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"उग्र"- साहित्यिक अवदान

13 अगस्त 2022

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 ‘उग्र’ ने लेखन की शुरूआत काव्य से की थी। वे अपने स्कूल के दिनों से ही काव्य रचना करने लगे थे। साहित्य के प्रति उनका विशेष अनुराग बढ़ा था, लाला भगवानदीन के सम्पर्क में आने के पश्चात। जिनकी प्रेरणा से उन्होंने ‘प्रियप्रवास’ की शैली में ‘ध्रुवचरित’ नामक खंडकाव्य रचा। उन्होंने काव्य के अतिरिक्त कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध आदि विधाओं के क्षेत्रों में भी समान अधिकार के साथ श्रेष्ठ कृतियाँ प्रस्तुत की।  

उन्होंने साहित्य को विभिन्न विवादास्पद, मनोरंजक और उत्तेजनापूर्ण रचनाएं दी। ऐसी रचनाएं साहित्य के एक अंग को पूर्ण बनाने में समर्थ हैं। उनकी अधिकांश कहानियाँ और उपन्यास, समाज की कुरीतियों पर प्रहार करती हैं। उन्होंने अपने जीवनकाल में साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखनी चलाई पर उनकी प्रसिद्धि मुख्य रूप से व्यंग्य कथाकार की रही है। उनका सम्पूर्ण कथा-साहित्य एक साथ संकलित नहीं है। साथ ही उनका बहुत सा साहित्य ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया था। फिर भी समय-समय पर उनके साहित्य को संग्रहीत करने के महत्वपूर्ण प्रयास होते रहे हैं। सन् 1964 में ‘आत्माराम एंड संस् प्रकाशक, दिल्ली’ ने उनकी बहुत सी कहानियों को सात संग्रहों में प्रकाशित किया। जिनकी भूमिका राजकमल चौधरी ने लिखी। वर्तमान में ‘उग्र’ की लोकप्रियता को देखकर, अनेक प्रकाशकों ने जी जी जी, दिल्ली का दलाल, सरकार तुम्हारी आँखों में, चन्द हसीनों के खतूत जैसे महत्वपूर्ण उपन्यासों को पुनः प्रकाशित किया। सन् 2008 में डा. भवदेव पांडेय ने ‘उग्र’ की कतिपय असंकलित रचनाओं को ‘उग्र का परिशिष्ट’ के नाम से भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित कराया। राजशेखर व्यास ने उनकी महत्वपूर्ण रचनाओं को संपादित कर ‘उग्र संचयन’ के नाम से 2013 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित कराया। इस प्रकार देखा जाए तो ‘उग्र’ की रचनाओं के प्रकाशन का सिलसिला आज तक जारी है।   

समय-समय पर ‘उग्र’ का जो साहित्य प्रकाशित हुआ, उसमें उनकी पहली पुस्तक ‘ध्रुवचरित’ थी और अन्तिम ‘गंगामाता’। उनके समग्र साहित्य को एक दृष्टया इस प्रकार देख सकते हैं :- 

काव्य :- ‘उग्र’ ने लेखन की शुरूआत ही काव्य से की थी। आरम्भ में उनकी प्रसिद्धि भी एक कवि के रूप में ही रही। किसी पत्र-पत्रिका में जब उनकी कोई कविता छपती तो, उस पर नाम लिखा होता- श्रीयुत कविवर पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’। उनका प्रथम खण्डकाव्य है, ‘ध्रुवचरित’ जो प्रियप्रवास की शैली में लिखा गया बहुत सी स्फुट कविताओं का संग्रह है। साथ ही उनकी अनेक स्फुट कविताएं भी पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही। परिजातों का बलिदान, कंचन छट उनकी कविताओं के अन्य सग्रंह है।  

कहानी संग्रह :- ‘उग्र’ के समय-समय पर लगभग बीस कहानी-संग्रह प्रकाशित हुए, जैसे- चिंगारियाँ (1923), चाकलेट (1924), शैतान मंडली (1924), बलात्कार (1927), इन्द्रधनुष (1927), दोजख की आग (1929), निर्लज्जा (1929), रेशमी (1942), पंजाब की महारानी (1943), सनकी अमीर (1954), जब सारा आलम सोता है (1955), उग्र की श्रेष्ठ कहानियाँ (1961), चलचित्र (1964), व्यक्तिगत, उग्र का हास्य, कला का पुरस्कार, आदि। लेकिन अब उनमें से अधिकांश उपलब्ध नहीं, क्योंकि उनकी अनेक रचनाएं ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त कर ली गई थी। इसके अतिरिक्त वे इंदौर में भी रचना जब्ती का शिकार बने थे। यही कारण है कि उनका सम्पूर्ण साहित्य एक साथ संकलित नहीं था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात कुछ जब्त और कुछ मौलिक रचनाओं का पुनः प्रकाशन हुआ। प्रमुख कथा-संग्रहों का विवरण इस प्रकार है :- 

1. चाकलेट :- अप्राकृतिक दुराचार की कलई खोलने वाला आठ कहानियों का हंगामाखेज संकलन है। इसकी कहानियाँ सर्वप्रथम ‘मतवाला’ में किस्तवार रूप में प्रकाशित हुई थी। इनकी लोकप्रियता को देखकर इन्हें सन् 1924 में संग्रह के रूप में प्रकाशित गया। संग्रह की प्रमुख कहानियाँ हैं- पालट, हम फिदाए लखनऊ, कमरिया नागिन सी बलखाय और चाकलेट आदि। यह वर्ष ‘उग्र’ के रचनात्मक व्यक्तित्व का सबसे अधिक खतरनाक और विकट मोड़ सिद्ध हुआ। इन कहानियों की प्रसिद्धि के कारण ‘मतवाला’ को समलैंगिकता जैसे विषय पर लोगों ने और बहुत-सी कहानियाँ भेजी। यह संकलन आदर्शवादी आलोचकों के लिए ‘घासलेटी-समीक्षा’ का उद्गम बना। कई वर्षों तक ‘उग्र’ के विरूद्ध ‘घासलेटी आन्दोलन’ चला। इसके कारण ‘उग्र’ समस्त हिन्दी साहित्य में बदनाम होने के साथ ही प्रसिद्धि भी पा गए। इसकी भूमिका में उन्होंने ललकारते हुए लिखा है, “है कोई ऐसा माई का लाल जो हमारे समाज को ऊपर से नीचे तक सजग दृष्टि से देखकर, कलेजे पर हाथ रखकर, सत्य के तेज से मस्तक तानकर, इस पुस्तक के अकिंचन लेखक से यह कहने का दावा करे कि तुमने जो कुछ लिखा है गलत लिखा है। समाज में ऐसी घृणित, रोमांचकारिणी और काजलकाली तस्वीरें नहीं हैं।”  

2. रेशमी :- यह संग्रह 23 जुलाई 1942 को लखनऊ से प्रकाशित हुआ। इसमें कुल सत्रह कहानियाँ संकलित हैं, जिनमें से कुछ पहले पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी थी। वक्तव्य (भूमिका) में लिखा है-‘‘उग्र जी का स्थान गद्य लेखकों में बहुत ऊँचा है। सुन्दर, सजीव मुहावरेदार भाषा लिखने में वह अपनी सानी नहीं रखते, उनके गद्य का चमत्कार देखना हो तो यह कहानी संग्रह पढ़िए।’’ 

3. पोली इमारत :- यह बीस कहानियों का संग्रह है, जिसकी भूमिका राजकमल चौधरी द्वारा लिखी गई है। इसमें सामाजिक और पारिवारिक कहानियाँ संकलित हैं। प्रत्येक कहानी के पूर्व में उसकी कथावस्तु या उससे सम्बन्धित रोचक तथ्य का संक्षेप में वर्णन किया गया है। इस संग्रह में समाहित ‘चौड़ा छुरा’ जब पहली बार प्रकाशित हुई थी तो इसकी विषयवस्तु और निष्कर्ष को लेकर काफी विवाद उठ खड़ा हुआ था। ‘वीभत्स’ के विषय में राजकमल चौधरी ने लिखा है, ‘‘अगर ‘कफन’ प्रेमचंद को महान बनाती है तो वीभत्स ‘उग्र’ को महान समाजदृष्टा बनाती है। ‘जल्लाद’ अत्यधिक मर्मस्पर्शी कहानी है, इसे हिन्दी की चन्द अमर कहानियों में स्थान मिलना चाहिए।”  

4. चित्र-विचित्र :- इस संग्रह में ‘उग्र’ की हास्य व्यंग्य से परिपूर्ण तेरह कहानियाँ हैं। ‘उग्र’ अपने हास्य-व्यंग्य के लिए समस्त हिन्दी साहित्य में प्रसिद्ध हैं। अपनी हास्य-व्यंग्य की कहानियों के माध्यम से उन्होंने समाज में फैली बुराईयों पर कटाक्ष किया है। ऐसी कहानियाँ किसी व्यक्ति पर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं करती बल्कि समाज के विभिन्न दुर्गुणों और दुर्नितियों पर कटाक्ष करती हैं। 

5. यह कंचन सी काया :- इस संग्रह में ‘उग्र’ की प्रेम और आदर्श की बारह कहानियाँ है। ये कहानियाँ हिन्दी कथा-साहित्य की अमूल्य निधियाँ हैं और इनका अपना ऐतिहासिक महत्व है। इस संग्रह की ‘चाँदनी’ नामक कहानी पर घोर अश्लीलता का आरोप भी लगा था। 

6. काल कोठरी :- काल कोठरी ‘उग्र’ की चौदह ऐतिहासिक कहानियों का संग्रह है। ऐसी कहानियों का उद्देश्य राष्ट्रीय भावनाओं और देश के लिए आत्मबलिदान की भावनाओं का रचनात्मक प्रचार है। देश-विदेश के इतिहास से ‘उग्र’ ने देशभक्ति की कहानियाँ चुनी, और उन्हें दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत किया है। 

7. ऐसी होली खेलो लाल :- यह राष्ट्रीय चेतना से ओत-प्रोत कुल बीस कहानियों का संग्रह है। राजद्रोह के अपराध में ‘उग्र’ को दो बार जेल जाना पड़ा था। फिर भी वे दुगने उत्साह के साथ राष्ट्रीय चेतना से ओत-प्रोत साहित्य रचते रहे। इस संग्रह की क्रान्तिवादी कहानियाँ- उसकी माँ, माँ कैसे मरी, जैतू में नाम, नरसिंह दास आदि, ‘उग्र’ को सच्चा राष्ट्रवादी लेखक घोषित करती है। इस संग्रह की ‘शाप’ भी एक बेहतरीन कहानी है। 

8. मुक्ता :- यह अट्ठारह कहानियों का संग्रह है। सभी भाव और प्रतीक कथाएं हैं। राजकमल चौधरी के अनुसार, ‘‘उग्र’ की इन कथाओं में रवीन्द्रनाथ ठाकुर की लघुकथाओं जैसी धार्मिक उदारता और वस्तुस्थिति के प्रति अकुंठित आक्रोश भी है।’’ आज का व्यक्ति इतना स्वार्थी हो गया है कि वह पूजा-पाठ भी अपने स्वार्थ के लिए करता है। ‘मुक्ता’ संग्रह की कथाओं के माध्यम से ‘उग्र’ ने बड़े ही सूक्ष्म और सुस्थिर ठंग से समाज के विभिन्न वर्गों और अंधविश्वासों का चित्रण करते हुए, समाज के ढांचे पर आक्षेप किया है। 

9. कला का पुरस्कार :- यह पंद्रह तीखी कहानियों का संग्रह है। सन् 1964 में ‘आत्माराम एंड संस, दिल्ली से प्रकाशित होने वाले ‘उग्र’ के सात कहानी संग्रहों में से अन्तिम है। इसकी न कोई भूमिका है और न कोई प्राक्कथन। 

10. इन्द्रधनुष :- सन् 1927 में प्रकाशित यह ‘उग्र’ की विविध रचनाओं का संग्रह है, जिसमें कुछ कहानियाँ भी हैं। 

‘आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशक’ दिल्ली ने सन् 2003 में ‘उग्र’ की समस्त कहानियों को संग्रहीत करके ‘पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ : श्रेष्ठ रचनाएँ- भाग 1 व 2 के नाम से प्रकाशित किया। ‘उग्र’ की एक ही कहानी उनके कई संग्रहों में भी आयी है। उनके द्वारा लिखित कहानियों की संख्या सौ के लगभग बताई जाती है। लेकिन लगभग बीस कहानी संग्रहों को देखकर लगता है कि यह संख्या कहीं अधिक होगी। 

उपन्यास :- ‘उग्र’ ने अपने जीवनकाल में कुल तेरह उपन्यास लिखे जिनमें से ‘गंगामाता’ और ‘सब्जबाग’ उनकी मृत्यु के पश्चात प्रकाशित हुए। बाकी सभी उनके जीवनकाल में ही प्रकाशित हो गए थे। ‘गंगामाता’ अधूरा था जिसे हंसराज रहबर ने बाद में पूरा किया। उपन्यासों का विवरण इस प्रकार है- 

1. चन्द हसीनों के ख़तूत :- पत्रात्मक शैली में लिखे इस उपन्यास का सर्वप्रथम प्रकाशन 5 जनवरी 1927 को हुआ। इसके प्रकाशित होते ही हिन्दी साहित्य में एक नवीन हलचल सी मच गई थी। उपन्यास की पत्रात्मक शैली हिन्दी में बिलकुल नई थी, जिसके कारण आलोचक ‘उग्र’ को कलात्मक रचनाकार के रूप में स्वीकार करने को बाध्य हो गए थे। तीन वर्ष में ही इसकी 5000 से अधिक प्रतियाँ बिक गई थी। इसमें छोटे-छोटे कुल सात पत्र हैं। इसका प्रमुख विषय पंडित मुरारी कृष्ण शर्मा और नरगिस की पाक मुहब्बत है, जिसे आलोचकों ने नापाक घोषित किया। उपन्यास का प्रमुख उद्देश्य हिन्दू-मुस्लिम एकता है। इससे प्रभावित होकर प्रेमचंद ने भी पत्रात्मक शैली में ‘दो सखिया’ नामक एक लम्बी कहानी लिखी थी। उपन्यास में शेर-ओ-शायरी की भरमार है। इसने प्रेम-पत्रों के उपन्यास लेखन को एक नई कल्पना दी। इस उपन्यास की समीक्षा करते हुए उस समय के प्रसिद्ध अख़बार ‘द लीडर’ ने लिखा था, “ऐसा कहना अतिश्योक्ति न होगी कि इस पूरी किताब में एक भी नीरस पृष्ठ नहीं है।”  

2. दिल्ली का दलाल :- यही वो उपन्यास है जिसने ‘उग्र’ को प्रसिद्धि की चरम सीमा पर पहुँचाया। इसका प्रकाशन 26 फरवरी 1927 को कलकत्ता से हुआ था। इसको मिली जबरदस्त प्रसिद्धि के कारण ही इसके प्रकाशक ने ‘बालकृष्ण प्रेस’ जैसे साधारण नाम के स्थान पर अपने प्रकाशन संस्थान का नाम ‘कोलकाता बीसवीं सदी प्रकाशन मंडल’ कर लिया था। इस उपन्यास में नारियों के सतीत्व एवं इज्जत का सौदा करने वाले समाज के उन पशु प्रवृत्ति के कामुक, विलासी एवं दुराचारी मनुष्यों का भंडाफोड़ किया गया है जो पापाचार के अड्डों को बढ़ावा देते हैं। 

3. बुधुवा की बेटी :- इसका प्रकाशन 13 अगस्त 1927 को कलकत्ता से हुआ। जब दलित साहित्य नहीं के बराबर था, उस समय ‘उग्र’ ने ‘बुधुवा की बेटी’ के माध्यम से दलित-विमर्श का प्रश्न उठाने वाला साहित्य रचा। यह उपन्यास ‘उग्र’ के लेखकीय व्यक्तित्व का निकष सिद्ध हुआ, जिसका बाद में नाम बदल कर ‘मनुष्यानंद’ कर दिया गया। 

4. परदे में पाप :- यह छोटा सा उपन्यास है, जिसका प्रकाशन 12 मई 1928 को कलकत्ता से हुआ। इसका कोई विशेष महत्व नहीं है। 

5. शराबी :- यह 20 अप्रैल 1929 से जुलाई 1929 तक, ‘मतवाला’ में धारावाहिक रूप में प्रकाशित होता रहा। सन् 1930 में यह बनारस से प्रकाशित हुआ। मद्यप-निषेध के ऊपर लिखा यह अत्यधिक रोचक उपन्यास है। इसमें शराब के दुष्परिणामों के साथ ही अछूत वर्ग और नारी दुर्दशा का बड़ा मार्मिक चित्रण हुआ है। प्रेमचन्द जी इस उपन्यास के चरित्र संयोजन और उनके निर्वाह पर बड़े मुग्ध थे। वर्तमान में कई लोगों का मानना है कि इस उपन्यास के कथानक में इतनी नवीनता और परते हैं कि इसे सिनेमा-पटल पर आसानी से उतारा जा सकता है।  

6. घंटा :- घंटा एक ऐतिहासिक उपन्यास है, जिसका प्रकाशन सन् 1937 में कलकत्ता से हुआ। इसमें सम्राट अशोक से लेकर आधुनिक काल तक के इतिहास को ‘उग्र’ ने अपने ढ़ग से समेटा है। उपन्यास का विषय एक घंटा है, जिसके विषय में यह धारणा प्रचलित है कि जो भी उसे प्राप्त कर लेगा वही विश्वविजयी हो जाएगा। 

7. सरकार तुम्हारी आँखों में :- यह उपन्यास गंगा पुस्तक कार्यालय, लखनऊ से सन् 1937 में प्रकाशित हुआ। इसमें मिटती हुई सामंतशाही की प्रवृत्तियों और असंगतियों, निर्दयता, धोखाधड़ी और पाशविक प्रवृत्तियों तथा जन जीवन की विडंबनाओं के चित्रण में ‘उग्र’ को अद्भुत सफलता मिली है। यह उपन्यास प्रतीकात्मक रूप से पढ़ने पर अनेक गहरे निष्कर्षों तक पहुँचता है। 

8. कढ़ी में कोयला :- यह सन् 1955 में मिरजापुर से प्रकाशित हुआ। दूसरी बार इसका प्रकाशन 1999 में ‘राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली’ से पेपरबैक्स में हुआ। प्रकाशक ने इसके विषय में लिखा है, ‘‘कलकत्ता का माले-मस्त मारवाड़ी समुदाय अर्थात् राजस्थान का ग़रीब, पसीने और परचून से चीकट कपड़ोंवाला बनिया जो महानगरी में जाकर विकट धर्मपति हुआ- ‘उग्र’ जी के इस उपन्यास का विषय है। ‘उग्र’ जी की सुगठित, तेजवान व्यंग्य से दीप्त शैली का प्रतिनिधित्व करता यह उपन्यास है।’’ 

9. जी जी जी :- इसका प्रथम प्रकाशन 1943 में इंदौर से हुआ। दूसरी बार 1999 में राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली से पेपरबैक में प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास मारवड़ी समाज में हो रहे स्त्रियों के शोषण को बेनाकाब करता है, साथ ही नारियों की दुर्दशा और आदर्श पर उनके मरने को दिखलाता है। इस उपन्यास में विमर्श का विषय नारी स्वतन्त्रता का पश्चिमी मॉडल बनाम भारतीय मॉडल भी है। ‘कढ़ी में कोयला और जी जी जी’ उपन्यास बहुत सी रोचक शैली में लिखे गए हैं।  

10. फागुन के दिन चार :- सन् 1960 में दिल्ली से प्रकाशित, संस्मरणात्मक शैली में लिखा उपन्यास है। सन् 1992 में ‘प्रवीण प्रकाशन दिल्ली’ से इसका पुनः प्रकाशन हुआ। इसमें काशी के संगीत और नृत्य जगत में व्याप्त समलैंगिक संबंधों पर से परदा उठाया गया है। यह एक ऐसा उपन्यास है जिसमें दो विधाओं- आत्मकथा और इतिहास का एक साथ समावेश किया गया है। इसका बहुत विरोध भी हुआ, क्योंकि उस समय इस उपन्यास को पागल लेखक की कृति मान लिया गया था। इसलिए बहुत से लोगों ने इसका विरोध किया। 

फागुन के दिन चार अत्यन्त प्रसिद्ध उपन्यास है। इसके दो खंड हैं- मुंबई खंड़ और काशी खंड़। पहले भाग में ‘उग्र’ ने कल्पित पात्रों और फिल्मी संस्थाओं के माध्यम से शोषण, भ्रष्टाचार, तिक्त आदि अशिव तत्वों का बड़ी तन्मयता से चित्रण किया है। काशी खंड़ में काशी के कथक समाज में व्याप्त अनैतिक दुराचार को उजागर किया है। फागुन के दिन चार को सन् 1957 के बाद भारतीय राजनीति और शासन से साहित्यकारों के मोहभंग का घोषणा पत्र कहा जा सकता है। इसमें ‘उग्र’ ने वाराणसी और मुंबई के माध्यम से स्पष्ट कर दिया था कि राजनीति, समाज, धर्म, अध्यात्म, कर्मकांड, संस्कृति, सभ्यता, वाणिज्य-व्यवसाय, साहित्य, संगीत, कला, नृत्य, गीत, अभिनय, मीडिया आदि सभी अस्वीकृति-युग में प्रवेश करने की तैयारी कर रहे थे। इस उपन्यास में बीसवीं शताब्दी के छठे दशक में जो कुछ कहा गया था वह सब सत्य प्रतीत होता नज़र आ रहा है। इसीलिए इस उपन्यास की प्रासंगिकता आज के लेखकों और पाठकों के लिए अधिक अर्ह हो गयी है। इसमें कलात्मक इतिहास के कुछ ऐसे पन्ने हैं, जो वात्सयायन के कामसूत्र में भी कठिनाई से ढूंढने को मिले। यह उपन्यास एकदम जीवंत दिखाई देता है।  

11. जुहू :- यह ‘उग्र’ के जीवन में अंतिम प्रकाशित उपन्यास था जो 1963 में दिल्ली से प्रकाशित हुआ था। इसमें मुंबई का आडम्बरपूर्ण जीवन जैसे- कुचक्र, धोखा, काले कारनामें, शोषण, सब कुछ अपने विस्तार के साथ चित्रित है। इसे यदि मुंबई की जिंदगी का रंगीन अलबम कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगा। इस उपन्यास में महानगरीय सभ्यता का जीता जागता चित्रण मिलता है। 

12. गंगामाता :- यह उपन्यास ‘उग्र’ की मृत्यु के पाँच वर्ष बाद सन् 1972 में प्रकाशित हुआ था। प्रमुख कारण था, इसका अधूरा रह जाना। इसके प्रकाशकीय में लिखा है- ‘‘उग्र जी का यह उपन्यास हमारे पास अर्से से पड़ा था .... पुरूष के विरूद्ध नारी के विद्रोह की कहानी है, यह। गंगामाता इस विद्रोह की नायिका है। ......... उन्होंने (उग्र ने) यह उपन्यास 128 पृष्ठ तक लिखा। इतने में जो बात वह कहना चाहते थे नहीं बनी थी। हमने कई बार इसे पूरा करने को कहा ......... लेकिन इसकी उन्हें फुर्सत नहीं मिली। उनकी मृत्यु के पश्चात श्री हंसराज रहबर ने इसे पूरा किया।’’ यह एक सामाजिक उपन्यास है। नारी शक्ति का प्रतीक होने के कारण आज के संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता अधिक बढ़ गई है। 

आज के समय में ‘गंगामाता’ की चर्चा न करना ‘उग्र’ के साथ अन्याय होगा। सामाजिक उपन्यास होने के साथ ही, यह नारी के वर्ग संघर्ष की गाथा भी कहता है। इसे स्त्री सशक्तिकरण और स्त्री विमर्श को अभिव्यक्ति देने वाले आरम्भिक उपन्यासों की श्रेणी में रख सकते हैं। इसमें स्त्री अस्मिता का गम्भीर इतिहास छिपा है।  

13. सब्जबाग :- यह उपन्यास ‘उग्र’ के शोधकर्ता डा0 रत्नाकर पांडेय के प्रयास से सन् 1978 में ‘हिन्दी प्रचारक संस्थान वाराणसी’ से प्रकाशित हुआ। इसमें आजादी की समीक्षा करते हुए सब्जबाग दिखाने वाले नेताओं, उपदेशकों और आदर्शवादियों का चोगा पहनने वालों का भंडाभोड़ किया गया है। साथ ही इसमें चमेली और फुल्लों जैसी दो दलित महिलाओं के माध्यम से नारी विमर्श और दलित विमर्श को भी अभिव्यक्ति दी गई है। इस कारण इस उपन्यास को कुछ लोगों ने दलित चेतना का भाष्य भी कहा है।  

कथा-सहित्य के अतिरिक्त ‘उग्र’ ने साहित्य की अन्य विधाओं में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। जिसका विवरण इस प्रकार है-  

नाटक और प्रहसनः- ‘उग्र’ एक अच्छे नाटककार थे लेकिन उनके कथाकार व्यक्तित्व के सामने यह गौण हो गया। उन्होंने अपने पहले ही नाटक महात्मा ईसा (1922) के माध्यम से हिन्दी साहित्य में धमाकेदार प्रवेश किया था। कुछ अन्य प्रमुख नाटक हैं- चुम्बन (1937), डिक्टेटर (1937), गंगा का बेटा (1940), आवारा (1942), अन्नदाता महाराज महान (1943), नई पीढ़ी (1949, जो अब उपलब्ध नहीं है)। उनके दो प्रहसन प्रकाशित हुए- चार बेचारे और उजबक। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, ‘‘समाज के कुत्सित, वीभत्स और पाखंडपूर्ण अंशों के चुटकीले दृश्य दिखाने के लिए ‘उग्र’ ने छोटे-छोटे नाटकों या प्रहसनों से काम लिया है- चुंबन और चार बेचारे इसीलिए लिखे गए हैं।” महात्मा ईसा नाटक को अत्यधिक सफलता मिली, जिसकी प्रशंसा स्वयं प्रेमचंद ने भी की थी। डा0 धीरेन्द्र वर्मा तो यहाँ तक कहते हैं, ‘‘महात्मा ईसा’ नाटक तो आज भी अपनी मौलिकता के नाते उतना ही नया है, जितना कि शायद उस समय रहा हो, जब वह प्रथम बार प्रकाशित हुआ।’’ 

एकांकी :- लाल क्रान्ति के पंजे में, अफजल वध, भाई मियाँ, आदि। ‘लाल क्रान्ति के पंजे में’ के कारण तो ‘उग्र’ के विरूद्ध सरकारी वारंट निकला था, जिसके डर से वे कलकत्ता भाग गए थे। डॉ क्षमाशंकर पांडेय के अनुसार, “उग्र ने 1922 से लेकर 1949 की अवधि में कुल सात नाटक, लगभग डेढ़ दर्जन एकांकी (प्राय: प्रहसन) और एक गीति नाट्य ‘सीता-हरण’ लिखा।”  

निबन्ध :- उग्र ने अधिकांशतः भावात्मक निबंध लिखे हैं, जिनमें बुढ़ापा और गाली प्रमुख है। ‘तुलसीदास’ उनका आलोचनात्मक निबंध है। 

संपादित ग्रन्थ :- ‘गालिब और उग्र’। 

आत्मकथा :- सन् 1960 में प्रकाशित ‘अपनी खबर’ नामक छोटी सी रचना हिन्दी आत्मकथा साहित्य में ‘मील का पत्थर’ मानी जाती है। इसमें ‘उग्र’ के प्रारम्भिक इक्कीस वर्षों का इतिहास है। ‘उग्र’ ने जीवन में आए व्यक्तियों का जिस खुलेपन और यथार्थवादी दृष्टि से परिचय दिया है, वह प्रशंसनीय है। अपने निजी जीवनानुभवों और घटनाओं को ‘उग्र’ ने जिस प्रकार वर्णित किया है उससे हमारे सामने मानव-स्वभाव की अनेकानेक सच्चाईयाँ उजागर हो उठती हैं।  

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रचनाएँ
"उग्र बनाम मंटो"
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उर्दू में सआदत हसन मंटो की बहुत सी कहानियाँ पढ़ने के बाद विचार आया कि हिंदी में भी मंटो जैसा कोई विवादस्पद लेखक है? काफी खोजबीन करने पर ज्ञात हुआ कि ऐसा लेखक तो पाण्डेय बेचन शर्मा "उग्र" ही है. उग्र की अनेक कहानियाँ और उपन्यास पढ़ने के बाद विचार आया कि क्यों न उग्र और मंटो की तुलना की जाए. उसी के परिणाम स्वरुप इस किताब को लिखने की प्रेरणा मिली.
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भूमिका

13 अगस्त 2022
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 जब दो साहित्यकारों की तुलना की जाती है तो उनके व्यक्तित्व, रचनागत साम्य-वैषम्य, कृतियों की विषयवस्तुगत विशिष्टताएं, सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण और युगीन प्रवृत्तियों आदि को आधार बनाया जाता है। इस प्

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"उग्र"- एक परिचय

13 अगस्त 2022
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 हिन्दी साहित्य में ‘उग्र’ अपनी ही तरह के साहित्यकार माने जाते हैं। जिस तरह उनका नाम थोड़ा विचित्र सा है उसी प्रकार उनका साहित्य भी अपने ही ढंग का है। नाम ही देखिए आगे-पीछे जाति सूचक विशेषण और उससे जुड़

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"उग्र"- साहित्यिक अवदान

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उग्र के साहित्य की मूल चेतना और प्रतिपाद्य विषय

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 जिस समय ‘उग्र’ का साहित्य-क्षेत्र में प्रवेश हुआ, उस समय तक छायावाद का आगमन हो चुका था। पद्य हो या फिर गद्य, कल्पना की ऊँची उड़ाने भरकर साहित्य की रचना हो रही थी। अतः समकालिक लेखक-कवियों पर भी इस साहि

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क्या थे उग्र पर आक्षेप के कारण?

13 अगस्त 2022
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 ‘उग्र’ ने ऐसे समय में लिखना आरम्भ किया था, जब हिन्दी साहित्य में ‘आदर्शवाद’ का बोलबाला था और साहित्य यथार्थ से अधिक कल्पना में लिखा जाता था। ऐसे समय में जब उन्होंने अपनी कलम की नोक से समाज के यथार्थ

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उग्र साहित्य की प्रासंगिकता

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 साहित्यकारों की प्रासंगिकता और अप्रासंगिकता के बारे में अक्सर प्रश्न उठाया जाता रहा है। लेकिन जो साहित्य विभिन्न समस्याओं और सत्यों का दर्शन कराता हो, उसकी प्रासंगिकता कभी समाप्त नहीं होती, क्योंकि व

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मंटो- एक परिचय

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 दो साहित्यकारों की जब आपस में तुलना की जाती है तो उनके जीवन के उतार-चढ़ाव, साहित्यिक अवदान, सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण, साहित्यिक विषयवस्तुगत विशेषताएं आदि को आधार बनाना ही उचित होता है। पूर्व में ह

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मंटो की साहित्य यात्रा

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 सआदत हसन मंटो ने अपने जीवन में कहानियों के अतिरिक्त एक उपन्यास, फिल्मों और रेडियो नाटकों की पटकथा, निबंध-आलेख, संस्मरण आदि लिखे। लेकिन उसकी प्रसिद्धि मुख्य रूप से एक कहानीकार की है। चेखव के बाद मंटो

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मंटो के साहित्य की मूल चेतना और प्रतिपाद्य विषय

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 मंटो आज न केवल उर्दू बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं में बड़े चाव से पढ़े जाते हैं। हिन्दी में तो उनकी सम्पूर्ण रचनाएं उपलब्ध हैं। उनकी ‘टोबा टेकसिंह’ और ‘खोल दो’ कहानियों को मैंने संस्कृत में भी पढ़ा है। लेक

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मंटो पर आक्षेप- कुछ उलझे सवाल

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 मंटो का लेखन ज़बरदस्त प्रतिरोध का लेखन है। यही उसके लेखन की शक्ति भी है। वह दौर ही शायद ऐसा था कि साहित्य से हथियार का काम लेने की अपेक्षा की जाती थी। मंटो ने इसका भरपूर लाभ उठाया और अपनी कहानियों से

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मंटो के साहित्य की प्रासंगिकता

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 सआदत हसन मंटो नैसर्गिक प्रतिभा के धनी और स्वतन्त्र विचारों वाले लेखक थे। वे ऐसे विलक्षण कहानीकार थे जिन्होंने अपनी कहानियों से समाज में अभूतपूर्व हलचल उत्पन्न की और उर्दू कथा-साहित्य को नई ऊँचाईयों त

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उग्र और मंटो- तुलनात्मक बिंदु

13 अगस्त 2022
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 पिछले अध्यायों में हमने ‘उग्र’ और मंटो के व्यक्तित्व और कृतित्त्व को अलग-अलग रूपों और सन्दर्भों में जानने-समझने का प्रयास किया है। अब हम दोनों साहित्यकारों की एक साथ तुलना करके देखते हैं कि वे कहाँ ए

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उग्र और मंटो- समानताएं और असमानताएं

13 अगस्त 2022
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 ‘उग्र’ और मंटो ने अपने समय के सवालों से सीधे साक्षात्कार करते हुए उन्हें अपना रचनात्मक उपजीव्य बनाया। वे विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी तरह जिए और अपनी तरह की कहानियाँ लिखी। इस कारण उन्होंने बहुत चो

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परिशिष्ट

13 अगस्त 2022
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 सन्दर्भ सूची-  आलोचनात्मक-ऐतिहासिक व अन्य ग्रन्थ :-  1. पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ : अपनी खबर (आत्मकथा), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पेपर बैक्स, दूसरा संस्करण, 2006।  2. डा0 भवदेव पांडेय : ‘उग्र’ का

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