सआदत हसन मंटो ने अपने जीवन में कहानियों के अतिरिक्त एक उपन्यास, फिल्मों और रेडियो नाटकों की पटकथा, निबंध-आलेख, संस्मरण आदि लिखे। लेकिन उसकी प्रसिद्धि मुख्य रूप से एक कहानीकार की है। चेखव के बाद मंटो ही ऐसा साहित्यकार जिसने केवल अपनी कहानियों के बल पर बेमिसाल जगह बनाई। उसने लेखन की शुरूआत अनुवाद से की थी। लेकिन सन् 1933 में प्रथम मौलिक कहानी ‘तमाशा’ से लेखन का जो सिलसिला आरम्भ हुआ वह 1955 तक निरंतर चलता रहा। बाईस वर्षों के अन्तराल में उसने लगभग 250 कहानियाँ लिखी, जो उन्नीस संग्रहों में प्रकाशित हुई। उसके कहानी लेखन की सबसे बड़ी सफलता यही रही कि उसने चढ़ाव ही चढ़ाव देखे उतार नहीं। बिन मंटो के उर्दू कथा-साहित्य का इतिहास अधूरा माना जाता है। उसने अनेक फिल्मों की पटकथाएं लिखी, लेकिन वे सभी असफल रहीं। जो सफल रहीं, उनका श्रेय दूसरों को चला गया। अपने जीवन संघर्ष को मंटो ने अपनी कहानियों में बड़ी ही ख़ूबसूरती के साथ प्रस्तुत किया है। फलतः उसकी कहानियों में उसका भोगा हुआ यथार्थ है। अपनी ‘एक खत’ कहानी में वह लिखता है, ‘‘मुझे यह कितना बड़ा इत्मिनान है कि मैं जो कुछ महसूस करता हूँ, वही ज़बान से ब्यान करता हूँ।’’ आत्मकथा को सफाई के साथ कहानी में ढ़ालकर प्रस्तुत करने की कला मंटो को खूब आती है। हिन्दी में इसकी थोड़ी सी झलक राजेन्द्र सिंह यादव में दिखाई देती है, अन्यथा हिन्दी-उर्दू कथा-साहित्य में वैसा उदाहरण मिलना कठिन है। मंटो अपनी बात कहने पर ही अधिक महत्व देता है। इसलिए कहानी की संवेदना और कथ्य से भटकता नहीं और अन्त तक आते-आते पाठ़क की चेतना को झकझोर देता है।
बलराज मेनरा ने मंटो के साहित्यिक जीवन का अवलोकन करते हुए लिखा है- ‘‘मंटो एक घटनाक्रम था, जिसका आरम्भ 11 मई 1912 को हुआ और समाप्ति हुई 18 जनवरी 1955 को। मंटो लगभग 43 वर्षो तक फैला एक घटनाक्रम है। संक्षिप्त जीवन की इस पहचान में साहित्यिक जीवन तो खासा संक्षिप्त है। उसने कहानी लिखने का सिलसिला 1934 में शुरू किया। इस दृष्टि में देखें तो 20-21 वर्षो का सक्रिय साहित्यिक जीवन उसे प्राप्त हुआ। आम लिखने वालों के लिए तो 20-25 वर्षों का साहित्यिक जीवन खुद अपने आपको समझने और दरयाफ़्त करने के लिए भी अपर्याप्त होता है। इसके विपरीत उसके तमाम समकालीनों की साहित्यिक यात्रा की कहानी दो गुनी या इससे भी अधिक अवधी तक जारी रही। आखिर कोई तो बात है कि खामोशी, बेदिली और अर्धविक्षिप्तता के लम्बे अंतरालो से भरे उसके जीवन के 20-22 वर्ष उर्दू गल्प की परंपरा के सबसे प्रकाशमान, जीवंत और विवादास्पद अध्याय सिद्ध हुए।’’
उर्दू कथा-साहित्य के चार स्तम्भों (मंटो, इस्मत चुगताई, कृष्ण चन्दर और राजेन्द्र सिंह बेदी ) में से एक सआदत हसन मंटो का शुमार ऐसे साहित्यकारों में किया जाता है, जिसकी कलम ने अपने समय से आगे की ऐसी कहानियाँ लिख डाली, जिनकी गहराई को समझने की दुनिया आज भी कोशिश कर रही है। यही कारण है कि मंटो के कथा-साहित्य को बार-बार व्यवस्थित करने और नित नए दृष्किोणों से उसका विश्लेषण करते रहने की परंपरा समाप्त होने में नहीं आती। आश्चर्य की बात है कि जिस व्यक्ति का जीवन खुली किताब जैसा था और साहित्यिक सरोकार व सृजनात्मक अनुभव हर प्रकार की औपचारिकता, कृत्रिमता और भ्रामकता से मुक्त था, आज के तेजी से बदलते युग में भी चर्चा का विषय बना हुआ है। अतः मंटो के साधारण मानवीय जीवन और साहित्यिक जीवन दोनों की प्रासंगिकता अभी भी शेष है। उसकी कहानियाँ समय के बदलते हुए सन्दर्भों में भी नए सिरे से स्पष्ट होती है और विवेचक से माँग करती है कि देशकाल, नए तर्कों और मानवीय अनुभवों के नए परिप्रक्ष्य में उनके अर्थ फिर से स्पष्ट किए जाएँ। लेकिन इसके ठीक विपरीत मंटो के कहानीकार की समीक्षा करते हुए कहानीकार और आलोचक मुम्ताज़ शीरी ने लिखा है, ‘‘मंटो के अफसानों में कोई भी अस्पष्टता नहीं, न कोई मतभेद और इशारे हैं, न कोई पेचीदा गुत्थियाँ हैं कि उनको सुलझाने में दिक्कत महसूस हो, समय के साथ नई व्याख्याएँ और टीकाएँ हों और तह-दर-तह अर्थ निकाले जाएँ। ये साफ, खुली, सीधी और स्पष्ट प्रकार की रचनाएँ हैं, जिनका संदेश स्पष्ट है। मंटो में अभिव्यक्ति की तड़प थी। एक तीव्र आंतरिक लगन, एक आग में वह हमेशा तड़पता रहता था जो कलाकार के अमरत्व के लिए अत्यंत आवश्यक है।’’
वर्तमान मूल्यों में हुए परिवर्तनों को देखते हुए, मंटो की प्रासंगिकता बढ़ती चली गई है। नग्न सच्चाइयों से नज़रें फेरने के लिए उसे अश्लीलता का नाम देने वाली दुनिया को सच की बदनुमा तस्वीर देखने की दुस्साहसिक ढंग से प्रेरणा दे गए हैं मंटो। आज भी उनकी कहानियाँ, मंटो की बदनाम कहानियाँ, मंटो की विवादास्पद कहानियाँ, मंटो की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ, मंटो की चुनिन्दा कहानियाँ और न ज्ञात कितने ही शीषर्कों से प्रकाशित होती रहती हैं। विनोद भट्ट के अनुसार, ‘‘सआदत हसन मर गया पर मंटो को अक्षरदेह (शब्द रूप) में छोड़ गया। हर साल उसकी कम से कम तीन-चार किताबें प्रकाशित होती हैं। दिसंबर 1994 के आखिरी हफ्ते में मेरे पास मंटो की दो किताबें ‘खुदा की कसम’ और ‘जलालत’ आई। जिनमें प्रकाशन वर्ष 1995 लिखा था। वो जैसा समय से आगे था उसकी किताबें भी समय से आगे हैं।’’ प्रारम्भ में मंटो को अश्लीलता परोसने वाला साधारण-सा कथाकार समझा गया था, उस पर अश्लीलता और बेहूदगी फैलाने के कई मुकदमें चले। उसका अपराध केवल इतना था कि उसने एक ऐसे सच के चेहरे से नक़ाब उठाई थी जिसे देखने की क्षमता समाज अभी अपने आप में उत्पन्न नहीं कर सका था। लेकिन सच यही है कि मंटो के विचारों की गहराई का अंदाजा लगा पाना इतना आसान नहीं है। उर्दू कहानीकार मुशर्रफ आलम जौकी कहते हैं, ‘‘दुनिया अब धीरे-धीरे मंटो को समझ रही है और उन पर भारत और पाकिस्तान में बहुत काम हो रहा है लेकिन ऐसा लगता है कि मंटो को पूरी तरह समझ पाने के लिए सौ साल भी कम है। मंटो को प्रारम्भ में दंगो, फिरकाना वारदात और वेश्याओं पर कहानी लिखने वाला सामान्य-सा कहानीकार माना गया था। लेकिन उनकी कहानियाँ अपने अन्त के साथ खत्म नहीं होती। वे अपने पीछे इंसान को झकझोर देने वाली सच्चाईयाँ छोड़ जाती हैं। उनकी सपाट ब्यानी वाली कहानियाँ फिक्र (ऊँचे) आसमान को छू लेती हैं।’’
पढ़ने वालों को अपने अफसानों से चौंकाने का नायाब फ़न जैसा मंटो के पास था वैसा कम ही कथाकारों में मिलता है। उन दिनों मंटो के अफसाने लोग घर के कोने में बैठकर एक सांस में पढ़ डालते। फिर बाहर आकर गुस्से में बोलते, ‘ऐसी खुली कहानियाँ लिखी जा सकती हैं? मंटो समाज को बिगाड़ रहा है।’ उसके पाठक दो हिस्सों में बंट गए थे। एक वर्ग यदि उसे पथ-प्रदर्शक दूत मानता था तो दूसरे के अनुसार वह शारीरिक भूख, कामुकता और नग्नता से सराबोर कहानियों का लेखक था। मंटो अपनी बहुत सी कहानियों का मुख्य तथा गौण-पात्र स्वयं है। तभी उसकी कहानियों में इतनी तीक्षणता आ पाई है। उसकी कहानियाँ जिन्दगी की उन उलझी हुई गहरी सच्चाईयों पर पड़े पर्दों को नोंच फेंकने की कोशिश थी, जिनसे दुनिया हमेशा बचती रही। उस पर अश्लीलता फैलाने के भले ही मुकदमें चलें हों, लेकिन वे कभी मुजरिम नहीं ठहराए जा सके।
कथाकार ओ हेनरी के समान मंटो भी कहानी के अंत में पाठकों को एक झटका सा देता है। कहानी पढ़कर पाठक उस पर अपनी अच्छी-बुरी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए माथा-पच्ची अवश्य करता है। यदि जीते जी मंटो को पता चलता कि उसकी कहानियों पर थीसिस लिखी जा रही है, शोध हो रहे हैं तो वह सकते में आ जाता। और यदि उसे यह पता चलता कि कोई लड़की उसकी कहानियों पर पी-एच.डी. कर रही है तो पता नहीं उसका क्या हाल होता। अमेरिकी स्कालर लेसली ए. फ्लेमिंग ने उसकी कहानियों पर ‘another lonely voice’ नाम से अपना शोध प्रबंध लिखा, जिसे सन् 1979 में कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय ने प्रकाशित किया।
मंटो ने अपने छोटे से साहित्यिक जीवन में कहानियों के अतिरिक्त सौ से अधिक रेडियो ड्रामें, छोटे निबंध, अनेक संस्मरण-रेखाचित्र, फिल्म पटकथाएं, खुतूट (ख़त), आलेख आदि लिखे। लेकिन उसकी प्रसिद्धि मुख्य रूप से कहानीकार की ही है। मंटो की 250 से अधिक कहानियाँ उन्नीस संग्रहों में प्रकाशित हुई। उसके साहित्य का संक्षिप्त विवरण निम्नवत है :-
1. आतिशपारे :- यह मंटो का पहला कहानी संग्रह है, जो 05 जनवरी 1936 को पहली बार अमृतसर में प्रकाशित हुआ। इसमें केवल सात कहानियाँ संकलित हैं। मंटो ने यह संकलन अपने पिता स्वर्गीय गुलाम हसन मंटो को समर्पित किया है। इसकी भूमिका में लिखा है, ‘ये अफसाने दबी हुई चिंगारियाँ हैं। इनको शोलों में तबदील करना पढ़ने वालों का काम है।’
2. मंटो के अफसाने :- इस संकलन का पहला संस्करण, दिल्ली से प्रकाशित होने वाले ‘दीन-दुनिया’ नामक अखबार को समर्पित है, जिसमें मंटो के खिलाफ़ सबसे अधिक गालियाँ छपी थी। और दूसरा संस्करण भी उसी को समर्पित है। पहले संस्करण की भूमिका बहुत संक्षिप्त थी, बाद में उसमें ‘अदबे-जदीद’ (आधुनिक साहित्य) नामक लम्बा भाषण जोड़ दिया गया। यह भाषण मंटो ने ‘जोगेश्वरी कालेज मुंबई’ के सम्मान्नीय-समारोह में विद्यार्थियों के समक्ष पढ़ा था। सन् 1944 में यह ‘अदबे लतीफ’ मासिक पत्रिका में भी छपा था, जिस पर पंजाब सरकार ने क़ानूनी कार्रवाई की थी। कुछ आलोचकों ने इसे मंटो का पहला कहानी संग्रह भी माना है। इसके पहले संस्करण में उनकी मौलिक कहानी ‘तमाशा’ संकलित थी, लेकिन दूसरे में न ज्ञात किस कारण से उसे निकाल दिया गया।
3. धुआँ :- यह संग्रह हसन अब्बास को समर्पित है, जो अमृतसर में मंटो की आवारगी के दिनों का देास्त था। इसका प्रकाशन 07 दिसम्बर 1941 में ‘साकी बुक डिपो’ देहली से हुआ था। इसमें कुल चौबीस कहानियाँ संकलित हैं। ‘धुआँ’ पहली ही कहानी है। इस संग्रह की ‘धुआँ और काली सलवार’ पर मंटो और उसके प्रकाशक के खिलाफ मुकदमा चला था। धुआँ पर पहली बार लेकिन काली सलवार पर दूसरी बार कानूनी कार्रवाई हुई थी।
4. अफसाने और ड्रामें :- यह 28 नवम्बर 1943 को मुंबई से प्रकाशित हुआ। इसमें सात कहानियाँ और छह रेडियो ड्रामें संकलित है। यह तसनीम को समर्पित है जो नवाब छतारी की बेटी और मामूली-सी कहानीकार थी।
5. चुग़द (बहस या वाद-विवाद) :- इसका पहला एडीशन मुंबई में छपा था। लेकिन बटवारे के बाद इसक पूरा प्रूफ ‘कुतुब पब्लिशर्स लिमिटेड’ लाहौर ने खरीद लिया था। 26 अगस्त 1950 में यह दूसरी बार प्रकाशित हुआ। इस संग्रह की बाबू गोपीनाथ, मेरा नाम राधा है, और खोल दो कहानियाँ लोगों द्वारा बहुत पंसद की गई और मंटो को उस वर्ष का सर्वश्रेष्ठ कहानीकार घोषित किया गया था। प्रगतिशील लेखकों ने भी इस संग्रह की कहानियाँ खूब पसंद की और मंटो का नाम प्रगतिशील लेखकों की अग्र पंक्ति में गिना गया। बाद में राजनीतिक कारणों से उनकी आलोचना भी खूब हुई।
6. लज़्ज़ते संग :- यह 1944 में प्रकाशित हुआ। इसका पहला और दूसरा संस्करण चौधरी मुहम्मद हुसैन को समर्पित है। इसमें प्रसिद्ध कहानी ‘बू’ संकलित है जिस पर पंजाब सरकार ने मंटो के विरूद्ध कानूनी कार्रवाई की थी।
7. सियाह हाशिये :- इसकी भूमिका ‘हाशिया आराई’ के नाम से मुहम्मद हसन असकरी ने लिखी। यह भारत विभाजन की त्रासदी पर आधारित छोटी-छोटी लघु-व्यंग्य कथाओं का संग्रह है। इसमें कुल 32 लघुकथाएं संग्रहीत हैं।
8. खाली बोतलें खाली डिब्बे :- यह 1950 में लाहौर से प्रकाशित हुआ। इसमें पहले कहानियाँ और निबंध दोनों थे। बाद में निबंध निकालकर नई कहानियाँ सम्मिलित कर ली गई। मंटो का कहना है कि नई कहानियाँ पहली कहानियों से किसी भी प्रकार कम नहीं। यह ‘एक खाली बोतल’ को समर्पित है।
9. ठंडा गोश्त :- यह संग्रह भी 1950 में प्रकाशित हुआ। इसका मुख्य आकर्षण है ‘ठंडा गोश्त’ कहानी। सम्पूर्ण संग्रह कहानी के नायक ईशर सिंह को समर्पित है जो हैवान बनकर भी इंसानियत नहीं खोता। इस कहानी पर अश्लीलता का आरोप लगा था और मंटो को तीन सौ रूपये जुर्माना व तीन महीने की क़ैद हुई थी। लेकिन अपील करने पर सेशन ने उन्हें बरी कर दिया था।
10. नमरूद की खुदाई :- इस संग्रह की न कोई भूमिका है और न प्राक्कथन। इसमें प्रसिद्ध कहानी ‘खोल दो’ भी संग्रहीत है जिसे अश्लील के साथ-साथ साम्प्रदायिक दंगे भड़काने वाली कहानी भी समझा गया था। इसका शीर्षक ग़ालिब के शेर, ‘क्या वह नमरूद की खुदाई थी/ बंदगी में मेरा भला न हुआ’ से लिया गया है।
11. बादशाहत का खातमा :- इस संग्रह की कहानियाँ ब्रिजमोहन को समर्पित है जो मंटो का अजीबो-गरीब दोस्त था। मंटो ने ‘बादशाहत का खात्मा’ और ‘पैरन’ ये दोनों कहानियाँ उसके जीवन से ली हैं। इस संग्रह की कहानियाँ बहुत कम समय में लिखी गई। प्रत्येक पर तिथि दर्शाई गई है। यह संग्रह उनके प्रिय प्रकाशक ‘मक़तबा-ए-उर्दू’ ने प्रकाशित किया था।
12. यज़ीद :- यह संग्रह किसी को भी समर्पित नहीं। प्रथम बार 28 अक्टूबर 1951 को लाहौर से प्रकाशित हुआ। इसकी ‘यज़ीद’ और ‘1919 की एक बात’ पहली बार प्रकाशित हुई। अन्य सभी कहानियाँ किसी न किसी पत्र-पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी थी। मंटो ने इसकी अंतिम कहानी लिखना आरंभ किया तो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ‘लियाकत अली खाँ’ की हत्या कर दी गई। फिर उनकी मँझली बच्ची बहुत बीमार रही। इसलिए वे मानसिक तौर पर बहुत परेशान रहे।
13. सड़क के किनारे :- इस संग्रह की न कोई भूमिका है और न प्राक्कथन। केवल प्रथम पृष्ठ पर रूसी कवि ‘मयातलक़’ की कविता ‘सड़क के किनारे के दिए’ की ‘‘यह नन्हें चराग़/ यह नन्हें सरदार/ सिर्फ अपने लिए चमकते हैं/ जो कुछ यह देखते हैं/ जो कुछ यह सुनते हैं/ किसी को नहीं बताते।’’ ये पंक्तियाँ दर्ज हैं। सम्भवतः यह शीर्षक भी यहीं से लिया गया है।
14. सरकंडों के पीछे :- यह अक्टूबर 1954 में प्रकाशित हुआ। इसकी भी न कोई भूमिका है न कोई प्राक्कथन।
15. फुंदने :- जनवरी 1955 में प्रकाशित हुआ। भूमिका और पूर्व प्रसंग रहित।
16. बुर्क़े :- यह उन औरतों के नाम समर्पित है, जिन्हें बुर्के से नफ़रत है। इसकी भूमिका नहीं है। यह मंटो की मृत्यु के पश्चात छपा।
17. शिकारी औरतें :-
18. बग़ैर इजाज़त :-
19. रत्ती, माशा, तोला :- बाद के ये तीनों संग्रह मंटो की मौत के पश्चात छपे। इन सभी में न भूमिका है और न पूर्व प्रसंग।
बलराज मेनरा, शरद दत्त व मुगनी जैसे विद्वानों ने परिश्रम करके मंटो की अनेक ऐसी कहानियाँ खोजी, जो उनके किसी भी कथा-संग्रह में नहीं मिलती। मुगनी को कराची और लाहौर में रहते हुए ऐसी आठ कहानियाँ मिली। ये कहानियाँ हैं- फोजा हराम दा, महताब खाँ, शाहदौल का चूहा, हाफ़िज हसन दीन (चारों 1954 में प्रकाशित) चोर, सुर्मा, काली-काली और राजू (मंटो की मौत के पश्चात छपी)। मंटो की जीवनी ‘मंटो मेरा दोस्त’ लिखने वाले और मंटो के अंतिम दिनों में उनके साथ रहने वाले ‘मुहम्मद असदुल्ला’ के अनुसार 1954 में मंटो ने लगभग सौ कहानियाँ लिखी जिनमें से अधिकांश छप न सकी। बलराज मेनरा ने अपनी पत्रिका ‘शऊर’ में मंटो की पूर्व प्रकाशित कहानियों का विश्लेषण करते हुए उन्हें छापना आरंभ किया, उन्होंने कुछ ऐसी कहानियों का विवरण दिया जो पहले कभी नहीं प्रकाशित हुई थी। इनके शीर्षक हैं- सोनोरल, मिसेज गुल, अस्ली जिन, गिलगित खान, सब्ज़ सेंडल, बीमार, डाक्टर शिरोड़कर आदि। ख्वाबे-खरगोश, तीन मोटी-औरतें, आर्टिस्ट लोग, फातो भी ऐसी ही कहानियाँ हैं, जो बाद में प्रकाशित हुई।
मंटो की अनेक कहानियाँ ऐसी हैं जो लोगों ने लाहौर की साहित्यिक पत्रिकाओं में पढ़ी और भुला दी। फिर वे काल के गर्त में कहीं खो गई। 14 जनवरी 1955 को मंटो ने एफ. सी. कालेज की ‘बज़्में-फिक्रो-नज़र’ में अपना आखिरी अफसाना ‘कबूतर और कबूतरी’ पढ़कर सुनाया था। लेकिन अभी तक इस अफसाने का कोई अता पता नहीं।
उपन्यास :- मंटो ने अपने जीवन काल में केवल एक उपन्यास लिखा- ‘बगैर उनवान के’। इसमें आठ अध्याय हैं, जिनमें एक साधारण आदमी की प्रेम कहानी है। इस उपन्यास को पढ़कर इस्मत चुगताई ने मंटो से कहा था, “तुम्हारा प्यार कितना फुसफुसा है, मंटो।” लेकिन बानो सरताज लिखती हैं, “बगैर उनवान के उपन्यास में मंटो की शैली अद्वित्य है। कृश्न चंदर की भाँति उसने गद्य शैली में शायरी तो नहीं की पर सोने में हीरे की जड़ाई बड़ी महारत से की है। ‘जो ज़र्रा जिस जगह है, वहीँ आफ़ताब है’ के अनुसार कथा-कौशल के अद्भुत दर्शन कराए हैं।” मंटो ने दूसरा उपन्यास ‘तकलीफ’ नामक शीर्षक से लिखना आरम्भ किया था, लेकिन इसे वह पूरा न कर सका।
अन्य साहित्य :- मंटो में रचनात्मक क्षमता बहुत अधिक थी। उसने रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए कला का कोई भी मार्ग चुना हो, किसी न किसी रूप में हंगामा अवश्य हुआ। वह एक हद दर्जे का बेबाक लेखक था। जिस विषय पर भी लिखता था, दिल खोलकर लिखता था। उसकी प्रसिद्धि मुख्य रूप से कथाकार की ही है। लेकिन उसने एक दिन में दो-दो कहानियों के अतिरिक्त दो-दो रेड़ियों नाटक भी लिखे। कहानियों और रेडियो नाटकों के अतिरिक्त मंटो ने निबंध, रेखाचित्र, ख़तूत (खत) आदि पर भी अपनी लेखनी चलायी। उसके अन्य साहित्य का संक्ष्प्ति विवरण इस प्रकार है :-
रेडियो नाटक :- मंटो आल इंडिया रेडियो दिल्ली में रेडियो नाटक लेखक की हैसियत से नियुक्त हुआ था। कहते हैं उसने ‘आल इंडिया रेडिया’ में नौकरी के लिए प्रार्थना-पत्र दिया तो अपने अनुभवों की चर्चा करते हुए लिखा, ‘‘मेरे पास रंडियों और उनके ग्राहकों, भड़वों और उनके तौर-तरीकों, देह व्यापार और उसके वातावरण के बारे में पूरा-पूरा ज्ञान मौजूद है।’’ यह थी मंटो की जिंदादिली, उसने ब्रिटिश साम्राज्य के अधिकरियों के समक्ष विशिष्ट ढ़ग से एक अनोखा प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत किया, जो बिना किसी आना-कानी के स्वीकार किया गया। मंटो लगभग उन्नीस महीने दिल्ली में रहा। यह काल उसके साहित्यिक जीवन का स्वर्णयुग माना जा सकता है। इस छोटे से अन्तराल में उसने जितना अधिक लिखा, वैसा उदाहरण मिलना कठिन है। कोई सौ के लगभग रेडियो नाटक और फीचर, अनेक कहानियाँ और निबंध आदि उसने दिल्ली में रहते हुए लिखे।
‘आओ सीरीज’ के अन्तर्गत मंटो ने दस रेडियो नाटक लिखे, जो 1940 में आल इंडिया रेडिया से ब्राडकास्ट हुए थे। सभी नाटक हास्य-व्यंग्य मूलक हैं। इनमें से आओ कहानी लिखें, आओ रेडियो सुनें, आओ चोरी करें, आओ झूठ बोलें लोकप्रिय रहे। ‘ज़नाजे’ संग्रह के अन्तर्गत आठ रेडियो नाटक हैं। यह उस व्यक्ति को समर्पित है जो उनकी मौत पर वैसा ही मजमून लिखेगा। भूमिका में लिखा है कि क्या अज़ब है कि इसको पढ़कर आपको मरने का सलीका आ जाए। इनमें सबसे प्रमुख है- ‘चंगेज खाँ की मौत’। इस संग्रह के सभी फीचर 1941-42 की बीच आल इंडिया रेडियो दिल्ली से ब्राडकास्ट हुए थे। ‘अफसाने और ड्रामे’ संग्रह में सात अफसाने और छह ड्रामे संग्रहीत हैं जो तस्नीम (एक छोटी सी कथाकार, जो मंटो को अपना भाई कहती थी) को समर्पित हैं। छह ड्रामे हैं- कानून की हिफाजत, एक मर्द, तीन उँगलियाँ, दो हजार साल बाद, तीन तोहफे, और तोहफा। तीन औरतें ड्रामा सीरीज अम्मा हव्वा को समर्पित है। इसके अन्तर्गत पाँच रेडियों नाटक हैं, जो 1941-42 के बीच आल इंडिया रेडियो दिल्ली से ब्राडकास्ट हुए थे।
‘करवट’ संग्रह में प्रकाशन की तिथि नहीं है। न ही इसमें भूमिका है। संभवतः यह 1944 में प्रकाशित हुआ था। इसमें ग्यारह ड्रामे संग्रहीत हैं। इसके हतक, रनधीर पहलवान, चूड़ियाँ, रूह का नाटक, सलीमा आदि प्रसिद्ध हैं। मंटो को अपने रेडियो नाटक लेखन की सफलता का आभास पूर्णतः हो चुका था, इसलिए उसने अपने नाम से भी ड्रामे लिखे। ‘मंटो के ड्रामें’ की भूमिका में उसने लिखा है, ‘‘चूँकि इस मैदान में मैं सबसे आगे हूँ, इसलिए मुझे यक़ीन है कि नवोदित और अन्य ड्रामा लेखक, दोनों ये अठारह ड्रामें पढ़कर लाभकारी होंगे।’’ मंटो के ड्रामें के नीली आँखे, कबूतरी, टेढ़ी लकीर, जेबकतरा, जर्नलिस्ट, जुर्म और सज़ा काफी लोकप्रिय हुए।
‘जर्नलिस्ट’ बारी साहब के जीवन से संबंधित था, जिसे दोबारा ब्राडकास्ट करने के लिए पत्रकारों ने बहुत शोर मचाया। लेकिन इच्छा और प्रयत्न के बावजूद भी निदेशक उसे प्रसारित न कर सके। ‘जेबकतरा’ तो इतना प्रसिद्ध हुआ कि न ज्ञात कितनी बार, किस-किस भाषा में और किस-किस रेडियो स्टेशन से ब्राडकास्ट और टेलीकास्ट हुआ। इसका फिल्मीकरण भी हुआ। इसके विषय में कहा गया है, ‘‘यदि मंटो ने दिल्ली प्रवास के दौरान केवल जेबकतरा ही लिखा होता तो भी उसका दिल्ली प्रवास साहित्य के इतिहास में वही स्थान होता, जो अब है।’’
निबंध :- मुंबई में रहते हुए मंटो ने छोटे-छोटे निबंध लिखना आरम्भ किया। उन निबंधों में से पहला ‘मुझे शिकायत है’ सन् 1940 में प्रकाशित हुआ। इसके पश्चात अनेक साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में उनके निबंध प्रकाशित हुए। वे अखबारों में निरंतर ‘स्तम्भ और आलेख’ भी लिखते रहे। उनके कुछ प्रमुख निबंध हैं- देहाती बोलियाँ, बातें, तरक्की-याफ्ता कब्रिस्तान, सफेद झूठ, लज्जते संग, परदे की बातें, पटाखे, ज़रूरत, पसमंजर, गुनाह की बेटियाँ, गुनाह के बाप आदि।
ख़ुतूत (खत) :- उर्दू साहित्य में ख़ुतूत (पत्र-साहित्य) का विशिष्ट स्थान है। मिर्जा ग़ालिब के ख़त उर्दू साहित्य की मूल्यवान निधि माने जाते हैं। वैसे तो मंटो भी जीवन भर अपने दोस्तों और रिश्तेदारों आदि को ख़त लिखते रहे। लेकिन उन्होंने स्वयं की दयनीय स्थिति और पाकिस्तान की तत्कालीन परिस्थितियों से अवगत कराते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति को ‘चाचा साम के नाम ख़त’ शीर्षक से जो ख़त लिखे वे बड़े मर्मस्पर्शी हैं। उनमें मंटो को जीवन भर मिलने वाली आत्मग्लानि और पीड़ा की झलक है।
रेखाचित्र :- मंटो ने रेखाचित्र से संबंधित दो पुस्तकें लिखी- गंजे फरिश्ते और लाउड़स्पीकर। इनमें से पहली उसके जीवनकाल में ही प्रकाशित हो गई थी, जबकि दूसरी उसकी मृत्यु के आठ माह पश्चात सितंबर 1955 में प्रकाशित हुई। लाउड़स्पीकर को गंजे फरिश्ते की दूसरी किस्त माना गया है। गंजे फरिश्ते में उन्नीस रेखाचित्र है। प्रत्येक व्यक्ति के रेखाचि़त्र का ताना-बाना मंटो स्वयं ही बुनता है और स्वयं ही वर्णन करता है। गंजे फरिश्ते के विषय में मंटो कहता है, ‘‘मैं ऐसी दुनिया पर, ऐसे सभ्य देश पर, ऐसे सभ्य समाज पर हजार लानतें भेजता हूँ, जहाँ यह प्रचलन है कि मरने के बाद व्यक्ति का चरित्र और व्यक्तित्व लौंडरी में भेज दिया जाता है, जहाँ से वह धुल-धुलाकर आए और रहमतुल्ला अलैह (अत्यन्त सम्मानित व्यक्ति) की खूँटी पर लटका दिया जाए।’’ यह कथन बिलकुल सत्य है क्योंकि मंटो ने जिस-जिस व्यक्ति के विषय में जो-जो लिखा, बड़ा बेबाक लिखा। बारी साहब, नूरजहाँ, अशोक कुमार, मेरठ की कैंची, सितारा, बाबूराव पटेल, नर्गिस आदि सभी को उनके यथार्थ रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।