‘उग्र’ और मंटो ने अपने समय के सवालों से सीधे साक्षात्कार करते हुए उन्हें अपना रचनात्मक उपजीव्य बनाया। वे विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी तरह जिए और अपनी तरह की कहानियाँ लिखी। इस कारण उन्होंने बहुत चोटें खाई और अपमान सहे। लेकिन समाज के घिनौनेपन को उजागर करने से वे कभी बाज नहीं आए। तत्कालीन हादसों, घटनाओं, क्रूर सामाजिक स्थितियों-परिस्थितियों को उनके साहित्य के पटल पर यथार्थ रूप में देखा जा सकता है। समाज में घटने वाली क्रूर घटनाएं प्रत्येक जागरूक देशवासी, बुद्धीजीवी कलाकार और रचनाकार को प्रभावित करती हैं। एक साहित्यकार तभी कलम उठाता है जब उसके अहं को ठेस लगती है। उसकी बेचैनी तब तक शांत नहीं होती जब तक वह अपने भावों को व्यक्त न कर दे। ‘उग्र’ और मंटो ने भी अति संवेदनशील और भाव-विह्वल करने वाली तात्कालिक घटनाओं को ही अपनी विषयवस्तु के रूप में चुना। उन्होंने परम्परागत लीक से हटकर जिन सवालों और मुद्दों को उठाया वे कम से कम उनके समय में तो अछूत थे ही, किन्ही अंशों में साहित्य के लिए आज भी उचित नहीं माने जाते। यही कारण रहा कि ‘उग्र’ और मंटो विषयवस्तु, भाषा-शैली और भाव निरूपण आदि की दृष्टि से अपने समकालीनों के बीच अलग दिखाई देते रहे।
इन साहित्यकारों की रचनाओं में अश्लीलता और अनैकतिकता खोजने वाले आलोचाकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि ये हमारे समाज के विद्रूप हैं। सामाजिक परिस्थितियाँ इतनी घृणित और जुगुप्सित हो गई हैं कि उनका चित्रण भी घृणित-जुगुप्सित ही लगता है। ‘उग्र’ और मंटो को समाज के जिस भी क्षेत्र में शोषण दिखा, गंदगी दिखी वे उसके खिलाफ लिखने से जरा भी नहीं चूके। यदि दोनों साहित्यकारों की तुलना की जाए तो तात्विक, शैली-शिल्प और भाव निरूपण आदि की दृष्टि से उनमें अनेक स्तरों पर समानताएं परिलक्षित होते हुए कुछ असामानताएं भी दिखाई देंगी। किन्हीं दो साहित्यकारों में शत-प्रतिशत समानताएं हो भी नहीं सकती। हिन्दी-उर्दू में इन साहित्यकारों का आगमन बीसवीं शताब्दी के तीसरे व चौथे दसक में हुआ था। यह वो समय था जब देश गुलामी की बेड़ियों से जकड़ा हुआ था। मतवाले देश-प्रेमी पतंगे की भाँति बलिवेदी पर कुरबान हो रहे थे। चारों ओर स्वतन्त्रता आन्दोलन की लहर जोरों-शोरों से फैली हुई थी। साहित्यकारों से अपेक्षाएं की जा रही थी कि वे उदात्त राष्ट्रीय भावनाओं की जागृति के लिए, नवजागरण के लिए और आजादी के लिए लिखें। यह वैज्ञानिक सत्य है कि साहित्यकार अपने समय की परिस्थितियों से अवश्य प्रभावित होता है। इसलिए साहित्य में प्रवेश करते समय ‘उग्र’ और मंटो ने भी इसी मार्ग को चुना।
‘उग्र’ की लेखनी में अंग्रेजी राज्य के प्रति घोर घृणा और क्रांतिकारियों के लिए विशेष सम्मोहन था। क्रांतिकारी कहानियाँ लिखने के कारण उन्हें राजद्रोह के अपराध में कई बार जेल भी जाना पड़ा तथा शासन-सत्ता के अधिकारियों का कोपभाजन भी बनना पड़ा। उनकी ‘प्यारे’ और ‘चिंगारियाँ’ कहानियाँ तो ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित हुई और जब्त भी की गई। क्रांतिवादी कहानियों में उन्होंने गाँधीवादी आदर्शों और मर्यादाओं को प्रमुख स्थान दिया है। इस क्षेत्र में ‘उग्र’ हिन्दी के पहले राजनीतिक कहानीकार माने जाते हैं। ‘उग्र’ केवल अपनी रचनाओं में ही क्रांतिकारी नहीं हैं बल्कि जब असहयोग आंदोलन में तिरंगा झंडा लेकर चलने पर गिरफ्तार होना साधारण बात हो गई थी, तब उन्होंने एक तिरंगी कमीज बनवाई थी जिसमें झंडे के तीनों रंग अलग-अलग झलक रहे थे। उन दिनों गाने की बाढ़ थी। ‘उग्र’ ने जनता की भाषा और लय में अनेक ‘जनकाव्य’ की रचना की। उन कविताओं में राष्ट्रीय जनभावना का प्राधान्य था।
मंटों के मौलिक लेखन का आरम्भ भी राजनीतिक कहानियों से होता है। उसकी पहली कहानी ‘तमाशा’ जलियांवाला बाग कांड की घटना पर आधारित थी। कहानी की विषयवस्तु को लेकर ब्रिटिश सरकार हरकत में भी आई थी लेकिन मंटो सिर्फ इसलिए बच निकला क्योंकि यह कहानी उसके नाम के बिना प्रकाशित हुई थी। उस दौर के मंटो के झुकाव और तनाव इस कहानी में बड़े सशक्त रूप में व्यक्त हुए थे। उनके पहले कहानी संग्रह ‘आतिशयारे’ में संग्रहीत छह कहानियों में से अधिकांश की विषयवस्तु देशभक्ति भावना से परिपूर्ण है। इसके बाद मंटो ने नया कानून, 1919 की एक बात, सुराज के लिए, यजीद आदि भी इसी पृष्ठभूमि पर अच्छी कहानियाँ लिखी।
इसके पश्चात जैसे-जैसे समाज, समय और परिस्थितियों में बदलाव आता गया इन साहित्यकरों की वैचारिक पृष्ठभूमि में भी बदलाव आया। दोनों ने सामाजिक विसंगतियों की ओर ध्यान केन्द्रित करते हुए छद्मों का पर्दाफाश किया। मंटो की कलम जहाँ वेश्याओं और उनके दलालों को समर्पित हो गयी, वहीं ‘उग्र’ के लेखन में भी विषय-वैविध्य आ गया। दोनों ने समाज के नीच, पतित और हेय समझे जाने वाले पात्रों पर खुलकर लिखा।
कथानक की दृष्टि से दोनों कथाकारों ने विभिन्न प्रकार की कहानियाँ लिखी- रोमानी, भावप्रधान, घटनाप्रधान, प्रतीकात्मक, यथार्थवादी, हास्य-व्यंग्यात्मक, चरित्रप्रधान आदि। दोनों कथाकारों की कहानियों के कथानक प्रायः छोटे रहे जो समयानुकूल भावपरक और यथार्थ होते चले गए। ‘उग्र’ ने अपने कथानक समाज से सीधे उठाए तो, मंटो ने भी सामाजिक घटनाओं के साथ ही अपनी आत्मकथा को कहानियों में ढालकर बड़ी सुन्दरता से प्रस्तुत किया। रोमानी प्रेम विषय पर ‘उग्र’ और मंटो ने अनेक मर्मस्पर्शी कहानियाँ लिखी। इस प्रकार की कहानियों का प्रेरणास्त्रोत उनके यौवनकाल का प्रेम रहा।
प्रत्येक मनुष्य के जीवन में कम से कम एक बार प्रेम की ज्वाला जलती अवश्य है। ‘उग्र’ और मंटो भी इससे अछूते नहीं रहे थे। ‘उग्र’ को बारह साल की उम्र में एक सत्रह साल की अभिरामा श्यामा से प्यार हो गया था। जिसकी एक झलक देखने के लिए वे सारा दिन बेचैन रहते थे। वही उनका प्रथम और अन्तिम प्रेम था। सन् 1964 में राजपाल एंड संस दिल्ली से ‘उग्र’ की प्रेम और आदर्श की कहानियों का एक संग्रह भी प्रकाशित हुआ, जिसकी कला का पुरस्कार, प्रस्ताव स्वीकार, हत्यारा समाज, यह कंचन सी काया आदि कहानियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं।
मंटो अपनी बीमारी के इलाज के लिए जब बटौत (कश्मीर) में ठहरा हुआ था, यहीं उसका एक चरवाही लड़की से रागात्मक लगाव स्थापित हो गया था। यही उसका पहला और अंतिम प्रेम था। जिसकी स्मृति मंटो की अनेक कहानियों जैसे बेगू, लालटेन, मौसम की शरारत, विस्त्री की डली, एक खत, चुगद आदि में सुरक्षित है।
‘उग्र’ और मंटो प्रेम के मर्म को भली-भाँति जानते थे और इसका प्रभावी वर्णन उन्होंने अपनी कहानियों में किया है लेकिन आलोचकों की दृष्टि में उन दोनों की प्रेम कहानियों के विषय में मतैक्य नहीं है। एक ओर यदि राजकमल चौधरी का मत है कि ‘‘उग्र की प्रेम और आदर्श की कहानियाँ हिन्दी कथा-साहित्य की अमूल्य निधियाँ हैं और इनका ऐतिहासिक महत्व है।’’ वहीं वारिस अलवी का मत है, ‘‘मंटो की रूमानी प्रेम कहानियाँ असफल कहानियाँ है, क्योंकि प्रकृति से मंटो रूमानपसंद नहीं था। इसके विपरीत वह यथार्थवादी था। उसकी वे कहानियाँ अच्छी बन पड़ी हैं जो रूमानी प्रेम की पारंपरिक धारणा को तोड़ती हैं, जैसे इश्क-ए-हकीकी, दो कौमें, इश्किया कहानी, जाओ हनीफा जाओ, सौदा बेचने वाली, बदसूरती और पेशावर से लाहौर तक।’’
वैसे दोनों लेखक अतियथार्थवादी साहित्यकार ही माने जाते हैं। उन्होंने समाज के घृणित जीवन, बदलती परिस्थितियों एवं कुत्सित वातावरण का चित्रण करते समय भीषण से भीषण सत्य घटनाओं का नग्न रूप में उद्घाटन करने में बड़ा साहस दिखाया। वे न किसी व्यक्ति से, न समाज से डरे और न अपनी आलोचनाओं की परवाह की। उनका साहित्य समाज का सच्चा दर्पण कहा जा सकता है।
यथार्थवादी साहित्यकार समाज में रहते हुए अपनी आँखे बन्द नहीं कर सकता। सामाजिक विसंगतियाँ उसके कोमल हृदय को अवश्य प्रभावित करती हैं। जीवन की विद्रूपताओं, विषमताओं, कटुताओं और विसंगतियों का वह यथातथ्य चित्रण करता है। वह पाठकों के समक्ष केवल समस्याओं को प्रस्तुत करता है। यथार्थवादी साहित्यकार के रूप में ‘उग्र’ और मंटो ने समाज के विद्रूप और वीभत्स रूप की खिल्ली उड़ाई है।
वर्ण्य-विषय की दृष्टि से ‘उग्र’ और मंटो के साहित्य में भारी समानता है। दोनों ने उस दुनिया को अपने लेखन का आधार बनाया जिसमें वे रचे-बसे थे। आज यह नारा जोरों से बुलंद है कि कथा-साहित्य से ग्रामीण परिवेश प्रायः विलुप्त होता जा रहा है। ‘उग्र’ और मंटो के यहाँ तो यह विषय आरम्भ से ही गायब है। दोनों ने ग्रामीण परिवेश पर नहीं के बराबर लिखा। ‘उग्र’ ने उस दुनिया को अपने लेखन का आधार बनाया जिसमें रहकर उन्होंने यौन के मजे लूटे। यथा- दिल्ली की चमक-दमक, माया नगरी मुंबई की फिल्मी दुनिया में हीरोइनों का यौन शोषण, काशी नगरी का व्यभिचार, कलकत्ता-मुंबई का मारवाड़ी समाज ‘उग्र’ की पैनी दृष्टि से बच नहीं पाए। ‘उग्र’ अपने लेखन का विषय उसे नहीं बनाते जो उनके अनुभव का अंग न रहा हो। वे नगरीय जीवन में रहे, उसी का चित्रण किया।
मंटो ने भी दिल्ली, अमृतसर, पूना, लाहौर आदि शहरों का जो वर्णन किया वह प्रशंसनीय है। मुंबई को तो उसने अपनी पाँचो इंद्रियों से आत्मसात किया था। वह मुंबई को अपना दिल दे बैठा था। उस पर जब अंतिम मुकदमा चला, वह लाहौर में था। गिरफ्तारी के समय पुलिस ने उसके घर की तलाशी लेते हुए जब उससे पूछा, ‘लाइबरेरी कहाँ है?’ उसने गंभीर स्वर में उत्तर दिया था, ‘लाइबरेरी तो मुंबई रह गयी।’ मंटो का लगभग सारा जीवन नगरीय वातावरण में व्यतीत हुआ था, इसीलिए उसके यहाँ ग्रामीण और प्राकृतिक जीवन पर आधारित बहुत कम कहानियाँ मिलती हैं। नरेन्द्र मोहन कहते हैं, ‘‘मंटो की कहानियों में शहर और शहर में कहानियाँ उसकी शख्सियत के साथ जुड़ी-बंधी आई हैं। दोनों को अलगाने की कोशिश करेंगे तो वहाँ गैप्स दिखने लगेंगे। इसीलिए मंटो के यहाँ शहर और अफसाने परस्पर बिंधे हुए हैं।”
‘उग्र’ और मंटो के पात्र सीधे समाज के उठाए हुए हैं। वेश्या, तवायफ, कोठेवालियाँ, शराबी, पंडे-पुरोहित, आदि के चित्रांकन में तनिक भी बनावट नहीं। ये साहित्यकार दलित और लांच्छित पात्रों को उनके नरक से बाहर खींचकर लाए और लोगों को बताया कि वे भी समाज का अंग हैं। उस समय तक समाज का यह वर्ग साहित्य की परिधि से दूर था। इसीलिए ‘उग्र’ और मंटो अपने समकालीन साहित्यकारों के बीच आलोचना के पात्र भी बने।
मंटो की अपेक्षा ‘उग्र’ की कहानियों का वस्तुफलक अधिक विस्तृत है। ‘उग्र’ के उपन्यास और कहानियों का विषय वैविध्यपूर्ण है, लेकिन मंटो ने एकनिष्ट और संक्षिप्त कथानक को ही अपनी विषयवस्तु के रूप में चुना। ‘उग्र’ के साहित्य में पाठक को चौंकाने का गुण अधिक है। जबकि मंटो पाठक को बांधकर चलता है। एक बार उसकी कहानी को पढ़ना आरम्भ कर दें तो अन्त तक पहुँचना स्वाभाविक है। ‘उग्र’ के साहित्य में मौलिकता का समावेश काफी मात्रा में दिखाई देता है, लेकिन मंटो के यहाँ मौलिकता के साथ ही विषयवस्तु में कसावट भी अधिक है।
साहित्य और समाज का प्रगाढ़ संबंध है। बल्कि साहित्य को समाज की दाँतकाटी रोटी कहा जाए तो अतिश्योक्ति पूर्ण न होगा। समाज की आत्मा को साहित्य में अनुभव किया जा सकता है। समाज में रहते हुए कोई भी जागरूक कलाकार उसकी अनेदखी नहीं कर सकता। सामाजिक परिस्थितियाँ उसे अवश्य उद्वेलित करती हैं। ‘उग्र’ और मंटो समाज को नग्न आँखों से देखने के अभ्यस्त रहे हैं। तत्कालीन समाज की वीभत्स और विद्रूप घटनाएं ही उनकी लेखनी से कथात्मक रूप में परिणत होकर सामने आयी हैं। उनकी साहित्यिक चेतना ने कभी विवश होकर किसी प्रतिबंध को स्वीकार नहीं किया। इसी कारण भ्रमवश ‘उग्र’ और मंटो की कलात्मक चेतना को अनैतिक मान लेने की भूल अधिकांश आलोचकों ने की। सामाजिक अव्यवस्था, साम्प्रदायिकता, राष्ट्रीयता, पुंसत्वहीनता, चाकलेट पंथी, नारी दुर्दशा, वेश्या जीवन और अन्य सामाजिक विषम परिस्थितियों पर लेखनी चलाने के कारण, वे दोनों बदनाम हुए और आदर्शवादियों के कोपभाजन बने। उन्होंने जिन सामाजिक घटनाओं को अपने उपन्यास और कहानियों की विषयवस्तु के रूप में चुना, वे देखने में विद्रूप थी। इसी कारण उन्होंने समाज का सच छिपाया नहीं बल्कि उजागर किया। समाज में क्रांति और परिवर्तन लाने के लिए सदैव मौलिक नूतनता को स्वीकार किया।
जो सामाजिक घटनाएं जागरूक कलाकार को प्रभावित करती हैं, वह उन्हें अपने ढंग से, अपने सृजन का विषय बनाता है। अछूत और अचर्चित विषयों पर उन्होंने उसी विश्वास के साथ लिखा, जिस पर तत्कालीन साहित्यकार कलम चलाने से डरते थे। अपनी सामाजिक चेतना की सक्षम अभिव्यक्ति के कारण वे पाठकों के प्रिय लेखक बने रहे। लेकिन आलोचकों ने उनके सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण को लेकर जितने विवाद उठाए वे आस्कर वाईल्ड की दुर्दशा से भी अधिक महत्वूपर्ण हैं।
उन्होंने समाज की गंदी गलियों में पनप रहे घृणित जीवन का ही यथार्थ चित्रण किया। समाज में फैली व्यंग्य विद्रूपताओं की कभी अनदेखी नहीं की। जिधर चले उधर ही तोड़-फोड़ की। उन्होंने समाज व्यापी व्यभिचार के शिकार व्यक्तियों की करूण कथा कही। पुरूषों के छल-कपट और कामुकता का नग्न चित्रण किया, वेश्या में भी नारीत्व की खोज की, नारी के सतीत्व पर नित्य प्रति होने वाले आक्रमणों को उजागर किया और आत्म सम्मान के लिए रणचंडी बन जाने का मंत्र उनमें फूँका। इसी कारण उनके साहित्य को तत्कालीन समाज का यथार्थ दस्तावेज कहा जा सकता है।
मंटो की कहानियाँ इस दृष्टिकोण पर आधारित हैं कि कोई भी राजनीतिक आन्दोलन हो, नैतिक व्यवस्था हो, धर्म या समाज सेवा का मंच या आश्रम हो, वह मनुष्य के नैसर्गिक भावों और संबंधो पर प्रतिबंध नहीं लगाता। यथार्थवादी कलाकार होने के कारण वह आदर्शवाद की खिल्ली उड़ाने से नहीं चूकता। और जीवन के कुत्सित पक्षों का चित्रण भी बड़ी बेबाकी के साथ करता है। उसके सामाजिक दृष्टिकोण की एक बड़ी विशेषता यही मानी जा सकती है कि वह दबे-कुचले, घृणित, हेय पात्रों में भी मानवीय गुणों की खोज कर लेता है। मंटो को सदैव मानवता प्रेमी कहा गया है। उसकी कहानियों में जातीयता गौण है। साम्प्रदायिक दंगो पर उसने ‘सियाह हाशिये’ नामक पुस्तक में जो व्यंग्यात्मक लघु-कथाएं लिखी उनमें एक कलाकार के दर्शन होते हैं। कलाकार को किसी कौम, जात-पाँत पर पूर्वाग्रह नहीं होता। मंटो अपने कलाकार होने का क़दम-कदम पर प्रमाण देता है। उसने केवल मानवीय दृष्टिकोण से कहानियाँ लिखी। नरेन्द्र मोहन कहते हैं, ‘‘दरअसल मंटो का मजहब इंसानियत था। यही उसका दीन और ईमान था। वह इंसान का देास्त था। उसने पूरी तरह से अपने आपको कुचले हुए आवाम से जोड़ लिया था और उनकी आवाज बन गए थे। इस नजरिए को उसने गहरे तनावों, संतापों और संकटों से गुजरते हुए अर्जित किया था। इसकी छाप उसकी विभाजन संबंधी कहानियों में ही नहीं नाटकों, साहित्यिक लेखों और निबंधों में भी देखी जा सकती है।’’
समय से आगे चलने और सोचने वालों का यह संसार सदैव विरोध करता रहा है। धर्म हो, राजनीति हो या फिर साहित्य, सभी क्षेत्रों में इसके उदाहरण मिलते हैं। पुरानी कहावत है- ‘लीक छोड़ तीन चलें, सायर, सिंह, समूत।’ उग्र और मंटो भी ऐसी ही प्रतिभाओं में से थे, जो सदैव लीक से हटकर चले। अपने क्रांतिकारी विचारों के कारण उन्होंने आजीवन परेशानियाँ उठाई, बदनाम हुए। लेकिन वे किसी से डरे नहीं, दबे नहीं। जो कहा डंके की चोट पर कहा, जो लिखा निडर होकर लिखा। परिवर्तन प्रकृति का नियम है, समय के साथ प्रत्येक वस्तु में बदलाव आता है। ‘उग्र’ और मंटो की वैचारिक पृष्ठभूमि भी समय के साथ-साथ बदलती रही। जिस समय इन कथाकरों का साहित्य में प्रवेश हुआ उस समय समग्र देश में स्वतन्त्रता आन्दोलन जोरों पर था और जैसा कि वैज्ञानिक सत्य है प्रत्येक जागरूक साहित्यकार अपने समकालिक साहित्यिक-सामाजिक आन्दोलनों से अवश्य प्रभावित होता है। अतः प्रेरित होकर ‘उग्र’ और मंटो ने भी राष्ट्रीय चेतना का साहित्य लिखा था। लेकिन आगे चलकर वे उस राह पर निकल गए जहाँ विरोध ही विरोध था।
‘उग्र’ और मंटो आरम्भ से ही प्रगतिशील विचारों के वाहक दिखाई देते रहे। उनकी कहानी कला दो विरोधी तत्वों के संघर्ष का परिणाम थी। वे अपने ढंग से जिए और अपने ढंग की कहानियाँ लिखी। उन्होंने कोई कथा-आन्दोलन नहीं चलाया। फिर भी आजीवन एक आन्दोलन बने रहे। उनमें कुछ कहने की, लिखने की और स्वयं को अभिव्यक्त करने की तड़प उत्पन्न हुई तो उनके भीतर सोया हुआ कथाकार जागा। लेखन स्वभाव से ही प्रगतिशील हुआ करता है, लेकिन कालिक विचारधाराएं भी उसे अवश्य प्रभावित किया करती हैं। ‘उग्र’ ने हिन्दी के आधुनिक काल के किसी भी युग में लेखन किया हो, उनमें प्रगतिशील विचारधारा के लक्षण सदैव दिखाई देते रहे। इसलिए उन्हें प्रगतिशील साहित्य के हरावल दस्ते में रखा जा सकता है। क्योंकि उनका सारा रचनात्मक संघर्ष साम्राज्यवादी ब्रिटिश सत्ता के पोषकों, धार्मिक उन्माद फैलाकर साम्प्रदायिक दंगा फैलाने वाले दरिन्दों, सामाजिक तथा आर्थिक स्तर पर दलितों और नारियों के उत्पीड़कों, धार्मिक उपभोक्ताओं, वासना के नरपिशाचों, इन्सानियत के दुश्मनों तथा सामंतवादी शोषकों के खिलाफ था। उनका मार्क्सवादी दृष्टिकोण, उनकी प्रगतिशीलता, उनका मानव प्रेम, उनकी रचनाओं में स्पष्ट झलकता है। वे किसी से प्रेरित या प्रभावित थे अथवा नहीं, इस तथ्य पर विवाद है, लेकिन एक बात अवश्य है कि उन्होंने जो कुछ लिखा सर्वथा मौलिक लिखा, उनकी विचारधारा उनकी अपनी स्वयं की उपज थी।
मंटो के दोस्त-दुश्मन उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, इस्मत चुगताई, अहमद नदीम कासमी, कृष्णचन्दर, राजेन्द्र सिंह बेदी आदि ने उसे प्रगतिशील विचारधारा का कथाकार माना है। प्रगतिशील आन्दोलन को आगे बढ़ाने में उसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। लेकिन ‘बू’ कहानी के प्रकाशन के बाद उसकी प्रगतिशीलों के साथ खटपट शुरू हुई तो फिर संबंध सामान्य नहीं हो सके। प्रगतिशील साहित्य के सभी प्रमुख गुण जैसे शोषकों के प्रति आक्रोश, शोषितों से सहानुभूति, मानवता प्रेम, नारी मुक्ति दृष्टिकोण, स्वच्छन्दता, यथार्थवादिता आदि मंटो के साहित्य में परिलक्षित होते हैं। लेकिन अपनी कहानियों पर चले मुकदमों के कारण मंटो का मन त्रस्त हो गया था और वह स्वयं को अप्रगतिशील कहने लगा था। वह सदैव मानवता प्रेमी रहा और उसकी कई श्रेष्ठ कहानियों में उसके मानव प्रेम की पराकाष्ठा दिखाई देती है। लेकिन अपने विरोधी स्वभाव के कारण उसने स्वयं को बार-बार मानव से घृणा करने वाला ही कहा। वह कहता था, ‘‘मुझे इन्सानों से प्यार नहीं है। मैं एक गले-सड़े कुत्ते के पिल्ले से प्यार कर लूँगा, लेकिन इंसानों से नहीं। यह प्रगतिशीलता सब बकवास है। मैं प्रगतिशील नहीं हूँ। मैं सिर्फ मंटो हूँ और शायद वह भी नहीं हूँ।” लेकिन यही तो मंटो की विशेषता है कि वह अपनी इंसानी हमदर्दी, अपनी प्रगतिशीलता, अपने मानव प्रेम पर पर्दा ड़ालने की हजार कोशिश करता है। अपनी कहानियों पर व्यंग्य का रोगन चढ़ाता है, लेकिन उसका क़लम उसके क़ाबू में नहीं रहता और हर कहानी के पीछे उसका मानव-प्रेम उबल पड़ता है।
इस प्रसंग के आधार पर तुलना करके देखें तो प्रगतिशील दृष्टिकोण से ‘उग्र’ और मंटो एक जैसे ही दिखाई देते हैं।
भारत-पाक विभाजन की त्रासदी पर दोनों देशों की विभिन्न भाषाओं में अनेक प्रकार का साहित्य लिखा गया, लेकिन मंटो की बात ही अलग है। वह किसी घटना-स्थिति का चित्रण करते हुए उस स्थिति या पात्र को बाहर और भीतरी तौर पर पाठक के सामने ला खड़ा कर देता है। उसके पास जलसों, हंगामों, हड़तालों और भगदड़ के चित्रांकन की अद्भूत क्षमता थी। विभाजन के समय उपजे साम्प्रदायिक दंगे, फिरकाना वारदात, नारी यौन शोषण और राजनीतिक भ्रष्टाचार आदि पर मंटो ने बहुत सटीक और बेबाकी से लिखा। देश विभाजन की त्रासदी को मंटो ने कभी दिल से स्वीकार नहीं किया। वह गाँधी जी के समान अन्दर तक आहत था। विभाजन के बाद वह गहरे तनावों, संतापों और संकटों से गुजरा। इसकी छाप उसकी विभाजन संबंधी कहानियों में ही नहीं अन्य कहानियों, नाटकों, साहित्यिक लेखों और निबंधों में भी देखी जा सकती है। उसकी लिखी टोबा टेक सिंह, गुरूमुख सिंह की वसीयत, रामखेलावन, टिटवाल का कुत्ता आदि कहानियाँ उस काले इतिहास का एक जलता हुआ टुकड़ा लगती है। मंटो ऐसी व्यवस्था के सख्त ख़िलाफ था जो समाज में समानता लाने के बजाए असमानता बढ़ा दे।
‘उग्र’ जैसे कालदर्शी कथाकार के लेखन की धूरी में दलित और नारी विमर्श के साथ ही साम्प्रदायिकता भी प्रमुख विषय रहा। उनकी साम्प्रदायिकता विषयक कहानियों का एक संग्रह ‘दोजख की आग’ शीर्षके से प्रकाशित हुआ था। इसके साथ ही उन्होंने दिल्ली की बात, दोजख-नरक, आँखों में आँसू, ईश्वर द्रोही, खुदा के सामने, मलंग, चौड़ा छुरा, पोली इमारत, खूँखार मौला आदि कहानियों में भी साम्प्रदायिकता के प्रश्न को बड़ी गम्भीरता से उठाया है। वे कबीर के समान लुकाठी हाथ में लेकर किसी को फटकारने से नहीं डरते। उन्होंने साम्प्रदायिक दंगा फैलाने वाले हिन्दू और मुसलमानों पर कबीरी अंदाज की कहानियाँ लिखी। लेकिन इस सत्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि ‘उग्र’ द्वारा लिखी गई दंगा-फसाद वाली और सांप्रदायिक कहानियों में मंटो जैसी चित्रांकन क्षमता नहीं दिखाई देती। भारत-पाक विभाजन की त्रासदी पर लिखने में तो वे प्राय: मौन से ही दिखाई देते हैं।
दोनों कथाकारों को समाज के घृणित जीवन का नग्न रूप में चित्रण करने के कारण कभी प्रकृतिवादी, कभी नग्नवादी, कभी पतनोन्मुखी, तो कभी अश्लील कहा गया। जबकि उन्होंने अपने साहित्य में मानवीय सच को ही प्रणाम के तौर पर प्रस्तुत किया था। यथार्थ और सच की अभिव्यक्ति में उन्होंने तनिक भी संकोच नहीं किया। ‘उग्र’ तो समाज के घृणित जीवन का यथार्थ चित्रण करने वाले हिन्दी कि सर्वप्रथम कथाकार माने जाते हैं। मंटो को बनावटीपन से सख्त नफरत थी। उसका बाहर-भीतर एक था। उसने यथार्थवाद की पृष्ठभूमि में जो कहानियाँ लिखी, उनमें उसकी कला चरम पर है। उसके पास वस्तुस्थिति को पहचानने और वीभत्स को कला के स्तर पर मनोरम बनाने की चरम क्षमता है। वेश्याओं और दलालों के मनोविश्लेषणात्मक यथार्थ चित्रण में उसे महारत हासिल थी। वेश्याओं और स्त्री-पुरूष के यौन संबंधों और प्रवृत्तियों को लेकर उसने ऐसे मार्मिक और ज्वलंत विषयों को उठाया जो प्रत्येक युग की सच्चाई हैं।
उपरोक्त विवरण का आलोचनात्मक दृष्टया अवलोकन किया जाए तो ‘उग्र’ और मंटो में व्यक्तिगत और रचनात्मक स्तर पर अनेक समानताएं दिखाई देती हैं। कुछ और समानताओं-असमानताओं को निम्न बिन्दुओं में भी देख सकते हैं :-
1. ‘उग्र’ का व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों आलोचकों के बीच भ्रम का शिकार बने रहे। किसी ने उन्हें छिछोरा कहा तो किसी ने चरित्रहीन। किसी ने अश्लील, उज्जड़ और असामाजिक माना तो पूरा द्विवेदी युग उन्हें हरबोंग लेखक मानता रहा। उनकी अनेक रचनाएं- चाकलेट, चुम्बन, बुढ़ापा, इन्द्रधनुष आदि भी विधात्मक दृष्टि से आलोचकों के मध्य भ्रम का शिकार बनी रही।
इसके ठीक विपरीत मंटो की किसी भी कृति के विषय में कोई भ्रम नहीं। उन्होंने जो कुछ लिखा, जिस रूप में लिखा, वह उसी रूप में स्वीकृत हुआ। उनकी रचनाओं की विषयवस्तु को लेकर भले ही विवाद रहे हों, उनकी श्लीलता-अश्लीलता को लेकर कोर्ट-कचहरियों में अनेक बार बहसें हुई हों। लेकिन मंटो कभी मुजरिम नहीं ठहराए जा सके।
2. कुछ लोगों के साथ कोई विशेष घटना या संयोग जुड़ा होता है, जो उन्हें विशेष बनाता है। ‘उग्र’ और मंटो भी कुछ ऐसे ही व्यक्ति हैं। ‘उग्र’ के नाम के साथ अनेक किस्से कहानियाँ और घटनाएँ जुड़ी हुई हैं, जिनमें से कुछ का वर्णन पीछे भी हो चुका है। पैदा होते ही बेच दिए जाने के कारण उनका नाम बेचन पड़ा। उन्हें उग्र विशेषण किस कारण मिला इस संबंध में उनके पारिवारिक लोगों में से उनके पोता-पोती ने बताया कि एक बार बेचन शर्मा दिल्ली गए थे वहाँ उन्होंने देखा कि उनके एक मित्र बाँस के डंडे से एक लता को पेड़ पर चढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं। बेचन ने उनसे कहा कि जब इसके पास स्वयं ऊपर चढ़ने की हिम्मत नहीं तो इसे आप डंडे से क्यों ऊपर चढ़ा रहे हैं? ‘उग्र’ को गुस्सा आया और उन्होंने लता को उखाड़ फेंका। इसलिए जल्दी ही गुस्सा और उग्र हो जाने के कारण उनका नाम ‘उग्र’ पड़ा।
मंटो के साथ तीन अंक का बहुत गहरा जुड़ाव रहा है। उसके नाम में तीन अक्षर हैं। उसने अपने जीवन की तीन प्रमुख घटनाएं मानी- उसका जन्म, शादी होना और कहानीकार बनना। वह मैट्रिक में तीन बार फेल हुआ था। किसी भी कहानी को लिखने से पहले वह 786 लिखता था जिसमें तीन अंक हैं। विभाजन से पूर्व भारत में उसकी तीन कहानियों पर मुकदमें चले थे। उसके तीन सौतेले भाई थे और तीन बेटियां थी। उसके तीनों भाइयों के नाम ‘अ’ वर्ण से और बेटियों के नाम ‘न’ वर्ण से आरम्भ होते हैं। मंटो की आवारगी के दिनों में भी तीन अच्छे दोस्त रहे और युवा काल में भी। मंटो की माँ, पत्नी और स्वयं उसका नाम ‘स’ वर्ण से आरम्भ होता है, तीनों ही चश्मा लगाते थे। उसकी कहानी ठंडा गोश्त पर तीन महीने की जेल और तीन सौ रूपये का जुर्माना हुआ था। ये कुछ ऐसे संयोग हैं जो ‘उग्र’ और मंटो को अलग-अलग धुर्वों पर खड़ा कर देते है।
3. ‘उग्र’ अपनी ग़रीबी और यायावारी प्रवृत्ति के कारण आजीवन अविवाहित रहे। वे अविवाहित अवश्य थे लेकिन ब्रह्मचारी नहीं, उन्होंने सुरा-सुन्दरी का खूब आनन्द लिया था। रूप बाजार के ग्राहक भी थे। प्रेम के मर्म को भी जानते थे। इस विषय पर उन्होंने बहुत कुछ लिखा भी। मंटो विवाहित थे। उन्होंने अपनी शादी को जीवन की एक बड़ी घटना मानते हुए, ‘मेरी शादी’ नामक एक बहुत सुन्दर संस्मरण भी लिखा है। उन्हें चार बच्चों (एक पुत्र और तीन पुत्रियाँ) के पिता होने का सुख प्राप्त हुआ था। दोनों लेखकों ने मायानगरी मुंबई में रहते हुए लम्बे समय तक फिल्म लेखन किया था, और जैसा कि कहावत है कि फिल्मिस्तान में कोई ‘दूध का धुला’ नहीं होता। अतः ‘उग्र’ के दो पारसी ऐक्ट्रेस के साथ सम्बन्ध रहे, जिनका वर्णन उन्होंने अपनी आत्मकथा में भी किया है। लेकिन मंटो इस विषय में गम्भीर था, उसके किसी के साथ इस प्रकार के सम्बन्ध रहे हों इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। हालांकि ऐक्ट्रेस नूरजहाँ के साथ मंटो के संबंध होने की बात कही जाती है, और पाकिस्तान में बनी फिल्म ‘मंटो’ में भी इसका थोड़ा सा संकेत मिलता है, लेकिन नूरजहाँ ने इसे पूरी तरह नकार दिया था।
4. ‘उग्र’ को अपने जीवनकाल में और मृत्युपर्यन्त भी वो सम्मान नहीं मिला जिसके वे वास्तविक अधिकारी थे। ताने-उलाहनों के कारण उन्हें लम्बा यायावारी जीवन व्यतीत करना पड़ा। ‘घासलेटी आन्दोलन’ के कारण वे साहित्य से झल्लाकर अलग हुए थे। और प्रायः लेखकों की बिरादरी में अछूत समझे गए। वे आज भी मामूली से व्यंग्य कथाकार ही माने जाते हैं। मंटो अपने जीवनकाल में अत्यधिक चर्चित रहे। उन्हें एक बड़ा प्रगतिशील कथाकार माना गया। उन्होंने अपने लेखों में स्वयं को कई बार हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बड़ा कहानीकार कहा। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाएं मानती थी कि उन्होंने अश्लील कहानियाँ लिखकर सस्ती लोकप्रियता बटोर ली थी। मृत्यु के पश्चात मंटो की पचासवीं पुण्यतिथि पर पाकिस्तान सरकार ने उन्हें पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘निशाने-इंतियाज’ देने की घोषणा की। पाकिस्तान सरकार ने उसके ऊपर डाक टिकट भी जारी किया। मंटो के जन्मशताब्दी पर अनेक राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठिया आयोजित हुई। उसके ऊपर फ़िल्में तक बनी। आज मंटो चेखव, मोपांसा, गोर्की जैसे महान कथाकारों की बिरादरी का हिस्सा बन चुका है। जबकि ‘उग्र’ आज भी गुमनामी के अंधेरे में पड़े हैं। अतः प्रासंगिकता और लोकप्रियता की दृष्टि से देखें तो मंटो, उग्र से कई गुना आगे बढ़ गया है।
5. ‘उग्र’ की अनेक रचनाओं पर विवाद रहा और बहुत सी जब्ती का शिकार भी बनी। उनके द्वारा संपादित पत्र भी जब्त हुए। मंटो की रचनाओं पर विवाद तो बहुत रहे, पर वे कभी जब्ती का शिकार नहीं बनी। केवल ‘खोल दो’ कहानी को प्रकाशित करने के कारण ‘अदबे जदीद’ के प्रकाशन पर छह महीने का प्रतिबन्ध अवश्य लगा था।
6. ‘उग्र’ आज विस्मृति के गर्त में चले गए हैं। यदि वे पाठ्यक्रम का हिस्सा बन जाएं तो शायद लागों को उनकी स्मृति हो जाए। आलोचक उन्हे अचर्चित और मामूली सा कथाकार ही मानते है। हालांकि एन.सी.ई.आर.टी. ने इन्टरमीडिएट की पाठ्यपुस्तक, अन्तरा भाग-1, में उनकी ‘उसकी माँ’ कहानी को स्थान दिया है। कुछ विश्वविद्यालयों के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में उनकी आत्मकथा ‘अपनी खबर’ को भी रखा गया है। लेकिन साक्षात्कार के माध्यम से इस विषय पर कई विद्वानों से वार्तालाप हुआ तो अधिकांश ने ‘उग्र’ को अश्लील, विवादास्पद और तनिक सा व्यंग्य कथाकार ही कहा। मंटो की प्रासंगिकता आज पहले की अपेक्षा कई गुना बढ़ी है। आज की पीढ़ी उन्हें विशेष रूचि से पढ़ रही है जिसके अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं। मंटो की हर साल आज भी हिन्दी-उर्दू में अनेक किताबें प्रकाशित होती हैं। मंटो पर भारत के अतिरिक्त पाकिस्तान व अन्य देशों में भी नए दृष्टिकोण से उत्कृष्ट शोध कार्य हो रहा है। अतः मंटो को विश्वस्तरीय ख्याति मिल गई जबकि ‘उग्र’ एक देशीय लेखक बनकर रह गए हैं।
7. भारत विभाजन की त्रासदी पर ‘उग्र’ उतना अच्छा नहीं लिख पाए जितना मंटो ने लिखा। बल्कि ‘उग्र’ ने तो इस विषय पर बहुत ही कम कलम चलाई। जबकि तत्कालीन स्थितियों-परिस्थितियों को दोनों ने समान रूप से देखा-परखा था। मंटो ने भारत-पाक विभाजन के ऊपर बेहतरीन साहित्य लिखा। उनकी लिखी ‘टोबा टेक सिंह’ कहानी तो आज भी भारत विभाजन की त्रासदी पर लिखे साहित्य का एक अनमोल मोती मानी जाती है। ‘उग्र’ की शायद ही कोई रचना इस स्तर की हो। सामाजिक विद्रूपताओं पर ‘उग्र’ ने जो लिखा उसमें इतनी गम्भीरता नहीं जितनी मंटो के लेखन में है।
8. मानवीय संवेदना, व्यवहार कुशलता, साम्प्रदायिकता, वेश्या-जीवन, यौन संबंध, सामाजिक विसंगतियां, भावुक दिलों में अंगड़ाई लेने वाले जज़बात, यथार्थवादिता, अंधविश्वास आदि विषयों के प्रति मंटो का दृष्टिकोण ‘उग्र’ की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म और पैना दिखाई देता है। वेश्या जीवन पर ‘उग्र’ और मंटो दोनों ने लिखा, लेकिन ‘उग्र’ ऐसी कालजयी रचना नहीं दे पाए जैसी मंटो की हतक, काली सलवार, जानकी, फाहा, मेरा नाम राधा है आदि कहानियां हैं। इन्हें वेश्या जीवन का यथार्थ दस्तावेज कहा जा सकता है।
9. परिमाण की दृष्टि से ‘उग्र’ का कथा-साहित्य विशाल है। उनके तेरह उपन्यास और उन्नीस कहानी संग्रह हैं। लेकिन प्रासंगिकता की दृष्टि से मंटो का कथा-साहित्य अधिक महत्वपूर्ण है। मंटो की एक बड़ी विशेषता है कि वह अपनी कहानियों में अपने निजी दृष्टिकोण और विचारधारा के साथ दखलंदाजी की हद तक पूरे का पूरा मौजूद रहता है। अपने पात्रों की खुशियों के साथ, वह उनकी तकलीफें और दुःख भी सहता है। ‘उग्र’ की लेखन शैली में इसका अभाव दिखता है।
10. ‘उग्र’ ने छद्म नामों से भी बहुत लिखा। खपतुल हवास खां, अमनद्रोही दत्त, कलमतोड़ बख्त, अष्टावक्र, शशीमोहन शर्मा, भंग-भगत, मातृमलंग आदि भी ‘उग्र’ के ही उपनाम हैं। संभवतः ऐसा उन्होंने ताने-उलाहनों से बचने के लिए किया हो। लेकिन मंटो ने कभी कोई उप या छद्म नाम नहीं अपनाया। उसने जो कुछ लिखा अपने वास्तविक नाम से लिखा, परिणाम भले ही कुछ भी निकला हो।
11. ‘उग्र’ ने जो कुछ लिखा उसमें बहुत परिवर्तन-परिवर्धन हुए। विष्णुराव पराड़कर जी अपना काम छोड़कर घंटो ‘उग्र’ की कहानियों में व्याकरण सुधारा करते थे, गलत कहानियाँ ठीक किया करते थे, बदशक्ल शब्दों और मुहावरों को काट-छांटकर सही किया करते थे। ‘उग्र’ की किसी-किसी रचना में इतना संशोधन हुआ कि कभी-कभी वह नवीन रचना प्रतीत हुई। उन्होंने अपने कई उपन्यासों को स्वयं संशोधित कर पुनः प्रकाशित कराया। मंटो को यह कतई बर्दाश्त नहीं था कि कोई उसके लिखे में एक शब्द की भी काट-छांट करे। रचना में संशोधन के कारण उसने अपनी ‘आल इंडिया रेडियो’ दिल्ली की नौकरी तक छोड़ दी थी। इसी कारण ‘अश्क’ के साथ उसका कई बार झगड़ा हुआ। उसके द्वारा लिखी फ़िल्मी कहानियों में संवाद बदल दिए जाने के कारण उसकी कई निर्देशकों के साथ गरमा-गर्म बहसें हुई। अमेरिकी राजदूत को उसने अपनी रचना में हेर-फेर की आज्ञा नहीं दी थी। जबकि वह मंटो को उसकी कहानी के लिए पाँच सौ रूपये मेहनताना देने पर सहमत था। उस समय मंटो को अपनी एक कहानी के लिए केवल बीस या पच्चीस रूपये ही मिलते थे। वह जैसा लिखता था सशर्त वैसा ही छपता था।
12. ‘उग्र’ को हम हिन्दी का मंटो कह सकते हैं, लेकिन मंटो को हम उर्दू का ‘उग्र’ नहीं मान सकते। राजकमल चौधरी ने लिखा है, ‘‘उर्दू के महान व्यंग्यकार सआदत हसन मंटो की तरह ‘उग्र’ किसी बात से या किसी व्यक्ति से या समाज से डरते नहीं।’’ इसके अलावा कई नए आलोचकों ने भी ‘उग्र’ को हिन्दी का मंटो कहा है। इस प्रकार ‘उग्र’ की मंटो के साथ तुलना हुई है, मंटो की ‘उग्र’ के साथ नहीं।
13. ‘उग्र’ को जिस प्रकार उनके पत्रकार जीवन में विष्णुराव पराड़कर जी ने सजा-संवारकर लेखन की ओर अग्रसर किया था वैसे ही मंटो को भी उनके गुरु पत्रकार अब्दुल अलीग बारी ने सहयोग किया था। दोनों लेखकों ने इस तथ्य को ससम्मान स्वीकार किया है। मंटो तो यहाँ तक कहते हैं कि वह जो कुछ भी है उसे बनाने में बारी साहब का बहुत बड़ा हाथ है।
14. ‘उग्र’ और मंटो ने मुंबई में, विशेष रूप से फ़िल्मी जगत में काफी समय व्यतीत किया था। इस शहर के विविध रंग-रूपों को उन्होंने अपनी रचनाओं में अभिव्यक्ति दी है। मंटो तो स्वयं को चलता-फिरता मुंबई कहने लगा था। दोनों लेखक तीस-चालीस के दसक में भले ही मुंबई में रहे हों लेकिन इस प्रकार का कोई उदाहरण नहीं मिलता कि उनकी कभी आपस में मुलकात हुई हो।
15. ‘उग्र’ ने किसी भी पैतरेबाजी या साहित्यिक चालाकी से, अपने समकालीन साहित्यकारों के समान अश्लील व गन्दी चीजों को ढकने का प्रयास नहीं किया, बल्कि उनकी नंगई को खोलकर दिखाया। ठीक वैसा ही मंटों ने भी किया। इसलिए वे दोनों हमेशा बदनाम होते रहे। अन्यथा यह भी हो सकता था कि वे अपनी बातों को इस प्रकार की शैली में व्यक्त करते कि बात सिरे से बदल जाती, जैसा कि उस समय कुछ अन्य साहित्यकार कर भी रहे थे।
16. ‘उग्र’ और मंटो ने स्त्री को आधार बनाकर बहुत ही सशक्त लेखन किया। लेकिन दोनों स्त्री को स्त्री के रूप में ही देखने के पक्षधर रहे हैं, देवी या दानवी के रूप में नहीं।
17. कहानी और उपन्यास की विद्रोही अवस्था का जैसा ज्ञान ‘उग्र’ और मंटो को था वैसा उनके समकालीनों में से किसी को भी नहीं था। यही कारण रहा कि उनके उपन्यास-कहानियों ने बड़े तूफ़ान खड़े किए।
18. ‘उग्र’ की शैली, ठुमकती-चुलबुली मुहावरेदार भाषा की अपनी ही विशेषताएं हैं। उस समय सुंदर-सजीव भाषा लिखने में ‘उग्र’ का कोई सानी नहीं था। मंटो की लेखन शैली का चुटीलापन, उपमाओं का अनोखापन, भाषा का टकसालीपन, व्यंग्य का तीखापन भी पाठक को अपनी ओर आकर्षित करता है।
19. ‘उग्र’ के विरुद्ध जब घासलेटी आन्दोलन चला तो हिन्दी साहित्य सम्मलेन और काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने सरक्यूलर जारी करके उनके साहित्य की आलोचना की। बनारसीदास चतुर्वेदी ने गाँधी जी को नोट लिखवाकर ‘उग्र’ के साहित्य की निंदा करवाई। ठीक ऐसे ही प्रगतिशीलों ने बाकायदा सरक्यूलर जारी कर मंटो की आलोचना की और उनकी किसी भी रचना को छापने पर प्रतिबन्ध लगाया।
20. दोनों लेखक व्यंग्य को हथियार के रूप में इस्तेमाल करते रहे। उन्होंने बहुत से लोगों पर व्यंग्यात्मक लेख लिखे। ‘उग्र’ ने इंदौर में ‘मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति’ से जुड़े गणमान्य लोगों के विरुद्ध खुली चिट्ठियाँ छपवाई। ‘मौजी’ पत्र के संपादक महादेव सिंह पर कड़े कटाक्ष किए। इसी प्रकार मंटो ने नर्तकी सितारा देवी और निर्देशक करदार पर बहुत बेबाकी से लिखा। ‘गंजे फ़रिश्ते’ में तो उसने जिस-जिसका भी चरित्र-चित्रण किया है उसे बिलकुल गंजा कर दिया। अपने व्यंग्य बाणों से दोनों ने अपने जीवन में आए लोगों की खूब खबर ली।
21. ‘उग्र’ और मंटो के पात्रों में जबरदस्त समानता है- गुंडे, शराबी, वेश्या, उन्मादी, दलाल आदि उन्हें संभ्रांत लोगों की अपेक्षा अधिक पसंद रहे। उनके पात्रों के प्रतिरूप आज भी समाज में दिखाई देते हैं। स्त्रियों के ऊपर लिखी उनकी कहानियाँ और उपन्यास पढ़कर तो दोनों में काफी निकटस्थता दिखती है। दोनों को इस बात का गहरा एहसास था कि इस संसार में सबसे प्रताड़ित स्त्री है, जो अपनी सर्वश्रेष्ठ पूँजी बेचने तक को मजबूर है।
22. एक ओर ‘उग्र’ से नाराज होकर पंडे-पुरोहित उन्हें जान से मारने की धमकी देने लगे थे तो दूसरी ओर मंटो से चिढ़कर धार्मिक कट्टरपंथी उन्हें शैतान कहने लगे थे। दोनों लेखक पूर्णत: यथार्थवादी थे। आलोचकों ने यथार्थवाद के जितने भी गुण बताए हैं, उन सभी को कम या अधिक मात्रा में इन दोनों के साहित्य में देखा जा सकता है। यथार्थवाद के समर्थक होने के कारण ‘उग्र’ यदि चार्वाक दर्शन के अनुयायी हो गए थे तो मंटो पर मार्क्सवादी या कम्युनिस्ट होने का आरोप था।
23. दोनों लेखकों पर आजीवन यही आरोप रहा कि वे सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए अश्लील साहित्य लिखते हैं। दोनों ही मत्सरी आलोचना के शिकार रहे। दोनों अधिक पढ़े-लिखे भी नहीं थे।
निष्कर्ष रूप में देखा जाए तो ‘उग्र’ और मंटो का साहित्य अपनी मौलिकता, रचनाधर्मिता, यथार्थवादिता के कारण बीसवीं शताब्दी के रचनाकारों में अप्रतिम महत्व का है। हिन्दी-उर्दू में इन साहित्यकारों का आगमन उस समय हुआ था, जब कथा-साहित्य एक निश्चित रूपरेखा वाली परिपाटी पर आगे बढ़ रहा था, चारों ओर आदर्शवाद की जय-जयकार थी। रूढ़िवादियों द्वारा समाज में फैलाए गए अंधविश्वास, शोषण, अनैतिक अत्याचार आदि की पोल खोलना अपराध समझा जाता था। लेकिन ये साहित्यकार ऐसी कठिन डगर पर चले थे जहाँ पहले कोई पदचिह्न नहीं था। उन्होंने अपने पैरों चलकर जो राह बनाई वह ‘उग्र’ और मंटो की राह कहलाई, जिस पर चलना या अनुकरण करना किसी के वश की बात नहीं थी।
उन्हें आलोचकों से भले ही सराहना न मिली हो, पर वे अपने पाठकों से सीधे तौर पर जुड़े। विभिन्न स्तरों और रंगतो वाले पाठकों ने उन्हें खूब सराहा और कई लेवल्स पर उनसे बड़ी गहराई से जुड़े। यही कारण है कि उनकी पूरी रचनावली भी प्रकाशित हो चुकी है। जिनकी पुनरावृत्ति भी हुई है। प्रसिद्धि या बदनामी में से उनका कोई भी स्तर रहा हो, वे साहित्य जगत के चमकते सितारे रहे। वे सही अर्थों में जनता के लेखक थे और आज भी हैं। हिन्दी-उर्दू में वे अपने ढंग के अकेले सदस्य हैं।
आज जबकि उनके साहित्य को नए दृष्टिकोण से देखा जा रहा है तो उसकी नई-नई परतें खुल रही हैं। उन्होंने ठुमकती, इठलाती, चुलबुली और मुहावरेदार भाषा में कथा रस को बरकरार रखते हुए जिस साहस के साथ विभिन्न क्षेत्रों में सत्य सामाजिक घटनाओं को अभिव्यक्ति दी वह अनुकरणीय है। उनकी शैली का आकर्षण आज भी उन्हें लाखों में एक सिद्ध करता है। उनकी कहानियाँ चौंकाती और धक्का पहुँचाती हैं लेकिन वे अर्थ गर्भित यथार्थ का उद्घाटन करती हैं।
साहित्यकार का प्रमुख कर्तव्य होता है सामाजिक दोषों और बुराईयों का परदाफाश करना, काले और खतरनाक कारनामों को रोशनी में घसीट लाना। ‘उग्र’ और मंटो ने भी समाज को जिस रूप में देखा-परखा, उसे उसी रूप में अभिव्यक्ति दी। उनके साहित्य में उनके समय का सच आज भी सुरक्षित है। उनकी सपाट बयानी लोगों में कुलबुलाहट पैदा करती थी। उनकी शैली का अनोखापन बड़े-बड़े आलोचकों की समझ से परे था। वे जो बात कहते यथार्थवाद की चाशनी में लपेटकर बेलाग स्पष्टता से कहते। उनके उस कबीरी अंदाज और दिगम्बरी शैली ने आदर्शवादियों में कुतूहल पैदा कर दिया था। लेकिन ‘जो पिया मन भाए, वही सुहागिन’ वाली कहावत उन पर पूर्णतः चरितार्थ हुई। यही कारण है कि आज इक्कीसवीं सदी में उन्हें जबरदस्त स्वीकृति मिली है। जिस प्रकार कबीर और तुलसी को अपने समाज द्वारा वो सम्मान नहीं मिला जो मिलना चाहिए था, लेकिन आगे चलकर लोगों ने उन्हें ही मनुष्यता की कसौटी मान लिया। उनकी पहचान समाज उद्धारक के रूप में हुई, ठीक वैसे ही ‘उग्र’ और मंटो को भी अपने जीवन में वो सम्मान भले ही न मिला हो जिसके वे वास्तविक अधिकारी थे। लेकिन आज उन्हें पहचानने वालों की कमी नहीं। आज उन पर नए दृष्टिकोण से विचार-विमर्श हो रहा है। उनमें मौलिकता थी, नवीनता थी और विद्रोहात्मकता का स्वर था। वे पाठकों की संवेदना में गहारई तक उतरकर उन्हें अपने विश्वास में लेकर उस स्थान पर ले गए जहाँ से उनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता।