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उग्र के साहित्य की मूल चेतना और प्रतिपाद्य विषय

13 अगस्त 2022

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 जिस समय ‘उग्र’ का साहित्य-क्षेत्र में प्रवेश हुआ, उस समय तक छायावाद का आगमन हो चुका था। पद्य हो या फिर गद्य, कल्पना की ऊँची उड़ाने भरकर साहित्य की रचना हो रही थी। अतः समकालिक लेखक-कवियों पर भी इस साहित्यधारा का कम या अधिक प्रभाव पड़ना आवश्यक था। छायावाद की मुख्य प्रवृत्ति काव्य प्रधान थी। अत: ‘उग्र’ ने भी साहित्य में प्रवेश करते समय सुंदर, भावपूर्ण कविताएँ लिखी। लेकिन वे शीघ्र ही इस कारा से मुक्त हो गए। गद्य के क्षेत्र में उन्होंने, ‘महाजनों येन गता, सा पन्था’ का अनुकरण करते हुए कला का पुरस्कार, चाँदनी, मलंग, प्रस्ताव स्वीकार, करूण कहानी, हत्यारा समाज, यह कचंन सी काया जैसी अनेक प्रेम और आदर्श की कहानियाँ भी लिखी। लेकिन ‘उग्र’ अतियाथर्थवादी और नग्न सत्य के आग्रही कलाकार थे। इसलिए उन्होंने यही रास्ता अपना लिया और साहित्य के माध्यम से समाज में फैली गंदगी को उजागर करना आरम्भ कर दिया। क्योंकि उस समय साहित्य आदर्श और मर्यादावादियों की जद में था इसलिए साहित्य जगत में कोलाहल सा मच गया। काशी के गुंडानुमा पंडे तो ‘उग्र’ के हाथ-पाँव तोड़ने तक को तैयार हो गए। लेकिन एक बात अच्छी थी कि ‘उग्र’ जो कुछ लिख रहे थे वह दनादन बिक रहा था। इसलिए समाज में उनकी स्वीकार्यता बढ़ रही था। उन्होंने मलित, दलित, गरीब और स्त्री वर्ग की समस्याओं को समीप से देखा-परखा और जाना-समझा था। इसलिए उनकी कलम इन्ही को समर्पित हो गई। जब साहित्य में दलित और स्त्री विमर्श का नारा नग्णन्य था, उस समय उन्होंने इन विषयों पर कई उपन्यास और कहानियाँ लिखी। आइये उनकी इस चेतना को थोड़ा देखते हैं- 

दलित और स्त्री विमर्श : आज के सन्दर्भ में जब हम ‘उग्र’-साहित्य का मूल्यांकन करते हैं तो स्पष्ट होने लगता है कि वे आज के विभिन्न विमर्शों में उपस्थित हैं। वे एक भविष्यदृष्टा साहित्यकार के रूप में हमारे सामने आते हैं। जिन विषयों पर तत्कालीन लेखक कलम चलाने से डरते थे, उन पर उन्होंने बेबाक होकर लिखा। समाज की अधिकांश समस्याएं ही उनकी कलम की परिधि में रही। उन्होंने समाज की बुराईयों को, उनकी नंगी-सच्चाईयों को बिना किसी लाग-लपेट के प्रस्तुत किया। उन्होंने अपनी कहानियों और उपन्यासों में दलितोद्धार और नारी सशक्तिकरण या स्त्री-विमर्श जैसे विषयों को गम्भीरता से उजागर किया। उन्होंने समय के कुचक्र से जूझते हुए, जिन प्रश्नों को उठाया था वे जितने प्रासंगिक उस समय थे उससे कहीं अधिक वर्तमान में लगते हैं। उनका समाज दर्शन या सामाजिक चेतना प्रेमचंद से किसी भी प्रकार कम नहीं कहा जा सकता। समाज के नग्न यथार्थ को प्रस्तुत करने में उन्होंने किसी प्रकार की पैंतरेबाजी नहीं दिखाई इसलिए कुछ समीक्षकों ने उन्हें पश्चिमी प्रकृतिवाद का अनुगामी भी समझा। 

दलित-विमर्श हो या स्त्री-विमर्श, साम्प्रदायिकता की समस्या हो या यौन शोषण सहित किसी अन्य प्रकार का शोषण ‘उग्र’ ने सभी पर अपनी बेबाक लेखनी चलाई। उन्होंने जिस समय दलितोद्धार का प्रश्न उठाया, उस समय दलित-चिंतन का मुहावरा साहित्य में दूर-दूर तक नहीं था। उनका जीवन अत्यन्त गरीबी में, एकदम दलितों जैसा बीता था, इसीलिए वे स्वयं को दलितों जैसा ही मानते थे। उनकी आत्मस्वीकृति है, ‘‘मैं यह कहना चाहता था कि आज भी मैं निस्संकोच शूद्र हूँ और ब्राह्मणों के घर में पैदा होने के सबब साधारण नहीं असाधारण शूद्र हूँ।’’ इस कथन से अनुमान लगाया जा सकता है कि दलित-चिंतन का प्रश्न उनकी चेतना से जुड़ा हुआ था। उन्होंने स्थान-स्थान पर दलित-विमर्श का प्रश्न उठाया। इस दृष्टि से देखें तो, यह कहना सही होगा कि उन्होंने साहित्य में दलित-विमर्श का जो बीज बोया, आगे चलकर वह उचित खाद-पानी पाकर खूब फला-फूला। 

दलित-विमर्श को लेकर ‘उग्र’ के दो उपन्यास अधिक प्रसिद्ध हैं। पहला ‘बुधुआ की बेटी’ जिसका प्रथम प्रकाशन सन् 1927 में और बाद में 1964 में ‘मनुष्यानंद’ नाम से हुआ। दूसरा ‘सब्जबाग’ जो उनकी मृत्यु के पश्चात सन् 1973 में प्रकाशित हुआ था। उक्त दोनों उपन्यासों की मूल समस्या दलितोद्धार है। इनके केन्द्र में भंगी और भंगी बस्ती है। इनमें अछूतों की समस्या, दलितों के संगठन, संघर्ष, मंदिर प्रवेश और धर्मान्तर जैसे प्रश्नों को उठाते हुए, उन्होंने दलितों की जिंदगी का यथार्थ खाका प्रस्तुत किया। इन्हें दलितों की जिन्दगी का दस्तावेज कहें तो अतिश्योक्तिपूर्ण न होगा। जिस समय उन्होंने दलित-विमर्श को अपने कथा-साहित्य की विषयवस्तु के रूप में चुना, उस समय यह विषय वर्जित और विवाद का विषय समझा जाता था। परिणाम जानते हुए भी उन्होंने इस विषय पर अपनी लेखनी चलाई। वे इस विषय पर लिखने वाले आरम्भिक लेखकों में से एक कहे जा सकते हैं। वे दलितोद्धार के प्रश्न को मात्र राजनीतिक दृष्टि से न देखकर सामाजिक और मानवीय दृष्टि से देखने के पक्ष में हैं। उस समय जबकि यह मुद्दा अपने शैशवकाल में था, इसे उजागर करने में वे सतर्क और सचेत थे। 

बाहरी तौर पर न सही लेकिन भीतरी तौर पर आज भी छुआछूत और जात-पात में वैमनस्य बढ़ रहा है। खान-पान के स्तर पर उच्च वर्ग और निम्न वर्ग में आज भले ही कुछ दूरियाँ कम हुई हों, लेकिन ‘उग्र’ कालीन समय में दलितों के साथ अत्यधिक दुर्व्यवहार होता था। पंडित उनके पैसे भी गंगाजल से धुलवाकर स्वीकार करते थे। डॉक्टर या वैद्य उनके मरीज देखना पंसद नहीं करते थे, भले ही वे मृत्यु की कगार पर हों। ऐसी विषमताओं का दलितों पर कैसा प्रभाव पड़ा होगा, स्वयं अनुमान लगाया जा सकता है। इसकी खीज़ का परिणाम बुधुआ के शब्दों में देखिए, ‘‘मैं कुत्ते का पाखाना साफ करूँगा पर किसी डॉक्टर या वैद्य का नहीं। इन्ही की पत्थर दिली से मेरी औरत बेमौत मर गई। मैं मर जाऊँगा मगर किसी डॉक्टर या वैद्य के दरवाजे न जाऊँगा।’’ ‘उग्र’ ने अछूतों के जीवन की समस्याओं को बड़ी सूक्ष्मता से देखा-परखा था। उनका रहन-सहन, रीति-रिवाज, शादी-विवाह, बातचीत का ढंग आदि कोई भी बात उनकी पैनी दृष्टि से बच नहीं पाई थी। पुलिस विभाग की पोल खोलते हुए उन्होंने लिखा, ‘‘पुलिस विभाग के नीच तबीयत वाले अनेक नौकर प्रत्येक सूबे में इन गरीबों की बहु-बेटियों को डरा-धमकाकर नष्ट भी करते हैं और उनके पति और प्रियजनों को हजार तरह से तंग भी करते हैं।’’ आज फिल्मों में पुलिस के इस प्रकार के कृत्यों को अक्सर देखा जा सकता है। देश स्वतन्त्र हो जाने पर पुलिस के चरित्र पर इस प्रकार की रचनाएं भले ही हुई हो पर पराधीनता के युग में इस चरित्र को इस प्रकार तार-तार करना ‘उग्र’ की अपनी विशिष्टता है। यही कारण रहा कि अपने समकालीन रचनाकारों की पंक्ति में वे एकदम अलग दिखाई देते रहे। 

दलित जीवन की सच्चाईयों से ‘उग्र’ कितने परिचित थे, इसका प्रमाण उनके साहित्य में दर्शाए हुए विवरणों से मिलता है। उनके पात्र अपने कष्टपूर्ण जीवन के विषय में बताते हुए कहते हैं, ‘‘कूड़ागाड़ी की गंदी हवा में अपनी सांसो में जहर भरते हैं या पाखानों में झाडू देकर अपने माथे पर मैले का मुकुट धारण कर पतितों के सरदार की तस्वीर बनाते हैं। और इतना करने पर भी हम प्लेग या हैजा, खाँसी या बुखार से मरते रहे, कोई पूछने वाला नहीं। कोई हमारी दवा दारू करने वाला नहीं।’’ दलितों की यथार्थ स्थिति और जीवन से संबंधित उन्होंने जो उदाहरण प्रस्तुत किए वे पूर्णतः सत्य हैं। दलितों की कमजोरियाँ, उनके स्वभाव और जीवन से संबंधित चलने वाले दमन और शोषण को भी उन्होंने खंड चित्रों और संवादों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। 

‘सब्जबाग’ उपन्यास में ‘उग्र’ ने चौदहसाला आजादी का मूल्यांकन किया है। इस उपन्यास को ‘मनुष्यानंद’ का दूसरा भाग कहा जा सकता है। इसमें दलितों को सब्जबाग दिखाकर, उनका शोषण करने वालों को बेनकाब किया गया है। यह उपन्यास दिल्ली और शाहदरा की पृष्ठभूमि पर लिखा गया। स्वराज हो जाने पर भी दिल्ली के आस-पास के दलितों की दशा का वर्णन करते हुए ‘उग्र’ ने लिखा है, ‘‘भारत की राजधानी दिल्ली के चारों ओर जब सुबह-शाम, महज पेट भर रोटी और तनभर कपड़ों के लिए आदमी अपने ही जैसे आदमी का मल-मूत्र कमाता है, तब इस जाति-पाँति-पाखंड पूरित देश के अन्धतम भागों में क्या गति होगी गरीबों की, शायद कोई नहीं जानता और न ही जानना चाहता है।’’ ‘उग्र’ दलितों की दयनीय अवस्था के पीछे गरीबी, अज्ञानता, गंदगी, बुरी आदतें और उच्चवर्गीय लोगों द्वारा किए जाने वाले शोषण को मुख्य कारण मानते थे। बराबरी और समानता के नारों और वादों को शोषण का माध्यम बनाने वालों को यह उपन्यास पद-पद पर बेनकाब करता है। इस उपन्यास में दलितों की समस्या को उठाते हुए भी लेखक ने उन्हें अपनी अवस्था पर रोते-झींकते नहीं दिखाया बल्कि अपनी कमजोरियों को ताकत बनाकर अधिकार के लिए जूझते दिखलाया है। इस उपन्यास की एक पात्रा चमेली भंगिन अपनी अच्छाईयों-बुराईयों के साथ अकेली नजर आती है। उसके हृदय की टीस उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखती है। तभी तो वह कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष को लताड़ते हुए कहती है, ‘‘तूने कहा था कि जात-पात उठ गई, कानून की नजर में सभी बराबर हैं। मैं पूछती हूँ कहाँ सभी बराबर है? तेरी जनाना हर दिन हर मौसम में गली-गली मैला ढोती फिरती है?’’ दलितों की पीड़ा दर्द, आह आदि को ‘उग्र’ ने आन्तरिक चेतना से व्यक्त किया है। अपने रचनात्मक लेखन के माध्यम से दलित चेतना एवं संघर्ष को वाणी देने वाले वे उन विरले रचनाकारों में हैं जिन्होंने दलित जीवन को केन्द्र बनाकर उसे अपनी अभिव्यक्ति दी। समय के सवालों को ठीक से पहचानते हुए उन्होंने जिन प्रश्नों को शताब्दी के तीसरे दशक में उठाया था, वे प्रश्न शताब्दियों तक विमर्श का प्रमुख अंग बने रहेंगे। 

जिन आरम्भिक लेखकों ने लेखन के माध्यम से स्त्री-विमर्श को अभिव्यक्ति दी उनमें ‘उग्र’ का नाम अग्र पंक्ति में रखा जा सकता है। उस समय नारी स्वतन्त्रता के प्रश्न उभर रहे थे। स्त्री-स्वतन्त्रता को नया आयाम देने का प्रयास हो रहा था। अपनी अस्मिता और अस्तित्व को पहचान कर स्त्री भी कसमसाने लगी थी। यह विषय लेखन के क्षेत्र में तो था, पर मुख्य नहीं था। ‘उग्र’ ने ऐसी नारी का चयन किया जिसे हेय, पतित और नीच समझा जाता था। जिस यौन शोषण के विरूद्ध ‘उग्र’ ने अपनी कलम उठाई, उसकी शिकार स्त्रियाँ ही प्रमुख थी। स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार को ‘उग्र’ ने बचपन में अपने घर में देखा था। और वह भी अपनी माँ और भाभी पर बड़े भाई के हाथों पिटते। यही कारण रहा कि यह विषय आजीवन उनकी अन्तरात्मा में समाया रहा। उन्होंने अपने कई उपन्यासों और अनेक कहानियों में नारी-विमर्श को स्थान-स्थान पर उठाया। अपने पहले ही उपन्यास ‘चंद हसीनों के खतूत’ में उन्होंने असगरी और नरगिस के खतों के माध्यम से नारी विमर्श को उठाया है। दोनों ही पढ़ी-लिखी और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक महिलाएं हैं। वे प्यार करना पाप नहीं मानती और अपने अधिकारों के लिए सामाजिक विसंगतियों से भी टकराती हैं। 

‘दिल्ली का दलाल’ में औरतों का व्यापार करने वालों को बेनकाब किया गया है। साथ ही उस सामाजिक विडम्बना पर भी कटाक्ष किया गया है, जिसमें औरतों को खरीदने-बेचने की व्यवस्था है। अपनी अज्ञानता, अबोधता और सामाजिक विडम्बनाओं के कारण स्त्रियों का निरंतर शोषण होता रहा है, वे ठगी जाती हैं और बेची जाती हैं। ‘उग्र’ ने स्पष्ट देखा था कि समाज में स्त्री का हर प्रकार से शोषण होता है। समाज का प्रत्येक वर्ग और जाति के लोग इसमें शामिल हैं। सारा समाज नारी के लिए शोषक और भक्षक बना हुआ है। यहाँ तक कि साधु-संत भी अवसर का लाभ उठाने से नहीं चूकते। ‘दिल्ली का दलाल’ के माध्यम से उन्होंने इस तथ्य पर बल दिया कि स्त्रियों का शोषण करने के मामले में हिन्दू-मुसलमान सभी समान हैं। वह सबके लिए मात्र भोग की वस्तु है। साथ ही उन्होंने फैलती जा रही बाजारू या वैश्या वृत्ति पर भी प्रहार किया, जिसका शिकार और उपकरण नारी ही है। 

‘मनुष्यानंद’ में दलित-विमर्श के साथ ही, नारी स्वतंत्रता के प्रश्न को भी उठाया गया है। इसमें एक ओर दलित समाज की स्त्रियों की दशा (किन्हीं अंशो में दुर्दशा) का चित्रण है, तो दूसरी ओर पश्चिम से आ रही स्त्री स्वतंत्रता की झलक भी है। पश्चिमी स्त्री स्वतंत्रता से प्रभावित मिसेज यंग पुरूष समाज पर कटाक्ष करती हुई कहती है, ‘‘स्त्री जाति पर शुरू से ही सबल होने के कारण पुरूष जुल्म करते आ रहे हैं। पुरूषों का गढ़ा हुआ समाज भी उन्हीं के पक्ष में अधिक है। अब स्त्रियों को एक बार इस स्वार्थी पुरूष जाति के विरूद्ध युद्ध की घोषणा करनी होगी।’’ इस उपन्यास में दलित और स्त्री विमर्श की एक साथ अभिव्यक्ति के साथ ही, दलितों और स्त्रियों के बीच आ रहे जागरण का भी इसमें साक्ष्य प्रस्तुत किया गया है। ‘शराबी’ उपन्यास में शराब के दुर्गुणों पर प्रकाश डालते हुए स्पष्ट किया गया है कि शराबी पुरूषों के पापों का प्रायश्चित बेचारी नारियों को ही भुगतना पड़ता है। पिता की शराब खोरी के कारण उसकी पुत्री को घर छोड़कर एक वैश्या के कोठे पर जाना पड़ता है। उपन्यास की नायिका जवाहर ही नहीं, हीरा और कुंदन की दुर्दशा का वास्तविक चित्रण इसमें प्रस्तुत किया गया है। यह उपन्यास स्त्री के संदर्भ में बहुत अधिक वैचारिक बहस न करता हुआ भी नारी की संघर्ष क्षमता को जवाहर के माध्यम से दिखाता है, जहाँ वह अत्यन्त विपरीत परिस्थिति में अपनी अस्मत और स्वाभिमान की रक्षा करती है। 

सामंतशाही समाज में स्त्रियों की दुर्दशा और उनकी वास्तविक स्थिति को अभिव्यक्त करने में ‘सरकार तुम्हारी आँखों में’ जैसे उपन्यास को अच्छी सफलता मिली। इसके एक पात्र उस्ताद गुलाब खाँ स्त्री शिक्षा और उसके सर्वगुण सम्पन्न बनने को उचित मानते हैं, जिससे कि वह अपनी स्थिति सुधार सके। ‘जी जी जी’ उपन्यास मारवाड़ी समाज में हो रहे स्त्रियों के शोषण पर प्रकाश डालता है। स्त्री स्वतंत्रता को लेकर चल रहे पश्चिमी मॉडल और भारतीय मॉडल पर इसमें चर्चा चलाई गई है। इस उपन्यास की केन्द्रीय विषयवस्तु स्त्री-विमर्श ही है जिसमें मूल रूप से परम्परा में नारी की स्थिति पर विचार किया गया है।  

‘उग्र’ नारी की स्वतंत्रता के समर्थक थे, पर वे यह नहीं चाहते थे कि वह स्वछन्द होकर इधर-उधर घूमती फिरे। तत्कालीन समाज में स्त्री की कितनी दयनीय स्थिति थी इसे जी जी जी के कथन से समझा जा सकता है, ‘‘स्त्री तो पुरूष द्वारा समाप्त होने को बनी है- चाहे दो दिन में उसे गुंडे खा जाएँ मिलकर या दो साल में पति समाप्त कर दे अकेले। सिवा मरने के औरत के लिए कसाईखाने की बकरी की तरह कोई चारा नहीं।’’ स्त्री अपनी देह बेचकर, अपना पेट किस प्रकार पालती है, इसके अनेक उत्कृष्ट उदाहरण ‘उग्र’ ने अपने साहित्य में विशेषत: कथा-साहित्य में प्रस्तुत किए हैं। अपने सभी उपन्यासों में से ‘जी जी जी’ में उन्होंने स्त्री-विमर्श को सबसे अधिक अभिव्यक्ति दी है। ‘कढ़ी में कोयला’ के बहाने उन्होंने कलकत्ते के मारवाड़ी समाज में स्त्रियों की दारूण दशा का चित्र खींचा है। मारवाड़ी समाज के लोग स्त्रियों को भोग की वस्तु बनाकर किस प्रकार नष्ट करते हैं, उपन्यास का मुख्य बिंदू है। किराए पर मारवाड़ियों की चालों में रहने वाली महिलाएँ और कामकाजी महिलाएँ किस प्रकार अपने तन का सौदा करने को मजबूर हैं, यही विडम्बनात्मक स्थितियाँ उपन्यास में चित्रित हुई हैं। 

‘फागुन के दिन चार’ में भी नारी-विमर्श की कई परते हैं। इसमें कला के नाम पर अभिनेत्रियों की होने वाली दुर्दशा को प्रमुख विषय बनाया गया है। कला के नाम पर हो रहा नारी शोषण उनकी लेखनी के निशाने पर है। इसके विषय में उन्होंने लिखा है, ‘‘नाम और नामा की भूखी नई-नई फिल्म स्टार, जवान-जवान लड़कियाँ सिनेमा संसार के कुचक्र में चली आ रही हैं। वैसे ही जैसे दुष्ट बदनीयत मकड़े के जाले में मक्खियाँ खिंची जाएँ। ये नवेलियाँ नाम कमाती हैं और नामा भी। लेकिन यह सम्भव होता है खासी कीमत चुकाने पर ही।’’ विभिन्न स्तरों पर हो रहे नारी के उत्पीड़न को प्रकाश मे लाना ‘उग्र’ का उद्देश्य रहा है। तत्कालीन समाज में नारी की जो दुर्दशा थी उससे वे पूर्णतः भिज्ञ थे।  

‘उग्र’ के साहित्य में दलित और स्त्री विमर्श की चर्चा न केवल प्रासंगिक रूप में हुई है बल्कि यह उनका प्रिय और मुख्य विषय भी रहा है। न केवल उपन्यास बल्कि उनकी अनेक कहानियों, जैसे रधिया नौची, ईश्वर द्रोही आदि में भी दलित और स्त्री विमर्श को उठाया गया है। जब भी इन विमर्शो की चर्चा होगी ‘उग्र’ एक भविष्यद्रष्टा साहित्यकार के रूप में याद किए जाएंगे। उस रुढ़िवादी और घोर परम्परावादी समाज में इस प्रकार के विषयों पर कलम चलाना महत्वपूर्ण दायित्व का निर्वाह था। 

‘उग्र’ की प्रगतिशील चेतना : सन् 1936 में ‘प्रगतिशील लेखक-संघ’ की स्थापना के पश्चात, प्रगतिशील साहित्य का विकास माना जाता है। लेकिन यह भी सत्य है कि कोई भी साहित्यिक धारा न तो एकाएक उद्भूत होती है और न विलुप्त। विद्वानों ने एक प्रवृति के तौर पर प्रगतिशील साहित्य का आभास सन् 1930 के आस-पास से माना है और छायावादी कवियों के साहित्य में प्रगतिशील साहित्य के तत्व खोजने के प्रयास किए हैं। कई आलोचकों का कहना है कि पंत और निराला का बहुत सा साहित्य इस धारा का प्रतिनिधित्व करता है। साहित्य की आन्तरिक प्रवृति के आधार पर प्रायः यह माना जाता रहा है कि मार्क्सवादी विचारों का वाहक साहित्य प्रगतिशील साहित्य है। लेकिन आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं, ‘‘नवीन आदर्श से चलित साहित्य का नाम प्रगतिशील साहित्य है।’’ यह सत्य है कि प्रगतिशील साहित्य में जीवन और जगत के प्रति नया दृष्टिकोण निहित है। परम्परागत रूढ़ियों का त्याग, शोषण और दमन का विरोध, प्रगति और परिवर्तन में विश्वास, सामाजिक यथार्थ दृष्टि, दलितों और नारियों पर होने वाले प्रत्येक प्रकार के अत्याचार का विरोध करना आदि इस साहित्य की मुख्य विशेषताएं मानी जाती हैं। 

यदि ‘उग्र’ की प्रगतिशील चेतना की बात करें तो, वे भले ही प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्य न रहे हों पर हिन्दी साहित्य में प्रगतिशील साहित्यिक लेखकों के हरावल दस्ते में वे अवश्य शामिल हैं। प्रगतिशील साहित्य की अधिकांश विशेषताएं उनके साहित्य में विद्यमान हैं। उन्होंने परम्परागत रूढ़ियों, सामाजिक अव्यवस्था, साम्प्रदायिकता, नारी दुर्दशा आदि का जमकर विरोध किया। वे साहित्य में मौलिक प्रतिभा लेकर आए थे। उन्होंने कुछ ऐसी रचनाएं दी कि हिन्दी साहित्य में तहलका सा मच गया था। उनकी लेखनी में कुछ ऐसा जादू था कि जिस भी विषय को छू लिया हंगामा अवश्य बरपा। उन्होंने समाज के उस कुत्सित, घृणित, दलित, शोषित वर्ग को अपनी रचनाओं का विषय बनाया, जिसका सभ्य समाज में नाम तक लेना अपराध समझा जाता था। ऐसे वर्ग के प्रति उनके हृदय में सच्ची सहानुभूति और उनके उत्थान के लिए तड़प थी। वे उनका यथार्थ चित्रण इसलिए करते थे कि घृणित वर्ग सुधर सके। उच्च वर्ग उनके उत्थान के लिए प्रयास करें। यही उनकी प्रगतिशील चेतना और उनका मार्क्सवादी दृष्टिकोण था। 

‘उग्र’ का साहित्यिक उत्थान दो काल खंडों- सन् 1921 से 30 तक और 1937 से 67 तक- में बंटा हुआ है। इस समयावधि में हिन्दी साहित्य के पटल से अनेक साहित्यान्दोलन गुजरे, यथा- छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता आदि। और यह सत्य है कि प्रत्येक साहित्यकार अपने समकालीन साहित्यान्दोलनों से कम या अधिक अवश्य प्रभावित होता है। ‘उग्र’ के साहित्य में यथार्थवाद को वरीयता दी गयी है। यथार्थवादी साहित्य में उपयोगपक्ष या फलासक्ति पर अधिक बल रहता है। उनके महत्वपूर्ण उपन्यासों बुधुआ की बेटी, सब्जबाग, गंगामाता, जी जी जी, कढ़ी में कोयला आदि सहित अनेक कहानियों में उनका सामाजिक-यथार्थवादी दृष्टिकोण दिखाई देता है। 

प्रगतिशील साहित्यकार के पास सामाजिक यथार्थ को देखने की विशेष दृष्टि होती है। जिसे वह एक वर्ग चेतना के संघर्ष के रूप में प्रयोग करता है। सामाजिक विषमताओं को उजागर करता हुआ साहित्यकार उन पर व्यंग्य भी करता है। साथ ही वह घृणित शोषित वर्ग के प्रति सहानुभूति व्यक्त करता हुआ उनके दुःख, दर्द, समस्याओं आदि को साहित्य का आधार बनाता है। ‘उग्र’ ने दलित, घृणित समाज की समस्याओं को बड़ी बारीकी से जाना-समझा था जिसको उन्होंने अपने उपन्यासों और कहानियों में अभिव्यक्ति दी। वे अतियथार्थवादी और नग्न सत्य के आग्रही कथाकार माने जाते हैं। उन्होंने समाज की बुराईयों को निरन्तर गतिशील शैली में व्यक्त किया है। उन्होंने भारतीय समाज में क्रांति और परिवर्तन करने के लिए सदैव मौलिक नूतनता को स्वीकार किया। यही कारण है कि उनके साहित्य में परंपरागत रूढ़ियों, प्रचलित जड़ताओं और सामाजिक प्रवृत्तियों का नग्न रूप दिखाई पड़ता है। उनका दावा है कि, ‘‘जितना मैने देखा, सुना-पढ़ा, गुना है उससे समाज लेखनी के धार्मिक दुराचारियों पर खड़गहस्त हो जितना कुपित होता है, उतना किसी कलाकार के नग्न सृजन पर नहीं।’’ अतियथार्थवादी होने के कारण उन पर भले ही अश्लीलता के आरोप लगे हों, पर उन्होंने स्पष्ट घोषणा की, ‘‘जैनेन्द्र और यशपाल ने अपने उपन्यासों में बिलकुल नए ढंग से औरतों को नंगी कराया है या उनसे रस वसूला है।’’ 

‘उग्र’ की प्रगतिशील चेतना ने विवश होकर कभी किसी प्रतिबंध को स्वीकार नहीं किया। चाहे उन्हें पंडे-पुरोहितों की धमकी मिली हो या फिर सभ्य समाज की चुनौती। न वे किसी से डरे और न परिस्थितियों के समक्ष झुके। हिन्दी-उर्दू में एक समय ऐसा भी आया था, जब अश्लील साहित्य लिखने वाले साहित्यकार को ही प्रगतिशील समझा जाने लगा था। चूँकि प्रगतिशील साहित्य पर फ्रायड़ के यौनवाद का प्रभाव माना गया है, अतः यह सत्य तथ्य है कि प्रगतिवादी साहित्यकार स्त्री-पुरूष के यौन सम्बन्धों में विशेष रूचि लेता है। ‘उग्र’ की रूचि भी स्त्री-पुरूष के यौन संबंधों के चित्रण में विशेष रही है। उन्होंने यौन संबंधों को लेकर अपने साहित्य में जो चित्रण प्रस्तुत किए वह उनके युग के किसी भी साहित्यकार से चाहे वह निराला हो, प्रसाद या प्रेमचंद हो, यशपाल या जैनेन्द्र हो- कहीं आगे और क्रांतिकारी है। यही कारण है कि वे हाईलाइट रहे।  

‘उग्र’ ऐसे साहित्यकार हैं, जिनकी साहित्यिक चेतना ने ग़ालिब और ‘उग्र’ को ही साहित्यकार माना है। श्रद्धावश उन्होंने विश्वविख्यात कवि ग़ालिब की गजलों पर ‘गालिब-उग्र’ नाम से टीका लिखी। उनके हृदय में जो सम्मान तुलसी और ग़ालिब के प्रति था वह किसी अन्य साहित्यकार के लिए नहीं था। तुलसी, उनकी आत्मा में प्रविष्ट हो चुके थे और ग़ालिब उनकी वेदना के क्षणों के साथी थे। उन्होंने निर्भीक होकर लोगों की निंदा या प्रशंसा की। उन्होंने जीवन की नग्न सच्चाईयों को अपनी पैनी साहित्यिक दृष्टि से सहज समझ लिया था। प्रगतिशील चेतना की दृष्टि से उनका पहला ही उपन्यास ‘खुदाराम और चंद हसीनों के खतूत’ महत्वपूर्ण माना जा सकता है। इसके माध्यम से उन्होंने धार्मिक रूढ़ियों पर कटाक्ष किया है। हिन्दू-मुस्लिम एकता की समस्या को आधार बनाकर लिखे गए इस उपन्यास ने काफी लोकप्रियता प्राप्त की। इस उपन्यास में उन्होंने धर्म, जाति, मजहब आदि के विषय में जो प्रश्न उठाए हैं वे आज भी प्रासंगिक हैं। 

प्रगतिवादियों का प्रमुख मुद्दा रहा है, दलित-शोषितों के प्रति सहानुभूति व्यक्त करते हुए उन्हें समाज में उचित स्थान दिलाना। शोषक वर्ग के प्रति घृणा व्यक्त करना। इस दृष्टि से देखा जाए तो ‘उग्र’ ने दलित-शोषितों की समस्याओं को उस समय उजागार किया था जबकि साहित्य में यह नारा नहीं के बराबर था। वे नारी को देवी या दानवी देखने के पक्षधर नहीं बल्कि नारी को नारी रूप में ही देखने के पक्षधर थे। उनका शायद ही कोई उपन्यास हो जो नारी-पीड़ा से अछूता हो। 

कुल मिलाकर देखा जाए तो प्रगतिशील साहित्य की जो विशेषताएं आलोचकों ने बताई हैं, यथा- सामाजिक यथार्थ दृष्टि, व्यंग्यात्मकता, भविष्योन्मुखी दृष्टि, शोषितों के प्रति सहानुभूति, शोषकों के प्रति आक्रोश आदि उनमें से अधिकांश ‘उग्र’ के साहित्य में मौजूद हैं। 

‘उग्र’ की शैली : ‘शैली’ शब्द अंग्रेजी के स्टाईल (Style) का अनुदित रूप है। भारतीय साहित्य शास्त्र में इसके लिए ‘वृति’ शब्द भी मिलता है। शैली के अन्य शाब्दिक अर्थ हैं- स्वभाव, आदत, आचरण, ढंग या तरीका आदि। सृजन की दृष्टि से शैली का तात्पर्य- लिखने का ढंग या परिपाटी से है। इस प्रकार सृजनात्मक अभिव्यक्ति का ढंग या तरीका ही शैली है। श्री मैथिलीशरण गुप्त कहते हैं, ‘‘भावों की कुशल अभिव्यक्ति ही शैली है।’’ शैली पर व्यक्तित्व की छाप होती है, इसीलिए प्रत्येक कवि या लेखक की शैली भिन्न होती है। जैसे जयशंकर प्रसाद और प्रेमचंद की कहानियाँ या उपन्यास पढ़ते हुए उनकी शैली एकदम अलग-अलग दिखाई देती है। ‘उग्र’ के सन्दर्भ में इसका मूल्यांकन करें तो तथ्य स्पष्ट हो जाएगा। हिन्दी साहित्य में उनका पदार्पण द्विवेदी युग की समाप्ति पर हुआ था। वह आदर्शवाद और समाजसुधार का युग था। साहित्य और समाज के सभी क्षेत्रों में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने के प्रयास हो रहे थे। इसी समय ‘उग्र’ अपनी मौलिक प्रतिभा और निर्भीक लेखनी लेकर साहित्य में उपस्थित हुए। उन्होंने जिस समय साहित्य लिखना आरम्भ किया था, उस समय तक इसके मूल्यांकन का सही मापदण्ड निर्धारित नहीं हो पाया था। उस समय स्वतंत्रता आन्दोलन की लहर समस्त देश में फैली हुई थी, जिसका प्रभाव हिन्दी साहित्य पर भी पड़ा। परिणाम स्वरूप उसका व्यापक प्रभाव ‘उग्र’ की भाषा-शैली पर भी पड़ा।  

वे हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद युग के विशिष्ट लेखक और शैलीकार के रूप में स्मरण किए जाते हैं। अपनी अद्भुत शैली से पाठकों को आश्चर्यचकित कर देने का नायाब फ़न उनके पास था। आलोचकों का मत है, ‘‘कथा कहने की विविध शैलियों के माध्यम से, जितनी विविध विवादास्पद, मनोरंजक और उत्तेजनापूर्ण रचनाएं ‘उग्र’ ने हिन्दी साहित्य को दी हैं, वे साहित्य के एक अंग अर्थात् कथा-साहित्य को सम्पूर्ण बनाने में समर्थ हैं।’’ संस्मरण, जीवन अनुभव, स्कैच, यात्रा विवरण, चरित्रांकन, भाव-कथा, प्रतीक कथा, फेण्टेसी कथा-शिल्प के समस्त रूपों का उपयोग उन्होंने अपने विशाल साहित्य में किया है। व्यंजनाओं, लक्षणाओं और वक्रोक्तियों से समृद्ध भाषा के धनी ‘उग्र’ ने अरसा पहले कहानी को एक नई शैली दी थी, जिसे आज भी आदरपूर्वक ‘उग्र’ शैली कहा जाता है। उनके कथा-साहित्य पर दृष्टिपात करने पर ज्ञात होता है कि कितनी विविध शैलियाँ उनके विशाल साहित्य में समाहित हैं। उनकी कहानियों की शैली अपने ही ढंग की है, यथा- ‘पंजाब की महारानी’ आत्मकथात्मक शैली में है। दितवारिया, पीर, आजादी के आठ दिन पहले, कम्यूनिष्ट दरवाजे पर, सोसायटी ऑफ डेविल्स, संस्मरणात्मक शैली में है। यह कंचन सी काया, विधवा, दोज़ख-नरक, प्राईवेट इंटरव्यू, व्यंगात्मक शैली में है। मुक्ता, बाजरा, खुदाराम, नेता का स्थान, देशभक्त, रेशमी, गंगा, गंगदत्त और गांगी प्रतीक शैली में है। दिल्ली की बात कहानी दिल्ली में भड़के साम्प्रदायिक दंगों पर प्रकाश डालती है। इन दंगों को बन्द कराने के लिए महात्मा गाँधी और मौलाना मुहम्मद अली जैसे देश के नेताओं को भी उनमें सक्रिय भाग लेना पड़ा था। उनकी कथा-शैली के विकास का परिचय इन कहानियों में मिलता है। 

‘उग्र’ ने जो कुछ लिखा सर्वथा मौलिक लिखा, वे किसी से प्रेरित या प्रभावित नहीं थे। उनका पथ अपना स्वयं का बनाया हुआ था। वे अपने समकालीनों में विषय, शैली और भाषा आदि की दृष्टि से एकदम अलग और कई दृष्टियों से उनसे आगे दिखाई देते रहे। उनकी रचनाएं प्रेम-विवाह, वेश्यावृत्ति, समलैंगिकता, साम्प्रदायिकता आदि विषयों पर होने से पाठकों के लिए आकर्षण का विषय बनी तो आलोचकों के लिए ईर्ष्या का। उनकी आकर्षक शैली ने कईयों को प्रभावित और प्रेरित किया, तो उन्हें निंदा भी खूब मिली। साहित्य में उनकी लेखनी का लोहा प्रत्येक व्यक्ति मानता था। उनकी शैली और कला को सबने श्रेष्ठ और मौलिक माना था लेकिन बदनाम हो जाने के कारण उन्हें कोई उचित सम्मान देने को तैयार नहीं था। 

भाषा, शैली का प्राण तत्व माना जाता है। भाषा अच्छी न होने पर अच्छी से अच्छी शैली भी कमजोर पड़ जाती है। उसका प्रभाव पाठक पर उतना नहीं पड़ता जितना कि पड़ना चाहिए। ‘उग्र’ ने शैलीगत सफलता सशक्त भाषा के बल पर ही अर्जित की थी। इसलिए उनका गद्य हिन्दी साहित्य में विशिष्ट स्थान रखता है। उसमें सरलता और स्वाभाविकता का सामंजस्य है। भाषा में उर्दू शब्दों और मुहावरों का प्रयोग बहुत सुन्दर होता है। यथासम्भव वे कोई भी बात इस ढंग से कहते हैं कि शीघ्र ही समझ में आ जाए। उनके वाक्य नपे-तुले रहते हैं। एक वाक्य दूसरे पर आश्रित रहता है। उनकी शैली में स्वयं के द्वारा संबोधित करने का विशेष गुण मिलता है, जैसे- ‘मैं कहता हूँ, शासन के सूत्रधारों से .......। मैं कहता हूँ देश के सुन्दर खिलौनों से .....। मैं कहता हूँ समाज के शिक्षालायों, बालसंस्थाओं के देवताओं से .......। अपनी शैली के बल पर उन्होंने हिन्दी गद्य में नई शक्ति और नया प्राण प्रतिष्ठित किया। 

पुरानी पीढ़ी के लेखक होकर भी ‘उग्र’ शैली-शिल्प की दृष्टि से आधुनिक लगते हैं। इसीलिए उनका साहित्य पुराना नहीं, नया लगता है। उसे पढ़ने पर आज भी विचित्र-सी अनुभूति होती है। जहाँ तक उनके उपन्यास और कहानियों की कला का प्रश्न है, वह निश्चय ही अनूठी है। उनकी परख के लिए अलग शास्त्र और सिद्धान्तों की आवश्यकता है। जब कलावादी आलोचकों ने उनके उपन्यासों और कहानियों को अश्लील, घासलेटी और कलाविहीन कहकर आलोचना की तो उनका जवाब था, “अगर सत्य को ज्यों का त्यों चित्रित कर देने में कोई कला हो सकती है तो मेरी इन कहानियों में भी कला है। और यदि नहीं, कला हमेशा शुद्ध सत्य नहीं हुआ करती, तो मेरी ये धधकती कहानियाँ भी कलाशून्य हैं। मैं उस कला को लिखना ही नहीं जानता।” इसीलिए कहते है कि वह युग भले ही प्रेमचंद के नाम था, लेकिन उसमें ‘उग्र’ की ही धाक थी। उनकी विभिन्न विधाओं की उत्तेजनापूर्ण और मनोरंजक रचनाओं का कोई सानी नहीं था। इसलिए उनके समकालीन साहित्यकार उनसे इर्ष्या करने लगे थे।  

वैयक्तिकता, भाषा-शैली का प्रधान गुण है। शैली पर व्यक्तित्व की छाप अवश्य रहती है। यही वह गुण है जो एक लेखक को दूसरे से भिन्न करता है। ‘उग्र’ की शैली पर उनके व्यक्तित्व की स्पष्ट छाप परिलक्षित होती है। विषयानुकूल भाषा का प्रयोग करना वे भली-भांति जानते हैं। यही कारण है कि उनकी शैली में सर्वत्र नवीनता परिलक्षित होती है। समाज के उपेक्षित, वीभत्स और करूण जीवन के यर्थाथ चित्रण में उन्होंने जिस शैली को अपनाया, उसमें उन्हें पूर्ण सफलता मिली। इसलिए प्रेमचंद युग में भी उनकी विशिष्ट पहचान रही। उन्होंने प्रेमचंद द्वारा प्रवर्तित यथार्थवादी परम्परा को विकसित किया। आलोचकों ने उनकी उपन्यास शैली को भिन्न-भिन्न नाम दिए, यथा- प्रकृतवादी, नग्नतावादी, उग्रतावादी, अतियर्थाथवादी आदि। अपनी आकर्षक शैलियों के कारण उनके उपन्यास अत्यधिक प्रसिद्ध हुए। ‘दिल्ली का दलाल’ को सम्मान और अपमान दोनों मिले, पर यह सत्य है कि यथार्थवादियों और प्रकृतवादियों ने इस उपन्यास के प्रतिपाद्य विषय और शिल्प की मुक्तकंठ से प्रशंसा की थी।  

‘उग्र’ की चरित्रांकन शैली : पात्रों का चरित्रांकन या चरित्र चित्रण नाट्य और कथा-साहित्य का महत्वपूर्ण गुण माना जाता है। उक्त विधाओं में लेखक प्रमुख रूप से कथाओं का विकास अपने पात्रों के चरित्रांकन के माध्यम से ही करते हैं। कथा-साहित्य में विभिन्न घटनाएं भी पात्रों के चरित्रांकन के माध्यम से ही प्रस्तुत की जाती हैं। कथावस्तु को प्रभावशाली बनाने के लिए कथाकार विभिन्न वर्गों से, विभिन्न प्रकार के पात्रों का चयन करते हैं। यही कारण है कि चरित्रांकन के लिए लेखक अनेक प्रकार की विधियों का प्रयोग करते हैं। कभी लेखक स्वयं पात्रों के विषय में कुछ कहता है, जिससे उनकी चारित्रिक विशेषताएं स्पष्ट होती है। कभी पात्र आपस में वार्तालाप करते हैं, जिससे उनका चरित्र सामने आता है। उक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए विद्वानों ने चरित्रांकन की अनेक विधियाँ बताई हैं, जो इस प्रकार हैं- (1) विश्लेषणात्मक पद्धति (2) संवादात्मक पद्धति (3) मनोवैज्ञानिक पद्धति और (4) पूर्ववृत्तात्मक पद्धति। 

इन विधियों के आधार पर यदि हम ‘उग्र’ के साहित्य की परख करते हैं तो ज्ञात होता है कि उनके साहित्य में आधुनिकता के विभिन्न लक्षण व्याप्त हैं। उन्होंने अपने विशाल साहित्य में जिस प्रकार के पात्रों का चयन किया, वे हर वर्ग और हर जाति से हैं। उच्च वर्ग से लेकर निम्नवर्ग के पात्रों तक को उन्होंने अपने साहित्य की परिधि में लपेटा। उन पर प्रायः यह आरोप लगाया जाता है कि उनके साहित्य में ग्रामीण संस्कृति विलुप्त है। परन्तु उनकी अनेक कहानियाँ ग्रामीण परिवेश वाली है, जिनके पात्र गाँव की गली-चौबारों से उठाए गए हैं। उनकी रचनाओं में यथार्थवादिता के कारण व्यक्ति और समाज अपने नग्न रूप में चित्रित हुआ है। उनसे पूर्व कथा-साहित्य यथार्थ से अधिक कल्पना में लिखा जा रहा था। रोमांच और रोमानियत को उसमें ठूंस-ठूंसकर भरा जाता था। परन्तु ‘उग्र’ ने जिस प्रकार के पात्रों को देखा-परखा उनका वैसा ही रूप अपने साहित्य में प्रकट कर दिया। उनके पात्र बिना किसी हेर-फेर के सीधे समाज से उठाए गए लगते हैं। विद्वानों ने पात्रों के चरित्रांकन की जो पद्धतियाँ बताई हैं, यदि उनके आधार पर ‘उग्र’ साहित्य की परख करें तो यह तथ्य स्पष्ट हो जाएगा। 

विश्लेषणात्मक पद्धति में कथाकार स्वयं पात्रों का विश्लेषण करता है अर्थात् लेखक पात्रों के चरित्र को स्पष्ट करता चलता है। पात्रों के गुण-अवगुण या जिन परिस्थितियों में किसी पात्र ने कोई कार्य किया, उन्हें स्पष्ट करता है। इस दृष्टि से यदि ‘उग्र’ साहित्य का मूल्यांकन करें तो उनकी अनेक कहानियों और उपन्यासों के पात्र विश्लेषणात्मक पद्धति पर गढ़े गए हैं। उसकी माँ और मेरी माँ कहानियों में माँ के चरित्र को ‘उग्र’ ने जिस प्रकार उकेरा है वह प्रशंसनीय है। देश की स्वतन्त्रता के लिए जब कोई युवा फाँसी पर चढ़ता है तो उसकी माँ पर क्या बीतती है इसका यथार्थ चित्रण ‘उग्र’ ने इन कहानियों में किया है। ‘उसकी माँ’ कहानी को तो कई आलोचकों ने मैक्सिम गोर्की की कहानी ‘माँ’ के समक्ष ही माना है। खुदाराम, नागा नरसिहंदास, माँ कैसे मरी, मूर्खा, रधिया नौची जैसी कहानियों में भी पात्रों के चरित्रों को विश्लेषणात्मक पद्धति के आधार पर स्पष्ट किया गया है। ‘मूर्खा’ की पात्रा गुलाबो का चित्र देखिए, ‘‘अम्मा का नाम गुलाबो, मुँह देखो तो छुहारा, आकृति धनुष की तरह। गुलाबो अम्मा की अवस्था अस्सी और पाँच पिचासी वर्ष। अम्मा का खासा परिवार। तीन बेटे- राम, काम और दाम जिनके लघु नाम।’’ ‘उग्र’ पात्रों में जीवंतता लाने के लिए, उनकी वेषभूषा, रंग-रूप, कार्य-व्यापार आदि को ज्यों का त्यों प्रस्तुत करते हैं। ‘रधिया नौची’ कहानी में ‘रधिया’ के बचपन का चित्रण देखिए, ‘‘पांडे जी के पाँच लड़के और एक लड़की थी। लड़की का नाम ‘भगनी’ था। भगनी बड़ी भाग्यवती और चंचल स्वभाव की प्रतीत होती थी। पाँच भाईयों में एक बहन होने के कारण भाइयों का प्रेम भी उस पर खूब था। ..... भगनी जब तक आठ-नौ साल की रही। मजलिस की शोभा बढ़ाने में भाग लेती थी। भगनी के हाथ से रूपये भी पांडे जी रंडी को दिलवाते थे.....।’’ ‘चंद हसीनों के खतूत’ में ‘उग्र’ ने पं0 कृष्ण मुरारी और नर्गिस के चरित्र को जिस प्रकार चित्रित किया है, वह आज के युवक-युवतियों का चरित्र लगता है। उनमें विद्रोह की भावना व्याप्त है, जो अपने प्यार की रक्षा के लिए धर्म और समाज दोनों से लड़ते हैं। ‘दिल्ली का दलाल’ में वेश्या जीवन का यथार्थ चित्र अंकित किया गया है। ‘शराबी’ उपन्यास की नायिका ‘जवाहर’ का चरित्र विश्लेषण करते हुए ‘उग्र’ ने लिखा है, ‘‘जवाहर उस छोकरी का नाम है, जो कला की दृष्टि से विचित्र सुनी जाती है, वह अधिक से अधिक सत्रह साल, कुछ महीने और कुछ दिनों की होगी। साथ ही लोग यह भी कहते हैं कि एकाएक सामने आने पर या परिचय कम होने पर, वह ठीक छोकरी-सी मालूम पड़ती है।’’ 

‘उग्र’ अपने पात्रों के नाम, उनका परिचय, बाह्याकृति, वेशभूषा, नखशिख वर्णन आदि का चित्रण करने में सफल रहे हैं। ‘गंगामाता’ में पंडित नीलकंठ का चरित्रांकन देखिए, ‘‘पंड़ित नीलकंठ की काया भारी भरकम, कद ठिगना, कलर काला। स्तोत्र गाते समय श्वास-प्रश्वास लेने से उनकी नग्न तोंद पर हास्योत्पादक प्रतिक्रिया हो रही थी। पंडित जी काशी के प्रख्यात ज्योतिषियों में प्रधान विख्यात, लेकिन जानकारों में लोभी और कटुतावादी नाम से कुख्यात भी कम नहीं।’’ 

संवादों के माध्यम से जब पात्रों का चरित्र सामने आए तब उसे संवादात्मक पद्धति कहते हैं। इस पद्धति में पात्रों का प्रत्यक्ष एवं परोक्ष चरित्र सामने आता है। वार्तालाप के माध्यम से एक पात्र दूसरे पात्र के गुण-अवगुण का उद्घाटन करता है। नाटकों, कहानियों और उपन्यासों में जब पात्र आपस में वार्तालाप करते हैं तब उनका चरित्र प्रकाश में आता है। कभी-कभी एक पात्र, दूसरे पात्र के गुण-अवगुण का उद्घाटन भी करता है, जिससे उसके चरित्र के अनेक छिपे हुए पहलुओं पर प्रकाश पड़ता है। प्रायः कथा-साहित्य में नाटकीयता लाने के लिए संवादों का प्रयोग किया जाता है। ‘उग्र’ के कथा-साहित्य में इस प्रकार की स्थिति कम देखने को मिलती है, क्योंकि उन्होंने पात्रों का स्वयं चरित्र-विश्लेषण अधिक किया है। फिर भी यदा-कदा इस पद्धति के दर्शन उनके कथा-साहित्य में मिलते हैं। ‘नेता का स्थान’ कहानी में संवादों के माध्यम से ‘नेता का चरित्र जिस प्रकार स्पष्ट किया है वह तत्कालीन ही नहीं आज के नेताओं का चरित्र है।  

यथा- ‘‘उत्तेजित भीड़ ने कहा- मूर्ख! धोखेबाज।’’ 

‘‘अपना कुशल चाहते हो तो लौट जाओ, कुत्तो।’’ नेता ने कहा। 

‘‘हम कुत्ते हैं?” नवयुवक ने क्रोध से पूछा। 

‘‘हम कुत्ते हैं?” बूढ़े ने घृणा से पूछा। ...... नेता ने अपने नौकर को टेलीफोन की ओर भेजा। वह स्वयं भी बंगले की ओर मुड़ा। उत्तेजना बढ़ी। 

एक ने भीड़ में से ललकारा- ‘‘कहाँ जाता है?’’ 

दूसरे ने कहा, ‘‘आज हमारा और तुम्हारा फैंसला होकर रहेगा।’’ 

तीसरे ने कहा, ‘‘मारो इस मनुष्य रूपधारी राक्षस को।’’  

पात्रों को जीवंत एवं सक्रिय बनाने के लिए कथाकार जिन विशेषताओं का रूपांकन करता है, वही चरित्रांकन के गुण कहलाते हैं। इसके लिए आवश्यक है कि पात्रों में अनुकूलता, जीवंतता तथा मौलिकता होनी चाहिए। इसका श्रेष्ठ उदाहरण ‘बुधुआ की बेटी’ उपन्यास में देखा जा सकता है। ‘उग्र’ ने पात्रों के चरित्रांकन में यथार्थवादिता का परिचय दिया है। एक उदाहरण देखिए, ‘‘उपन्यास की नायिका है, भंगी बुधुआ की बेटी रधिया, जो अत्यन्त रूपवती है। उसकी उठती जवानी और अनिंद्य सौन्दर्य का पान करने के लिए सवर्ण समाज के तथाकथित भद्र युवक उसके आस-पास भौंरो की तरह मंडराने लगते हैं। शीघ्र ही वह घनश्याम नामक विलासी बनिया युवक की वासना का शिकार हो जाती है।’’ दलित समाज की स्त्रियों के साथ इस प्रकार की घटनाएं अकसर आज भी घटती रहती हैं। इस प्रकार अनुकूल पात्रों का चयन करने से पात्रों और कथावस्तु में स्वाभाविक संबंध स्थापित हो जाता है। ऐसा करने से पात्र जबरदस्ती ठूँसे हुए नहीं लगते। पात्रों में स्वाभाविकता स्थापित करने के लिए, यथार्थ के धरातल पर उनका चित्रण किया जाना चाहिए। ‘उग्र’ ने इस तथ्य को ध्यान में रखकर ही अपने पात्रों का चयन किया है। 

मनोवैज्ञानिक पद्धति के अन्तर्गत लेखक पात्रों के मनोभाव को उद्घाटित करता है। जिस समय ‘उग्र’ ने लेखन आरम्भ किया था, उस समय तक साहित्य में व्यक्ति की मानसिक दशाओं का मनोवैज्ञानिक चित्रण प्रचलित नहीं हुआ था। फिर भी ‘उग्र’ ने कुछ कथात्मक-साहित्य इस प्रकार का लिखा। ऐसी एक कहानी ‘चित्र-विचित्र’ है, जो इसके नेता पात्र कंचनराम पर केवल व्यंग्य ही नहीं करती, बल्कि एक तस्वीर के माध्यम से उसकी मनोदशा का यथार्थ चित्रण भी करती है। वर्तमान में सफल कथा-साहित्य उसी को माना जाता है, जिसमें लेखक ने पात्रों के मनोभाव का स्वाभाविक चित्रण किया हो। मानव मन की गहराई तक बैठकर ही सफल लेखक अपने चरित्रों का यथार्थ मनोभाव उपस्थित कर सकता है। ‘मुर्खो का मीना बाजार’ ‘उग्र’ की ऐसी ही कहानी है जिसमें व्यक्तियों और परिस्थितियों को सामने रखकर दिखाया गया है कि पूरा समाज ही मूर्खों का मीना बाजार है। ऐसे पात्र समाज के हर वर्ग और प्रत्येक स्थान पर मिल जाते हैं। नारी मन की अन्तःपीड़ा को ‘उग्र’ ने ‘जी जी जी’ उपन्यास में स्पष्ट किया है। इसका एक नमूना जी जी जी के शब्दों में देखिए, ‘‘एक औरत की हैसियत से मैं सदा हताश और निराश हुई और सिवा पुरूषों की रूचि रखने के दूसरी कोई गति सचमुच मुझे स्त्रियों की नजर नहीं आई। प्राय: सारे संसार का इतिहास स्त्रियों पर पुरूषों के अत्याचार से भरा है।’’ परिस्थितियों के बीच उलझे पात्रों के अंतर्द्वंद्व को लेखक तभी चित्रित कर सकता है जब वह पात्रों के अन्तर्मन तक पहुँच जाए अर्थात् वह अनुमान लगा ले कि अमुक परिस्थिति में पात्र की मानसिक स्थिति किस प्रकार की हो सकती है। ‘उग्र’ ने ‘कढ़ी में कोयला’ और ‘जी जी जी’ उपन्यासों में पात्रों की मनः स्थिति को समझने में पूर्ण सफलता पाई है। 

पूर्ववृत्तात्मक पद्धति के अन्तर्गत लेखक किसी पात्र के बारे में उन बातों की जानकारी देता है जो उसके पूर्व पक्ष से संबंधित हो, परन्तु जिनका वर्णन पहले नहीं किया हुआ होता। मनोवैज्ञानिक गुत्थियाँ सुलझाने के लिए ही इसका प्रयोग होता है, किसी कथा में पहले इसका वर्णन नहीं किया जाता। शराबी उपन्यास के अधिकांश पात्रों के चरित्रांकन में ‘उग्र’ ने इस पद्धति को अपनाया है। उपन्यास की नायिका जवाहर के विषय में बहुत बाद में ज्ञात होता है कि वह शराबी बाप के कारण कोठे पर आई है। वेश्या कुंदन के विषय में ‘उग्र’ ने लिखा है, ‘‘कुंदन के बारे में सभी जानते हैं, वह खानदानी वेश्या है। यद्यपि आज उसकी उम्र तीन बीस और आठ वर्ष की है, मगर निस्सन्देह एक दिन वह तीन पाँच और तीन वर्ष की भी थी। जब वह अट्ठारह वर्ष की थी, तब लोगों को ‘कुंदन’ नाम की सार्थकता, उसके सामने आते ही दिखाई पड़ती थी।’’ ‘उग्र’ परिस्थिति और समयानुकूल तथ्य को सामने रखकर ही पात्रों के चरित्रांकन को स्पष्ट करते हैं। ‘पीर और वीभत्स’ कहानियों में भी इस पद्धति के दर्शन होते हैं। 

‘उग्र’ ने कथावस्तु की आवश्यकता को ध्यान में रखकर ही पात्र जुटाए हैं, उनकी कहानियों और उपन्यासों में पात्रों की भरमार नहीं। चरित्रांकन की दृष्टि से उन्होंने जितनी भी शैलियों का प्रयोग किया है, वे उन सब में सफल रहे हैं। एक शैलीकार के रूप में ‘उग्र’ की अलग पहचान देखी जा सकती है। 

‘उग्र’ का युग प्रवर्तक रूप : ‘उग्र’ ऐसे साहित्यकार हैं जो कथाकार, पत्रकार, नाटककार और अप्रतिम गद्य-शिल्पी के रूप में अपने नामानुरूप ही आजीवन उग्र बने रहे। उनमें कुछ ऐसी विशिष्ट प्रतिभा थी कि उन्होंने तत्कालीन साहित्य में प्रचलित लगभग सभी विधाओं में विश्वासपूर्वक लिखा। साहित्य का कोई भी क्षेत्र रहा हो, उन्होंने उसमें युग-प्रवर्तन का कार्य किया। परन्तु उनकी बदनामी के कारण आलोचक उन्हें अनदेखा करते रहे। आदर्शों की सलीब पर उन्हें ऐसा चढ़ाया गया कि वे बड़े रचनाकारों की बिरादरी में अछूत हो गए। जबकि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और डा. रामविलास शर्मा जैसे आलोचक भी उनके महत्व को नकार नहीं सके थे। ‘उग्र’ के साहित्य का शैली-शिल्प, विषय-वैविध्य, ठुमकती-चुलबुली मुहावरेदार भाषा आलोचकों के लिए आकर्षण का विषय बनी। परन्तु उन्होंने समाज में प्रचलित कुरीतियों पर जो प्रहार किए, उसने उन्हें गुमनामी के अंधेरे में फेंक दिया। कुछ सफेदपोशों ने उनसे चिढ़कर उन्हे खूब बदनाम किया। अन्यथा वे कवि थे, नाटककार थे, कहानीकार थे, उपन्यासकार थे, निबंधकार थे, संस्मरण लेखक थे, समीक्षक थे और कहीं भी दूसरी श्रेणी के नहीं थे। उनका व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था जो उन्हें अपने समकालीनों से अलग श्रेणी में खड़ा कर देता है। वे क्रांति के अग्रदूत बनकर सामाजिक क्षोभ के सत्व की यथातथ्य अवतारणा करते हुए दिखाई पड़ते हैं। स्त्री-पुरूष के यौन संबंधो का चित्रण करने में तो वे प्रेमचंद, यशपाल और जैनेन्द्र से कहीं अधिक आगे हैं। सामाजिक कुरीतियों को उजागर करने में उनमें सदैव तत्परता बनी रही। समय-समय पर समाज की विभिन्न प्रवृत्तियों के प्रति उनकी जो प्रतिक्रियाएं व्यक्त हुई, उनमें यथार्थ का जबरदस्त प्रभाव है। द्विवेदी युग से लेकर वर्तमान युग तक के लेखकों में यह प्रवृति परिलक्षित होती है। आज के समय में उनके विचारों की चमक भले ही फीकी लगती हो, पर तत्कालीन समय में वे बड़े क्रांतिकारी लगते थे। 

‘उग्र’ की सबसे बड़ी उपलब्धि समाज का नग्न रूप खोलकर प्रस्तुत करने में कही जा सकती है। उन्होंने जिस अद्भुत और अति यथार्थवादी शैली में समाज का विश्लेषण किया, वह उन्हें अपने समकालीनों से अलग पंक्ति में खड़ा कर देता है। उनमें कुछ ऐसी प्रतिभा थी कि आलोचकों ने उन्हें नकारते हुए भी उनके महत्व को एकमत से स्वीकार किया। गद्यकार के रूप में उनकी अप्रतिम देन की महत्ता को अस्वीकार करना तत्कालीन आलोचकों के लिए असम्भव हो गया था। उन्होंने हिन्दी गद्य को नया आर्जव दिया। सुंदर, सजीव, मुहावरेदार भाषा लिखने में वे अपना सानी नहीं रखते। उनके गद्य का चमत्कार उनके उपन्यास-कहानियों और निबंधो में देखा जा सकता है। हिन्दी साहित्य में द्विवेदी युग के पश्चात मतवाला मंडल ने युग-विधायी कार्य किया था। ‘उग्र’ और निराला इस मंडल के स्वयं सेवक से लेकर विधाता तक थे। उन्होंने मुहावरेदार भाषा में कथा रस को बरकरार रखते हुए जिस उत्साह के साथ अभिव्यक्ति दी वह अनुकरणीय है। जिस समय प्रेमचंद, भगवतीचरण वर्मा, जैनेन्द्र, रामचंद्र शुक्ल आदि की लेखनी धूम मचाए हुए थी, उस समय क्वींस कालेज में हिन्दी के अध्यापक पं. रामबहोरी शुक्ल ‘उग्र’ के गद्य की प्रशंसा करते नहीं अघाते थे। इतना ही नहीं ‘हिन्दी गद्यशैली का विकास’ नामक पुस्तक में डा. जगन्नाथ शर्मा ने ‘उग्र’ के गद्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। 

कथाकार के रूप में ‘उग्र’ अपने समकालीनों से आगे नहीं तो कमतर भी नहीं थे। यह उनके महत्व की गरिमा है कि प्रकाशक उनके उपन्यास आज भी प्रकाशित कर रहे हैं। ‘उग्र’ के समकालीन ‘निराला’ भी उनके महत्व को पहचानते थे, उन्होंने ‘उग्र’ के विषय में लिखा है, ‘‘हिन्दी का पहला राजनीतिक कहानीकार ‘उग्र’ आज के दौर में भी विस्मृतियों में पड़े रहने को अभिशप्त है।” उनके समकालीन पं. विनोद शंकर व्यास तो प्रेमचंद और प्रसाद के समक्ष ‘उग्र’ स्कूल की चर्चा करते हैं। और कहते हैं कि तीसरा स्कूल ‘उग्र’ का है किन्तु इस स्कूल के अकेले नायक ‘उग्र’ ही हैं। ऋषभचरण जैन, कुशवाहा कान्त और अनूपमंडल जैसे कथाकारों ने ‘उग्र’ की परम्परा को विकसित करने का प्रयास तो किया परन्तु यह परम्परा अधिक लम्बी नहीं चल सकी। उनकी जिन कहानियों और उपन्यासों पर अश्लील या मूल्यहीन होने के आरोप लगे, वर्तमान में इस प्रकार के कथा-साहित्य का अलग वर्ग है। आज यथार्थ बोध की कहानियों और यौन-समस्याओं का चित्रण करने वाली कहानियों को विशेष रूचि के साथ पढ़ा जाता है। आज से पच्चीस-तीस वर्ष पूर्व शायद ही कोई युवती अपनी विधवा माँ को अन्य पुरूष से संबंध बनाने के औचित्य को उस शालीनता एवं शिष्टता से अंगीकार करती, जिस शिष्टता से कमलशेर की कहानी ‘तलाश’ की सुमी अपनी ‘ममी’ की आवश्यकता को अनुभव कर घर से दूर हॉस्टल में रहने चली जाती है। 

इस विवरण के आधार पर मूल्यांकित करें तो ‘उग्र’ हिन्दी के युग-प्रवर्तक कथाकार लगते हैं, उनके कथा-साहित्य में भारत के विविध वर्गों की मनोदशा का अनुभवपरक चित्रण मिलता है। उनकी कथा-शैली की अपनी निजी विशेषता है, जिसमें समाज में फैली गंदगी पर यथाशक्ति प्रहार करने का बल है। समाज के घृणित वर्ग के जीवन का चित्रण करने वाले तो वे निश्चित रूप से हिन्दी के प्रथम कथाकार हैं। वे आरम्भ से ही यथार्थवादी लेखक रहे हैं। कथा-साहित्य में प्रवेश के समय प्रेमचंद पूर्णतः आदर्शवादी थे। उनकी आरंभिक कहानियों में आदर्शवाद का पूरा टच है, लेकिन ‘कफन’ तक आते-आते वे यथार्थवादी हो जाते हैं, यही स्थिति उनके उपन्यासों की भी है। यह तथ्य दर्शाता है कि ‘उग्र’ आरम्भ से ही जिस राह पर चलते रहे उसे प्रेमचंद ने भी अपनाया। अपनी अश्लील या नग्नतावादी कहानियों के बल पर ‘उग्र’ लम्बे समय तक फिल्मिस्तान में जमे रहे। परन्तु जब प्रेमचंद फिल्मिस्तान में फिल्म लेखन के लिए गए तो अधिक समय तक टिक न सके। 

नाटककार के रूप में ‘उग्र’ की विशेष प्रसिद्धि भले ही न रही हो, परन्तु उनकी प्रथम नाट्यकृति ‘महात्मा ईसा’ को हिन्दी के प्रौढ़ नाटकों में से एक माना जाता है। प्रेमचंद ने इस नाटक को पढ़कर अपना अभिमत देते हुए लिखा था, ‘‘महात्मा ईसा’ महाश्य डी.एल.राय के किसी भी नाटक से टक्कर ले सकता है। ऐसे मौलिक और गहन विषय पर नाटक लिखकर ‘उग्र जी’ ने हिन्दी का मस्तक ऊँचा कर दिया है।’’ ‘महात्मा ईसा’ के प्रकाशित होने तक प्रसाद जी के कई नाटक प्रकाशित हो चुके थे, परन्तु प्रसिद्धि ‘उग्र’ को ही मिल रही थी। उन्होंने अपने प्रहसनों के माध्यम से समाज में व्याप्त कुरीतियों, कुप्रथाओं, सामाजिक शोषण, अनाचार आदि को बड़े उत्साह के साथ उजागर किया। ‘उग्र’ भले ही पाठ्य पुस्तकों का हिस्सा न बन सके हों, लेकिन वे आज भी श्रद्धा के साथ स्मरण किए जाते हैं। उनके साहित्य का न्यायपूर्ण मूल्यांकन किया जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि अपनी पीढ़ी और बाद की कई पीढ़ियों के लेखकों पर उनकी शैलीगत विशिष्टाओं और साहित्यिक मान्यताओं का स्पष्ट प्रभाव है।   

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रचनाएँ
"उग्र बनाम मंटो"
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उर्दू में सआदत हसन मंटो की बहुत सी कहानियाँ पढ़ने के बाद विचार आया कि हिंदी में भी मंटो जैसा कोई विवादस्पद लेखक है? काफी खोजबीन करने पर ज्ञात हुआ कि ऐसा लेखक तो पाण्डेय बेचन शर्मा "उग्र" ही है. उग्र की अनेक कहानियाँ और उपन्यास पढ़ने के बाद विचार आया कि क्यों न उग्र और मंटो की तुलना की जाए. उसी के परिणाम स्वरुप इस किताब को लिखने की प्रेरणा मिली.
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भूमिका

13 अगस्त 2022
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 जब दो साहित्यकारों की तुलना की जाती है तो उनके व्यक्तित्व, रचनागत साम्य-वैषम्य, कृतियों की विषयवस्तुगत विशिष्टताएं, सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण और युगीन प्रवृत्तियों आदि को आधार बनाया जाता है। इस प्

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"उग्र"- एक परिचय

13 अगस्त 2022
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 हिन्दी साहित्य में ‘उग्र’ अपनी ही तरह के साहित्यकार माने जाते हैं। जिस तरह उनका नाम थोड़ा विचित्र सा है उसी प्रकार उनका साहित्य भी अपने ही ढंग का है। नाम ही देखिए आगे-पीछे जाति सूचक विशेषण और उससे जुड़

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"उग्र"- साहित्यिक अवदान

13 अगस्त 2022
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 ‘उग्र’ ने लेखन की शुरूआत काव्य से की थी। वे अपने स्कूल के दिनों से ही काव्य रचना करने लगे थे। साहित्य के प्रति उनका विशेष अनुराग बढ़ा था, लाला भगवानदीन के सम्पर्क में आने के पश्चात। जिनकी प्रेरणा से उ

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उग्र के साहित्य की मूल चेतना और प्रतिपाद्य विषय

13 अगस्त 2022
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 जिस समय ‘उग्र’ का साहित्य-क्षेत्र में प्रवेश हुआ, उस समय तक छायावाद का आगमन हो चुका था। पद्य हो या फिर गद्य, कल्पना की ऊँची उड़ाने भरकर साहित्य की रचना हो रही थी। अतः समकालिक लेखक-कवियों पर भी इस साहि

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क्या थे उग्र पर आक्षेप के कारण?

13 अगस्त 2022
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 ‘उग्र’ ने ऐसे समय में लिखना आरम्भ किया था, जब हिन्दी साहित्य में ‘आदर्शवाद’ का बोलबाला था और साहित्य यथार्थ से अधिक कल्पना में लिखा जाता था। ऐसे समय में जब उन्होंने अपनी कलम की नोक से समाज के यथार्थ

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उग्र साहित्य की प्रासंगिकता

13 अगस्त 2022
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 साहित्यकारों की प्रासंगिकता और अप्रासंगिकता के बारे में अक्सर प्रश्न उठाया जाता रहा है। लेकिन जो साहित्य विभिन्न समस्याओं और सत्यों का दर्शन कराता हो, उसकी प्रासंगिकता कभी समाप्त नहीं होती, क्योंकि व

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मंटो- एक परिचय

13 अगस्त 2022
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 दो साहित्यकारों की जब आपस में तुलना की जाती है तो उनके जीवन के उतार-चढ़ाव, साहित्यिक अवदान, सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण, साहित्यिक विषयवस्तुगत विशेषताएं आदि को आधार बनाना ही उचित होता है। पूर्व में ह

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मंटो की साहित्य यात्रा

13 अगस्त 2022
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 सआदत हसन मंटो ने अपने जीवन में कहानियों के अतिरिक्त एक उपन्यास, फिल्मों और रेडियो नाटकों की पटकथा, निबंध-आलेख, संस्मरण आदि लिखे। लेकिन उसकी प्रसिद्धि मुख्य रूप से एक कहानीकार की है। चेखव के बाद मंटो

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मंटो के साहित्य की मूल चेतना और प्रतिपाद्य विषय

13 अगस्त 2022
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 मंटो आज न केवल उर्दू बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं में बड़े चाव से पढ़े जाते हैं। हिन्दी में तो उनकी सम्पूर्ण रचनाएं उपलब्ध हैं। उनकी ‘टोबा टेकसिंह’ और ‘खोल दो’ कहानियों को मैंने संस्कृत में भी पढ़ा है। लेक

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मंटो पर आक्षेप- कुछ उलझे सवाल

13 अगस्त 2022
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 मंटो का लेखन ज़बरदस्त प्रतिरोध का लेखन है। यही उसके लेखन की शक्ति भी है। वह दौर ही शायद ऐसा था कि साहित्य से हथियार का काम लेने की अपेक्षा की जाती थी। मंटो ने इसका भरपूर लाभ उठाया और अपनी कहानियों से

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मंटो के साहित्य की प्रासंगिकता

13 अगस्त 2022
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 सआदत हसन मंटो नैसर्गिक प्रतिभा के धनी और स्वतन्त्र विचारों वाले लेखक थे। वे ऐसे विलक्षण कहानीकार थे जिन्होंने अपनी कहानियों से समाज में अभूतपूर्व हलचल उत्पन्न की और उर्दू कथा-साहित्य को नई ऊँचाईयों त

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उग्र और मंटो- तुलनात्मक बिंदु

13 अगस्त 2022
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 पिछले अध्यायों में हमने ‘उग्र’ और मंटो के व्यक्तित्व और कृतित्त्व को अलग-अलग रूपों और सन्दर्भों में जानने-समझने का प्रयास किया है। अब हम दोनों साहित्यकारों की एक साथ तुलना करके देखते हैं कि वे कहाँ ए

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उग्र और मंटो- समानताएं और असमानताएं

13 अगस्त 2022
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 ‘उग्र’ और मंटो ने अपने समय के सवालों से सीधे साक्षात्कार करते हुए उन्हें अपना रचनात्मक उपजीव्य बनाया। वे विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी तरह जिए और अपनी तरह की कहानियाँ लिखी। इस कारण उन्होंने बहुत चो

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परिशिष्ट

13 अगस्त 2022
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 सन्दर्भ सूची-  आलोचनात्मक-ऐतिहासिक व अन्य ग्रन्थ :-  1. पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ : अपनी खबर (आत्मकथा), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पेपर बैक्स, दूसरा संस्करण, 2006।  2. डा0 भवदेव पांडेय : ‘उग्र’ का

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