‘उग्र’ ने ऐसे समय में लिखना आरम्भ किया था, जब हिन्दी साहित्य में ‘आदर्शवाद’ का बोलबाला था और साहित्य यथार्थ से अधिक कल्पना में लिखा जाता था। ऐसे समय में जब उन्होंने अपनी कलम की नोक से समाज के यथार्थ की पोल खोलना आरंभ किया तो, समाज बिलबिला उठा। उनके साहित्य में सामाजिक बुराईयाँ अपने नग्न रूप में सामने आयीं थी। उनकी बेबाकी और नग्न सच्चाई को कुछ सफेदपोश-आदर्शवादी बर्दाश्त नहीं कर पाए। फलतः ‘उग्र’ को बदनाम किया गया, ताने-उलाहने मिले। उनके साहित्य पर अशिवत्व, अमर्यादित, आदर्शहीन और अश्लीलता के आरोप लगे। इस आरोप के कई प्रमुख कारण थे, प्रथम तो उन्होंने समाज के उस वर्ग को अपने साहित्य का आधार बनाया था, जिसे दलित, पतित, नीच वर्ग कहा जाता था। उस समय तक यह वर्ग साहित्य की परिधि से दूर था। अतः उनको मर्यादाहीन साहित्यकार समझा गया। उनके ऊपर आदर्शहीनता का ऐसा लेबल चिपका कि वे आदर्शवादी साहित्यकारों की बिरादरी में अछूत मान लिए गए।
दूसरे उन्होंने अपनी कई कृतियों के माध्यम से सामाजिक विडंबनाओं, कुरीतियों, अमानुषिक व्यभिचार और समलैंगिकता जैसे विषयों को उजागर किया था। उस समय ऐसे विषय साहित्य की परिधि से कोसों दूर थे। अतः वर्जित विषयों पर लेखन करने से वे अछूत समझे गए। उनका यथार्थ तद्युगीन धर्मात्मा लेखकों के लिए असहय बन गया। इसलिए पंडितों का एक वर्ग जैसे जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी, ईश्वरी प्रसाद शर्मा, सकल नारायण पांडेय, कृष्ण बिहारी मिश्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, ज्योति प्रसाद मिश्र, रूप नारायण पांडेय और हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि उनको लताड़ने-कोसने लगा।
‘उग्र’ का सर्वाधिक मुखर विरोध किया ‘विशाल भारत’ के संपादक पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने। उन्होंने ‘उग्र’ के साहित्य को ‘घासलेटी साहित्य’ की संज्ञा दी। हिन्दी साहित्य कोष, भाग-1 के अनुसार, ‘‘घासलेटी का अर्थ है- निकृष्ट, निकम्मा, गंदा। अनैतिकता को प्रश्रय देने वाला तथा लैगिंक विकृतियों को चित्रित करने वाला साहित्य।’’ चतुर्वेदी जी ने ‘उग्र’ के बहिष्कार हेतु लम्बे समय तक घासलेटी नामक आन्दोलन चलाया। चाकलेट, दिल्ली का दलाल, बुधुआ की बेटी, जैसी उस समय अश्लील और विवादास्पद मानी जाने वाली पुस्तकों को हाथ में लिए हुए, ‘उग्र’ के ‘विशाल भारत’ में कार्टून छपे। उन कार्टूनों में जंगली और असभ्य पुरुषों द्वारा ‘उग्र’ की पुस्तकों का स्वागत करते हुए दिखाया गया और सभ्य पुरूषों द्वारा नाक-मुँह सिकोड़ते। परिणाम स्वरूप, चाकलेट, दिल्ली का दलाल आदि पुस्तकों में वर्णित विषयों को लेकर विद्वानों में विविध मत प्रचलित हुए। कोई ‘उग्र’ के पक्ष में रहा तो कोई विरोधी खेमे में बैठा। ‘चाकलेट’ की कहानियों को ईष्या से पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने भ्रष्ट, अश्लील और कामुक बताया। उनका आदर्श महावीर प्रसाद द्विवेदी का आदर्श था, जो ‘जूही की कली’ जैसी कविता को भी अश्लील घोषित करता था। चाकलेट नामक आठ कहानियों का संग्रह, जिस समय प्रकाशित हुआ तो समस्त हिन्दी साहित्य में भूचाल सा मच गया। कहानियों का विषय था- समलैंगिकता, अमानुषिक व्यभिचार, अप्राकृतिक यौन संबंध। उस समय तक यह विषय वर्जित समझा जाता था। अतः समस्त हिन्दी समाज दो वर्गों में विभक्त हो गया। एक यदि ‘उग्र’ के पक्ष में रहा तो दूसरे ने उनकी जमकर उपेक्षा की।
शिक्षण संस्थाओं, बाल संस्थाओं में हो रहे बालकों के यौन-शोषणों को उद्देश्य करके ‘चाकलेट’ की कहानियाँ लिखी गयी थी। एक उदाहरण देखिए, “वह शख्स इस फन का पूरा उस्ताद है। त्याग और प्रेम के जाल में बालकों को फँसाता है। परन्तु सुंदर बालकों को। जिसे रूप है, वही उसकी क्लास का मॉनिटर है। जिसे रूप है वही गलों पर कोमल चांटे खाकर ‘स्टैंड अप ऑन द बेंच’ के ऑर्डर से बच सकता है। बेचारे बद-शक्लों की उसके राज्य में मौत ही समझिए।” इस प्रकार की पंक्तियाँ पढ़कर आदर्शवादी तिलमिला गए। उन्होंने ‘उग्र’ को छिछोरा और लौंडेबाज तक कहा। लेकिन समस्त मतवाला मंडल, सरस्वती पत्रिका, भारत, सरोज, हिन्दी पंच, नवयुग जैसे पत्रों ने ‘उग्र’ का समर्थन किया। मतवाला मंडल को समलैंगिकता के ऊपर बहुत सी कहानियाँ, कुछ शिकायती और कुछ प्रशंसात्मक पत्र प्राप्त हुए। सरस्वती पत्रिका ने चाकलेट आन्दोलन पर विनोद करते हुए लिखा, ‘‘जो इतने निर्बल चरित्र हैं कि एक कहानी पढ़ते ही मोरी में गिर पड़ते हैं उनका भगवान ही मालिक है। ऐसे निर्बल चरित्रवालों के लिहाज से कोई लेखक अपने कला प्रदर्शन द्वारा समाज का उपकार करने के कार्य से कैसे विमुख हो सकता है।’’ कुछ आलोचक इसे सुधारवादी साहित्य मानकर इसके समर्थन में खड़े हुए। दूसरी ओर पशुवृत्ति वाले लोगों का पर्दाफाश हुआ तो समाज में हड़कंप सा मच गया। लोगों ने अपने-अपने ढंग से ‘उग्र’ की आलोचना आरम्भ कर दी। उनके निजी जीवन और लेखन को लेकर अखबारों द्वारा उन पर कड़े प्रहार किए गए। उनके चरित्र पर कीचड़ उछाला गया। उनके उपन्यासों और कहानियों को अश्लील, समाज संहारक, उद्देश्यहीन, भोंडा और पागल का प्रलाप घोषित किया गया।
बनारसीदास चतुर्वेदी ने महात्मा गाँधी जैसे युग-पुरूष को भी घासलेटी आन्दोलन में खींचा। उन्होंने सन् 1926 में गाँधी को एक नोट लिखकर भेजा और इस प्रकार के साहित्य की निंदा करने को कहा। गाँधी जी ने चाकलेट के संबंध में चतुर्वेदी जी को लिखा कि ‘चाकलेट’ नामक पुस्तक पर जो पत्र आपने लिखा था, उसके विषय में मैंने ‘यंग इंडिया’ को नोट लिखकर भेज दिया। पुस्तक को नहीं पढ़ा था, टीका केवल आपके पत्र पर निर्भर थी, मैंने सोचा इस प्रकार टिप्पणी करना ठीक नहीं, पुस्तक पढ़नी चाहिए। मैंने पुस्तक आज समाप्त की है, मेरे मन पर जो प्रभाव पड़ा वह आप पर नहीं पड़ा। लेखक मानवीय व्यवहार पर घृणा पैदा करता है। पुस्तक का मकसद पाक-नेक है और इस अमानवीय कृत्य के प्रति लेखक क्रांति पैदा करता है। चतुर्वेदी जी दौड़ते हुए वर्धा पहुँचे। अनेक पुस्तकों से उदाहरण प्रस्तुत किए। गाँधी जी ने चतुर्वेदी जी के दृष्टिकोण से सहमति की और एक बयान जारी किया। जिसमें इस प्रकार के साहित्य की निंदा की। ‘उग्र’ को बड़ा धक्का लगा और वे हिन्दी साहित्य से अलग होकर मुंबई फिल्मी जगत में चले गए।
चतुर्वेदी जैसे नैतिक, जिम्मेदार पत्रकार और साहित्यकार ने न ज्ञात किस रणनीति के तहत गाँधी जी के वास्तविक नोट को पूरे बाईस वर्ष छिपाए रखा। गाँधी जी ने पुस्तक का हेतु पाक-नेक और सुधारवादी माना था। चतुर्वेदी जी ने सन् 1951 के हिंदुस्तान में ‘पूज्य बापू के रूप में’ शीर्षक लेख में ‘घासलेट का सच’ उपशीर्षक से गाँधी जी का वह पत्र पहली बार व्यक्त किया। गाँधी जी ने इस पुस्तक का हेतु शुद्ध, पाक-नेक माना था। चतुर्वेदी जी ने गाँधी जी का पत्र उस समय न प्रकाशित करके बड़ा अनर्थ किया था। क्योंकि इससे ‘उग्र’ जी को बड़ी बदनामी मिली थी, सम्भवतः इसके पीछे एक विचारणीय षड़यंत्र था।
घासलेटी साहित्य को लेकर हिन्दी जगत में अनेक बहसें हुई। उस समय का शायद ही कोई पत्र रहा हो, जिसमें ‘घासलेट’ संबंधी चर्चा न छपी हो। ‘उग्र’ को बदनामी के साथ ही लोकप्रियता भी खूब मिली। क्योंकि चाकलेट का प्रकाशन होते ही हिन्दी जगत में हलचल छा गयी थी। कलकत्ते में पुस्तकों की दुकानों पर बड़े पैमाने पर चाकलेट की बिक्री होती थी और प्रकाशित संस्करण समाप्त हो जाता था।
‘उग्र’ पर घोर अश्लीलता और आदर्शहीना के आरोप लगते रहे, परन्तु वे दुगने उत्साह के साथ विरोधियों का सामना करते रहे। उनके पढ़ने वालों के लिए अज्ञात नहीं रह सकता कि उन्हें धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और कामोद्दीपक अत्याचारों के विरूद्ध खड़े होने के लिए ही निरंकुश, नग्न और उग्र होना पड़ा था। वे खुद सब कुछ झेलकर खड़े हुए थे। पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने इस प्रकार के साहित्य की निंदा करते हुए हिन्दी साहित्य सम्मेलन, काशी नागरी प्रचारिणी सभा जैसी संस्थाओं और श्रीधर पाठक, पद्मसिंह शर्मा, पुरूषोत्तम दास टंडन जैसे गणमान्य व्यक्तियों से भी ऐसे साहित्य की अवहेलना करने को कहा। इसीलिए मुजफ्फरपुर हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अवसर पर पं. पद्मसिंह शर्मा की अध्यक्षता में घासलेटी साहित्य के विरोध में प्रस्ताव पास किया गया। सम्मेलन में उपस्थित अन्य गणमान्य व्यक्तियों ने भी घासलेटी साहित्य की अवहेलना की। प्रेमचंद ने भी इस साहित्य को हानिकारक माना। उनका मानना था कि चाकलेट आदि को रोकने के लिए सबसे अच्छा तरीका पंफ्लेट छापना है। साहित्य में उसे लाने की आवश्यकता नहीं।
सभा, सम्मेलनों की रिपोर्टों के कारण ‘उग्र’ जीवन भर निषेधों के प्रहार झेलते रहे, कोई उनके साथ नहीं चला, वे अपने पथ-प्रदर्शक और पथिक दोनों स्वयं थे। उन्हें बदनामी के सिवा कुछ न मिला और एक समय तो ऐसा भी आया था कि उन्हें हिन्दी साहित्य से प्रायः अलग होना पड़ा था। इस विषय में सुधाकर पांडेय ने कितने मार्मिक शब्द लिखे हैं, ‘‘हिन्दी साहित्य के इतिहास में अनेक बहसें हुई हैं। अनेक बार राग-विराग के कारण पत्रों में आन्दोलन छिड़ा है। अनेक बार सिद्धान्तों की लड़ाईयाँ हुई हैं। किंतु एक लेखक पर प्रहार करने के लिए जितना बड़ा बंवड़र ‘उग्र’ के साहित्य को लेकर हुआ, उतना बड़ा भद्रगोल किसी अकेले साहित्यकार पर सिद्धान्त के घेरे में नहीं हुआ। सिद्धान्त की रस्सी से ‘उग्र’ की गर्दन पर फंदा चढ़ाया गया, किन्तु ‘उग्र’ ऐसे तत्वों से बना था जहाँ नाश तो था विनाश नहीं। यह साहित्यकार आग की हर लपट झेल लेता था।’’
अश्लीलता, अशिष्टता और अशिवत्व के जितने दोष ‘उग्र’ की रचनाओं पर अरोपित किए गए, उससे ज्ञात होता है कि वे विद्वेषपूर्ण आलोचना के शिकार थे। उनका अधिकांश साहित्य समाज की कुरीतियों पर प्रहार करता है और नैतिकता, सहानुभूति, मनुष्यता के शाश्वत मूल्यों की स्थापना करता है। वैसे ‘हिन्दी साहित्य कोष’ में छपी महेन्द्र भटनागर की यह उक्ति भी ध्यान खींचती है कि ‘‘उग्र’ के साहित्य की भर्त्सना आदर्शवादी-नीतिवादी समीक्षकों की ओर से होना स्वाभाविक है। ‘उग्र’ ने अपनी रचनाओं का मन्तव्य यही बताया कि वे समाज की निकृष्टताओं को प्रोत्साहित करने के लिए नहीं प्रत्युत उनके प्रति अरूचि उत्पन्न करने के लिए लिखी गयी हैं।’’ आरोप झेलते हुए भी ‘उग्र’ ने कभी किसी की निंदा नहीं की। वे दृढ़ और स्पष्टवादी साहित्यकार थे। उन्होंने जो कुछ लिखा उसका उद्देश्य यश, प्रतिष्ठा और अर्थोपार्जन नहीं, सत्साहित्य सृजन ही है। समाज की सारी बदसूरती पर जोरदार आक्रमण करना और जीवन मूल्यों की रक्षा करना उनके साहित्य लेखन का अभीष्ट है। बुद्धिवाद के इस युग में जहाँ आज गर्भपात जैसी वस्तु भी मूल्यहीन नहीं रह गई है, जिससे अस्तित्व को ही खतरा पैदा हो गया है। उसके सन्दर्भ में यदि आज उनके साहित्य का पूनर्मूल्यांकन करें तो वह निर्दोष, श्लील और शिष्ट दिखाई देता है। उनके साहित्य पर लगाए आरोप आज बड़े हास्यास्पद लगते हैं। लेकिन वास्तविकता यह भी है कि ‘उग्र’ के विरुद्ध चले घासलेटी आन्दोलन से संबद्ध विभिन्न पत्रों में प्रचारित विवादों को देखने से ज्ञात होता है कि इस आन्दोलन ने हिन्दी में तुलनात्मक आलोचना का नया मानदंड स्थिर किया था।
‘उग्र’ का हास्य-व्यंग्य : ‘उग्र’ पर आक्षेप का तीसरा प्रमुख कारण उनका हास्य-व्यंग्य भी रहा हैं। हिन्दी-साहित्य की गद्य विधाओं में हास्य-व्यंग्य पूर्ण रचनाओं का प्रमुख स्थान है। व्यंग्य में शब्दों की गहरी मार होती है, जो व्यक्ति को ऊपर से नीचे तक तिलमिला देती है। व्यंग्य में व्यंजना शब्दशक्ति का प्रमुख क्रिया कलाप हुआ करता है, जिससे रचना सामान्य अर्थ प्रदान करती हुई, कटाक्ष करने वाले अर्थ भी प्रदान करती है। समाज में फैली बुराईयों, किसी प्रमुख विचार, रूढ़िवादी परंपराओं और व्यवस्थओं पर चोट करते हुए, हंसती-गुदगुदाती भाषा में परिस्थितियों का चित्रण करने वाली रचनाएं हास्य-व्यंग्य की रचनाएं मानी जाती हैं। हास्य-व्यंग्य से परिपूर्ण रचना करने में ‘उग्र’ सिद्धहस्त कलाकार माने जाते हैं। उनकी प्रसिद्धि एक व्यंग्य साहित्यकार की भी रही है। उन्होंने हिन्दी-साहित्य में हास्य-व्यंग्य के बड़े अभाव की पूर्ति की। हिन्दी में हास्य-व्यंग्य की रचना करने वालों का अलग वर्ग है, जिसका महत्व नगण्य है। ऐसे साहित्यकारों ने शिष्ट समाज के खोखलेपन की खिल्ली उड़ाते हुए, उस पर खूब कटाक्ष किए हैं। इस दृष्टि से ‘उग्र’ जी.पी. श्रीवास्तव, हरिशंकर परसाई, अमृतलाल नागर और अन्नपूर्णानन्द की परम्परा के साहित्यकार माने जा सकते हैं। समाज में फैली बुराईयों पर प्रहार करने के लिए ‘उग्र’ ने विभिन्न उपनामों से पत्रों में बहुत से व्यंग्यात्मक लेख लिखे हैं। उन्होंने ‘अष्टावक्र’ नाम से ऊटपटांग शीर्षक के अन्तर्गत ‘आज’ में कई सौ पृष्ठों की व्यंग्य प्रधान रचनाएं लिखी हैं। वे रचनाएं उस युग की समस्याओं पर प्रकाश डालती थी।
उन्होंने प्रत्येक पाखंड पर प्रहार करने के लिए कमर कस रखी थी, इसलिए समाचार पत्रों में लिखते समय उन्होंने खपतुल हवास खाँ, अमनद्रोहीदत्त, कलमतोड़ बख्स जैसे उपनामों को अपनाया। उन्हें राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक या साहित्यिक जिस भी क्षेत्र में पाखंड दिखाई देता था, वे उस पर कटाक्ष करने से नहीं चूकते थे। उन्होंने छद्म नामों से भी इतना लिखा कि वह ‘उग्र’ नाम से लिखी गयी रचनाओं से किसी भी प्रकार कम नहीं। वे ‘हिंदू पंच’ में ‘भंग भगत’ के छद्म नाम से लिखते थे और अपने व्यंग्य प्रयोगों से साहित्य के महारथियों पर तीर चलाते थे। समसामयिक प्रसंगों और व्यक्तियों के व्यक्तिगत जीवन पर वे जो टिप्पणियाँ लिखा करते थे, वे टिप्पणियाँ अत्यधिक तिलमिला देने वाली हुआ करती थी। उस समय के डॉक्टर, वकील, चरित्रहीन अध्यापक, फिल्मी हस्तियाँ, पंड़े-पुरोहित, पत्रकार, संपादक उनकी कलम की जद से नहीं बच सके। अतः जब शिवपूजन सहाय ने उन्हें, अपने संस्मरण लिखने की सलाह दी तो उन्होंने स्वीकार किया, ‘‘लिख तो डालूँ लेकिन जीवित महाश्यों की बिरादरी-अन्ध भक्त बिरादरी का बड़ा भय है। बहुतों के बारे में सत्य प्रकट हो जाएगा .........। कुछ तो मरने-मारने पर भी आमादा हो सकते हैं। मेरे खतरनाक प्राय: जीवन में ऐसे कोलाहलकारी संस्मरणों की भरमार है जिन्हें यदि रेकार्ड पर उतार दिया जाए तो संबंधित महानुभाव फरिश्ते नहीं आदमी नज़र आने लगे। ............. डॉक्टर जीकल, मिस्टर हाईट बाहर समाज में सुवर्ग के भोले मृग की तरह दिखाई देने वाले अंतःकालनेमि हैं।’’
‘उग्र’ के लेखन का विषय उनका देखा-भोगा यथार्थ था। लोगों के जीवन में उनको जो भी खामियां दिखती थी वे उस पर सीधा कटाक्ष करते थे। इसका एक नमूना देखिए, ‘‘उन दिनों काशी में ‘मौजी’ नामक हास्य रस का पत्र निकलता था, जिसके संपादक थे श्री महादेव सिंह शर्मा। एक दिन ‘ऊटपटांग’ स्तंभ में ‘उग्र’ ने लिखा कि मौजी के मुखपृष्ठ पर कुरसी पर बैठे हुए विकटानन उलूक नेत्र व्यक्ति का चित्र प्रत्येक अंक में प्रकाशित होता है और उसके नीचे लिखा रहता है- संपादक, महादेव सिंह शर्मा।’’ अब बताइए ऐसा कटाक्ष पढ़कर कौन चुप बैठ सकता है।
सामाजिक विसंगतियों पर कटाक्ष करने के लिए ‘उग्र’ ने सन् 1924 में ‘भूत’ नामक हास्य-व्यंग्य का पत्र भी निकालना आरम्भ किया था, लेकिन दुर्भाग्य से वह दीर्घायु न हो सका। पत्र में उनके हास्य-व्यंग्यात्मक लेख, कहानियाँ, कविताएँ आदि हुआ करती थी। इस पत्र के कारण उन पर एक संकट भी आया था। उसमें एक बार उनकी एक व्यंग्यात्मक रचना प्रकाशित हुई थी, जिसकी आरंभिक पंक्तियाँ थी- ‘पंडा जी सबका भला करें। बैठक में पंखा झला करें’। उनकी उक्त रचना पर काशी के कुछ तीर्थोपजीवी नाराज हो गए और उनको हाथ-पांव तोड़ने की धमकियाँ मिली। मामला शांत करने के लिए पंचायत-सी हुई, जिसमें निर्णय हुआ कि यह कलम की लड़ाई है, अतः कलम का जवाब कलम से ही दिया जाए। उनके द्वारा प्रकाशित ‘भूत’ पत्र ने काशी में भारतेन्दु की परंपरा को पुन: जीवित किया, लेकिन पत्र के शीघ्र ही कालकलवित हो जाने के कारण यह परंपरा अधिक लम्बी न चल सकी। लेकिन इस पत्र के विविध स्तम्भों के अन्तर्गत प्रकाशित सामग्री हिन्दी हास्य साहित्य में अपने ढंग की अकेली है।
‘उग्र’ ने अपने प्रिय मित्र स्वर्गीय महादेव प्रसाद सेठ की स्मृति में ‘हिन्दी पंच’ नामक पत्र का प्रकाशन किया। पत्र का प्रमुख उद्देश्य समाज-साहित्य और जन-जन में हास्य-व्यंग्य का प्रचार-प्रसार करना था। यह पत्र अपनी व्यंग्य प्रधान शैली के लिए हिन्दी जगत में प्रसिद्ध है। लेखकों के सुख-दुख इस पत्र के प्रमुख स्तंभ होते थे। इन्ही स्तंभों के माध्यम से समाज तथा साहित्य जगत की समस्याओं पर हास्य-व्यंग्य शैली में विचार किया जाता था। यह पत्र उस समय समाज की कटु खबर लेने वाला हिन्दी में अकेला पत्र था। इसके केवल पाँच अंक ही प्रकाशित हुए लेकिन वे ही हास्य-व्यंग्य साहित्य में बेजोड़ हैं। उस समय ‘सरस्वती’ पत्रिका के पश्चात ‘मतवाला’ का हिन्दी साहित्य में प्रमुख स्थान रहा है। पत्र का प्रमुख विषय तीक्ष्ण व्यंग्य प्रदान करना था। कई आलोचकों का कहना है कि ‘मतवाला’ जैसा तीक्ष्ण व्यंग्य प्रधान साहित्य देने वाला साप्ताहिक पत्र हिन्दी में आज तक एक भी प्रकाशित नहीं हुआ है। निराला और ‘उग्र’ मतवाला’ की धार थे, जिन्होंने समाज में फैली गंदगियों को प्रताड़ित करने के लिए पत्र से चाबुक का काम लिया। ‘उग्र’ ने मतवाला’ में जो कुछ लिखा है उसमें हास्य-व्यंग्य की भरमार रही। इसलिए उसने पाठकों के चित्त पर भरपूर प्रभाव डाला था।
अंग्रेजी साहित्य में जो स्थान ‘बर्नार्ड शा’ का है, अमेरिकी साहित्य में जिस गरिमा के अधिकारी ‘मार्क ट्वेन’ हैं, बंगला साहित्य के हास्य-व्यंग्य में जो गौरव ‘परशुराम’ का है, हिन्दी के हास्य-व्यंग्य साहित्य में ‘उग्र’ उसी स्थान के अधिकारी माने जाते हैं। आलोचकों ने व्यंग्य को साहित्य का एक प्रमुख गुण माना है। व्यंग्यात्मक साहित्य में व्यक्ति को तिलमिला देने की क्षमता होती है। उसका प्रभाव सामान्य रचना की अपेक्षा पाठक पर अधिक पड़ता है। ‘उग्र’ का हास्य-व्यंग्य साहित्य फक्कड़पन से भरा है उसमें तीव्रता और सत्य का तेज समाविष्ट है। हिन्दी के हास्य-व्यंग्य साहित्य को विश्वसाहित्य के समक्ष स्थान दिलाने वाले लेखकों में ‘उग्र’ का भी महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है। जीविका के लिए, शान्ति के लिए, विदेशी सरकार से बचने के लिए ‘उग्र’ को लम्बा यायावारी जीवन व्यतीत करना पड़ा था। विद्रोहपूर्ण जीवन जीते हुए ‘उग्र’ का काशी के पंड़े-पुरोहितों, कलकत्ता के सेठ-बनियों, राजस्थान का मारवाड़ी समाज, मुंबई फिल्मी दुनिया के लोगों से पाला पड़ा था। ‘उग्र’ ने सबको अपने साहित्य का आधार बनाकर उनकी भीतरी और बाहरी कुरूपताओं पर सशक्त व्यंग्य किया। ऐसे व्यक्तियों पर ‘उग्र’ की लेखनी चली तो उनका जलभुन जाना स्वाभाविक था। उनका साहित्य उनके देखे भोगे यथार्थ का ही परिणाम है। वे स्पष्टवादी वक्ता थे, कभी किसी से डरे नहीं दबे नहीं, जो कहा, स्पष्ट कहा। हास्य-व्यंग्य उनके साहित्य की धूरी रही।
अपनी खबर लेना और अपनी खबर देना ‘उग्र’ की अपनी विशेषता रही है। उनके जैसी बेबाकी और साफगोई दुर्लभ है। उन्होंने अपने जीवनकाल में आए हुए व्यक्तियों की जमकर खबर ली है। नागा भगवानदास, राममनोहरदास, बच्चा महाराज, भानुप्रताप आदि से संबंधित उन्होंने ऐसे संस्मरण लिखे, जिनमें ‘उग्र’ की व्यंग्यता स्पष्ट दिखाई देती है। अपनी आत्मकथा ‘अपनी खबर’ में उन्होंने स्वयं पर भी चुटकी ली है। आत्माराम एंड संस, प्रकाशक दिल्ली ने सन् 1964 में उनकी हास्य-व्यंग्यपूर्ण कहानियों का अलग संग्रह प्रकाशित किया, जिसमें पिशाची, ब्लैक एण्ड व्हाईट, जब सारा आलम सोता है, मूसल ब्रह्म, गंगा, गंगादत्त और गांगी, सोसायटी ऑफ डेविल्स, काने का ब्याह, मूर्खो का मीना बाजार, सनकी अमीर प्राईवेट इंटरव्यू, न्यूजरील, कम्यूनिष्ट दरवाजे पर, चित्र-विचित्र जैसी कहानियाँ संग्रहीत हैं। ‘पिशाची’ में इस अंधविश्वास पर व्यंग्य किया गया है कि एक गाड़ी द्वारा तीन एक्सीडेन्ट होते हैं तो उसे ओने-पौने दामों में बेच दिया जाता है। राजकमल चौधरी कहते हैं, ‘‘अपनी आदर्शवादी और रूमानी कहानियों की भावुकताओं के वातावरण में भी ‘उग्र’ व्यंग्य के मौकों को हाथ से जाने नहीं देते हैं। जीवन के हर क्षेत्र से वह ऐसी घटनाओं और ऐसे चरित्रों को चुन लेते हैं, मोटरकार पर तो हर आदमी सवार हो सकता है, लेकिन पिशाची का हास्य व्यंग्य सहने की क्षमता किसमें है।’’ गंगा, गंगादत्त और गांगी कहानी में बुढ़ापे में की गई भोग-विलास की कामना पर व्यंग्य किया गया है। ‘सोसायटी ऑफ डेविल्स’ नामक कहानी में एक अंग्रेज जासूस हिन्दी न समझने के कारण भारतीय समाज में किस प्रकार हँसी का पात्र बनता है, इस कहानी में इसी का चित्रण है। यह कहानी भारतीय परंपराओं से अपरिचित विदेशी अंग्रेजों पर करारा व्यंग्य करती है। राजकमल चौधरी लिखते हैं, ‘‘जहाँ तक सफल हास्य का सवाल है सोसायटी ऑफ डेविल्स, काने का ब्याह, सनकी अमीर, कम्यूनिष्ट, दरवाजे पर, आदि हिन्दी की श्रेष्ठतम हास्य कहानियाँ हैं। मूर्खों का मीना बाजार आधुनिक मोनताज के शिल्प में लिखा गया है और छोटे-छोटे प्रतीकों में समाज के सम्पूर्ण ढाँचे को अपने मृदु-कठोर व्यंग्य का निशाना बनाता है।’’ ‘उग्र’ की कहानियाँ किसी व्यक्ति पर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं करती, समाज के दुर्गुणों और दुर्नीतियों पर कटाक्ष करती हैं। उन्होंने समाज के सम्पूर्ण ढांचे को अपने व्यंग्य का निशाना बनाया इसलिए पंडे-पुरोहित, डॉक्टर, वकील, फिल्मी हस्तियाँ, सभ्य समाज के लोग आदि उनसे आजीवन अप्रसन्न रहे। कटाक्ष और व्यंग्य के कारण ही ‘उग्र’ कई बार रचना जब्ती के शिकार भी बने। बौखलाहट में लोगों ने उन्हें अश्लील, अतिचारी, एहसान फरामेश, ईर्ष्यालु और अहंवादी तक कहा। इसी कारण उनके न केवल साहित्य बल्कि व्यक्तिगत जीवन पर भी आक्षेप लगे।
‘उग्र’ साहित्य की धार : ‘उग्र’ का रचनात्मक साहस और अनुभवगत वैविध्य, समाज और साहित्य के लिए एकदम नई बात सिद्ध हुआ था। उन्होंने अपने पत्रों और पुस्तकों के लिए जिस प्रकार की सामग्री का चयन किया, वह तत्कालीन समय में अत्यधिक विवादास्पद समझी गयी। गोरखपुर से निकलने वाले साप्ताहिक ‘स्वदेश’ के दशहरा अंक का संपादन करने पर अंग्रेज सरकार इनके विरूद्ध हो गयी। पत्र जब्त हुआ और उनको कारावास हुई। इसी समय अंग्रेज सरकार द्वारा उनका कहानी संग्रह ‘चिंगारियाँ’ जब्त हुआ। ‘मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति’ से सम्बद्ध गणमान्य व्यक्तियों- दीवान श्री दीनानाथ जी, सर सेठ हुकुमचंद जी, सेठ हीरालाल जी, लालचन्द जी आदि के विरूद्ध ‘विक्रम’ पत्र में खुली चिट्ठी छपवाने लगे तो समिति ने उनकी सभी रचनाएं जब्त कर ली और भविष्य में उनकी कोई भी रचना प्रकाशित न करने पर प्रतिबन्द्ध लगा दिया। चंद हसीनों के खतूत, दिल्ली का दलाल, बुधुआ की बेटी, सरकार तुम्हारी आँखों में, फागुन के दिन चार और चाकलेट जैसी पुस्तकों को, सभ्य समझने वाले मर्यादावादी पुरूषों ने अपनाने से इनकार कर दिया था।
उनको हिन्दी जगत में प्रकृतवादी, नग्नतावादी, उग्रवादी, अतियथार्थवादी आदि के रूप में ख्याति और कुख्याति दोनों ही मिली। उस समय प्रकृतवादी उपन्यासकारों को हेय दृष्टि से देखा जाता था, इसलिए उनकी आलोचना करते हुए डा. रामचंद्र तिवारी ने लिखा है, ‘‘इन उपन्यासकारों ने यथार्थ के नाम पर मानव जीवन की विकृतियों को प्रत्यक्ष किया है। इनका उद्देश्य जो भी रहा हो किन्तु इनके द्वारा मन पर स्वस्थ प्रभाव पड़ने की सम्भावना नहीं की जा सकती। ....... इन लोगों ने रस लेकर व्यभिचार के विविध रूपों का वर्णन किया है। ‘उग्र’ जैसा लेखक नारी के संबंध में विचार करते समय रूढ़िवादी हो गया है।’’ इस कथन से लगता है ‘उग्र’ समय से आगे की बातें लिख रहे थे, जिसे स्वीकारने में लोगों को कठिनाई हो रही थी। उनके विषय और पात्र चयन को लेकर चौतरफा आलोचनाएं होने लगी। उन्होंने ऐसे पात्रों की सृष्टि की है जो पुकार-पुकार कर कहते हैं कि मनुष्य और पशु में कोई विशेष अन्तर नहीं है, विशेषकर भोग की दृष्टि से वे पशुओं से भी निकृष्ट और नीच हैं। एक बार गर्भ धारण करने पर पशु सम्भोग नहीं करते लेकिन मनुष्य संतान उत्पत्ति के समय तक करता रहता है।
‘उग्र’ पर यह भी आक्षेप लगता रहा कि वे सस्ती लोकप्रियता हासिल करने और अधिक लाभ कमाने के लिए अश्लील साहित्य की रचना किया करते थे। लेकिन उनके उपन्यासों का पहला उद्देश्य रस या आनन्द प्रदान करना था, उपदेश या फायदा उसमें हो या न हो। आलोचकों को शिकायत रही कि उनके उपन्यासों में जोश ही जोश भरा रहता है और विचार नगण्य होते हैं। लेकिन ‘उग्र’ के निकट यह जोश ही उपन्यास रस है। उनकी लेखनी में मौलिकता थी और दृष्टि इतनी पैनी थी कि समाज में फैली बुराईयों को अन्दर तक बेध सकती थी। उन्होंने जीवन की कटु यथार्थताओं को स्वयं झेला था। उनका अशांत स्वभाव, अव्यावहारिकता और कटु सत्य का निर्ममतापूर्वक उद्घाटन ही उनके लेखन के मूल में है। उन्होंने छायावादी कवियों की भाँति मन में उमड़ रही भावनाओं को मधुर कल्पना का आवरण चढ़ाकर प्रस्तुत नहीं किया, बल्कि मन में उठी उमंगो को सही-सही व्यक्त किया। इसलिए उनकी कटु, सत्याभिव्यक्तियों से लोग तिलमिला उठे।
‘उग्र’ की रचनाओं में जो घिनौनी सच्चाई छिपी है, उसे सभ्य समाज को स्वीकार करने में बड़ी कठिनाई होती है। सामाजिक जागरूकता लाने के लिए समाज में ऐसी झुंझलाहट उत्पन्न करना सम्भवतः उनका अभीष्ट था। लेकिन उसी झुंझलाहट के कारण समाज के ठेकेदार उनके शत्रु बन बैठे। उन्होंने समाज की गंदी गलियों में पनप रहे घृणित जीवन का सर्वप्रथम चित्रण किया तो लोगों को इसे स्वीकारने में कठिनाई हुई। इस प्रकार का मानवीय दृष्टिकोण उनसे पूर्व हिन्दी के शायद ही किसी कथाकार ने दिखाया हो। उनकी बेबाकी देखकर सामाजिक मर्यादाओं के ठेकेदारों के रोगंटे खड़े हो गए। उन्होंने समाज व्यापी व्यभिचार के शिकार व्यक्तियों की करूण कथा कही, पुरूषों के छल-छद्म और कामुकता का नग्न चित्रण किया, नारी के सतीत्व पर नित्यप्रति के होने वाले आक्रमणों को उजागर किया और आत्मरक्षा के लिए रणचंडी बन जाने का मंत्र उनमें फूँका। ‘उग्र’ अपने पात्रों के जीवन-विकास के चित्रण के लिए अतियथार्थवादी दृष्टिकोण को अपनाकर भीषण से भीषण स्थितियों के नग्न रूप को उद्घाटित करने में तनिक भी नहीं हिचकते। उनके साहित्य में समाहित वर्ण्यविषयों को लेकर हिन्दी-साहित्य में लम्बे समय तक वाद-विवाद होते रहे।
ऐसा कम ही होता है कि किसी साहित्यकार की लोकप्रियता ही उसकी दुश्मन बन जाए और उस दुश्मनी से उपजी इर्ष्या उसके वस्तुनिष्ठ या सकारात्मक मूल्यांकन की राह एकदम रोक दे। लेकिन ‘उग्र’ के साथ ऐसा ही हुआ। उनकी लोकप्रियता के कारण ही प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकार भी उनसे लाग-डांट व इर्ष्या करते हुए उनकी रचनाओं को कलाविहीन या कलाशून्य कहने लगे थे। डा. नगेन्द्र तो यहाँ तक कहते हैं कि ‘उग्र’ ने कला की कभी भी चिंता नहीं की। इसलिए उनकी कहानियाँ कभी भी कलात्मक दृष्टि से शिखर पर न पहुँच सकी।