मंटो आज न केवल उर्दू बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं में बड़े चाव से पढ़े जाते हैं। हिन्दी में तो उनकी सम्पूर्ण रचनाएं उपलब्ध हैं। उनकी ‘टोबा टेकसिंह’ और ‘खोल दो’ कहानियों को मैंने संस्कृत में भी पढ़ा है। लेकिन यह एक बड़ा सवाल है कि मंटो के साहित्य में ऐसा क्या है कि लोग उसे आज भी चाव से पढ़ रहे हैं। उसके साहित्य का शिल्प-विधान, विषयवस्तु, लेखन शैली का वैचित्र्य, प्रतिपाद्य विषय आदि में कुछ तो ख़ास बात है कि पाठक और आलोचक उसकी ओर आकर्षित हैं। इस तथ्य का थोड़ा और गहराई से अवलोकन करते हुए समझने का प्रयास करते हैं।
विषयवस्तु और शिल्प-विधान :- मंटो का रचनाकाल आज के दौर से बहुत भिन्न था। जब समूचा देश स्वतन्त्रता के लिए छटपटा रहा था और सात्यिकारों से अपेक्षाएं की जा रही थी कि वे स्वतन्त्रता के लिए, नव जागरण के लिए और उदात्त राष्ट्रीय भावनाओं की जागृति के लिए लिखें, तब मंटो ने इस धारा पर चलने के बजाए समाज के उस क्रूर, कटु और नग्न यथार्थ को बेबाकी के साथ उघाड़ा, जो उस समय साहित्य के लिए वर्जित समझा जाता था। इसलिए उन पर आक्षेप लगे, ताने उलाहने मिले और मुकदमें भी चले। उनका सम्पूर्ण व्यक्तिगत और साहित्यिक जीवन संघर्ष और बाधाओं से भरा रहा। उसकी साहित्यिक यात्रा अधिक लम्बी तो नहीं रही। अपने जीवन के मात्र बीस-बाईस वर्ष ही उसने उर्दू-साहित्य की सेवा में अर्पित किए। पर वे ही वर्ष उर्दू-साहित्य की दुनिया में सबसे जीवंत, विवादास्पद और प्रकाशमान कहे जाते हैं। मंटो ने लेखन की शुरूआत अनुवाद से की थी। लेकिन तुरंत ही नई लेखन शैली विकसित कर ली थी। आरम्भ में मंटो पर रूसी साहित्य का स्पष्ट प्रभाव दिखता था। लेकिन इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। दुनियाभर के प्रगतिशील लेखकों ने उस समय रूसी विरासत से लाभ उठाया था। विशेष रूप से यौन संबंधी समस्याओं पर जिस बेबाकी से मंटो ने कलम उठाई कम से कम भारतीय साहित्य में उसकी मिसाल खोजना तो कठिन है। जिस व्यक्ति का जीवन एक खुली किताब था, उसका साहित्य भी अपने समय का चमचमाता दर्पण है।
मंटो, अपनी बात कहने पर ही अधिक दृष्टि केन्द्रित रखते हैं। इसलिए कहानी की संवेदना और कथ्य से कभी भटकते नहीं। कहानी के अन्त तक आते-आते वे पाठक की चेतना को इस प्रकार झकझोर देते हैं कि एक झटका सा लगता है। उनकी सपाट बयानी पाठक को इस प्रकार उलझाए रखती है कि एक बार वह उसकी कहानी पढ़ना आरम्भ कर दे तो फिर पूरी कहानी पढ़कर ही छोड़ता है। मंटो अपील का कायल नहीं, वरन डराने और थप्पड़ माने का कायल है। उसकी हर एक कहानी में एक तमाचा होता है, जो पढ़ने वाले के मुँह पर इस बुरी तरह पड़ता है कि पाठक भन्नाकर रह जाता है और मंटो को बुरा-भला कहने लगता है। मंटो के अनुभवों का संसार बहुत अधिक व्यापक नहीं था, उसकी कहानियों में और साथ ही अन्य सृजनात्मक साहित्य में वह दार्शनिक गहराई भी नहीं जिसका संकेत हमें महान साहित्यकारों के सृजन में मिलता है। अपनी सीमाओं के बावजूद भी मंटो देशकाल के दायरे मे बंधा हुआ नहीं है। वह जिस आसानी और सादगी के साथ अपने युग और अपने परिवेश के दायरे में कदम रखता है, उसी सहज और स्वाभाविक ढंग से उस दायरे को पार भी कर जाता है। उसकी कहानियों में आत्मकथा का हलका सा रंग पाठक को हर समय यह एहसास दिलाए रखता है कि मंटो, पूरे वजूद के साथ, उसके साथ है। उसकी शैली का चुटीलापन पाठक को मधुरता देता है, उपमाओं का अनोखापन उसे चौंकाता है, भाषा का टकसालीपन कहीं भी अस्पष्टता या खीज़ उत्पन्न नहीं करता। व्यंग्य का तीखापन और उसकी कटुता का कसैलापन तथा बेबाक स्पष्टता के कारण पाठक का मन उसे गालियां देने पर मजबूर भी करता है। बू, धुआँ, काली सलवार, खोल दो, ऊपर नीचे और दरमियान, ठंडा गोश्त, ब्लाउज़ आदि के कारण मंटो को भले ही ग़लत समझा गया हो, पर ये कहानियाँ उसकी कला का प्रतिनिधित्व भी करती हैं। इन कहानियों पर मुकदमें भले ही चले हों, पर इन्होंने मंटो को भरपूर पाठक भी दिए। उपेन्द्रनाथ अश्क इन कहानियों से बड़े प्रभावित थे, उन्होंने ‘बू’ के विषय में लिखा है ‘‘मैंने बू की बड़ी प्रशंसा की। मुझे ‘बू’ की वस्तु से मतलब न था। मैं उसकी कला पर मोहित था। एक बड़ी कोमल थीम को मंटो ने जिस कौशल से ‘बू’ में समोया है, वह न केवल प्रशंसनीय है बल्कि अनुकरणीय भी है। ...... प्रत्येक नए कहानी लेखक को मेरी सलाह है कि कहानी की तकनीक को जानने के लिए वह ‘बू’ अवश्य पढ़े। तकनीक के कमाल की दृष्टि से उसके जोड़ की कहानी राजेन्द्र सिंह बेदी की ‘लाजवन्ती’ है। उसके अतिरिक्त कोई कहानी उर्दू साहित्य में उसके टक्कर की मुझे दिखाई नहीं देती।’’ इसी प्रकार अश्क ने बाबू गोपीनाथ, हतक और खुशिया की जमकर आलोचना की लेकिन प्रगतिशीलता की दृष्टि से इन्हें महान बताया है। मंटो को अपनी कहानियों के नाटकीय अन्त पसन्द है। इसलिए कहानी के अन्त में एक झटका सा लगता है और एक हलकी-सी मुस्कान पाठक के होंठो पर लहर के समान अनायास दौड़ जाती है। मंटो अपने पाठकों से साफ और खुलकर बात करने का आदी है। वह हर किस्म की साहित्यिक चालाकी के खिलाफ था। और यह अपने आप में एक खूबसूरत बात है कि इस तरह साहित्यकार और पाठक के बीच दूरियाँ समाप्त हो जाती हैं।
मंटो की कहानियों में कथ्य, भाषा और शिल्प के अनुरूप उनके पात्रों की भी अपनी दुनिया है तथा कथित संभ्रान्त वर्ग से इतर उसके कथा-संसार में वे सभी पात्र हैं जिन्हें समाज में अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था। जो समाज में हेय, तिरस्कृत और शोषित थे। उसने अपनी कला की दुनिया के चारों ओर कोई दीवार खड़ी नहीं की इसलिए उस तक वे भटके हुए, बहके हुए, बुरे और ठुकराए हुए पात्र भी आजादी से पहुँच जाते हैं जिनके लिए हमारे साहित्य, समाज और रूढ़िग्रस्त सामाजिक मूल्यों ने अपने दरवाजे बन्द कर रखे थे। मंटो ने विशेष रूप से गुंडो, मवालियों, शराबियों, कोठेवालियों, वेश्याओं, दलालों और उन्मादियों की जिन्दगी को, उनके हर कार्य-व्यवहार को और भलाई-बुराई को समग्रतः प्रस्तुत किया। उस समय तक यह वर्ग साहित्य की परिधि से दूर था, इसलिए मंटो का विरोध भी हुआ। मंटो ने इस वर्ग की जिंदगी को बहुत समीप से देख-परखकर अपनी कहानियों में उतारा। सुगन्धी, सुलताना, खुशिया, बाबू गोपीनाथ, गंगूबाई, टूटू, मम्मी, राधा, मैडम डीकास्टा, मम्मद भाई, दूदा पहलवान आदि मंटो के ऐसे पात्र हैं, जिनके प्रतिरूप हमें आज भी समाज के किसी न किसी कोने में दिखाई पड़ जाते हैं।
वेश्याओं के जीवन पर आधारित सभी कहानियों में मंटो ने वेश्याओं के जीवन की दुरूहता, उनके जीवन की विकृतियों-विद्रूपता को समग्रतः प्रस्तुत किया है। उन्हें समाज की गंदगी के रूप में नहीं बल्कि समाज के अंग के रूप में देखने का ऐसा मानवीय दृष्टिकोण मंटो से पहले किसी कथाकार ने नहीं किया। वारिस अलवी कहते हैं, ‘‘सवाल यह है कि मंटो ने यौन-संबंधी विकृतियों पर क्यों लिखा? क्या चौंकाने के लिए? ..... उसने वेश्याओं, दलालों और उच्छंखल लोगों पर क्यों लिखा? समाज के रिसते नासूर को दिखान के लिए? ........ इन प्रश्नों के उत्तर आपको उस समय तक नहीं मिल सकते जब तक आप मंटो के तमाम अफ़सानों को अगल-बगल रखकर तस्वीर की तरह न देखें, एक ऐसी तस्वीर जिसका हर नक़्श दूसरे को उजागर करता हो। इसी स्थिति में तस्वीर की अर्थवत्ता स्पष्ट होगी। मंटो कला के उस उच्चतम बिंदू तक पहुँचा था जहाँ हकीकत और अफ़साने का फ़र्क़ मिट जाता है।’’
तत्कालीन समाज में फैली विद्रूपताओं ने मंटो को चुप नहीं बैठने दिया। समाज के जिस कोने में भी गंदगी दिखाई दी, उन्होंने उसे अपनी कलम की नोक से तार-तार कर दिया। उन्हें जिस व्यक्ति में भी दोष दिखाई दिया, वे उस पर कटाक्ष करने से नहीं चूके। ‘खुदा की कसम’ कहानी में उन्होंने अपने समकालिक ऐसे साहित्यकारों की खबर ली है जो अपने परिवेश और यथार्थ से दूर सपनों की दुनिया में निमग्न रहते थे। मंटो ने अपने जीवनकाल में आए व्यक्तियों के जो संस्मरण लिखे, उनमें भी उसकी शैली का चुटीलापन, व्यंग्य का नश्तर सरीखा तीखापन और कटुता का कसैलापन सब कुछ है। ‘स्वराज्य के लिए’ कहानी में उन्होंने महात्मा गाँधी जैसे युग पुरूष की नीतियों की भी आलोचना की है। प्रसंग के अनुकूल वे महात्मा बुद्ध और ईसा मसीह पर भी व्यंग्य कर सकते हैं। 1919 की बात और तमाशा जैसी कहानियों में स्वतन्त्रता आन्दोलन से जुड़े कई पहलू देखे जा सकते हैं। तमाशा में जलियांवाला बाग की घटना के सन्दर्भ में तत्कालीन विनाशक ताकतों की क्रूरता को एक बच्चे खालिद की मनः स्थिति और जिज्ञासा के जरिए प्रस्तुत किया गया है।
देश आजाद हुआ लेकिन विभाजन की त्रासदी भी उसके हिस्से में आई। बटवारे के बाद भड़के साम्प्रदायिक दंगो ने मंटो की चेतना को झकझोर कर रख दिया। वे भीतर तक आहत हुए। वे भले ही पाकिस्तान में रहे हों, लेकिन हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब पर आए इस संकट को बर्दाश्त कर पाना उनके लिए कठिन था। विभाजन की असलियत को स्वीकार कर पाना असहनीय था, ऐसी मानसिक स्थिति में उनकी कहानियों में बटवारे और दंगों के दुष्प्रभावों और क्रूर जटिल विद्रूप स्थितियों का जैसा मार्मिक चित्रण है वैसा अन्यत्र ढूँढ पाना कठिन है। भारत-पाक विभाजन की त्रासदी पर मंटो ने अनेक कहानियां लिखी, जिनमें से ‘टोबा टेक सिंह’ आज भी उर्दू साहित्य का एक अनमोल मोती मानी जाती है। इस कहानी का पात्र टोबा टेक सिंह उस गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक है जो विभाजन के कारण छिन्न-भिन्न हो गयी। विभाजन के समय और बाद में फैले दंगों के कारण उपजी विद्रूपताओं और मारकाट को मंटो ने अपनी कहानियों में समग्रता से प्रस्तुत किया है। दंगो की भयावहता के साथ ही समाज और मानवता को शर्मशार करने वाली जिन स्थितियों को मंटो ने प्रस्तुत किया वे यथार्थ का सटीक दस्तावेज हैं।
मंटो का स्त्री-विमर्श :- स्वतन्त्रता पूर्व समाज पुरूष प्रधान था। पुरूष प्रधान तो आज भी है, पर उस समय आज की अपेक्षा कहीं अधिक था। ऐसे रूढ़ीवादी समाज में स्त्री आत्महत्या करने से पहले भी पति की आज्ञा लेना अपना धर्म समझती थी। उस समय मंटो ने औरतों का पक्ष लिया। औरतें भी कैसी? समाज जिन्हें हीन मानता था। पतित मानता था। ऐसी औरतों के सवाल, संवेदना, उदारता, त्याग, प्रेम समझ आदि को विषय बनाकर मंटो ने कहानियाँ लिखी। कहानियों के अतिरिक्त मंटो ने ‘अदबे जदीद’ (आधुनिक साहित्य), इस्मत फ़रोशी (वेश्यावृत्ति), सफेद झूठ के साथ ही अपने कई अन्य निबंधो में भी स्त्री-चरित्र के दुर्बल-सबल पक्ष को बड़ी सुन्दरता से उजागर किया। हतक, खोल दो, काली सलवार, शरीफन, लायसेंस जैसी कहानियों में स्त्री-विमर्श अपने चरमोत्कर्ष पर है। मंटो की सबसे बड़ी विशेषता यह कही जा सकती है कि उन्होंने सर्वप्रथम ऐसे चरित्रों की पहचान की जिन पर साधारण लेखक, लिखने से कतराते थे। परिणाम जानते हुए भी, मंटो ने उन पर निड़र होकर कलम चलाई। उसने यह जानने-समझने का प्रयास किया कि कोठे पर बैठने वाली एक वेश्या भी स्त्री है। उसने बार-बार इस यथार्थ पर जोर दिया, हर औरत वेश्या नहीं होती लेकिन हर वेश्या औरत होती है। मंटो को साधारण पात्रों में विशेष रूचि नहीं थी। उसका हृदय ऐसी स्त्रियों के साथ जुड़ा रहा, जिन्हें समाज हीन, नीच, पतित मानता था। समाज ने जिनके लिए अपने दरवाजे बन्द किए हुए थे। पर उनके दरवाजे, दिन के उजाले और रात के अंधेरे में सभ्य पुरूषों तक के लिए खुले हुए थे। ऐसी स्त्रियों को मंटो की कलम आजीवन समर्पित रही। वेश्याओं के दर्द और पीड़ा का कलाकार बनकर उसने उत्कृष्ट कहानियाँ रची। इसके पीछे सम्भवतः मंटो का दुःखपूर्ण और संघर्षमय जीवन उत्तरदायी रहा है। मंटो अपने वेश्या पात्रों में जिस स्त्री को खोजता रहा, वह उसके मस्तिष्क के तहखाने में छिपा ऐसा प्रतिबिम्ब है, जिसकी मूर्ति उसके हीन और पतित स्त्री पात्रों में होती है।
मंटो के बाल्यकाल के विषय में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं, फिर भी उसके जीवनीकारों ने जो जानकारी उपलब्ध करायी है, उससे ज्ञात होता है कि मंटो का पिता बहुत कठोर और निर्दयी व्यक्ति था। भाई थे, मगर सौतेले। इस प्रकार ले देकर माँ थी जिसे वह ‘बीबीजान’ कहता था। वही प्यार के शून्य को भर सकती थी और उसकी ममता-मयी गोद ही मंटो की एक मात्र शरण स्थली हो सकती थी। इस प्रकार मंटो के मस्तिष्क में आरम्भ से ही दर्द और पीड़ा ने घर कर लिया था। इसलिए उसके अन्तर्मन की पीड़ा उसके उन अफसानों में सुनाई दी जो उसने स्त्री को उद्देश्य करके लिखे।
मंटो कहता था, ‘‘मेरे पड़ोस में रहने वाली कोई स्त्री अपने पति की मार खाती हो और फिर उसी के जूते से अपने आँसू पोंछती हो, उस स्त्री के लिए मेरे हृदय में तनिक भी अनुकंपा नहीं होगी। परंतु कोई स्त्री अपने पति के साथ झगड़ा करके, आत्महत्या की धमकी देकर सिनेमा चली जाए और उसके पति को मैं दो घंटे अशांत अवस्था में देखूँ तो ऐसी स्त्री के लिए मेरे हृदय में विशेष प्रकार की सहानुभूति होगी। एक युवा को किसी लड़की से प्यार हो जाए तो मेरे लिए उसका महत्व नगण्य है। परंतु यदि एक लड़के के पीछे हजारों लड़कियाँ पागल बनते देखूं तो मेरा ध्यान उसकी ओर अवश्य जाएगा। सारा दिन श्रम करके रात को अराम से सो जाने वाली स्त्री मेरे मन में हीरोइन नहीं बन सकती, लेकिन कोठे पर बैठी वेश्या मेरे लिए हीरोइन बन सकती है, जो रातभर जागती है और दिन में जहाँ सोने जाए, वहाँ बुढ़ापा जैसे दरवाजा खटखटा रहा हो, ऐसे डरावने सपने देखकर जाग जाती हो। और जिसकी आँखो में नींद वर्षों तक जम गयी हो, ऐसी स्त्री मेरी विषयवस्तु बन सकती है। उसकी बीमारी, उसका चिड़चिड़ापन, उसकी गाली, यह सब मुझे अच्छा लगता है, मैं उसके विषय में लिखता हूँ। मुझे घरेलू स्त्रियां नहीं जमती। पतिव्रता प्रमाणित स्त्रियों पर बहुत लिखा गया है। कोई स्त्री पति के आलिंगन में से छूटकर किसी अन्य पुरूष के आश्लेष में जा बैठी हो और जैसे कुछ हुआ ही न हो, ऐसी स्त्री के हृदय को खोलने वाली कहानी क्यों नहीं लिखी जा सकती। जीवन को जैसा वो है, उसी रूप में प्रस्तुत करना चाहिए।’’
अपनी कहानियों के माध्यम से मंटो ने स्त्रियों से जुड़े जिन प्रश्नों को उकेरा था, उन्हें देखने की सामर्थ्य समाज आज भी अपने अन्दर पूरी तरह से विकसित नहीं कर पाया है। ऐसी कहानियों के माध्यम से मंटो ने यह सिद्ध कर दिया है कि जिन प्रश्नों को लेकर आज महिला लेखिकाएं लेखन कर रही हैं, उन्हें पुरूषों ने भी वर्षों पूर्व उसी अनुभूति के साथ अनुभव किया था। कुछ आलोचकों ने मंटो पर आरोप लगाया था कि उनका लेखन केवल स्त्री को समर्पित है। अन्य विषयों पर वे उतना अच्छा नहीं लिख सकते। इसका उत्तर देते हुए उन्होंने लिखा है, ‘‘कहा जाता है कि मेरे दिलो-दिमाग पर औरत सवार है। मर्द के दिलो-दिमाग पर औरत नहीं तो क्या हाथी-घोड़े सवार होने चाहिए? जब कबूतरों को देखकर कबूतर गुटकते हैं तो मर्द औरत को देखकर गज़ल या अफसाने क्यों न लिखें? औरत कबूतरों से कहीं ज़्यादा दिलचस्प, खूबसूरत और विचारशील है।’’ मंटो की सबसे बड़ी यह विशेषता रही कि उन्होंने अपने स्त्री व पुरूष पात्रों को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया और न उनकी ज़िंदगी पर अपनी जिंदगी थोपी। वह अपने पात्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार को रखने का रक्षक रहा है। इसका ‘हतक’ से अच्छा शायद ही कोई उदाहरण मिल पाए। ‘हतक’ ऐसी कहानी है, जिसकी आलोचकों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। ‘हतक’ के माध्यम से मंटो ने पहली बार उस सारी व्यवस्था को अपने आक्रोश का निशाना बनाया है, जिसमें सुगन्धी जैसी औरतें शोषण का शिकार बनने पर मजबूर होती हैं। इस कहानी के विषय में नीलाभ कहते हैं, ‘‘मैं हतक को वेश्याओं की जिंदगी पर किसी भारतीय कथाकार द्वारा लिखी गई कहानियों में पहली पंक्ति में रखना चाहूँगा। ...... वेश्यावृत्ति की ज़लालत का ऐसा अपूर्व चित्र मंटो ने इसमें खींचा है कि सेठ द्वारा सुगन्धी को नापसन्द कर दिए जाने वाले प्रसंग के बाद पाठक अनायास सुगन्धी के दिल की कुढ़न और उसके फूट पड़ते आक्रोश के सहभागी बन जाते हैं।’’ ‘हतक’ की सुगन्धी हीन व कमजोर, प्यार के दो बोलों की तरसी हुई, निचुड़ी, मली-दली, बेबस व बेसहारा स्त्री है। लेकिन अपमान के चरम से गुजरने के बाद वह स्वाभिमान के उस लम्हे पर पहुँचती है, जहाँ वह स्त्री के पूरे अस्तित्व पर आच्छादित हुई दृष्टिगोचर होती है। कहानी के आरम्भ में सुगन्धी सादगी और सरलता की प्रतिमूर्ति है। परन्तु सेठ द्वारा उसे नापसन्द किए जाने पर उसका अहम् उसे कचोटने लगता है। पूरे समाज पर उसका गुस्सा फूट पड़ता है। कहानी का एक अंश देखिए, ‘‘गाली उसके पेट के भीतर से उठी और ज़बान की नोक पर रूक गयी। वह भला गाली किसे देती, मोटर तो जा चुकी थी। उसकी दुम की सुर्ख बत्ती उसके सामने बाजार के अंधेरे में खो रही थी। और सुगन्धी को ऐसा लग रहा था कि लाल-लाल अंगारा ‘ऊंह’ है जो उसके सीने में बरछे की भाँति उतरा जा रहा है।’’
आरम्भ में मंटो के लेखन को भले ही अश्लील और नंगेपन की श्रेणी में रखा गया हो, पर बाद में उसे वेश्याओं, दलालों, भड़वो और कोठेवालियों का कलाकार माना गया। लेकिन सत्यता यह भी है कि मंटो ने वेश्याओं की रूह में दबी करूणा और ममता को सुगन्धी, कान्ता, राधा, सुलताना जैसे स्त्री पात्रों के रूप में कार्यान्वित करके अपनी कला के शिखर को पा लिया है।
खोल दो और शरीफन जैसी कहानियाँ भारत विभाजन की उस त्रासदी का यथार्थ दस्तावेज़ हैं जो सकीना और शरीफन जैसी स्त्रियों को अपनी देह, अपनी आबरू लुटवाकर चुकानी पड़ी थी। विभाजन के समय भड़के साम्प्रदायिक दंगो ने स्त्री अस्मिता को किस प्रकार तार-तार कर दिया था, ये कहानियाँ यही दर्शाती हैं। ‘खोल दो’ कहानी का छोटा सा अंश देखिए, ‘‘दंगो के समय सिराजुद्दीन की अत्यन्त रूपवती लड़की अचेत अवस्था में पायी जाती है। लड़की के गाल पर तिल देखकर सिराजुद्दीन चीख़ पड़ा, ‘सकीना’। तभी डॉक्टर ने रूम में लाईट जला दी। उन्होंने सिराजुद्दीन से पूछा, ‘‘क्या है?’’ ‘‘जी मैं इसका बाप हूँ।” डॉक्टर ने स्ट्रेचर पर पड़ी लाश को देखा। पल्स (नाड़ी) जाँचकर डॉक्टर ने खिड़की की ओर देखते हुए सिराजुद्दीन से कहा, ‘खोल दो’ सकीना के निश्चेतन शरीर में प्राणों का संचार हुआ। अपने प्राणहीन हाथों से नाड़ा खोलकर उसने सलवार नीचे सरका दी। सिराजुद्दीन ने खुशी से चीखते हुए कहा, ‘‘मेरी बेटी ज़िदा है।’’ डॉक्टर सिर से पैर तक पसीने से तर हो गया।’’ विनोद भट्ट ने इस कहानी के विषय में लिखा है, ‘‘इस लड़की का कितना शारीरिक और मानसिक अत्याचार किया गया होगा। ‘खोल दो’ का अर्थ यही होता है। कहीं पर भी टिप्पणी या सफाई दिए बगैर पाठक की समझ शक्ति पर विश्वास रखकर मंटो ने कहानी खत्म कर दी है, यही उसका संयम है। इस कहानी को कागज पर उतारते समय मेरा रोम-रोम काँप उठा था। विश्व की कुछ उच्चतम कहानियों में यह कहानी आसनी से शामिल हो सकती है।’’ शरीफन कहानी विभाजन के समय मची मार-काट का एक जीता जागता दुःस्वप्न प्रतीत होती है। ‘लायसेंस’ उस असहाय स्त्री की कहानी है, जिसे पति की मृत्यु के पश्चात बार-बार प्रयास करने पर भी दरोगा से तांगा चलाने का लायसेंस नहीं मिलता, लेकिन जिस्म बेचने का लायसेंस आसानी से मिल जाता है।
स्त्री हृदय की आन्तरिक पीड़ा, दर्द, आह को आधार बनाकर लिखी गयी ‘काली सलवार’ मंटो की अत्यधिक चर्चित कहानी है। कहानी में मंटो ने वेश्या जीवन के कुछ ऐसे अनछुए पहलुओं को उजागर किया है, जिन्हें केवल एक वेश्या स्त्री ही समझ सकती है। कहानी में सबसे घृणास्पद स्थान वह है जब सुलताना अम्बाला से दिल्ली आ गयी है। और पीर-फ़कीर, गंड़े-ताबीज के बावजूद भी पेशे (वेश्यावृत्ति का धन्धा) में मन्दा ही मंदा है, अंतिम कंगनी भी बिक चुकी है। खुदाबख़्श सारा-सारा दिन गायब रहता है और सुलताना का हाल पूछने वाला कोई नहीं। उसे लगता है कि खुदा ने तो छोड़ा ही था, खुदाबख़्श ने भी छोड़ दिया। वह बेसहारा, नंगी, निचुड़ी जीवन की पटरी पर इधर से उधर और उधर से इधर उद्देश्यहीन भटक रही है। इसी प्रकार ‘जानकी’ की जानकी, ‘खुशिया’ की कान्ता, ‘हारता चला गया’ की गंगूबाई, ‘मेरा नाम राधा है’ की राधा, आदि स्त्री पात्र समाज के दुत्कारे, ठुकराए और शोषित पात्र हैं।
बाजारू स्त्रियों और वेश्याओं की कहानियाँ लिखते समय मंटो बार-बार उनके शरीर से हटकर उनकी रूह (अन्तर्रात्मा) पर दृष्टि डालता है। उसने जीवन के अनुभव से पाया था कि इस संसार में सबसे अधिक आहत स्त्री की रूह है, जो अपनी सर्वश्रेष्ठ पूँजी बेचने को मजबूर है। परन्तु पुरूष की वासनामयी प्रवृत्ति ने सदैव स्त्री को ही दोषी ठहराया। इसलिए स्त्री के मामले में मंटो नैतिक मूल्यों से समझौता नहीं करता। वह बार-बार कहता है, ‘‘औरतों में 99 प्रतिशत ऐसी होंगी जिनके दिल देह व्यापार के तारीक तिजारत के बाव़जूद बदकार मर्दों के दिल की बनिस्बत कहीं ज़्यादा रोशन होंगे..... ऊपरी दृष्टि में इज्ज़त बेचने वाली औरतों का मज़हब से लगाव एक ढोंग मालूम होता है। मगर हक़ीकत में यही उनकी रूह का एक हिस्सा पेश करता है जो समाज के जंग से यह औरतें बचाकर रखती हैं ......। जिस्म दाग़ा जा सकता है, मगर रूह नहीं दाग़ी जा सकती।’’ मंटो की कला स्त्री की आहत अन्तरात्मा की कराह और दर्द की थाह पाने की कला है। यही कारण है कि उसके स्त्री पात्र, हाड़-मांस के आम इंसानों से कहीं अधिक सच्चे, कहीं अधिक स्थायी और कहीं अधिक दर्दीले प्रतीत होते हैं। वे हमें आहत करते हैं, झिंझोड़ते है और कचोटते हैं, लेकिन अन्त में हमारी सहानुभूति भी प्राप्त करते हैं।
विभाजन की त्रासदी और मंटो का साहित्य :- अनेक संघर्षों आन्दोलनों और लाखों लोगों के बलिदानों के परिणाम स्वरूप अन्ततः 15 अगस्त सन् 1947 को देश को स्वतन्त्रता मिली। खुशी की लहर के साथ ही, पीड़ा का स्वाद भी लोगों ने शीघ्र ही चखा। गहरे ज़ख्म के रूप में विभाजन भी देश के हिस्से में आया। देश के त्रासदीपूर्ण विभाजन ने सभी संवेदनशील प्राणियों को आहत किया। कुछ लोग ऐसे भी थे, जो दुःख से आजीवन उभर न पाए थे। मंटो भी ऐसा ही व्यक्ति था, जो विभाजन से अत्यन्त आहत हुआ था। हालांकि विभाजन के लगभग एक वर्ष पश्चात ही वह पाकिस्तान चला गया था, पर विभाजन के बाद समस्त देश में भड़के साम्प्रदायिक दंगो ने उसकी चेतना को झकझोर कर रख दिया था। विभाजन के समय मंटो के सगे सम्बन्धी, पारिवारिक व्यक्ति यहाँ तक कि उसकी पत्नी सफिया अपनी बेटियों सहित पाकिस्तान चले गए थे। और वे मंटो से पाकिस्तान चले आने का बार-बार आग्रह कर रहे थे, इसलिए मंटो को भी पाकिस्तान जाना पड़ा। कुछ लोगों ने मंटो के पाकिस्तान जाने को धार्मिक और राजनीतिक भी बताया है। इसलिए उसके पाकिस्तान जाने के कारणों को लेकर विवाद है। नीलाभ के अनुसार, ‘‘हाँलाकि वह अमृतसर का रहने वाला था और उसकी जगह अगर कहीं थी तो वह हिंदुस्तान में। मंटो के पाकिस्तान जाने के कारण न तो राजनीतिक थे, न किसी सिद्धान्त से नत्थी थे, न किसी यथार्थ से। वह पाकिस्तान गया तो इसलिए कि मुबई की फिल्मी दुनिया से वह उखड़ गया था, घरेलू आदमी था और इसलिए उसका पूरा परिवार पाकिस्तान चला गया तो वह भी चला गया।’’ बाद में उसने अपने हिंदुस्तानी मित्रों को वापस बुलाने के लिए अनेक पत्र भी लिखे। एक बार जब वह अपने किसी मित्र से मुंबई मिलने आया था, तो फूट-फूट कर रोया था।
मंटो भले ही पाकिस्तान चला गया, परन्तु हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहजीब पर आए इस संकट को उसके लिए सहन करना कठिन था। महात्मा गाँधी के समान मंटो भी ऐसा व्यक्ति था, जिसके लिए विभाजन आजीवन नासूर बना रहा। उसके मन-मस्तिष्क की विचित्र दशा रही। ऐसी मानसिक स्थिति में मंटो ने अपनी कहानियों में बंटवारे, दंगो के दुष्परिणामों और क्रूर, जटिल-विद्रूप स्थितियों का जैसा मार्मिक चित्रण किया है, वह अन्यत्र ढूँढ पाना कठिन है।
टोबा टेक सिंह, टिटवाल का कुत्ता, खोल दो, ठंडा गोश्त, नंगी आवाजें, शहीद साज, रामखेलावन, खुदा की कसम, सहाय, मोजेल, गुरमुख सिंह की वसीयत, शरीफन, सियाह हाशिए, मूतरी, दो गड्ढे जैसी मंटो की ढेरों ऐसी कहानियाँ हैं, जिनमें विभाजन की भयावह तस्वीर स्पष्ट नज़र आती है। त्रासदीपूर्ण विभाजन के समय महिलाओं की दलाली, वेश्यावृत्ति और यौन हिंसा एक आम बात हो चली थी, जिस पर मंटो को बहुत क्रोध आता था। ऐसे विषयों पर मंटो ने बेबाकाना अंदाज में लिखा तो, लोगों के कोपभाजन भी बने। मंटो ने देश के बटवारे के समय अपनी पत्नी की ज़िद पर पाकिस्तान चले जाने की टीस को अपनी कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ में बड़ी शिद्दत से बयान किया है। टोबा टेक सिंह का पात्र टोबा टेक सिंह उस गंगा-जमुनी तहज़ीब का प्रतीक है जो विभाजन के कारण छिन्न-भिन्न हो गई। कहानी का मुख्य पात्र पागल सिक्ख हिंदुस्तान और पाकिस्तान के विभाजन को एक अप्राकृतिक बँटवारा मानता है। वह पागल जिसने विभाजन को स्वीकार नहीं किया और जब किया भी तो अपने जीवन का मूल्य चुकाकर। ‘नो मैन्स लैंड’ में उस पागल सिक्ख की मृत्यू प्रतीकात्मक रूप से यही दर्शाती है। ‘टिटवाल का कुत्ता’ कहानी का कुत्ता वह आम आदमी है जिसे हर हालत में मरना ही है। उक्त दोनों कहानियों के पात्रों के विषय में नीलाभ ने लिखा है, ‘‘मंटो की नज़र में बिसन सिंह (पागल सिक्ख) और उस कुत्ते में कोई फर्क़ नहीं है जो टिटवाल के मोर्चे पर हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी सेना के वहशीपन का शिकार होता है। बिशन सिंह और टिटवाल का कुत्ता- दोनों उस जनता के प्रतीक हैं जिसने अर्थहीन राजनीति की वजह से तक़लीफ सही और कुर्बान हुए।’’
मंटो की एक बड़ी विशेषता यह कही जा सकती है कि उसने न्यायप्रियता, सन्तुलन और निष्पक्षता के नाम पर अपनी सोच, अपने मानव प्रेम और अन्तःपीड़ा की अभिव्यक्ति के लिए किसी प्रकार की भावुकता का सहारा नहीं लिया। उसने एक पूरे युग की त्रासदी को आँखे झुकाए बिना इस प्रकार देखने-दिखाने का प्रयास किया कि अपनी बेबाक़ी के कारण वह सच का एक मिथक बन गया है। उसकी वे कहानियाँ जो उसने पाकिस्तान जाने के बाद लिखी उसके असाम्प्रदायिक दृष्टिकोण की साक्षी हैं। ‘यजीद’ कहानी में उसका यह विश्वास प्रकट होता है कि विभाजन के बावजूद भी दोनों देशों की साझी सांस्कृतिक विरासत अभिन्न और अविच्छिन बनी रहेगी। कहानी प्रकट करती है कि विभाजन के कारण दोनों ओर की जनता ऊपरी तौर पर दो भागों में बंटकर भी मूल रूप से एक ही है। इस कहानी के कारण धार्मिक कट्टरवादियों के विरोध का सामना भी मंटो को करना पड़ा था। नीलाभ के अनुसार, ‘‘इस कहानी को पढ़कर मुझे यह एहसास हुआ कि बँटवारे की तलख़ हक़ीकत को अन्ततः तसलीम (स्वीकार) करने के बाद भी मंटो की यह दिली ख़्वाहिश थी कि मुल्क एक हो जाए और लोग फिर उसी तरह सहअस्तित्व की स्थिति में आ जाएँ।’’
विभाजन के समय और बाद में फैले दंगो के कारण उपजी विद्रूपताओं और मार-काट को मंटो ने अपनी कहानियों में जिस समग्रता से प्रस्तुत किया है, वह उसकी पैनी दृष्टि का परिणाम है। दो अलग-अलग आस्थाओं और विश्वासों को मानने वाली हिन्दू-मुस्लिम कौमों ने स्वतन्त्रता के 24 घंटे बाद ही प्रकट कर दिया कि हैवानियत और कत्लो-गारत के मामले में दोनों एक जैसी हैं। दुखित-पीड़ित लोगों की पीड़ा, दर्द, आह को मंटो ने उन्ही की अनुभूति के साथ सहा। ठंडा गोश्त और खोल दो कहानियों को लेकर मंटो को भले ही गलत कहा गया हो, लेकिन दोनों कहानियों में दंगो की भयावहता के साथ ही समाज और मानवता को शर्मशार करने वाली जिन स्थितियों को प्रस्तुत किया गया है, वे यथार्थ का सटीक दस्तावेज हैं।
एक आलोचक ने ‘ठंडा गोश्त’ पर टिप्पणी करते हुए लिखा था कि कहानी यह दर्शाती है कि इन सिक्खों ने मुसलमानों की मुर्दा लड़कियों को भी नहीं छोड़ा। दंगो के समय स्त्रियों का कितना शारीरिक और मानसिक शोषण किया गया ‘खोल दो’ कहानी यही दर्शाती है। रामखेलावन, मोजेल और सहाय कहानियों में दंगो के समय लोगों की विकृत मानसिकता और मानवीय पक्ष की पड़ताल की गई है। नंगी आवाजें में विभाजन और दंगो की क्रूर परिणति के रूप में शरणार्थी शिविर के जीवन और बदतर मनःस्थिति को प्रकट किया गया है। कहानी के पात्र भोलू के माध्यम से मंटो ने आम आदमी की विवशता और पागल हो जाने के कारणों को बड़े ही मार्मिक तरीके से प्रस्तुत किया है। कहानी में मंटो ने पाकिस्तान में शरणार्थियों की एक छोटी सी कालोनी का चित्र खींचा है। कैसे मजबूरी में आदमी पशुओं के स्तर पर जीने लगता है और परिस्थितियों को स्वीकार कर लेता है। और जो स्वीकार नहीं कर पाता वह भोलू के समान पागल हो जाता है।
मंटो ऐसे लोगों में से था, जिन्हें विभाजन के समय इधर से उधर और उधर से इधर आना-जाना पड़ा था। इसलिए विभाजन उसके लिए एक घटना नहीं बल्कि एक अन्दरूनी हादसा सिद्ध हुआ, जिसने उसके मन-मस्तिष्क को बुरी तरह विखंडित कर दिया। सन् सैतालीस के विभाजन के समय भड़के दंगों की समस्या मंटो के लिए एक मानवीय समस्या थी। दंगो से लाभ उठाने वाले लोगों की मानसिकता, सब कुछ गंवा चुके लोगों की पीड़ा, शरणार्थियों की समस्या आदि का मंटो ने बड़ा ही सहज स्वाभाविक वर्णन किया है। भारत विभाजन पर यशपाल, कमलेश्वर, बलवंत सिंह, भीष्म साहनी, खुशवन्त सिंह, फैज़ अहमद फैज़, जोश मलिहाबादी जैसे और बहुत से साहित्यकारों ने लिखा है। लेकिन मंटो का लेखन भारत विभाजन पर लिखने वाले सभी साहित्यकारों से भिन्न श्रेणी का है। उसके लेखन में व्यंग्य, कटाक्ष, आवेग, त्याग, मार्मिकता, सहानुभूति, मानवीयता आदि सब कुछ है। ‘शहीद साज’ मंटो की ऐसी कहानी है जिसमें व्यवस्था से सताए गए लोगों पर व्यंग्य किया गया है। कठियावाड़ गुजरात का एक बनिया मुसलमान जो कोकीन का व्यापार करता था, बंटवारे के बाद पाकिस्तान चला जाता है और मकान एलॉट कराने का धन्धा आरम्भ कर देता है, जिसमें उसे अत्यधिक लाभ होता है। लेकिन तभी उसे दिल पर कुछ भार अनुभव होता है और अन्ततः वह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि यह सब दिल की गड़बड़ है, क्योंकि उसने कोई अच्छा नेक काम नहीं किया। नेक कार्य की खोज करते-करते वह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि लोग अगर शहीद हो जाए तो कितना अच्छा हो। इस प्रकार वह शहीद बनने का कार्य आरम्भ कर देता है। पूरी कहानी मंटो की टेढ़ी नज़र का प्रमाण है जो बड़ी बारीकी से समाज के रंगो-रेशे की छानबीन करता था। कहानी जिस व्यंग्य भरे अंदाज में लिखी गई है, वह शहीद साज की ओर से उसे एक अविस्मरणीय कहानी बना देता है।
हिन्दू-मुसलमान दंगो और हिंदुस्तान-पाकिस्तान विभाजन को लेकर मंटो ने जो कहानियाँ लिखी वे अत्यधिक तीखी हैं। टोबा टेक सिंह, गुरमुख सिंह की वसीयत, खोल दो, शरीफन, खुदा की क़सम आदि कहानियाँ पढ़कर लगता है कि विभाजन मंटो के जीवन में कैसे हादसे के रूप में टूटा था। शरीफन, खुदा की कसम और खोल दो कहानियाँ तो एक जीता जागता दुःस्वप्न सा प्रतीत होती हैं। शरीफन को पढ़कर लगता है कि मंटो जो दो लड़कियों का बाप था, दंगों के समय किस तकलीफ़ से गुज़रा होगा। एक आम आदमी जब निजी हादसे का शिकार होता है तो किस तरह सोच-समझ को भुलाकर दरिंदगी पर उतर आता है और इसीलिए कहानी के अन्त में कासिम के प्रति गुस्सा नहीं आता, बल्कि उसकी अपार दयनीयता और विवशता के प्रति दुख और दया ही उपजती है। यही कहानी यदि एक साम्प्रदायिक लेखक के हाथों लिखी जाती तो लोगों के जज़्बातों को भड़का सकती थी लेकिन मंटो के हाथ से निकलकर बिलकुल उल्टा असर डालती है। वह पाठकों को दहशत की ऐसी सर्द हालत में छोड़ जाती है कि वे संजीदा होकर इस सारी स्थिति पर ग़ौर करने के लिए मजबूर हो उठते हैं। दंगों को आधार बनाकर लिखी गई सियाह हाशिये की छोटी-छोटी घटनाओं में बहुत गहरे सवाल उठाए गए हैं। उन घटनाओं को पढ़कर कई बार दंगई परिस्थितयों पर कुढ़न सी होने लगती है।
मंटो भले ही पाकिस्तान में रहा हो पर वह विभाजन की परिस्थितियों से निढाल हो गया था। उसके विषय में नीलाभ ने लिखा है, ‘‘पाकिस्तान जाने का फैंसला हमारे देश के दो अन्य साहित्यकारों- फैज़ अहमद फैज़ और जोश मलीहाबादी ने भी किया था। लेकिन इन दोनों साहित्यकारों का राजनीतिक चेहरा भी था। जबकि मंटो (जिसका व्यक्तिगत कतई तौर पर राजीतिक नहीं, वह एक आज़ाद लेखक का था) यजी़द, टिटवाल का कुत्ता, दो गड्ढे और नंगी आवाजें जैसी कहानियाँ लिखकर पाकिस्तान के हालात के खिलाफ अपनी असहमति निहायत बुलन्द आवाज़ में जाहिर करता रहा और एक आज़ाद लेखक की नियति- पागलखाना और मुफ्लिसी भोगता हुआ मर गया।’’
मंटो का साहित्य और यथार्थवाद :- आज साहित्य में यथार्थवाद शब्द का प्रयोग नए सिरे से होने लगा है। यह शब्द अंग्रेजी के ‘रियलिज़्म’ (Realism) शब्द का हिन्दी रूपान्तर है, जिसका अभिप्राय है- वास्तविक या ज्यों का त्यों। यथार्थवाद का मूल सिद्धान्त है, वस्तु को उसके यथार्थ रूप में चित्रित करना। अतः यथार्थवादी विचारधारा के समर्थक कला, समाज, साहित्य, जीवन आदि को ज्यों का त्यों, जैसा वह है, उसी रूप में देखने के पक्षधर हैं। ये केवल इंद्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान को ही सत्य मानते हैं अर्थात् जो कुछ आँखो के सामने दिखाई दे रहा है, वही सत्य है। यही कारण है कि यथार्थवादियों को पारलौकिकता में विश्वास न के बराबर रहा है।
हिन्दी-उर्दू कथा-साहित्य में यथार्थवाद को लाने का श्रेय प्रेमचंद को दिया जाता रहा है। वैसे उनसे पूर्व इस क्षेत्र में छिट-पुट कार्य हो चुका था, लेकिन प्रेमचंद ने मनुष्य-जीवन की यथार्थ समस्याओं का स्पर्श करने वाली कहानियों की रचना की। उपन्यासों में आदर्श के साथ यथार्थ का सुन्दर मिश्रण किया। आरम्भ में प्रेमचंद का झुकाव आदर्शवाद की ओर अधिक था, लेकिन जीवन के अन्मिम पड़ाव तक आते-आते उनका झुकाव यथार्थवाद की ओर हो गया था। कोरे आदर्शवादी पात्र पाठकों को प्रभावित करने में अधिक सफल नहीं हुए तो अन्य लेखकों ने भी यथार्थवादी पात्रों की अवतारणा आरम्भ कर दी। इसलिए आदर्शवाद और यथार्थवाद को लेकर लम्बे समय तक विवाद भी रहा।
मंटो के साहित्य का अवलोकन करने पर पता चलता है वह पूर्णतः यथार्थवादी कलाकार है। वह खुली आँखों से यथार्थ को देखने का आदी था। उसने अपने आनुभाविक तथ्यों को छिपाया नहीं इसलिए उसके साहित्य में अपने समय का सच आज भी सुरक्षित है। उसने नए लेखकों को यह सिखाया कि हीन, नीच, पतित, तुच्छ, समझे जाने वाले लोगों के जीवन से कहानी के लिए कच्चा माल किस प्रकार इकट्ठा किया जा सकता है। आत्मकथा को कहानी का रूप किस प्रकार दिया जा सकता। यथार्थ घटना को कहानी के रूप में किस प्रकार ढाला जा सकता है। प्रायः समाचार पत्रों में भी वह घृणित लोगों के जीवन की मार्मिक घटनाएं ही खोजता था। समाज को जैसा देखता रहा वैसा ही व्यक्त करता रहा। इसलिए उसकी कहानियों में यथार्थ और कहानी का भेद बहुत दूर तक मिटा हुआ प्रतीत होता है। अपनी ‘एक खत’ कहानी में वह गर्व के साथ कहता है, ‘‘बाज लोग ऐसे हैं जो अपने महसूसात (अनुभव) को दूसरों की ज़बान में बयान करके अपना सीना खाली करना चाहते हैं।..... मुझे यह कितना बड़ा इत्मीनान है कि मैं जो कुछ महसूस करता हूँ, अपनी ज़बान से बयान कर लेता हूँ।’’ एक अन्य स्थान पर भी उसने उद्घोषणा की है, ‘‘मैं जो कुछ देखता हूँ, जिस नज़र और जिस जाविए (दृष्टिकोण) से देखता हूँ, वही नज़र, वही ज़विया मैं दूसरों के सामने पेश कर देता हूँ। अगर तमाम लिखने वाले पागल थे तो आप मेरा शुमार भी उन पागलों में कर सकते हैं।’’ मंटो ने यथार्थ को अनेक रूपों में देखा-दिखाया, इसलिए अपनी कहानियों में वह अपने पूरे वजूद के साथ उपस्थित रहता है। एक खत, सहाय, शिकारी औरतें, बाबू गोपीनाथ, मम्मद भाई, जैसी ढेरों ऐसी कहानियाँ है, जिनमें मंटो ने अपनी आत्मकथा को कहानी के प्रारूप में सुन्दर ढंग से पिरोया है। एक खत और सहाय में उसकी आत्मपीड़ा स्पष्ट दिखाई देती है।
उसने घृणित पात्रों के यथार्थ जीवन को उजागर करके एक सुधारक का कार्य किया। मुंबई में व्यतीत किए गए सात-आठ वर्ष मंटो के साहित्यिक जीवन के अत्यधिक महत्वपूर्ण वर्ष माने जाते हैं। वह समय ऐसा था कि साहित्य में तनिक-सी रूचि रखने वाला व्यक्ति भी मंटो को जानता था। ‘मैं चलाता फिरता मुंबई हूँ’ वाक्य लिखने वाला मंटो स्वयं को मुंबई का दर्पण समझता था। उसने वहाँ के समाज, सोसायटी, वेश्या जीवन, दलाल, गुंडो आदि को जैसा देखा-परखा वैसा ही अपने साहित्य में व्यक्त किया।
यथार्थवादी लेखक की कुछ विशेषताओं का उल्लेख करते हुए, हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा था, ‘‘यथार्थवादी लेखक घटना की सच्चाई का वातावरण उपस्थित करने के लिए चिट्ठियों, सनदों और अन्य प्रामाणिक समझी जाने योग्य बातों को उपस्थित करता है।’’ लेकिन मंटो जैसे लेखक को यथार्थ को उजागर करने के लिए किसी भी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है क्योंकि उसकी अधिकांश कहानियों के विषय स्त्री-पुरूष के यौन संबंध है। भावुक दिलों में अंगड़ाई लेने वाले ज़ज़बात और स्त्री-पुरूष के यौन संबंध प्रत्येक युग की वास्तविक सच्चाई है। हजारों वर्ष पूर्व भी मनुष्य को कामवासना ग्रस्त करती थी, अब भी करती है और आगे भी करती रहेगी। यौन संबंधो पर खुली कहानियाँ लिखने के कारण मंटो पर भले ही अश्लीलता के आरोप लगे हों, पर बाद में वे कहानियाँ विश्वप्रसिद्ध हुई। मंटो की यह निजी विशेषता है कि वह स्त्री-पुरूष के यौन संबंधो का चित्रण करते हुए भी उसे अश्लील नहीं होने देता। अन्य अनुभूतियों के समान ही वह सेक्स को भी एक स्वाभाविक प्रक्रिया मानकर उसका चित्रण करता है।
स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय की राजनीतिक उठा-पटक, फिर आजादी, तत्पश्चात विभाजन की विभिषीका और विभाजन के समय भड़के साम्प्रदायिक दंगो के ऊपर मंटो ने जो कहानियाँ लिखी, उनमें मंटो का यथार्थवाद शिखर पर है। ‘नया कानून’ में मंटो ने ऐसे लोगों पर व्यंग्य किया है जो यह समझते थे कि आजादी के बाद सारी स्थितियाँ आप से आप बदल जाएंगी, जबकि हुआ ठीक इसके विपरीत। आम आदमी की समस्त आशाएं धूल में मिल गयी। लोकतन्त्र पर राजनीति हावी हो गई। महात्मा गाँधी जैसे युग पुरूष की अनदेखी कर नेताओ ने विभाजन स्वीकार कर लिया। विभाजन से मंटो भी अत्यधिक आहत हुआ। मंटो की वे कहानियाँ जो उसने भारत विभाजन की त्रासदी पर लिखी साहित्यिक यथार्थ का श्रेष्ठ उदाहरण कही जा सकती हैं। विभाजन के समय और बाद में भड़के दंगो के समय लोगों की मानसिकता, साम्प्रदायिकता और पशुओं से बदतर स्थिति का यथार्थ चित्रण मंटो ने अपनी कहानियों में किया है। उन कहानियों की बेलाग स्पष्टता पाठकों को झकझोर डालती है। वह अपनी हर कहानी में यथार्थ का बोध एक नई सतह पर करता है- उसी तरह जैसे एक सिद्धहस्त कैमरामैन अलग-अलग तस्वीरों में एक ही दृश्य को एक-दूसरे से भिन्न रंगो और प्रतिछायाओं के साथ एक नए यथार्थ का दर्जा देता है। विभाजन के ऊपर लिखी गई कहानियों में तो यथार्थ अक्षरदेह के रूप में नज़र आता है। कहानियाँ पढ़ते समय विभाजन के समय मची मारकाट का चलचित्र-सा आँखों के सामने चलने लगता है।
समाज और व्यक्ति के खरे चित्र प्रस्तुत करने वाली कहानियों में मंत्र, टूटू, मैडम डीकास्टा, मम्मी, प्रगतिशील, मोजेल, खुशिया, बाबू गोपीनाथ आदि का नाम लिया जा सकता है। कहानियों की रचना करते समय मंटो ने किसी पर भी न सहानुभूति दिखाई और न क्रोध किया। न किसी को अच्छा कहा और न निंदा की। सामाजिक व्यवस्था जैसी थी उसे वैसा ही दर्शाया। वह वेश्याओं और दलालों से उसी अनुभूति के साथ मिला जिससे उनके ग्राहक उनसे मिलते थे। इसीलिए उनसे संबंधित कहानियों में हक़ीकत सिमटी नज़र आती है। उसकी नज़र एक्सरे वाली थी। वह जिस किसी को भी देखता, बहुत गहरी निग़ाह से देखता था।
मंटो अपनी असल ज़िदगी में भी बड़ा बेबाक रहा। उसने लोगों से जो कुछ कहा, बिना किसी लाग-लपेट के मुँह पर ही कहा। किसी को अच्छा लगा या बुरा उसने परवाह नहीं की। उसने डायरेक्टर के. आसिफ से, केवल फिल्म की कहानी सुनने की पाँच सौ रूपये (पेशगी) फीस लेकर भी उनकी कहानी को दो कौड़ी का बताया था। वह अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से भी कभी नहीं डरा, परिणाम भले ही कुछ भी निकला हो। इसी निड़रता ने उसे वेश्याओं, दलालों, भड़वों आदि की नरकीय ज़िंदगी से अवगत कराया। उसे पूर्ण विश्वास था कि बुरे लोगों में भी कोई न कोई अच्छाई छिपी रहती है इसीलिए मम्मद भाई, दूदा पहलवान, महमूदा आदि कहानियों के निम्न पात्रों में भी उसने उन अच्छाईयों को खोज लिया जो स्वयं को सभ्य समझने वाले लोगों में भी मिलना कठिन है।
मंटो में रचनात्मक साहस बहुत अधिक था इसलिए अपनी कहानियों के माध्यम से उसने समाज और व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन के उस नंगे सच को लोगों के सामने खड़ा कर दिया, जिससे मुँह चुराना कठिन था। मंटो सच्चाईयों को उघाड़ने और उन पर बोलने से कभी रुका नहीं। वह सामाजिक व्यवस्था पर तीक्ष्ण तरीके से अपनी लेखनी के माध्यम से व्यंग्यात्मक प्रहार करता रहा। उसके साहित्य में उस वास्तविक यथार्थ की झलक है जिसे आज भी झुठला पाना कठिन है।
मंटो, तरक़्क़ीपसन्द कथाकार के रूप में :- मंटो साहित्यिक आन्दोलनों और विचार गोष्ठियों में गर्म जोशी के साथ हिस्सा लेता था। तत्कालीन आन्दोलनों को उसने समीप से जाना-पहचाना था। सज्जाद जहीर, अहमद अली और उन जैसे युवा लेखकों ने जब प्रगतिशील आन्दोलन को मुंबई में स्थापित करने के प्रयत्न किए तो मंटो ने उनका साथ दिया था। इसके अलावा प्रगतिशील विचारों की वाहक पत्रिका के लिए उसने ‘नया अदब’ नाम सुझाया, जो सरदार जाफरी की रहनुमाई में उर्दू के प्रगतिशील लेखन का सशक्त माध्यम बनी। उस समय तक मंटो प्रगतिशीलों का प्रिय लेखक था। लेकिन सन् 1950 में प्रगतिशीलों ने उस पर अप्रगतिशील और अश्लील लेखक का देाषारोपण करते हुए उसकी कोई भी रचना किसी भी पत्र-पत्रिका में न प्रकाशित करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इसके लिए बाक़ायदा सरक्यूलर जारी हुआ। मंटो के लिए सबसे दुःखदायी बात यह थी कि उसका ज़िगरी दोस्त अहमद नसीम क़ासमी उसके खिलाफ़ चलने वाली मुहिम का जनरल सेक्रेटरी था। पहले प्रगतिशीलों ने मंटो की कहानियों की उछल-उछल कर प्रशंसाएं की फिर एकाएक अश्लील कहकर आलोचना आरम्भ कर दी। लेकिन मंटो हमेशा स्वयं को तरक्कीपसन्द कहानीकार मानता रहा और इसी तथ्य को ध्यान में रखकर उसने कहानियाँ लिखी। बारीकी से देखा जाए तो वह उस समय के प्रगतिशीलों से कहीं अधिक प्रगतिशील था। इसीलिए उस समय के प्रगतिशीलों द्वारा, मंटो को सहन करना कठिन हो गया था। उसका लेखन मात्र बीस-बाईस वर्ष का रहा, पर इतने छोटे अन्तराल में उसने इतना धारदार और तीखा लिखा कि उसका नाम आज भी बुलन्दियों पर है। उसकी कहानियों को पढ़कर पाठक या तो पसन्द करते हैं या फिर सिरे से नकारते हैं। तरक़्क़ीपसन्दों ने उसकी कहानियों की कभी उछल-उछल कर प्रशंसाएं की तो कभी सिरे से नकार दिया। मंटो की दोस्त और उनकी समसामयिक लेखिका इस्मत चुगताई ने अपनी आत्मकथा, ‘काग़जी है पैरहन’ में लिखा है, ‘‘मैं खुशकिस्मत हूँ कि जीते जी मुझे समझने वाले पैदा हो गए। मंटो को तो पागल बना दिया गया। तरक़्क़ीपसन्दों ने उसका साथ नहीं दिया। मुझे तरक़्कीपसन्दों ने ठुकराया नहीं, न ही सर पर चढ़ाया। मंटो ख़ाक में मिल गया क्योंकि पाकिस्तान में वह कंगाल था।’’
तत्कालीन समाज में फैली रूढ़ियों, साम्प्रदायिकता, वेश्यावृत्ति और भ्रष्टाचार आदि पर मंटो ने तीखे व्यंग्य बाणों से प्रहार किया। इसलिए उस समय के सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक माहौल के लिए मंटो को सहन करना कठिन हो गया था। उसने अपने प्रत्येक पात्र की खुशी, ग़म, बेचैनी, ईमानदारी, बेइमानी, अहम्, खुद्दारी, मान-अपमान को उसके साथ ही अपनी अनुभूति में देखा-परखा और सहा। प्रगतिशील उसे पढ़कर कुढ़ते रहे, झल्लाते रहे पर कभी नज़र अन्दाज भी नहीं कर सके। राजेन्द्र घोपड़कर ने कितना ठीक लिखा है, ‘‘मंटो को बर्दाश्त करना उनके जीते जी, बहुत आसान नहीं था। वह किसी दायरे में अंटते ही नहीं थे। तरक़्क़ीपसन्द कभी यह नहीं समझ पाए कि मंटो का क्या करे, ग़ैर तरक़्क़ीपसन्दों के लिए वह एक मुसीबत ही थे, जो तोड़-फोड़ करते चलते थे। न वह हुक्मरानों के प्रिय हो सके थे और न हुक्मरानों की मुखालफत करने वालों के अनुशासन में आ सके थे।’’
मंटो की प्रगतिशीलता को लेकर भले ही बड़ा विवाद रहा हो। लेकिन उन्हें अपने प्रगतिशील होने का पूर्ण विश्वास था। मंटो मानते थे कि वे जो कुछ लिख रहे हैं, वह प्रगतिशीलता की दृष्टि से महान और उत्कृष्ट है। आलोचक उन्हें आज नहीं तो कल अवश्य पहचानेंगे। इसलिए उन्होंने स्वयं के विषय में लिखा है, ‘‘कहा जाता है कि सआदत हसन मंटो तरक़्क़ीपसन्द इन्सान है। हर इन्सान को तरक़्क़ीपसन्द होना चाहिए। तरक़्क़ीपसन्द कहकर लोग मेरी सिफ़त (विशेषता) बयान नहीं करते बल्कि अपनी बुराई का सुबूत देते हैं, जिसका मतलब यह है कि वो खुद तरक़्क़ीपसन्द नहीं। यानि वो खुद तरक़्क़ी नहीं चाहते- मैं ज़िदंगी के हर सोबे में तरक़्क़ी का ख्वाहिशमन्द (इच्छा रखने वाला) हूँ।’’
मंटो की आरम्भ से ही यह विशेषता रही है कि उसने प्रेम और सौन्दर्य पर न लिखकर, जिंदगी के उस नंगे सच को उजागर किया जिससे मुँह चुराना कठिन था। उसने जीवन की जिन सच्चाईयों को अपने अफसानों में ढालकर प्रस्तुत किया है, वे बहुत कड़वाहट लिए हुए हैं। ऐसी कड़वाहट, जो समाज का दर्पण होते हुए भी, समाज उसे गले नहीं उतार पाया। स्त्री-पुरूष के अश्लील समझे जाने वाले संबंधों पर मंटो ने बड़ी बेबाकी से लिखा। ऐसी कहानियाँ लिखने के कारण उसे अश्लील लेखक करार दिया गया। लेकिन वह समय ही ऐसा था, जबकि इस प्रकार की विषयवस्तु वाली सामग्री को प्रगतिशील समझा जाता था। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ कहते हैं, ‘‘उन दिनों अश्लील चीजें लिखने वालों को प्रगतिशील समझा जाता था। अहमदअली, इस्मत और मंटो उस शैली के अगुवा थे। उस समय प्रगतिशील लेखकों का रूझान नग्नता को चित्रित करने की ओर अधिक था और इनके मध्यवर्गीय पात्र, पढ़े-लिखे युवक घटिया श्रेणी की वेश्याओं के चौबारों पर अपनी कुण्ठा को मिटाते घूमते थे।’’
मंटो का यौन प्रवृत्तियों पर लिखने का सम्भवतः एक और भी प्रमुख कारण हो सकता है- वो है उसका विरोधी स्वभाव। वह विरोधी प्रवृत्ति वाला व्यक्ति था, लोग उसके जिस कार्य की निंदा करते थे, प्रतिक्रिया स्वरूप वह वही करता था। जब उसने हतक और खुशिया कहानियाँ लिखी और एक-दो पत्र-पत्रिकाओं ने उसे गालियाँ दी थी तो, उन्हें चिढ़ाने के लिए उसने फिर धड़ाधड़ वैसी ही कहानियाँ लिखी थी। उस समय अश्लील चीजें लिखने वालों को आलोचक अच्छी दृष्टि से नहीं देखते थे। साहित्य के लिए यह विषय वर्जित ही माना जाता था। अतः मंटो की विरोधी प्रवृत्ति ने उसे इस ओर प्रवृत्त किए रखा हो।
रूढ़ियों और परम्पराओं का कट्टरता के साथ विरोध करना, असामाजिकता या असमानता पर व्यंग्य करना, शोषकों के प्रति आक्रोष और शोषितों से सहानुभूति प्रगतिवादियों के मुख्य नारे रहे हैं। प्रगतिशील कथाकार समाज के जिस भी कोने में बुराई देखता है, उसी पर तीखा प्रहार करता है। मंटो ने भी साम्प्रदायिकता और फिरकेवाना प्रवृत्ति से ऊपर उठकर, राजनीति, साम्प्रदायिक झूठ, फरेब, स्वार्थ, भ्रष्टाचार, शोषण आदि पर पूरे जोर से प्रहार किया। इसलिए वह प्रगतिशीलों के समूह में कहीं अधिक प्रगतिशील दिखाई देता है। उसकी एक कहानी का शीर्षक ‘तरक़्क़ीपसन्द’ (प्रगतिशील) है। यह प्रसिद्ध उर्दू कहानीकार राजेन्द्र सिंह बेदी के जीवन से संबंधित एक सुन्दर लतीफा (चुटकुला) था, जिसे उसने कहानी का रूप दे दिया। उसकी बाबू गोपीनाथ, मेरा नाम राधा, खोल दो, नया कानून, हतक, स्वराज्य के लिए, नंगी आवाजें, काली सलवार, नारा आदि कहानियाँ प्रगतिशीलता की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण समझी गई। इन्होंने उसे उस समय का श्रेष्ठ प्रगतीशील कहानीकार बना दिया था।
बाबू गोपीनाथ में मंटो की अपार मानवीयता का स्पर्श मिलता है। यह कहानी सर्वप्रथम मुंबई से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘अदबे-लतीफ’ में प्रकाशित हुई थी। सभी प्रगतिशीलों ने इसकी बड़ी प्रशंसा की थी। मेरा नाम राधा की भी सभी प्रगतिशीलों ने उछल-उछल कर प्रशंसाएं की थी, लेकिन बाद में वे इसके महत्व से विमुख हो गए और इसकी आलोचना आरम्भ कर दी। खोल दो कहानी भले ही प्रतिबंधित रही हो, लेकिन प्रगतिशीलों ने इसे बहुत सराहा। विभाजन की विभिषिका बयान करने वाली यह कहानी, शोषक वर्ग पर सीधा कटाक्ष करती है। कहानी के विषय में निर्मल गुप्त ने लिखा है, ‘‘खोल दो कहानी में उसने (मंटो ने) साफ-साफ लिखा है कि शोषक सिर्फ शोषक होता है, उसका कोई मजहब नहीं होता है। पूरी दुनिया में केवल दो ही वर्ग हैं, एक शोषक और दूसरा शोषित।’’ इस कहानी में मंटो ने शोषक और शोषित दोनों वर्गो को अपनी तुला पर तोला है। ‘नया कानून’ मंटो की एक युग-प्रवर्तनकारी कहानी मानी जाती है। इसे मंटो ने अपनी दस प्रिय कहानियों में से दूसरे स्थान पर रखा है। इस कहानी में उस व्यवस्था का विरोध किया गया है जो दलितों और पतितों को और अधिक दबाती है। कहानी का सबसे बड़ा आकर्षण इसका पात्र मंगू कोचवान है। मंटो ने उसके माध्यम से जो-जो बातें कही हैं, वे सीधी तत्कालीन कानूनी व्यवस्था पर कटाक्ष करती हैं। इसमें एक अनपढ़ तांगेवाले का अद्भुत हास्य-व्यंग्य और दर्द भरा चित्रण मंटो ने किया है। जनता के एक ऐसे प्रतिनिधि का जो समझता था कि क़ानून के बदल जाने से स्थितियाँ भी बदल जाएंगी। मंगू कोचवान को देखकर उन हजारों-लाखों सुराजियों की याद हो आती है जो यह समझते थे कि आजादी के बाद सारी स्थितियाँ आप से आप बदल जाएंगी।
वेश्या जीवन पर लिखी कहानियों में प्रगतिशीलों को भले ही नग्नता और अश्लीलता दिखाई दी हो और उन्होंने उनका जबरदस्त विरोध किया हो। परन्तु सत्यता यह भी है कि उन कहानियों में मंटो का दलितों और शाषितों के प्रति प्रेम स्पष्ट झलकता है। यह प्रेम उसे रूसी साहित्य की विरासत से उस समय मिला था, जब उसने श्रेष्ठ रूसी कहानियों के अनुवाद किए थे। उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ कहते हैं, ‘‘गोर्की से उसने (मंटो ने) मानव प्रेम और पद-दलित लोगों के प्रति स्नेह और प्रगतिशील दृष्टिकोण लिया और मोपासाँ से तकनीक का कमाल। मंटो यदि जीवित रहेगा तो तकनीक के कमाल के कारण नहीं, बल्कि उस मानव-प्रेम के कारण जो उसकी कहानियों की नस-नस में रचा हुआ है। मिसाल के तौर पर मंटो की तीन कहानियाँ लें- हतक, स्वराज्य के लिए, और नंगी आवाजें। तीनों का दृष्टिकोण प्रगतिशील है, और तीनों में मंटो का असीम प्रेम निहित है।’’
मंटो की अधिकांश कहानियों का विषय स्त्री-पुरूष की यौन-प्रवृत्तियाँ हैं, परन्तु उन्होंने यौन-प्रवृत्तियों के अतिरिक्त भी, अन्य विषयों पर भी खूब लिखा है। ‘सियाह हाशिए’ मंटो का ऐसा संग्रह है, जिसमें छोटी-छोटी व्यंग्योक्तियों और लतीफों के माध्यम से, विभाजन के समय की विद्रूपता, साम्प्रदायिकता और भ्रष्टाचार आदि को निशाना बनाया गया है। उदाहरण देखिए,
‘‘आग लगी तो सारा मोहल्ला जल गया,
सिर्फ एक दुकान बच गयी,
जिसकी पेशानी पर यह बोर्ड लटका हुआ था,
यहाँ इमारत साजी का सभी समान मिलता है।’’
इस छोटी सी उक्ति में दंगो के समय की आगजनी का कितना व्यंग्यात्मक चित्रण है। मनुष्य की क्रूरता का एक और उदाहरण देखिए-
‘‘मेरी आँखो के सामने
मेरी ज़वान बेटी को न मारो ..........
चलो, इसी की मान लो .....................
कपड़े उताकर, हाँक दो एक तरफ .......’’
एक जवान बेटी को बेआबरू होता देख, एक बाप का पागल होकर, क़तलो-गारत पर उतर आना स्वाभाविक है। उपरोक्त प्रसंग और मंटो की एक प्रसिद्ध कहानी ‘शरीफन’ यही दर्शाती है।
मंटो, पेशेवर लेखक था, उसने कहानियों के अतिरिक्त भी खूब लिखा। लेकिन उसके लेखन की एक बड़ी विशेषता यह है कि लेखन को जीविका बनाते हुए और अपने लेखन के प्रति पूर्णतः ईमानदार और प्रतिबद्ध होते हुए भी वह परम्परागत अर्थ में लेखक नहीं बना। वह साहित्य को उसी आश्चर्य से देखता था जैसे दुनिया की अन्य वस्तुओं को। उसे स्वयं के प्रगतिशील होने का पूर्ण विश्वास था लेकिन प्रगतिशीलों ने उसे कभी नहीं अपनाया। उसकी पुस्तक ‘सियाह हाशिये’ को प्रगतिशीलों ने केवल इसलिए ठुकराया, क्योंकि इसकी भूमिका हसन असकरी ने लिखी थी, जिसे वे पहले ही अप्रगतिशील घोषित कर चुके थे। मंटो की प्रगतिशीलता के विषय में राजेन्द्र घोपड़कर ने लिखा है, ‘‘कोई भी हो, चाहे तरक़्क़ीपसन्द या ग़ैर तरक़्क़ीपसन्द उसे कंफर्म करने वाले चाहिए होते हैं, जो उसके साँचे में ढल जाए। मंटो हमेशा बाहरी आदमी बने रहे। लेकिन इसी ने उन्हें महान बनाया। मंटो ऐसे लेखक थे जो लेखक होकर भी उस दुनिया में रमे रहे, जिसके बारे में वह लिखते थे- ग़रीब लोग, वेश्याएं, फिल्मों में सफल होने की कोशिशें करती तवायफें वगैरह।’’
साहित्य का सच्चा इतिहास व्यक्ति नहीं समय लिखता है, अतः मंटो की कहानियाँ आज भी समय के सच को बयान कर रही हैं। उनकी प्रत्येक कहानी एक साहित्यिक घटना सिद्ध हुई। उनके प्रत्येक कहानी-संग्रह पर प्रगतिशीलों और अप्रगतिशीलों में बड़े विवाद हुए और बहसें हुई। लेकिन आज सभी आलोचक मंटो की प्रगतिशीलता को एक मत से स्वीकार कर चुके हैं और उनके साहित्य को प्रगतिशील-साहित्य का श्रेष्ठ उदाहरण।