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मंटो के साहित्य की प्रासंगिकता

13 अगस्त 2022

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 सआदत हसन मंटो नैसर्गिक प्रतिभा के धनी और स्वतन्त्र विचारों वाले लेखक थे। वे ऐसे विलक्षण कहानीकार थे जिन्होंने अपनी कहानियों से समाज में अभूतपूर्व हलचल उत्पन्न की और उर्दू कथा-साहित्य को नई ऊँचाईयों तक पहुँचाया। कहानी लिखना उनका शौंक, पेशा, रोजी-रोटी इत्यादि सब कुछ था। प्रायः यह भी माना जाता है कि वे कहानी लिखते नहीं थे, वह उन पर स्वयं नाज़िल (उतरना) हेाती थी। उन्होंने इस बात को स्वयं स्वीकार किया है, ‘‘मैं अफसाना नहीं लिखता, अफसाना मुझे खुद लिखता है।’’ उनके मस्तिष्क में कहानी की विषयवस्तु हो या न हो बस कलम लेकर बैठ जाते और सर्वप्रथम 786 लिखते और कहानी लिखना आरम्भ कर देते। फिर उनसे कोई मिलने आए, उनकी बच्चियाँ शोर मचाएं, उनकी पत्नी सफिया बड़बड़ाती रहे, वे कहानी समाप्त करके ही दम लेते। कहानी लिखना उनके लिए इतना ही आवश्यक था, जितना कि जीवन के अन्य कार्य जैसे नहाना, खाना, सिगरेट पीना, शराब पीना आदि। कहानी लिखने की उन्हें ऐसी कुलबुलाहट होती थी, जैसे मुर्गी को अंडा देने की। वे जब तक कहानी न लिख देते उन्हें चैन नहीं मिलता। आलोचक तो यहाँ तक कहते हैं कि उनकी रगों में खून नहीं बल्कि रोशनाई रवा-दवा होती थी, विचार घटा बन कर आते और उनका कलम बरस पड़ता। उनकी कहानियाँ अपने समय का जीता-जागता दस्तावेज़ हैं। बटवारे के बाद फैले साम्प्रदायिक दंगों, स्त्री-पुरूष यौन संबंध, युवा दिलों में अगड़ाई लेते नाजुक ज़जबात आदि के विषय में जानना हो तो उनकी कहानियाँ पढ़िए। उन्होंने उक्त विषयों पर खुले दिल से लिखा। लेकिन कुछ लोगों को उनकी बेकाकी पसन्द न थी, इसलिए उन पर तरह-तरह के आरोप लगे। फिर भी बड़े कहानीकार के समान मंटो अपनी प्रसिद्धि, अपना अदब, अपनी कहानी कला और अपना फ़न अच्छी तरह जान गया था। 

कुछ आलोचकों ने मंटो को अहंकारी भी कहा है क्योंकि उसने कहानी लेखन के क्षेत्र में खुदा तक को अपना प्रतिद्वंदी माना था। अपनी मृत्यु के पाँच महीने पूर्व उसने अपनी कब्र का कुतबा स्वयं लिखा, जो इस प्रकार था, ‘‘यहाँ सआदत हसन मंटो दफ़न है। उसके सीने में फने अफसानानिगारी के सारे इसरारो (भेद) रमूज (प्रकार) दफ़न है। वह अब भी मानों मिट्टी के नीचे सोच रहा है कि वह बड़ा अफ़सानानिगार है या खुदा।’’ यह था उसका विश्वास, उसका लेखकीय स्वाभिमान जिसने उसे बाग़ी तेवर दिए और छोटे-बड़े तथा टुच्चे समझौतों की दलदल में फंसने से बचाया। रचना के सच में मिलावट करने के लिए वह कभी तैयार नहीं हुआ। इसलिए पाठकों से उसे जबरदस्त स्वीकृति मिली। 

इंसानी जिंदगी का यथार्थ मंटो की कहानियों का मुख्य विषय था। उसने अपनी बात कहने में किसी प्रकार का आवरण नहीं चढ़ाया। विभिन्न वर्गों के लोगों को उसने बहुत समीप से देखा-परखा था- कलर्क, मजदूर, सज्जन-दुर्जन, वेश्या, दलाल, मौलवी-मुल्ला, स्कूल-कालेज के लड़के-लड़कियाँ हर प्रकार के लोग उसकी दृष्टि से गुजरे थे। उनके साथ रहकर, घुल-मिलकर, उनके सुख-दुख में सम्मिलित होकर उनकी मानिसक उलझनों को समझकर उसने उन्हें अपनी कहानियों का विषय बनाया। अच्छे-बुरे, बुद्धिमान और मूर्ख, सभ्य और असभ्य का प्रश्न मंटो के यहाँ नहीं था। उसमें इंसानों को कब़ूल करने की क्षमता इतनी अजीब थी कि जैसा आदमी उसके साथ हो, वह वैसा ही बन जाता था। 

मंटो को यथार्थवादिता से विशेष मोह रहा, वह अपनी कहानियों में कल्पना की ऊँची उड़ान नहीं उड़ता है। कथ्य-विषय का यथा-तथ्य वर्ण करते चलता है। उसकी दृष्टि लोगों की अच्छाइयों पर कम और बुराईयों पर अधिक ठहरती है। सज्जन, शिष्ट, सभ्य और ईमानदार लोगों का मंटो की दुनिया में जीवन-यापन कठिन है। वेश्याओं की गालियाँ, उनका चिड़चिड़ापन, उनकी बीमारियाँ उसे अधिक पसन्द है। मंटो हकीकत को नज़र अन्दाज नहीं कर सकता था, समाज में चारों ओर फैली गंदगी उसे साफ नज़र आती थी, जिसे वह दूर करना चाहता था। वह रोमानियत से कोसों दूर रहा। उसने खुली आँखों से जो देखा, वही बयान किया। जीवन की गम्भीरता और तीक्ष्ण सच्चाई ही उसकी कहानियों में बिखरी हुई है। इसीलिए उसकी कहानियों का प्रभाव लोगों पर बहुत अधिक रहा। मुंबई में गुजारे सात-आठ वर्ष उसकी जिंदगी के सबसे बेहतरीन वर्ष कहे जा सकते हैं, जब वह उर्दू अदब का सबसे चमकता लेखक रहा। उस ज़माने में स्थापित पत्रिकाएं तथा प्रकाशक उसकी नयी कहानी लेने के लिए उसे एडवांस रकम तक देते थे। 

मंटो को विश्वास था कि वह जो कुछ लिखता है, वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले जैसा होता है, उसे दुनिया आज नहीं तो कल अवश्य सच मानेगी। उसने समाज और सोसायटी में जो खराबियां देखी उन्हें ज्यों का त्यों वर्णित कर दिया। उसकी दृष्टि में उनसे छुटकारा पाने का यही हल था। उस पर मुकदमें भले ही चले हों, पर वह अपने मार्ग से विचलित नहीं हुआ। मंटो कहानी के आरम्भ में ही प्रश्न खड़ा कर देता है और पाठक जैसे ही उस प्रश्न का हल खोजने में जुटा तो फिर पूरी कहानी ही पढ़कर छोड़ता है। अपनी आत्मकथा को कहानी का रूप देकर प्रस्तुत करने की कला भी मंटो को खूब आती है। इसी कारण उसकी कहानियों में संस्मरण का हलका सा रंग हमेशा झलकता है। 

एक बदनाम और अश्लील कहानीकार के रूप में मंटो को बहुत प्रसिद्धि मिली। मंटो की कहानी का नाम सुनकर लोग सदैव यही समझते कि उसमें कोई गरमाने वाला मसाला होगा। एक बार ‘मकतबा-ए-उर्दू’ प्रकाशन में बैठा वह अपनी पुस्तक का विज्ञापन देख रहा था। उसमें लिखा था, ‘‘मंटो, इस दौर का सबसे बड़ा अफसानानिगार है, चेखव के समान जड़ बात को छूने वाला, जादू फैलाने वाला। उसके अफसाने कला की शिखर छूते हैं।” मंटो ने यह विज्ञापन देखकर बकवास बताया और उसे इस प्रकार लिख दिया ‘‘मंटो बकवास लिखता है। मंटो को लोग अश्लील कहते हैं। मगर मंटो को एक बार पढ़ना शुरू कर दो तो कहानी खत्म किए बग़ैर आप उसे नहीं छोड़ सकते। विज्ञापन में ‘बकवास’ तथा ‘अश्लील’ शब्द मोटे अक्षरों में लिखे गए।’’ यह थी उसकी जिन्दादिली, उसका विश्वास। 

मंटो ने स्त्री-पुरूष के संबंधों पर बड़ी बेबाकी से कलम चलाई। समाज के रिश्ते-नातों को बड़ी सफाई के साथ बेनक़ाब किया। उसकी कहानियाँ पढ़ने पर ज्ञात होता है कि उनमें जीवन की कोई न कोई सच्चाई छिपी होती है, जिसका उद्देश्य कोई अच्छा सन्देश देना है। उसकी कहानियों में कहीं भी दिखावटी बनावट का अनुभव नहीं होता। यही अनुभव होता है कि वह कोई सीधी-साधी कहानी या कथा सुना रहा है अपनी तरफ से उसमें कुछ जोड़ या घटा नहीं रहा। कहानियों में कहीं भी अस्पष्टता, दोहराव या उलझी गुत्थियाँ नहीं जिसके कारण उन्हें बार-बार परिष्कृत किया जाए या उनके अर्थ खोले जाएं वे सीधी-साधी और स्पष्ट कहानियाँ हैं। उनके माध्यम से मंटो जो सन्देश देना चाहता था वो स्पष्ट है। अपनी अभिव्यक्ति की तड़प को शांत करने के लिए ही उसने कहानियाँ लिखी। यही कारण रहा कि उसकी कहानियाँ बड़ी प्रभावी रही और अपने समय में बड़े चाव से पढ़ी गयी। 

मंटो का लेखन, अपने दौर के लेखकों से बिलकुल भिन्न प्रकार का था। सच कहा जाए तो वह अपने समकालीनों से विभिन्न दृष्टियों से बहुत आगे था। आलोचक उसके महत्व को स्वीकारते हुए भी नकारते थे। प्रगतिशील वर्ग में तो उसे कभी स्वीकृति मिली ही नहीं। प्रगतिशील पहले उसकी कहानियों की प्रशंसा करते थे और फिर आलोचना। लेकिन इससे मंटो की प्रसिद्धि और महत्व को कभी कोई फर्क़ नहीं पड़ा। वह साहित्य को न न्यायाधीश मानता था और न कानून। उसकी धारणा थी कि साहित्य का यथार्थ अपना अलग ही महत्व रखता है, जिसे स्वीकारने में लोगों को अभी समय लगेगा। वह उर्दू कहानीकारों में पहला व्यक्ति था जिसने लेखन और कला को बतौर लेखन और कला अलग-अलग पहचानने पर बल दिया। मंटो ने पहले से चली आ रही उस कल्पना पर भरपूर चोट की कि साहित्य अभिजात्य वर्ग के मूल्यों या मध्य वर्ग की नैतिकता का पाबन्द है। उसका यह दृष्टिकोण हर उस जगह ज़्यादा खुलकर सामने आता है जहाँ कोर्ट कचहरी का दबाव या अदालती कार्रवाई का चक्कर नहीं। उसे इसका पूर्ण विश्वास था कि जो समस्याएं उसकी चेतना को विचलित कर रही थी और उसके अन्तर को मथ रही थी, वे समस्याएं आम नहीं थी, बल्कि उनका संबंध समाज के प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक व्यक्ति से था। साहित्य और विज्ञान में लोगों को नई चीज स्वीकारने में कुछ समय लगता है, वह इस बात को भली-भाँति जानता था। आरम्भ में निराला के मुक्तक छंद की भी कड़ी आलोचनाएं हुई लेकिन आज लगभग समस्त हिन्दी काव्य इसी छंद में रचा जा रहा है। आईंस्टीन को आंरभ में पागल समझा गया, लेकिन आज उनके महत्व को कोई भी नकार नहीं सकता। यही स्थिति मंटो की भी है। पाठक वर्ग तो उसकी कलम का लोहा शुरू से ही मानता रहा था लेकिन आलोचकों को उसे स्वीकारने में कठिनाई हो रही थी।  

वह अपने पाठकों से स्पष्ट और खुलकर बात करने वाला लेखक था। वह प्रत्येक प्रकार की साहित्यक चालाकी के विरूद्ध था और यह एक अच्छी बात है कि इस प्रकार साहित्यकार और पाठक के बीच का फासला समाप्त हो जाता है। यही कारण है कि उसके पाठक, आलोचकों की अपेक्षा कई गुना रहे। आलोचकों ने यदि उसका अपमान किया तो पाठकों ने उसे भरपूर सम्मान दिया। 

मंटो और कृष्ण चंदर ने मिलकर एक फिल्म की कहानी लिखी थी, जब वे दोनों एक प्रोडयूसर को बेचकर वापस आ रहे थे तो उन्हें अब्दुल गनी नामक टेलर मास्टर ने पकड़ लिया। गनी के सिलाई की उधारी के उन दोनों पर रूपये बकाया थे। उसने मंटो का गिरेवान पकड़कर कहा, ‘‘वह हतक (कहानी) तुमने लिखी है? मंटो ने कहा, लिखी है तो क्या हुआ? अगर तुमसे सूट उधार सिलवाया है तो इसका यह अर्थ नहीं कि तुम मेरी कहानी के अच्छे आलोचक भी हो सकते हो। मेरा गिरेबान छोड़ो।’’ अब्दुल गनी के चेहरे पर विचित्र सी मुस्कान आई। उसने मंटो का गिरेबान छोड़ दिया और उसकी तरफ अजीब सी नजरों से देखकर कहा, ‘‘जा तेरे उधार के पैसे माफ किए और पलट कर चला गया।’’ यह थी मंटोवियत जो जीते जी लोगों पर हावी रही और किन्ही अंशों में आज भी है। क्योंकि वह मृत्यु के बाद आज भी रूचि के साथ पढ़ा जा रहा है। 

यदि मंटो को आज के सन्दर्भ में देखने का प्रयास करें तो वह आज भी जिस चाव के साथ उर्दू में पढ़ा जाता है, उसी प्रकार हिन्दी सहित तमाम भारतीय भाषाओं में पढ़ा जाता है। मैंने उसकी दो कहानियाँ संस्कृत में भी पढ़ी हैं। यह मंटो की विश्व प्रसिद्धि है कि उस पर सर्वप्रथम शोध करने वाली लेसली ए. फ्लेमिगं एक विदेशी महिला थी। सलमान रश्दी ने सभी भारतीय भाषाओं में मंटो को ही एक मात्र महत्वपूर्ण लेखक माना है। आज उस पर न केवल भारत व पाक बल्कि अन्य देशों में भी महत्वपूर्ण काम हो रहा है। सन् 2012 में जब मंटो का जन्मशताब्दी वर्ष था तब मंटो को जानने-समझने और पुनर्मूल्यांकित करने की होड़ सी मच गयी थी। उसके जन्म-मासिक मई महीने में हिन्दी उर्दू के समाचार-पत्रों में उससे संबंधित न ज्ञात कितने लेख प्रकाशित हुए। हिन्दी की प्रतिष्ठित मासिक पत्रिकाओं ‘नया ज्ञानोदय और वर्तमान साहित्य’ ने उस पर विशेषांक निकाले, नया ज्ञानोदय की भूमिका में सम्पादक रवीन्द्र कालिया ने लिखा है, ‘‘मंटो इस महाद्वीप के निराले कथाकार थे। इन सौ बरसों में मंटो जैसी शख़्सियत न अवतरित हुई और न शायद अगले सौ वर्षो में हो। वैसे तो मंटो उर्दू के अफसानानिगार थे, मगर हिन्दी में भी कम लोकप्रिय न थे। आने वाली नस्लो ने मंटो को खूब पढ़ा। हिन्दी में मंटो के अनेक कथा संकलन प्रकाशित हुए। समय-समय पर हिन्दी ही नहीं तमाम भारतीय भाषाओं में मंटो की कहानियाँ प्रकाशित होती रहती हैं।’’ इतना ही नहीं आज भी समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में मंटो के बारे में कुछ न कुछ प्रकाशित होता ही रहता है। 

मंटो की गणना उन थोड़े से कहानीकारों में की जाती है, जिन्होंने केवल कहानी विधा के बल पर ही साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया। इस दृष्टि से वह चेखव, मोपासाँ, ओ. हेनरी आदि महान कहानीकारों की पंक्ति में सम्मिलित किया जा सकता है। हिन्दी में आज मंटो इतने चाव से पढ़ा जाता है कि उसकी सम्पूर्ण रचनाएं इस भाषा में उपलब्ध हैं। ‘राजकमल प्रकाशन’ दिल्ली ने सन् 1993 में मंटो का सम्पूर्ण साहित्य ‘दस्तावेज’ शीर्षक से पाँच खंडो में प्रकाशित किया। सन् 2004 में इसकी तीसरी आवृत्ति की गई। मंटो की रचनावली प्रकाशित होते ही हाथों-हाथ बिक गई थी। इस संबंध में ‘दस्तावेज’ के सम्पादक ‘बलराज मेनरा व शरद दत्त’ ने लिखा है, ‘‘दो महीने और नौ दिन के थोड़े से समय में दस्तावेज का पहला संस्करण हार्ड बाउंड और पेपर बैक के अलग-अलग रूप में मुकम्मल तौर पर बिक गया। हम पूरी जिम्मेदारी और ईमानदारी से इस बात को प्रमाणित करते हैं कि ऐसा यादगार और खुशगवार तजुर्बा न तो कभी मंटो की ज़िंदगी में हुआ और न उनकी मौत के बाद उर्दू साहित्य के इतिहास में भी ऐसी कोई मिसाल नहीं मिलती।’’ इस एक मात्र उदाहरण से अनुमान लगाया जा सकता है कि मंटो को चाहने वाले पाठकों की संख्या आज भी कितनी अधिक है। अपने समय में भले ही मंटो पर आक्षेप लगते रहे हों लेकिन वर्तमान साहित्य की दिशा और दशा के अनुरूप वह आज पहले की अपेक्षा कहीं अधिक प्रासंगिक लगता है। वर्षों तक अश्लील माने जाने वाले इस लेखक की कहानियों को आज स्नातक और स्नातकोत्तर की पाठ्य पुस्तकों में भी सम्मिलित कर लिया गया है। 

एक बड़ा और विचारणीय प्रश्न यह है कि एक अश्लील, बदनाम और विवादास्पद समझा जाने वाला लेखक मरने के बाद रातोंरात पुनीत व पवित्र किस प्रकार हो गया? सम्भवतः इसका प्रमुख कारण हो सकता है कि सेक्स और यौन संबंधों के प्रति लोगों का दृष्टिकोण बदला हो। अब सेक्स को स्वाभाविक प्रक्रिया माना जाने लगा है और यौन शिक्षा को भी अनिवार्य बताया जा रहा है। इसके लिए सरकार भी प्रयासरत है। टी.वी., समाचार-पत्र, पत्रिकाओं में दिखाई देने वाले विज्ञापनों ने लोगों को बिंदास बोलना सिखा दिया है। आज का युवा वर्ग गर्व से कहता है, ‘चलिए कन्डोम के साथ, रहिए बिंदास।’ इसके लिए हमें अख़बारों में लौटती सैक्सी तस्वीरों, सेक्स को समझाने वाले लेखों और स्तंभो का भी आभार मानना चाहिए। फिल्मों में दर्शाए जाने वाले ‘हॉट सीन’ ने भी इसमें अपना योगदान दिया है।  

वर्तमान परिप्रेक्ष्य और मंटो :- मंटो को यदि आज के सन्दर्भ देखते-समझते हैं तो यही लगता है कि वे औचित्यहीन आलोचना के शिकार रहे थे। कभी उन्हें प्रगतिवादी समझा गया तो कभी प्रतिक्रियावादी। कभी शैतान कहा गया तो कभी बीमार मानसिकता से ग्रस्त लेखक। धर्मभीरू प्रवृत्ति के कठमुल्ला उन्हें देखकर शैतान समझते हुए, ‘लाहौल बिला’ पढ़कर आगे बढ़ते थे। लेकिन यदि देखा जाए तो मंटो पहले भी औचित्यहीन आलोचना के शिकार हो रहे थे और आज भी हो रहे हैं। क्योंकि पहले उनके प्रति भारी आक्रोश था तो आज अतिश्योक्तिपूर्ण प्रशंसाएं की जा रही हैं। मंटो ने कहा था, ‘‘मैं ऐसी दुनिया पर ऐसे सभ्य समाज पर, ऐसे सभ्य देश पर हजार लानत भेजता हूँ जहाँ यह नियम प्रचलित हो कि मरने के बाद हर शख्स का चरित्र और व्यक्तित्व लांडरी में भेज दिया जाए जहाँ से वह धुल-धुलाकर आए और अत्यन्त माननीय व्यक्तित्व की खूंटी पर लटका दिया जाए।’’ ठीक ऐसा ही मंटो के साथ भी हुआ।  

मंटो की प्रासंगिकता और अप्रासंगिकता को लेकर बहुत कुछ लिखा गया और लिखा जा रहा है। यह बात सत्य है कि मंटो लीक से हटकर चले और विवादित रहे। उन्होंने परिस्थितियों से कभी भी समझौता नहीं किया, चाहे इसके लिए उन्हें कितना भी बड़ा मूल्य क्यों न चुकाना पड़ा। लेकिन आज के कठोर और खुरदरे दौर में मंटो को भुलाया नहीं जा सकता। 

मंटो, आजीवन विवादों और विरोधों से धिरे रहे। उन पर कई बार मुक़दमें चले, अदालतों में घसीटा गया। क्योंकि उनकी साहित्यिक कल्पना अपने समय के लेखकों से बिलकुल भिन्न प्रकार की थी, इसलिए आलोचकों ने उन्हें पहचानने की बड़ी भूल की। अतः उन्हें अपने जीवन में जो सम्मान मिलना चाहिए था, वे उसके बिना ही दुनियां को अलविदा कह गए। लेकिन सत्यता यह भी है कि वह जब तक जिए साहित्य पर छाए रहे। उनकी हर कहानी और पुस्तक का प्रकाशन एक साहित्यिक घटना होती थी। कभी ऐसा नहीं हुआ कि उसकी कोई महत्वपूर्ण कहानी छपी हो और साहित्य जगत में भूचाल की स्थिति पैदा न हुई हो। चारों ओर उसकी चर्चा होती थी। मंटो ने कोई साहित्यिक आन्दोलन नहीं चलाया, लेकिन आजीवन एक आन्दोलन बने रहे। उन्होंने साहित्य की जिस विधा में भी लेखनी चलाई हंगामा अवश्य बरपा। परम्परा विरोधी होने के कारण लोगों के मन में उनके प्रति भारी आक्रोश व्याप्त रहा। इसीलिए उनके जीवन में उनके विषय में जो कुछ लिखा गया अधिकांशतः सतही और पत्रकारितात्मक लिखा गया। लेकिन यह भी सत्य है कि मंटो बदनाम होकर भी खूब चर्चित और प्रसिद्ध हुए। उन पर यह कहावत पूर्णतः चरितार्थ होती थी कि ‘जो है नाम वाला वही तो बदनाम है।’ मंटो भले ही अश्लील और अनैतिक साहित्यकार के तौर पर जाने गए हों, लेकिन उनके महत्व को कोई भी नकार नहीं सका। प्रगतिशीलों ने भले ही उनकी कटु आलोचना की हो, लेकिन वे भी उसकी अनदेखी नहीं कर सके। आज उनकी गणना विश्व के महान कथाकारों चेखव, मोपासां, गोर्की आदि के साथ करते हुए उन्हें प्रेमचंद के बाद उर्दू का महान कहानीकार माना जाता है।  

प्रेमचंद के बाद उर्दू कहानीकारों की जो पीढ़ी उभरी, उसमें सआदत हसन मंटो का महत्वपूर्ण स्थान है। मंटो को कहानी कला का विशिष्ट ज्ञान था। उसने कभी यह स्वीकार नहीं किया कि उसने कोई अश्लील कहानी लिखी है। उसने लोगों को चौंकाया, धक्का पहुँचाया, लेकिन जब उन्होंने ठंडे मन से विचार किया तो उसकी कहानियों में कला का अद्वितीय अनुभव प्राप्त हुआ। उसे कहानी कहने का गुर आता था। उसकी कहानी अपने सुसंगठित शिल्प से तुरंत पहचानी जाती है। कहानी का आरंभ, मध्य और अंत होता है। एक सुस्पष्ट कथन-भंगिमा और शब्द लाघव उसके विशिष्ट गुण हैं। अप्रत्याशित और विस्मयकारी परिणाम की तकनीक मंटो के कथाकार के स्वभाव में थी। मानवीय स्वभाव को आश्चर्य में डाल देने वाले रूपों के वर्णन में उसने इस तकनीक से बहुत काम लिया है। ऐसी ही विशिष्ट विशेषताओं के कारण मंटो आज भी पूरे तौर पर प्रासंगिक बने हुए हैं। विभिन्न अवसरों पर बड़ी-बड़ी संस्थाओं में मैंने मंटो की कहानियों के बहुत से नाट्य मंचन देखे हैं। मंटो की प्रसिद्धि को देखते हुए उस पर भारत और पाकिस्तान में फ़िल्में भी बनी। जिस व्यक्ति पर दो देशों में फ़िल्में बनी हो उसकी प्रासंगिकता के बारे में और क्या प्रमाण दिया जाए।    

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रचनाएँ
"उग्र बनाम मंटो"
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उर्दू में सआदत हसन मंटो की बहुत सी कहानियाँ पढ़ने के बाद विचार आया कि हिंदी में भी मंटो जैसा कोई विवादस्पद लेखक है? काफी खोजबीन करने पर ज्ञात हुआ कि ऐसा लेखक तो पाण्डेय बेचन शर्मा "उग्र" ही है. उग्र की अनेक कहानियाँ और उपन्यास पढ़ने के बाद विचार आया कि क्यों न उग्र और मंटो की तुलना की जाए. उसी के परिणाम स्वरुप इस किताब को लिखने की प्रेरणा मिली.
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भूमिका

13 अगस्त 2022
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 जब दो साहित्यकारों की तुलना की जाती है तो उनके व्यक्तित्व, रचनागत साम्य-वैषम्य, कृतियों की विषयवस्तुगत विशिष्टताएं, सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण और युगीन प्रवृत्तियों आदि को आधार बनाया जाता है। इस प्

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"उग्र"- एक परिचय

13 अगस्त 2022
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 हिन्दी साहित्य में ‘उग्र’ अपनी ही तरह के साहित्यकार माने जाते हैं। जिस तरह उनका नाम थोड़ा विचित्र सा है उसी प्रकार उनका साहित्य भी अपने ही ढंग का है। नाम ही देखिए आगे-पीछे जाति सूचक विशेषण और उससे जुड़

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"उग्र"- साहित्यिक अवदान

13 अगस्त 2022
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 ‘उग्र’ ने लेखन की शुरूआत काव्य से की थी। वे अपने स्कूल के दिनों से ही काव्य रचना करने लगे थे। साहित्य के प्रति उनका विशेष अनुराग बढ़ा था, लाला भगवानदीन के सम्पर्क में आने के पश्चात। जिनकी प्रेरणा से उ

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उग्र के साहित्य की मूल चेतना और प्रतिपाद्य विषय

13 अगस्त 2022
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 जिस समय ‘उग्र’ का साहित्य-क्षेत्र में प्रवेश हुआ, उस समय तक छायावाद का आगमन हो चुका था। पद्य हो या फिर गद्य, कल्पना की ऊँची उड़ाने भरकर साहित्य की रचना हो रही थी। अतः समकालिक लेखक-कवियों पर भी इस साहि

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क्या थे उग्र पर आक्षेप के कारण?

13 अगस्त 2022
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 ‘उग्र’ ने ऐसे समय में लिखना आरम्भ किया था, जब हिन्दी साहित्य में ‘आदर्शवाद’ का बोलबाला था और साहित्य यथार्थ से अधिक कल्पना में लिखा जाता था। ऐसे समय में जब उन्होंने अपनी कलम की नोक से समाज के यथार्थ

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उग्र साहित्य की प्रासंगिकता

13 अगस्त 2022
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 साहित्यकारों की प्रासंगिकता और अप्रासंगिकता के बारे में अक्सर प्रश्न उठाया जाता रहा है। लेकिन जो साहित्य विभिन्न समस्याओं और सत्यों का दर्शन कराता हो, उसकी प्रासंगिकता कभी समाप्त नहीं होती, क्योंकि व

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मंटो- एक परिचय

13 अगस्त 2022
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 दो साहित्यकारों की जब आपस में तुलना की जाती है तो उनके जीवन के उतार-चढ़ाव, साहित्यिक अवदान, सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण, साहित्यिक विषयवस्तुगत विशेषताएं आदि को आधार बनाना ही उचित होता है। पूर्व में ह

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मंटो की साहित्य यात्रा

13 अगस्त 2022
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 सआदत हसन मंटो ने अपने जीवन में कहानियों के अतिरिक्त एक उपन्यास, फिल्मों और रेडियो नाटकों की पटकथा, निबंध-आलेख, संस्मरण आदि लिखे। लेकिन उसकी प्रसिद्धि मुख्य रूप से एक कहानीकार की है। चेखव के बाद मंटो

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मंटो के साहित्य की मूल चेतना और प्रतिपाद्य विषय

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 मंटो आज न केवल उर्दू बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं में बड़े चाव से पढ़े जाते हैं। हिन्दी में तो उनकी सम्पूर्ण रचनाएं उपलब्ध हैं। उनकी ‘टोबा टेकसिंह’ और ‘खोल दो’ कहानियों को मैंने संस्कृत में भी पढ़ा है। लेक

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मंटो पर आक्षेप- कुछ उलझे सवाल

13 अगस्त 2022
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 मंटो का लेखन ज़बरदस्त प्रतिरोध का लेखन है। यही उसके लेखन की शक्ति भी है। वह दौर ही शायद ऐसा था कि साहित्य से हथियार का काम लेने की अपेक्षा की जाती थी। मंटो ने इसका भरपूर लाभ उठाया और अपनी कहानियों से

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मंटो के साहित्य की प्रासंगिकता

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 सआदत हसन मंटो नैसर्गिक प्रतिभा के धनी और स्वतन्त्र विचारों वाले लेखक थे। वे ऐसे विलक्षण कहानीकार थे जिन्होंने अपनी कहानियों से समाज में अभूतपूर्व हलचल उत्पन्न की और उर्दू कथा-साहित्य को नई ऊँचाईयों त

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उग्र और मंटो- तुलनात्मक बिंदु

13 अगस्त 2022
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 पिछले अध्यायों में हमने ‘उग्र’ और मंटो के व्यक्तित्व और कृतित्त्व को अलग-अलग रूपों और सन्दर्भों में जानने-समझने का प्रयास किया है। अब हम दोनों साहित्यकारों की एक साथ तुलना करके देखते हैं कि वे कहाँ ए

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उग्र और मंटो- समानताएं और असमानताएं

13 अगस्त 2022
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 ‘उग्र’ और मंटो ने अपने समय के सवालों से सीधे साक्षात्कार करते हुए उन्हें अपना रचनात्मक उपजीव्य बनाया। वे विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी तरह जिए और अपनी तरह की कहानियाँ लिखी। इस कारण उन्होंने बहुत चो

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परिशिष्ट

13 अगस्त 2022
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 सन्दर्भ सूची-  आलोचनात्मक-ऐतिहासिक व अन्य ग्रन्थ :-  1. पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ : अपनी खबर (आत्मकथा), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पेपर बैक्स, दूसरा संस्करण, 2006।  2. डा0 भवदेव पांडेय : ‘उग्र’ का

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