विचारने और नई परिभाषा गढ़ने पर मजबूर किया।  

इन साहित्यकारों के साहित्य में क्या अश्लीलता है और क्या श्लीलता, यह आज भी बड़े विवाद का प्रश्न है। इस तथ्य को ठीक से समझने के लिए पहले हमें अश्लील और श्लील को भी समझना चाहिए। प्राय: माना जाता है कि जिस साहित्य को पढ़कर शरीर में मादकता जाग उठे, पाठक गरमा जाए, सेक्स करने की इच्छा होने लगे, उसे अश्लील साहित्य की श्रेणी में रखा जाता है। दूसरी ओर, जिसे पढ़कर पाठक उसकी प्रशंसा करे, उससे रसानुभूति ग्रहण करे, प्रेम और सौन्दर्य की अनुभूति हो, उसे बार-बार पढ़ने का मन हो, उसे श्लील साहित्य की श्रेणी में रखा जाता है।  

अब एक अन्य सवाल ये है कि क्या कामुकता जगाने वाली अनुभूति केवल गद्य साहित्य में होती है या फिर काव्य में भी इस प्रकार की अनुभूति होती है? क्योंकि जब हम काव्य में विद्यापति और सूरदास के काव्य में नायक-नायिका के प्रेम का नग्न चित्रण पढ़ते हैं तो उसे घोर श्रृंगार की संज्ञा देने लगते हैं। दोनों कवियों के कुच मर्दन और नीबी तोड़न पर अनेक पद्य हैं। मैं अपने वक्तिगत अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि उनमें पाठक को गरमाने की पूरी-पूरी क्षमता है। रीतिकालीन कवियों के श्रृंगार वर्णन को किसी को भी प्रेम और सौन्दर्य का चित्रण कहने कठिनाई नहीं होती। तो फिर वही श्रृंगार, प्रेम और सौन्दर्य का वर्णन गद्य में अश्लील कैसे बन जाता है? यह एक विचारणीय प्रश्न है। अजन्ता और एलोरा की गुफाओं में शिल्पकारी की अप्रतिम मूर्तियों में आज तक किसी को कोई अश्लीलता नहीं दिखाई दी। जबकि उनका खुलापन किसी से छिपा नहीं है। इससे अनुमान लगाया जा सकता हैं कि वस्तुओं को देखने का यह अपना-अपना दृष्टिकोण है। 

वर्तमान में इस विश्वास पर सन्देह करने में किसी को तनिक भी कठिनाई नहीं होती कि साहित्य के नाम पर कितनी घिनौनी गंदगी रची जा रही है। अत: ‘उग्र’ और मंटो जैसे साहित्यकारों की याद हो आना स्वाभाविक है। प्रतिस्पृद्धा के इस दौर में आज जब यौन शिक्षा को भी अनिवार्य माना जा रहा है तो लगता है, ‘उग्र’ और मंटो के साथ घोर अन्याय हुआ था। वर्तमान सन्दर्भ की दृष्टि से इन रचनाकारों की कोई भी रचना किसी भी पाठ़क को अश्लील लगने की संभावना नहीं। क्योंकि आज विज्ञापनों में दिखने वाली सैक्सी तस्वीरों, सैक्स को समझने वाले लेखों, स्तम्भों, अश्लील फिल्मों की स्वीकार्यता, फीचर फिल्मों में अनिवार्य माने जाने वाले हॉट सोंग और हॉट सीन को देखकर लगता है कि दोनों साहित्यकरों ने कुछ भी अश्लील नहीं लिखा। उन्होंने उस समय जो कुछ लिखा, यदि वह आज लिखा होता तो निश्चित रूप से उनकी किसी भी कहानी, उपन्यास या अन्य रचना पर मुकदमा या विवाद न हुआ होता। बल्कि वे किसी बड़े सम्मान या पुरस्कार के अधिकारी होते। 

‘उग्र’ और मंटो हमेशा अपने साहित्य की पैरवी करते हुए यही दावा करते रहे कि उन्होंने एक शब्द भी अश्लील नहीं लिखा है। लोगों को गरमाने या पथभ्रष्ट करने का उनका कोई मक़सद नहीं। वे समाज से पूछते रहे कि क्या उनके साहित्य को पढ़कर लोग वेश्याल्यों की ओर दौड़ने लगते हैं? या फिर बलात्कार करने लगते हैं। साहित्य लेखन के वे सारे नियम-कायदे जानते हैं। उन्होंने अपनी ओर से हर संभव तर्क देकर लोगों को समझाने के प्रयास किए, लेकिन उस समय ‘मर्ज बढ़ता ही गया, ज्यों-ज्यों दवा की’ वाली स्थिति उनके साथ हो गई थी।  

वे ऐसे साहित्यकार हैं जो किसी विचारधारा के पिछलग्गू नहीं बने, न उन्होंने कोई साहित्यिक आन्दोलन चलाया। फिर भी अपने विद्रोही विचारों के कारण वे आजीवन एक आन्दोलन बने रहे। स्वतन्त्र और उन्मुक्त विचारों के कारण वे खूब चर्चित हुए। नैतिक पाखंड, भ्रष्टाचार, दलित और स्त्री विमर्श, वेश्याओं की समस्या आदि की पहचान में वे अपने समकालीनों से बहुत आगे दिखे थे। उस समय तक उपन्यास और कहानी की विद्रोही अवस्था का इतना गम्भीर एहसास किसी अन्य साहित्यकार को नहीं था जितना कि उन दोनों को था। उस समय तक साहित्य का स्वरूप, लक्ष्य प्राप्ति और नैतिकता से परिपूर्ण था। आदर्शवादी कल्पनाओं की कारा से निकलकर सामाजिक बुराईयों को उजागर करना अपराध समझा जाता था। उन्होंने पहले से चली आ रही इस धारणा पर भरपूर चोट की कि साहित्य संभ्रांत वर्ग का पाबन्द नहीं है। दोनों साहित्यकार स्वीकार करते थे कि समाज में जो कुछ बुरा या ग़लत हो रहा है वह संभ्रांत वर्ग के नैतिक पतन का परिणाम है। दोनों ने यथार्थ के साथ रोमांस का मिश्रण करके अपने उपन्यास और कहानियों की रचना की थी। अतः वे यथार्थवादियों द्वारा अधिक सराही गई। नग्न सत्य के आग्रही कलाकार होने के कारण उन्होंने रोमांटिक सामाजिक घटनाओं को ज्यों का त्यों चित्रित किया था। इसीलिए उनके साहित्य में परंपरागत रूढ़ियों, प्रचलित जड़ताओं, सामाजिक अव्यवस्था, सांप्रदायिकता, चाकलेट पंथी, नारी दुर्दशा आदि का नग्न रूप दिखाई दिया।  

जिस समय ‘उग्र’ और मंटो का साहित्य की परिधि में आगमन हुआ था उस समय कई सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक आन्दोलन खड़े थे, यथा- आदर्शवाद, राष्ट्रवाद, छायावाद, परंपरावाद, प्रगतिवाद, उपनिवेशवाद, मनोविश्लेषणवाद और यथार्थवाद आदि। युग और परिस्थिति के अनुसार उनको भी किसी न किसी वाद या साहित्यधारा में बंधकर चलना था। उस समय की माँग यही थी। लेकिन अपनी स्वच्छन्द प्रवृति, स्वतन्त्र और विद्रोही विचारधारा के कारण वे किसी वाद या साहित्यधारा में अंट ही नहीं पा रहे थे। फलतः उन्हें अपने उपन्यास और कहानियों के लिए विचित्र स्थितियों और परिस्थितियों से गुजरना पड़ा। उन्हें एक तरफ आदर्शवादी लताड़ने-कोसने लगे, तो दूसरी तरफ परंपरावादी। अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाकर उन्होंने जो कुछ लिखा, उसमें कभी प्रगतिवादियों ने टंगड़ी अड़ाई तो कभी संस्कृतिधर्मियों ने। उनके लेखन में सत्य के प्रति आग्रह और स्वाभिमान की प्रबलता का आदर्श सन्निहित था। उन्होंने नैतिक और अनैतिक के वाद-विवाद में न पड़कर केवल वही लिखा जो समय का यथार्थ था। ये लेखक संस्कृतिधर्मी नहीं संस्कृतिकृमी थे। उन्होंने युग प्रवर्तनकारी साहित्यकार की भूमिका निभाई। विभिन्न प्रकार की साहित्यिक दृष्टि को अंगीकृत करते हुए, उन्होंने उन विषयों पर लिखा, जो छूट रहे थे या अनदेखे किए जा रहे थे। इसलिए आज के बदलते परिवेश में भी ये साहित्यकार उसी रूचि के साथ पढ़े जा रहे हैं जैसे अपने समय में पढ़े जाते थे। 

आज ऐसे साहित्य की अधिक आवश्यकता अनुभव की जा रही है, जो कड़वी चीजों को कड़वे ढंग से ही सामने रखता हो। ‘उग्र’ के साहित्य में इस प्रकार का गुण बराबर देखा जा सकता है। अपने उग्र तेवर और दिगम्बरी शैली के कारण उन्हें पुरातनपंथियों के कठोर विरोध का सामना करना पड़ा था। ‘समलैंगिकता’ जैसे विषय पर लिखने के कारण वे मर्यादावादियों के कोपभाजन बने। आज ‘उग्र’ भले ही हमारे बीच नहीं है, परन्तु समय के सच को ब्यान करने वाली उनकी कृतियाँ आने वाली पीढ़ी को वर्षों तक रचनात्मक समृद्धि देती रहेंगी। क्योंकि वर्तमान में साहित्य और समाज की दिशा व दशा पूर्णतः परिवर्तित हो चुकी है। आज समलैंगिकता को अनेक देशों में विधिक मान्यता मिल गई है। इस विषय पर फिल्में भी बन रही हैं और खूब साहित्य रचा जा रहा है। पंकज बिष्ट ने अपना उपन्यास ‘पंख वाली नाव’ इसी विषय पर लिखा है। आज ऐसी फिल्मों और साहित्य का विरोध होने के बजाय उसे खूब प्रसिद्धि मिल रही है। आज हिन्दी में यौन समस्याओं का चित्रण करने वाली कहानियों और उपन्यासों का अलग वर्ग है। इसलिए ‘उग्र’ आज पहले की अपेक्षा अधिक प्रासंगिक लगने लगे हैं।  

मंटो को शायद उसके जीवन काल में उतना नहीं पढ़ा गया, जितना उसे मरने के बाद पढ़ा गया। सम्भवत: कुछ लोगों ने सिर्फ यही जानने की चाह में मंटो को पढ़ा कि आखिर उसके लिखे पर मुक़दमे क्यों चले? यह कितनी विचित्र बात है कि उसके मरते ही, उन लोगों में भी जिन्होंने जिंदगी में उसके लिए अपने दरवाजे बन्द कर लिए थे, उसके लिए अजीब सा प्यार उमड़ आया। मंटो अपने जीवनकाल में भले ही बदनाम रहे हो, लेकिन मृत्यु के पश्चात अधिक प्रासंगिक होते चले गए। बलराज मेनरा ने उनकी चुनिंदा कहानियों को उनके विश्लेषण के साथ पुनः प्रकाशित किया। भारत के प्रसिद्ध चित्रकार रामचंद्रन ने उनकी कहानियों से प्रभावित होकर कुछ के चित्र बनाए, जिन्हें ‘मंटो थीम्स’ के नाम से प्रदर्शनियों में प्रस्तुत किया गया। उनके भाँजे हामिद जलाल ने उनकी बहुत सी कहानियों को अंग्रेजी में अनुदित करके छपवाया। उनकी कहानियों के संग्रह आज भी प्रकाशित हो रहे हैं। 

एक समय ‘उग्र’ और मंटो को भले ही ‘लेड़ीज चैटरलीज लवर और लोलिता’ जैसे उपन्यासों के समान छुपकर पढ़ा जाने वाला लेखक समझा गया हो। लेकिन जीवन में उन्होंने न किसी के विरूद्ध लेख लिखे, न किसी की नकल उतारी और न किसी विरोधी को लेकर अपने मन में ग्रंथि बनाई। साहित्यिक नोक-झोंक के लिए उनके पास समय ही नहीं था। छवि-निर्माण जो हमारे साहित्य की सबसे बड़ी लज्जास्पद प्रवृति है, उससे वे कोसों दूर रहे। लेकिन पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करने की उनकी कला अनोखी थी। पाठक वर्ग उनकी कलम का लोहा मानता था। अश्लील समझे जाने वाले स्त्री-पुरूष के यौन संबंधों और समलैंगिकता जैसे विषयों को अपनी कलम की कसौटी पर चढ़ाकर उन्होंने खरा सोना बना दिया। ऊपर से भद्दे दिखने वाले पात्रों और वर्जित विषयों में उन्होंने ऐसा आकर्षण पैदा किया कि उनका हाथ और कलम चूमने का मन होता है।  

आलोचक उनकी जमकर आलोचना करते रहे लेकिन कोई उन्हें नकार भी नहीं सका। मैंने जब इन दोनों साहित्यकारों का अध्ययन करना आरम्भ किया तो उनके जीवन और लेखन में मुझे काफी समानता देखने को मिली। इसलिए बरबस ख्याल आया कि उनकी तुलना करना काफी सुखद हो सकता है। दोनों साहित्यकारों की तुलना करने को उस समय और भी बल मिला जब मैंने राहुल मिश्र का ‘मंटो एक बदनाम लेखक’ नामक आलेख पढ़ा। उस आलेख ने मुझे काफी गहराई तक प्रभावित किया। इसलिए मैंने खोज-खोजकर मंटो की कहानियाँ पढ़ना आरम्भ किया, और यह जानने का प्रयास करने लगा कि अपने समय में मंटो इतने बदनाम क्यों हुए, उन पर मुकदमें क्यों चले? यह सब छानबीन करते हुए विचार आया कि क्या हिन्दी में भी कोई इस प्रकार का लेखक है, जो मंटो को टक्कर दे सके। क्योंकि मैं हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी रह चुका हूँ और हिन्दी साहित्य में मेरी रूचि है। अत: हिन्दी साहित्य के इतिहास की अनेक पुस्तकें पढ़ने के बाद आखिर एक नाम मिला पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ का। ‘उग्र’ की ‘अपनी खबर’ और बहुत सा कथा-साहित्य पढ़कर समझ आया कि इन दोनों साहित्यकारों में अनेक समानताएं हैं। ये दोनों ही अपने जीवन में काफी बदनाम हुए हैं। यदि इन दोनों की तुलना की जाए तो कैसा रहे? बस यहीं से इन दोनों साहित्यकारों की तुलना का सिलसिला आरम्भ हुआ।  

दोनों साहित्यकारों ने विविध प्रकार का साहित्य लिखा है, लेकिन उनकी प्रसिद्धि मुख्य रूप से कथाकार की ही रही है। इसलिए तुलना करने में उनकी कहानियों और उपन्यासों को ही मुख्य रूप से आधार बनाया गया है। प्रसंगवश अन्य विधा की रचनाओं को भी उनके सन्दर्भ व दृष्टिकोण से देखने की कोशिश की गई है, लेकिन वह कम मात्रा में है। पहले ‘उग्र’ के संक्षिप्त जीवनवृत्त, साहित्य अवदान, सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण आदि को रखा गया है और फिर उसी क्रम में मंटो की परख की गई है। उसके बाद दोनों साहित्यकारों में समानताएं-असमानताएं का मिलान करके देखा गया है।   

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रचनाएँ
"उग्र बनाम मंटो"
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उर्दू में सआदत हसन मंटो की बहुत सी कहानियाँ पढ़ने के बाद विचार आया कि हिंदी में भी मंटो जैसा कोई विवादस्पद लेखक है? काफी खोजबीन करने पर ज्ञात हुआ कि ऐसा लेखक तो पाण्डेय बेचन शर्मा "उग्र" ही है. उग्र की अनेक कहानियाँ और उपन्यास पढ़ने के बाद विचार आया कि क्यों न उग्र और मंटो की तुलना की जाए. उसी के परिणाम स्वरुप इस किताब को लिखने की प्रेरणा मिली.
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भूमिका

13 अगस्त 2022
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 जब दो साहित्यकारों की तुलना की जाती है तो उनके व्यक्तित्व, रचनागत साम्य-वैषम्य, कृतियों की विषयवस्तुगत विशिष्टताएं, सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण और युगीन प्रवृत्तियों आदि को आधार बनाया जाता है। इस प्

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"उग्र"- एक परिचय

13 अगस्त 2022
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 हिन्दी साहित्य में ‘उग्र’ अपनी ही तरह के साहित्यकार माने जाते हैं। जिस तरह उनका नाम थोड़ा विचित्र सा है उसी प्रकार उनका साहित्य भी अपने ही ढंग का है। नाम ही देखिए आगे-पीछे जाति सूचक विशेषण और उससे जुड़

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"उग्र"- साहित्यिक अवदान

13 अगस्त 2022
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 ‘उग्र’ ने लेखन की शुरूआत काव्य से की थी। वे अपने स्कूल के दिनों से ही काव्य रचना करने लगे थे। साहित्य के प्रति उनका विशेष अनुराग बढ़ा था, लाला भगवानदीन के सम्पर्क में आने के पश्चात। जिनकी प्रेरणा से उ

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उग्र के साहित्य की मूल चेतना और प्रतिपाद्य विषय

13 अगस्त 2022
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 जिस समय ‘उग्र’ का साहित्य-क्षेत्र में प्रवेश हुआ, उस समय तक छायावाद का आगमन हो चुका था। पद्य हो या फिर गद्य, कल्पना की ऊँची उड़ाने भरकर साहित्य की रचना हो रही थी। अतः समकालिक लेखक-कवियों पर भी इस साहि

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क्या थे उग्र पर आक्षेप के कारण?

13 अगस्त 2022
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 ‘उग्र’ ने ऐसे समय में लिखना आरम्भ किया था, जब हिन्दी साहित्य में ‘आदर्शवाद’ का बोलबाला था और साहित्य यथार्थ से अधिक कल्पना में लिखा जाता था। ऐसे समय में जब उन्होंने अपनी कलम की नोक से समाज के यथार्थ

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उग्र साहित्य की प्रासंगिकता

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 साहित्यकारों की प्रासंगिकता और अप्रासंगिकता के बारे में अक्सर प्रश्न उठाया जाता रहा है। लेकिन जो साहित्य विभिन्न समस्याओं और सत्यों का दर्शन कराता हो, उसकी प्रासंगिकता कभी समाप्त नहीं होती, क्योंकि व

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मंटो- एक परिचय

13 अगस्त 2022
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 दो साहित्यकारों की जब आपस में तुलना की जाती है तो उनके जीवन के उतार-चढ़ाव, साहित्यिक अवदान, सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण, साहित्यिक विषयवस्तुगत विशेषताएं आदि को आधार बनाना ही उचित होता है। पूर्व में ह

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मंटो की साहित्य यात्रा

13 अगस्त 2022
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 सआदत हसन मंटो ने अपने जीवन में कहानियों के अतिरिक्त एक उपन्यास, फिल्मों और रेडियो नाटकों की पटकथा, निबंध-आलेख, संस्मरण आदि लिखे। लेकिन उसकी प्रसिद्धि मुख्य रूप से एक कहानीकार की है। चेखव के बाद मंटो

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मंटो के साहित्य की मूल चेतना और प्रतिपाद्य विषय

13 अगस्त 2022
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 मंटो आज न केवल उर्दू बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं में बड़े चाव से पढ़े जाते हैं। हिन्दी में तो उनकी सम्पूर्ण रचनाएं उपलब्ध हैं। उनकी ‘टोबा टेकसिंह’ और ‘खोल दो’ कहानियों को मैंने संस्कृत में भी पढ़ा है। लेक

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मंटो पर आक्षेप- कुछ उलझे सवाल

13 अगस्त 2022
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 मंटो का लेखन ज़बरदस्त प्रतिरोध का लेखन है। यही उसके लेखन की शक्ति भी है। वह दौर ही शायद ऐसा था कि साहित्य से हथियार का काम लेने की अपेक्षा की जाती थी। मंटो ने इसका भरपूर लाभ उठाया और अपनी कहानियों से

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मंटो के साहित्य की प्रासंगिकता

13 अगस्त 2022
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 सआदत हसन मंटो नैसर्गिक प्रतिभा के धनी और स्वतन्त्र विचारों वाले लेखक थे। वे ऐसे विलक्षण कहानीकार थे जिन्होंने अपनी कहानियों से समाज में अभूतपूर्व हलचल उत्पन्न की और उर्दू कथा-साहित्य को नई ऊँचाईयों त

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उग्र और मंटो- तुलनात्मक बिंदु

13 अगस्त 2022
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 पिछले अध्यायों में हमने ‘उग्र’ और मंटो के व्यक्तित्व और कृतित्त्व को अलग-अलग रूपों और सन्दर्भों में जानने-समझने का प्रयास किया है। अब हम दोनों साहित्यकारों की एक साथ तुलना करके देखते हैं कि वे कहाँ ए

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उग्र और मंटो- समानताएं और असमानताएं

13 अगस्त 2022
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 ‘उग्र’ और मंटो ने अपने समय के सवालों से सीधे साक्षात्कार करते हुए उन्हें अपना रचनात्मक उपजीव्य बनाया। वे विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी तरह जिए और अपनी तरह की कहानियाँ लिखी। इस कारण उन्होंने बहुत चो

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परिशिष्ट

13 अगस्त 2022
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 सन्दर्भ सूची-  आलोचनात्मक-ऐतिहासिक व अन्य ग्रन्थ :-  1. पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ : अपनी खबर (आत्मकथा), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पेपर बैक्स, दूसरा संस्करण, 2006।  2. डा0 भवदेव पांडेय : ‘उग्र’ का

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