shabd-logo

मंटो- एक परिचय

13 अगस्त 2022

46 बार देखा गया 46

 दो साहित्यकारों की जब आपस में तुलना की जाती है तो उनके जीवन के उतार-चढ़ाव, साहित्यिक अवदान, सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण, साहित्यिक विषयवस्तुगत विशेषताएं आदि को आधार बनाना ही उचित होता है। पूर्व में हमने ‘उग्र’ के जीवनवृत्त, साहित्यिक अवदान आदि को समझने का प्रयास किया था, आइये अब एक दृष्टि सआदत हसन मंटो पर भी डालते हैं।  

सआदत हसन मंटो के व्यक्तित्व का खाका उजागर करते हुए उनके दोस्त-दुश्मन उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ ने लिखा है, ‘‘लाँबा-तिरछा, चपटा, गोरा-गोरा, हाथ की पीठ पर नसें उभरी हुई, कंठ की घंटी बाहर निकली हुई, सूखी टाँगों पर बड़े-बड़े पाँव, लेकिन बेड़ोल नहीं, स्त्रैणता लिए हुए अजीब-सी नफ़ासत (विनम्रता), चेहरे पर झुँझलाहट, आवाज़ में बेचैनी, लिखने में व्याकुलता, व्यवहार में कटुता, चलने में तेजी।......मंटो को पहली बार देखकर मुझे ऐसा ही आभास हुआ था।” अपने विचारों में स्पष्टता लाते हुए और मंटो के व्यक्तित्व को और अधिक स्पष्ट करते हुए ‘अश्क’ जी आगे लिखते हैं, ‘‘मंटो के मस्तक का चौखटा उसके मष्तिष्क की तरह महान है और अजीबो-ग़रीब। उसके बाल, सीधे, लम्बे और घने हैं और आँखों में वहशी चमक है। उसकी बड़ी-बड़ी वहशतनाक आँखों का सोज़ और दर्द इस बात की गवाही देता है कि मंटो ज़िंदगी की मंजिल से बहुत आगे जाकर वापस आया है।’’ 

मंटो अपने दोस्तों में जितना प्रसिद्ध था उससे कहीं अधिक दुश्मनों में था। उसके दोस्तों और आलोचकों ने उसे न ज्ञात कितने उपनामों और बीभत्स उपाधियों से विभूषित किया है। यदि कोई उससे उलझता वह खरी-खरी सुना देता था। अपने जीवनकाल में ही उसे साहित्य का पुजारी मंटो, रुसी साहित्य का प्रेमी मंटो, कटुता और निराशा का शिकार मंटो, गुमनाम मंटो, बदनाम मंटो, अश्लील लेखक मंटो, तरक्की पसंद (प्रगतिशील) मंटो, मुहब्बत करने वाला मंटो, दोस्तों की मदद करने वाला मंटो, प्रतिक्रियावादी मंटो आदि-आदि अच्छी-बुरी, अर्द्धराजनीतिक, साहित्यिक-असाहित्यिक आदि उपाधियाँ समय-समय पर मिलती रही। लेकिन उनमें से न तो उसने किसी को अपनाया, न तरक किया और न ही परवाह की। अपने जीवन की तीन महत्वपूर्ण घटनाएं- पहला उसका जन्म, दूसरी उसकी शादी और तीसरा उसका कहानीकार बनना, मानने वाला यह कहानीकार अपनी राह चलता रहा। शायद उसे विश्वास था, ‘उसे पहचानने वाले कभी न कभी तो होगें।’ ऐसा विश्वास लिए, मंटो ने एक संघर्षपूर्ण जीवन जिया।  

मंटो ने जिन विषयों (जिन्हें तत्कालीन समय में अश्लील और विवादास्पद समझा गया था) और व्यक्तियों की जिंदगी पर लिखा, उन पर आज धड़ल्ले से लिखा जा रहा है। उनमें से कोई भी विषय और तथ्य न विवादास्पद समझा जाता है और न अश्लील। अपने जीवन की तीन महत्वपूर्ण घटनाएं मानने वाले इस कहानीकार की शायद चौथी महत्वपूर्ण घटना यही थी कि वह समय से पहले पैदा हुआ और समय से पहले मरकर हिसाब चुकता भी कर गया। क्योंकि यदि आज वह जिन्दा होता तो उसकी किसी भी कहानी पर अश्लीलता का आरोप न लगता। जिंदगी ने उसके साथ कभी वफा नहीं की और संघर्षपूर्ण जीवन जीते-जीते केवल आधी आयु (महज़ ब्यालीस वर्ष) बिताकर वह दुनिया को अलविदा कह गया। 

सआदत हसन मंटो का जन्म पंजाब प्रांत के समराला गाँव, जिला लुधियाना में 11 मई 1912 को हुआ था। मंटो, अपने पिता गुलाम हसन मंटों की अन्तिम संतान था। उसके पिता अंग्रेज सरकार में मुनसिफ थे, जो उग्र स्वभाव के और अत्यधिक कठोर होने के कारण केवल सरकारी ‘मेमो’ जैसी गुस्से की भाषा जानते थे। इससे अधिक जानकारी उनके विषय में नहीं मिलती, न मंटो ने उनके विषय में अधिक उल्लेख किया है और न कहीं और कुछ मिलता है। मंटो को अपने पिता के उग्र स्वभाव और गुस्से की भाषा का अधिक समय तक सामना नहीं करना पड़ा। क्योंकि जब वह केवल तेरह-चौदह वर्ष का था उसके पिता का देहान्त हो गया। मंटो की माँ सरदार बेगम से गुलाम हसन की दूसरी शादी हुई थी और यह शादी तब हुई थी जब गुलाम हसन की पहली बीवी जीवित थी और उसके तीन जवान बेटे भी थे। तीनों ही बेटे विदेश में पढ़ते थे और बाद में वहीं स्थायी नौकर हो गए थे। मंटो की अपने बड़े भाईयों से मिलने की बड़ी इच्छा थी। लेकिन ऐसा न हो सका, क्योंकि वह सौतेला जो था। मंटो चाहता था कि उसे भी वही प्यार मिले जो उसके भाईयो को मिला था, पर ऐसा कुछ हुआ नहीं। बचपन से ही उसके मन में कुंठा उत्पन्न हो गई थी, वह जीवन भर स्वयं को हीन और उपेक्षित समझता रहा। प्यार और स्नेह के लिए तरसता रहा। उसे अन्त तक यही लगता रहा कि जीवन में उसे नाक़ामयाबी के अलावा कुछ नहीं मिलना है। 

मंटो अपनी माँ को ‘बीबीजान’ कहता था। उसने बीबीजान के विषय में अनेक बार उल्लेख किया है। उसकी अचानक मृत्यु के समाचार से मंटो को ऐसा आघात लगा था कि वह बेहोश हो गया था। उसे अपने बड़े भाईयों से मिलने का अवसर भी उस समय नसीब हुआ था जब दुनिया उसे एक बड़ा कहानीकार मान चुकी थी। ‘अश्क’ के अनुसार, ‘‘मंटो का बड़ा भाई कीनिया में बैरिस्टर था और वहाँ की विधानसभा का सदस्य भी। शरई दाढ़ी और धर्म-भीरू, पारसा और नमाज़ी मुसलमान। मंटो वह सब कुछ है जो उसके बड़े भाई नहीं है। अर्थात् एकदम उनके विपरीत प्रवृति वाला।’’ मंटो के अनुसार, ‘‘उनके बड़े भाई अलहाज मुहम्मद हसन मंटो, बार एक्ट ला जजाइर फिजी में बैरिस्टर थे।’’ मंटो की एक बड़ी बहन थी, ‘इकबाल’ जो सदैव उसकी सहायक रही। 

मंटो के माता-पिता दोनों विरोधी स्वभाव के थे। यदि पिता क्रोधी और अधिकार भाव रखने वाले थे तो माँ अत्यन्त दयालु। दोनों के विरोधी स्वभाव ने मंटो को सदैव हानि पहुँचाई। क्योंकि जब उसको कड़क होना चाहिए था वह नरम हो जाता और जब नरम होना होता तब वह कड़क और जिद्दी बन जाता। बचपन में मंटो नटखट और बुद्धिमान था, ऐसा उसने स्वयं स्वीकारा है। लेकिन उसके शिक्षकों को उसमें बुद्धिमत्ता का कोई गुण दिखाई नहीं दिया। इसलिए वह स्कूल में कई बार फेल हुआ। 

मंटो का परिवार पीढ़ियों से पंजाब में रहता आया था, लेकिन मंटो के कथनानुसार उसके पूर्वज कश्मीरी थे। सन् 1919 में जब मंटो केवल सात वर्ष का था तब अमृतसर में जलियांवाला बाग का खूनी हत्याकांड घट चुका था। फिर भी अमृतसर के मुस्लिम स्कूल में उसकी पढ़ाई जारी थी। आज़ादी की लड़ाई जोर पकड़ने के कारण पंजाब के समान अमृतसर भी राजनीतिक हलचलों के दौर से गुजर रहा था। मंटो का बालमन आहत हुआ और वह जलियांवाला बाग़ में घटादार वृक्ष के नीचे बैठकर, क्रान्तिकारी होकर ब्रिटिश सलतनत को उखाड़ फेंकने के स्वप्न देखने लगा। कभी बम बनाने की योजनाएं बनाई। भगतसिंह को अपना आदर्श माना और अपने लिखने के कमरे में उसका फोटो रखा। 

परीक्षा में दो बार फेल होकर मंटो ने एन्ट्रेंस (मैट्रिक) का एग्ज़ाम थर्ड डिविजन में उत्तीर्ण किया। मजेदार बात यह थी कि वह दोनों बार उर्दू में ही फेल हुआ था। जिसका आगे चलकर वह एक बड़ा और महान लेखक बना। वैसे भी उसे जीवन भर उर्दू रास नहीं आयी, क्योंकि यदि वह किसी अन्य भाषा का लेखक होता तो शायद ही उसकी कहानियों पर इतना विवाद होता। जीवन के अन्तिम सात वर्षो में मंटो ने हमेशा पंजाबी में बात की। वह कहता था, ‘‘जब मैं उर्दू में बोलता हूँ तो लगता है, झूठ बोल रहा हूँ। उर्दू बोलने से मेरा जबड़ा दुखने लगता है।’’ 

स्कूली जिंदगी में ही वह बुरी प्रवृत्तियों में लिप्त हो गया था। मित्रों के साथ चरस भरी सिगरेट फूँकी, कोकीन खाई, शराब पीना आरम्भ कर दिया। स्कूल जाने वाली लड़कियों को ललचाई नज़रों से देखने लगा। अपने प्रेम जाल में उन्हें फंसाने के लिए इत्र लगे रंगीन काग़जों पर ख्याली प्रेम पत्र भी लिखे। फिर उन्हें बकवास समझकर फाड़ ड़ाला। कुछ दिन तक शेर-ओ-शायरी का भूत भी मन पर सवार रहा। क्रान्तिकारी बनने की लौ लगी तो, बम बनाने के तरीके सीखने लगा। 

सन् 1931 में मंटो ने हिन्दू सभा कालेज में एफ.ए. में प्रवेश लिया, लेकिन दो बार फेल होने के कारण मन पढ़ाई से उचाट हो गया। इसी समय जुएं की लत लग गई। आवारागर्दी बढ़ने लगी। हिन्दू सभा कालेज में ही उसकी दोस्ती एक बार फिर अपने मुस्लिम हाईस्कूल के दोस्त हसन अब्बास और अबू सईद कुरैशी से हो गई। इन दोनों के साथ वह सिनेमा स्टारों और भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियों के विषय में बातें करता था। वे सब सोचते थे कि क्रान्तिकारी बनने के कई लाभ हैं। क्योंकि यदि जेल हो गई तो देश के लिए बहुत बड़ी कुर्बानी होगी। रिहा होकर आयेंगे तो लोग हार पहनाएंगे और जुलूस निकालेंगे। बचपन में इन दोस्तों के साथ मिलकर मंटो ने एक ड्रामेटिक क़लब भी खोली थी और महान नाटककार आगा हश्र कश्मीरी का एक ड्रामा स्टेज करने का इरादा किया। लेकिन यह कलब पन्द्रह दिन ही क़ायम रही क्योंकि वालिद साहब ने धावा बोलकर हारमोनियम और तबले आदि तोड़फोड़ डाले थे। 

आवारगी के दिनों में मंटो और उसके दोस्तों की मुलाकात पत्रकार अब्दुल बारी आलिग से हो गई। बारी साहब दैनिक समाचार-पत्र ‘मसावात’ के एडिटर नियुक्त होकर लाहौर से अमृतसर आए थे। बारी साहब को मंटो ने बहुत पंसद किया और धीरे-धीरे मित्रता बढ़ने लगी। फलतः जो समय पहले जुआ खेलने, आवारागर्दी करने में कटता था अब वह ‘मसावात’ के दफ्तर में कटने लगा। कभी-कभी बारी साहब एक-आध ख़बर अनुवाद के लिए मंटो को देते, जो टूटी फूटी उर्दू में कर दिया करता था। धीरे-धीरे उसने फिल्मी ख़बरों का एक कालम संभाल लिया। बारी साहब ने मंटो को समसामयिक मुद्दों पर आलेख लिखने की सलाह दी लेकिन वे उससे लिखे नहीं गए। फिर उन्होंने फ्रांसीसी उपन्यासकार विक्टर ह्यूगो के ड्रामें ‘लास्ट डेज ऑफ द कंडेम्ड’ का अनुवाद करने की सलाह दी, जो मंटो की अलमारी से उन्हें मिला था। मंटो ने डिक्शनरी की सहायता से पन्द्रह दिन में ‘सरगुजश्त-ए-असीर’ के नाम से उसका अनुवाद कर दिया। बारी साहब ने उसकी गलतियों को दूर करके, किताब छपवाकर उर्दू बुक स्टाल लाहौर पर रखवा दी। जिसे आगा हश्र कश्मीरी ने खरीदकर पढ़ा था। उक्त ड्रामें का अनुवाद करते समय मंटो ने अनुभव किया था कि उसमें जो बातें लिखी हुई है वह दिल के बहुत क़रीब है। इसलिए जब मंटो की कहानियाँ पढ़ते हैं तो पता चलता है कि इस नाटक ने उसके रचनाकर्म को कितना प्रभावित किया था।    

इसके बाद बारी साहब ने मंटो को आस्कर वाइल्ड और विक्टर ह्यूगो को पढ़ने की सलाह दी। इसी समय मंटों ने अपने दोस्त हसन अब्बास के साथ मिलकर आस्कर वाइल्ड के जब्त शुदा ड्रामें ‘वीरा’ का अनुवाद किया। यह किताब ‘सनाई बर्की प्रेस’ में छपी। इससे मंटो को बहुत प्रसिद्धि मिली। अनुवादक के रूप में उनका नाम चमकने लगा। बारी साहब की सहायता से मंटो को उन्नीसवीं सदी का रूसी और फ्रांसीसी साहित्य समझने में बड़ी सहायता मिली। वे इन भाषाओं का अनुदित साहित्य उसे उपलब्ध कराते थे। वाल्टर, रूसो, कार्ल मार्क्स, लेनिन, चेखव और मोपासा जैसे महान लेखकों के साहित्य से मंटों का परिचय हुआ। रूसी साहित्य ने मंटो पर गहरा प्रभाव डाला। उसने अनेक रूसी कहानियों के अनुवाद किए जो ‘रूसी अफसाने’ के नाम से लाहौर से प्रकाशित हुए। मंटो ने रूसी और फ्रांसीसी भाषा की शैली को उर्दू में इतनी तीव्रता से उतारा कि लोग उसे इन भाषाओं का विद्वान कहने लगे। 

धीरे-धीरे मंटो अनुवाद से मौलिक लेखन की ओर अग्रसर हुआ और पहली मौलिक कहानी ‘तमाशा’ लिखी। इस कहानी में जालियांवाला बाग़ के नरसंहार को एक सात साल के बच्चे की नज़र से देखा गया है। इसी समय बारी साहब ने एक साप्ताहिक पत्र ‘ख़ल्क’ निकालने की योजना बनाई। जिसके दो अंक निकलने के पश्चात ही बन्द हो गया। बारी साहब के लेख ‘हीगल से लेकर कार्ल मार्क्स तक’ से ब्रिटिश सरकार में अफरा-तफरी मची और वे डर कर लाहौर भाग गए। ‘तमाशा’ ख़ल्क के प्रथम अंक में छपी थी और वह भी बिना लेखक के नाम के। उक्त कहानी पर लेखक का नाम न होने के दो प्रमुख कारण सामने आते हैं, पहला, यह कहानी जलियांवाला बाग़ कांड की घटना पर आधारित थी। इससे ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध दंगे भड़कने के आसार थे। फलतः प्रेस में नाम होने के बावजूद भी मंटो पुलिस के लफड़े से बच गया क्योंकि कहानी पर लेखक का नाम था ही नहीं। मंटो के अनुसार, ‘‘मैने उस कहानी पर अपना नाम इस डर से नहीं दिया था कि लोग मजाक उड़ाएंगे। उन दिनों मेरे जानने वाले, मज़ाक के रूप में मेरी तहरीरों (आलेखों) पर खूब हँसा करते थे।’’  

मंटो के लिखने के विषय में जब उसके परिवार वालों को पता चला तो यह जानकर उसके परिवार के सदस्य उससे नाराज हो गए। लोग उसे सलाह देने लगे कि भैया कोई छोटी-मोटी नौकरी ढूँढ लो। बेकार रहकर यूँ कब तक कहानियाँ घिसते रहोगे। वो दौर ऐसा था जब कहानी लेखन को बेकारी का दूसरा नाम दिया जाता था। परन्तु मंटो अपने इरादे पर अटल रहा और अनुवाद तथा मौलिक लेखन में व्यस्त रहने लगा। कुछ समय पश्चात उसने अपने दोस्तों और रिश्तेदारों की सलाह के विरूद्ध उर्दू की प्रसिद्ध पत्रिका ‘हुमायूँ’ में एक कहानी भेजी। वह स्वीकृत हो गयी। इस तरह साहित्य के क्षेत्र में मंटो का पदार्पण हो गया।  

सन् 1934 में मंटो ने अपने पुराने दोस्त अबू सईद कुरैशी के साथ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। यहाँ रहते हुए वह मौलिक कहानियाँ लिखने में व्यस्त रहने लगा। जिनमें से अधिकांश ‘इंकलाब पसन्द’ अलीगढ़ पत्रिका के मार्च 1935 के अंक में प्रकाशित हुई। इसी वर्ष मंटो को विश्वविद्यालय से इस शक पर निकाल दिया गया कि उसे टी.बी. की बीमारी है। उस समय यह लाइलाज़ बीमारी मानी जाती थी। वह अपनी बड़ी बहन ‘इक़बाल’ से कुछ रूपये लेकर जम्मू और श्रीनगर के बीच ‘बटोत’ चला गया। वहाँ तीन महीने रहने के पश्चात अपने शहर अमृतसर आ गया। ‘बटोत’ में मंटो को एक गँवारू लड़की से प्रेम हुआ था, जिसने उसे एक मिठाई की पोटली दी थी। मंटो ने उस पोटली को तब तक अपने सीने से लगाए  रखा जब तक चींटियाँ, मिठाई सहित जेब को भी चट न कर गई। इस घटना से प्रेरित होकर उसने ‘लालटेन’ नाम कहानी भी लिखी थी। 

मंटो के पिता के इन्तकाल के पश्चात, उसकी माँ सरदार बेगम के पास जो जमा पूँजी थी, उसे उसने अपने दामाद को देखभाल के लिए दी, जिसे उसने दहेज समझकर रख लिया और फिर कभी वापस नहीं किया। मंटो की बहन विवाहित होकर मुंबई चली गई। अब विवश और लाचार माँ-बेटा दूसरों के आसरे पर थे। मंटो के दो बड़े सौतेले भाई जो विदेश में स्थाई नौकर थे, उनके लिए चालीस रूपये महीना भेजते थे। इन चालीस रूपयों में माँ-बेटा आधे-अधूरे भूखे रहकर जीने का अभ्यास करने लगे। माँ तो रोकर अपना दुख कम कर लेती थी परन्तु मंटो तनावग्रस्त हो गया। आत्महत्या करने का कई बार प्रयास किया, लेकिन उसके लिए जितना साहस चाहिए था वह जुटा नहीं पाया। उसकी आवारगी बढ़ने लगी तो उसे अपने गुरू बारी साहब की याद आई। काफी पत्र लिखने के पश्चात बारी साहब ने लिखा, ‘‘तुम घर के मुआमलात ठीक-ठाक करके फौरन लाहौर चले आओ और किसी अख़बार में मुलाजमत कर लो।’’ मंटो को जैसे डूबते को तिनके का सहारा मिल गया। 

वह कुछ समय लाहौर में ‘पारस’ नामक अखबार में काम करके और संपादन के गुर सीखकर सन् 1936 में मुंबई से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक पत्र ‘मुसाव्विर’ के मालिक नजीर द्वारा बुलाए जाने पर पत्र का संपादन भार संभालने लाहौर से मुंबई आ गया। चालीस रूपये महीना पर बात तय हुई। रहने के लिए कोई उचित प्रबंध न हो पाने के कारण, मंटो ने पत्र के दफ्तर में ही बैठना-उठना व सोना प्रारम्भ कर दिया। बदले में मालिक उसकी तनख़्वाह से दो रूपया काटने लगा। इसी मालिक ने उसे ‘इंपीरियल फिल्म कंपनी’ में संवाद लेखक की हैसियत से चालीस रूपये मेहनताने पर रखवा दिया। इसके बदले में ‘मुसव्विर’ के संपादन की तनख़्वाह आधी कर दी। वैसे मंटो की बड़ी बहन मुंबई में ही रहती थी, लेकिन अपने दहेजू जीजा से उसकी बिलकुल भी नहीं बनती थी। इसलिए मंटो ने बहन के यहाँ आना-जाना बन्द किया हुआ था। 

‘इंपीरियल कंपनी’ के लिए जब मंटो ने पहली बार फिल्म की कहानी लिखी तो वह बुरी तरह पिट गई। लेकिन मंटो बदनामी के कलंक से बच गया क्योंकि उससे कहानी के सभी अधिकार ले लिए गए थे। उसे क्लर्क की हैसियत से अधिक कुछ नहीं समझा गया था। मालिक के साथ कुछ अनबन हुई तो मंटो ‘मुसव्विर’ छोड़कर ‘कारवाँ’ पत्रिका में आ गया। लेकिन ‘मुसव्विर’ के संस्थापकों ने उसे इस शर्त पर वापस बुला लिया कि संपादन के अस्सी रूपये महीना दिए जाएंगे और फिल्म लेखन का मेहनताना अलग से मिलेगा। इसलिए कुछ समय पश्चात मंटो ‘मुसव्विर’ के साथ-साथ ‘समाज’ नामक पत्रिका का भी सम्पादन करने लगा। लेकिन ‘मुसव्विर’ के दफ्तर में रहना छोड़कर एक बेहद गंदी जगह नौ रूपये किराए की खोली में रहना आरम्भ किया। ज़गह इतनी गंदी थी कि उससे पहली बार मिलने आई उसकी माँ ज़गह देखकर रो पड़ी थी। माँ ने पूछा, ‘सआदत हसन, तुम ज्य़ादा क्यों नहीं कमाते? क्या इसलिए कि तुम ज़्यादा पढ़े-लिखे नहीं हो?’ मंटो ने उत्तर दिया, ‘नहीं बीबीजान जितना कमाता हूँ, मेरे लिए पर्याप्त है। एक बार मेरी शादी हो जाने दो, फिर देखना मैं कितना कमाता हूँ।’ माँ ने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘अल्लाह की इच्छा हुई तो शादी भी पक्की हो जाएगी।’ वास्तव में हुआ भी ऐसा ही, न चाहते हुए भी मंटो की शादी पक्की हो गई। जिसे उसने जिंदगी का दूसरा बड़ा हादसा माना है। ‘मेरी शादी’ नाम से उसने बड़ा आकर्षक आलेख भी लिखा है। 

शादी पर होने वाले व्यय का हिसाब लगाते हुए मंटो ने ‘इंपीरियल कंपनी’ से अपनी उधारी के डेढ़ हजार रूपये मांगे। रूपये तो नहीं मिले पर विवाह का सामान मिल गया। नवविवाहिता के लिए उसने पुरानी खोली छोड़कर पैंतीस रूपये महीना किराए पर एक फ्लैट ले लिया। सन् 1938 में ‘सफिया’ जो एक कश्मीरी थी, के साथ मंटो का विवाह हो गया। इसी वर्ष वह ‘इंपीरियल फिल्म कंपनी’ छोड़कर ‘सरोज मूवी टाउन’ में चला गया। शीघ्र ही ‘सरोज मूवी टाउन’ बन्द हो गई। उसके बाद मंटो ने नानू भाई देसाई को अपना सेठ बनाया जिनके लिए उसने कृश्न चन्दर के साथ मिलकर ‘अपनी नगरिया’ फिल्म की पटकथा लिखी। 

जून 1940 में मंटो की माँ का देहान्त हो गया, जिसकी अचानक ख़बर सुनकर वह बेहोश हो गया। अगस्त 1940 में ‘मुसव्विर’ की नौकरी बिना किसी स्पष्ट कारण के छूट गई। मंटो को विश्वास था, दुःख के दिन अधिक समय तक नहीं रहते। अतः जनवरी 1941 में जब उसे ‘आल इंडिया रेडियो’ दिल्ली में ड्रामे लिखने की नियुक्ति मिली तो वह बड़े उत्साह के साथ अपने परिवार को लेकर मुंबई से दिल्ली आ गया। यहाँ वह अगस्त 1942 तक मात्र उन्नीस महीने रहा। दिल्ली में वह फ्लैट नं. नौ हसन बिल्ड़िग में, निकोलस रोड़ पर रहता था। उसने केवल उन्नीस महीनों में सौ से अधिक रेडियों ड्रामें और अनेक कहानियाँ लिखी। उनमें से कुछ आज भी ‘आल इंडिया रेडियो’ की पुरानी फाईलों में दबे पड़े हैं। अश्लीलता का आरोप झेलने वाली ‘ब्लाउज’ और ‘धुआँ’ जैसी कहानियाँ भी इसी समय लिखी गई। यह आश्चर्यजनक बात है कि उन्नीस महीनों में मंटो ने जितना अधिक लिखा, वैसा उदाहरण मिलना कठिन है। 

सन् 1941 में उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ आल इंडिया रेडियो दिल्ली में हिन्दी के सलाहकार नियुक्त होकर आए तो मंटो की उनसे नोंक-झोंक हो गई। बात इतनी बढ़ी कि मंटो को मैदान छोड़कर भागना पड़ा। मंटो जिद्दी और हठी स्वभाव का था। उसे यह बिलकुल भी पंसद नहीं था कि कोई उसके लिखे में काट-छाँट करे। ‘अश्क’ ने उसके ड्रामें ‘आवारा’ में अनेक काट-छाँट करके प्रोडयूसर से संशोधित रूप को ब्रॉडकास्टिंग करने पर राजी कर लिया तो वह झल्ला उठा और मुंबई चला आया। ‘अश्क’ के अनुसार, ‘‘उसने यह अफवाह फैलाई थी कि उसे फिल्मिस्तान में साढ़े तीन सौ रूपये महीने की नौकरी मिल गई है। जबकि उसे नौकरी तीन महीने बाद मिली थी। अगस्त 1942 में वह स्वयं मुंबई आया और नौकरी मिलने के पश्चात उसने अपने परिवार को मुंबई बुलाया।’’ वैसे भी दिल्ली उसे रास नहीं आयी, यहाँ उसका एक मात्र पुत्र एक वर्ष का होकर चल बसा था। उसके पश्चात उसे निकहत, नुजहत और नुसरत तीन पुत्रियों का सुख मिला। 

कुछ लोग सफलता को पसन्द होते हैं, लेकिन मंटो असफलता को बहुत पंसद था। उसे एहसास हो गया था कि उसे असफलता के सिवा कुछ नहीं मिलने वाला। अतः जिस-जिस को बर्बाद करना था, उसने उनकी सूची बना ली। ‘ताजमहल पिक्चर्स’ के लिए उसने ‘उजाला’ फिल्म लिखी जो असफलता के अँधेरे में नष्ट हो गई। रफीक गजनवी के लिए फिल्म ‘बेली’ लिखी जो बुरी तरह नाक़ाम रही। ‘पैगाम’ लिखी, जिसकी कहानी निर्माता ने उसकी रजामंदी के बगैर तोड़-फोड़ डाली। ‘चल-चल रे नौजवान’ भी नहीं चली। जिसका सदमा उसे बहुत दिनों तक सालता रहा। गजनवी के लिए लिखी ‘नौकर’ भी नहीं चल पाई। नसीम बानो के लिए लिखी ‘बेग़म’ भी कोई खास कमाल नहीं कर पाई। अशोक कुमार के लिए नौजवान, आठ दिन, आगोश आदि और कई फिल्मों की कहानी लिखी। परन्तु सभी असफल रही। ‘आठ दिन’ में तो उसने पागल की भूमिका भी निभाई थी। घमंड और जिद्दी फ़िल्में कमजोर प्रदर्शन के कारण पिट गई। राजेन्द्र सिंह बेदी के संवादों के साथ ‘मिर्जा ग़ालिब’ लिखी, लेकिन फिल्म की सफलता का श्रेय सोहराब मोदी और सुरैया को मिल गया। इस प्रकार उसका फिल्म लेखन सफल नहीं रहा या सफल फिल्मों का श्रेय दूसरों को चला गया। विभाजन के बाद पाकिस्तानी फिल्म जगत ने उसे कोई मौका नहीं दिया। इसलिए वह पूर्णतः साहित्य की ओर मुड़ गया। वह ऐसा साहित्यकार था जो सिनेमा से साहित्य की ओर मुड़ा जबकि लेखक अकसर साहित्य से फिल्मों की ओर जाते हैं। 

मंटो सन् 1936 से 1948 तक मुंबई में रहा। (उन्नीस महीने आल इंडिया रेडियो दिल्ली के अतिरिक्त) मंटो और मुंबई एक-दूसरे को रास आ गए थे। उसका दिल मुंबई से जुड़ गया था। मुंबई के विषय उसने लिखा था, ‘‘मैं चलता-फिरता बम्बई (मुंबई) हूँ। बम्बई छोड़ने का मुझे भारी दुःख है। वहाँ मेरे मित्र थे। उनसे दोस्ती होने का मुझे गर्व है। वहाँ मेरी शादी हुई, मेरी पहली संतान भी हुई। दूसरे ने भी अपने जीवन के पहले दिन की वहाँ से शुरूआत की। मैने वहाँ हजारों-लाखों रूपये कमाए और फूँक दिए। बम्बई को मैं चाहता हूँ और आज भी चाहता हूँ।’’ सन् 1948 में मुंबई में साम्प्रादायिक दंगे भड़क उठे। ‘बॉम्बे टाकीज’ जहाँ मंटो फिल्म लेखन करता था, उसमें प्रमुख स्थानों पर मुसलमानों को रखे जाने पर धमकी भरी चिट्ठियाँ मिली थी, क्योंकि मंटो के कहने पर वे आसामियाँ भरी गई थी। उस समय फिल्मिस्तान में मंटो की तूती बोलती थी और ‘बॉम्बे टाकीज’ का मालिक मंटो का देास्त था। इसलिए वहाँ मुसलमानों का वर्चस्व बढ़ा। जब उसने देखा कि विवाद बढ़ रहा है, वह अपनी नौकरी की कुर्बानी देकर पाकिस्तान चला गया। मंटो के सभी रिश्तेदार यहाँ तक कि उसकी पत्नी भी, पाकिस्तान चले गए थे। वे वहाँ से उसे बार-बार खत लिख रहे थे। मंटो का मन उचट गया और वह हिन्दुस्तान छोड़कर पाकिस्तान चला गया। कुछ समय करांची में व्यतीत करने के पश्चात सात या आठ जनवरी 1948 को वह लाहौर पहुँच गया। 31 मालरोड़ लक्ष्मी मेंशन बिल्डिंग में उसने किराए पर एक फ्लैट बुक कराया और जीवन के अन्तिम दिनों तक यहीं रहा। 

पाकिस्तान आने पर मंटो ने भारत-पाक विभाजन की त्रादसी पर गहारई से लिखा। पाकिस्तान की परिस्थिति पर तीखे व्यंग्य किस्से लिखे। जब उसने पाकिस्तान में अमेरिकन नीति की कड़ी आलोचना की तो अमेरिकी राजदूत ने पत्र भेजकर कहलवाया, ‘‘यदि आप हमारे पत्र के लिए लेख लिखोगे तो मेहनताने के पाँच सौ रूपये देंगे।” मंटो में आत्मगौरव की भावना इतनी उत्कट थी कि उसने स्पष्ट सुना दिया, ‘‘मंटो देशद्रोही नहीं बन सकता।’’ उस समय उसे अपनी कहानी के लिए मात्र 20-25 रूपये मिलते थे। फिर भी पाकिस्तानी सरज़मी उसे रास नहीं आई। ‘खोल दो’ और ‘ठंडा गोश्त’ जैसी कहानियों पर काफी विवाद हुआ और अश्लीलता के आरोप का कड़वा घूँट पीना पड़ा। ‘हल्का-ए-अरबाबे-जौक’ जो कि साहित्यकारों की एक महफिल थी और हफ्ते में एक बार होती थी, में मंटो ने सन् 1950 से 1954 तक अनेक कहानियाँ पढ़ी। 

जीवन के अन्तिम दिनों में ‘मक़्तबा-ए-कारवाँ’ उसकी एक मात्र मंजिल बन चुकी थी। उसके मालिक हमीद चौधरी मंटो का ताँगा देखते ही जेब में से बीस रूपये निकालते, मंटो से कहानी लेकर बीस रूपये उसके हाथ में थमा देते। फिर मंटो साहब उसी ताँगे पर बैठकर ‘इंग्लिश वाइन हाऊस’ की ओर चले जाते। पुरस्कार के रूप में मिले बीस रूपये में से साढे़ सत्रह रूपये की दारू पीते। एक रूपया ताँगे वाले को भाड़ा चुकाने में खर्च करते। एक रूपये की कैप्स्टन सिगरेट खरीदते और अन्त में बचती अट्ठन्नी जिसका सदुपयोग तरकारी खरीदने में करते। उनकी पत्नी सफिया उससे बार-बार आग्रह करती रही, ‘शराब छोड़कर दुकान कर लो’ क्योंकि अब उसका लिखना केवल शराब के लिए रह गया था। अपने आपको महान कथाकार मानने वाले इस कथाकार ने एक दिन में दो-दो कहानियाँ लिखी। 11 मई 1954 से जून 1954 के दौरान बीस कहानियाँ उसने तेइस दिन में रोज एक बाटल की दर से लिखी। उन दिनों दोस्तों की महफिलों में, अदवी परचों के दफ्तरों में, किताबों की दुकानों में, टी हाऊस में, हर जगह जहाँ कहीं वह बैठता, वहाँ उसका दावा होता, ‘तुम मुझे एक जुमला लिखकर दो, मैं अभी तुम्हारे सामने उसे अफसाना बना दूंगा’। एक बार जब एक नौजवान शायर फरहाद ने मंटो को ‘उसके सारे जिस्म में मुझे उसकी आँखे बहुत पंसद थी’ जुमला (वाक्य) लिखकर दिया तो उसने वहीं बैठे-बैठे ‘आँखे’ नामक सुन्दर कहानी लिख डाली। 

मंटो न रोज़े रखता था और न नमाज़ पढ़ता। जिस दिन खाना न मिले उस दिन उसका रोज़ा होता। अवसर मिलते ही अपने दोस्त-दुश्मनों पर चुटकी लेने से नहीं चूकता। निर्देशक कारदार और सितारा देवी (मशहूर नर्तकी) पर उसने बहुत तीखे व्यंग्य लेख लिखे। कारदार ने तो उसे पिटवाने की योजना भी बनाई थी पर मंटो की प्रति-धमकी से मामला ठंडा पड़ गया। सितारा देवी से जब किसी ने मंटो के गुजर जाने की बात कही तो वह मुँह बिगाड़कर बोली, ‘‘बड़ा बदतमीज़, बेवकूफ आदमी था। मेरा चैन हराम कर दिया था उसने।’’ फिर भी कभी किसी ने उसके विरूद्ध मानहानि का दावा नहीं किया, अन्यथा उसकी और भी दुर्दशा होती। मंटो को पागल, बदतमीज, बुरा व्यक्ति और काफ़िर तक कहा गया है, लेकिन उसे अपनी मृत्यु का आभास कई महीने पहले हो गया था, जो वलियों का गुण है। जब उसे विश्वास हो गया कि उसके पास अधिक समय बचा नहीं है तो उसने अपनी क़ब्र पर रखने के लिए एक बड़ा पत्थर तैयार करवाया उस पत्थर पर लिखा था, ‘‘यहाँ सआदत हसन मंटो दफन है, उसके सीने में फन-ए-अफसानानिगारी के सारे असरार (भेद) व रूमूज (राज) दफन है। वह अब भी मानों मिट्टी के नीचे सोच रहा है कि वह बड़ा अफसानानिगार है या खुदा?’’ यह खुदाई उसने 18 अगस्त 1954 को करवाई थी और इसके पाँच महीने बाद ही वह पत्थर उसकी क़ब्र पर रख दिया गया। 

मंटो अत्यन्त संवेदनशील और छोटी सी बात सुनकर विचलित होने वाला व्यक्ति था। जब शराब की आदत छुड़ाने के लिए लाहौर के पागलखाने में वह अपना इलाज करा रहा था, अपने मित्र श्याम की मौत की खबर सुनकर और पागल हो गया था। इससे पहले भी उसके ऊपर पागलपन के दो बार दौरे पड़े थे। कहते हैं ‘टोबा टेकसिंह’ कहानी में जो पागल सिक्ख है, वह स्वयं मंटो है। यह कहानी उसे शायद पागलखाने में से ही मिली थी। सत्रह जनवरी 1955 की रात उसने एक बलात्कार का केस देखा और आवेश में आकर प्रतिदिन से अधिक पी ली। घर पहुँचते ही उसे खून की उल्टी हुई। लीवर फट गया, रात भर खून की उल्टियाँ बन्द नहीं हुई। सुबह डाक्टरों ने उसे अस्पताल में भर्ती करने की सलाह दी। लेकिन जैसे ही ‘मेयो अस्पताल लाहौर’ में एम्बुलैंस पहुँची, वह खुदा के पास जा चुका था। 

मंटो की मृत्यु के पश्चात उसके मित्र लेखक कृष्ण चन्दर ने प्रतिभाव देते हुए लिखा था, ‘‘यह वही अंडर हिल रोड़ है, जहाँ आल इंडिया रेडियो का पुराना ऑफिस था। यह मेडन होटल बार है, यह उर्दू बाजार है, यह सब वही है। सब ज़गह उसी तरह काम चल रहा है। आल इंडिया रेडियो भी चल रहा है। मेडन होटल बार भी चल रहा है और उर्दू बाज़ार भी चलता है। क्योंकि मंटो एक मुफलिस इंसान था। एक ग़रीब लेखक था। वह कोई सट्टाखोर या काला बाजारी करने वाला नहीं था कि उसके लिए बाज़ार बन्द किए जाएं। वह एक वेश्याओं का, ताँगे वालों का लेखक था। ऐसे आदमी के लिए कौन रोएगा।’’ अपने एक मित्र के साथ ताँगे की सवारी करते हुए, जब कृष्ण चन्दर के मुख से ताँगे वाले ने मंटो की मौत की खबर सुनी तो ताँगा रोककर पीछे का दरवाजा खोलकर कहा, ‘आप दूसरा ताँगा ले लो, यह गाड़ी अब आगे नहीं जाएगी।’ और स्वयं बार की दुकान में चला गया। 

18 जनवरी 1955, मंटो की मौत के कुछ दिन पश्चात गणमान्य व्यक्तियों और भारत-पाक सरकारों को उसकी याद आई। 05 फरवरी 1955 को ‘दिल्ली म्यूनिसीपल कमेटी हॉल’ में शाम छः बजे एक शोक़ सभा रखी गई। जिसमें जोश मलिहाबादी, कृष्ण चन्दर, युनुस देहलवी, खुशतार ग्रामी, धर्मपाल गुप्ता, जगन्नाथ आज़ाद, श्याम सुन्दर परवेज़, प्रकाश पंड़ित, सतेन्द्र सिंह आदि लेखक-विद्वानों ने शिरकत करते हुए मंटो को भाव-भिनी श्रृद्धांजली दी। सच बात तो ये है कि मंटो अपनी मौत के पश्चात अधिक प्रासंगिक होता चला गया। उसके प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए पाक सरकार ने उसके नाम पर डांक टिकट तक जारी किया। और उसको मरणोपरांत ‘निशाने इन्तियाज़’ (पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक सम्मान) भी दिया। इतना ही नहीं मंटो के ऊपर भारत और पाकिस्तान में फ़िल्में भी बनी। पाकिस्तान में मंटो के ऊपर बनी फिल्म को तो वहाँ की दस सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक माना जाता है।   

14
रचनाएँ
"उग्र बनाम मंटो"
0.0
उर्दू में सआदत हसन मंटो की बहुत सी कहानियाँ पढ़ने के बाद विचार आया कि हिंदी में भी मंटो जैसा कोई विवादस्पद लेखक है? काफी खोजबीन करने पर ज्ञात हुआ कि ऐसा लेखक तो पाण्डेय बेचन शर्मा "उग्र" ही है. उग्र की अनेक कहानियाँ और उपन्यास पढ़ने के बाद विचार आया कि क्यों न उग्र और मंटो की तुलना की जाए. उसी के परिणाम स्वरुप इस किताब को लिखने की प्रेरणा मिली.
1

भूमिका

13 अगस्त 2022
1
0
0

 जब दो साहित्यकारों की तुलना की जाती है तो उनके व्यक्तित्व, रचनागत साम्य-वैषम्य, कृतियों की विषयवस्तुगत विशिष्टताएं, सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण और युगीन प्रवृत्तियों आदि को आधार बनाया जाता है। इस प्

2

"उग्र"- एक परिचय

13 अगस्त 2022
0
0
0

 हिन्दी साहित्य में ‘उग्र’ अपनी ही तरह के साहित्यकार माने जाते हैं। जिस तरह उनका नाम थोड़ा विचित्र सा है उसी प्रकार उनका साहित्य भी अपने ही ढंग का है। नाम ही देखिए आगे-पीछे जाति सूचक विशेषण और उससे जुड़

3

"उग्र"- साहित्यिक अवदान

13 अगस्त 2022
0
0
0

 ‘उग्र’ ने लेखन की शुरूआत काव्य से की थी। वे अपने स्कूल के दिनों से ही काव्य रचना करने लगे थे। साहित्य के प्रति उनका विशेष अनुराग बढ़ा था, लाला भगवानदीन के सम्पर्क में आने के पश्चात। जिनकी प्रेरणा से उ

4

उग्र के साहित्य की मूल चेतना और प्रतिपाद्य विषय

13 अगस्त 2022
0
0
0

 जिस समय ‘उग्र’ का साहित्य-क्षेत्र में प्रवेश हुआ, उस समय तक छायावाद का आगमन हो चुका था। पद्य हो या फिर गद्य, कल्पना की ऊँची उड़ाने भरकर साहित्य की रचना हो रही थी। अतः समकालिक लेखक-कवियों पर भी इस साहि

5

क्या थे उग्र पर आक्षेप के कारण?

13 अगस्त 2022
1
0
0

 ‘उग्र’ ने ऐसे समय में लिखना आरम्भ किया था, जब हिन्दी साहित्य में ‘आदर्शवाद’ का बोलबाला था और साहित्य यथार्थ से अधिक कल्पना में लिखा जाता था। ऐसे समय में जब उन्होंने अपनी कलम की नोक से समाज के यथार्थ

6

उग्र साहित्य की प्रासंगिकता

13 अगस्त 2022
0
0
0

 साहित्यकारों की प्रासंगिकता और अप्रासंगिकता के बारे में अक्सर प्रश्न उठाया जाता रहा है। लेकिन जो साहित्य विभिन्न समस्याओं और सत्यों का दर्शन कराता हो, उसकी प्रासंगिकता कभी समाप्त नहीं होती, क्योंकि व

7

मंटो- एक परिचय

13 अगस्त 2022
0
0
0

 दो साहित्यकारों की जब आपस में तुलना की जाती है तो उनके जीवन के उतार-चढ़ाव, साहित्यिक अवदान, सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण, साहित्यिक विषयवस्तुगत विशेषताएं आदि को आधार बनाना ही उचित होता है। पूर्व में ह

8

मंटो की साहित्य यात्रा

13 अगस्त 2022
0
0
0

 सआदत हसन मंटो ने अपने जीवन में कहानियों के अतिरिक्त एक उपन्यास, फिल्मों और रेडियो नाटकों की पटकथा, निबंध-आलेख, संस्मरण आदि लिखे। लेकिन उसकी प्रसिद्धि मुख्य रूप से एक कहानीकार की है। चेखव के बाद मंटो

9

मंटो के साहित्य की मूल चेतना और प्रतिपाद्य विषय

13 अगस्त 2022
0
0
0

 मंटो आज न केवल उर्दू बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं में बड़े चाव से पढ़े जाते हैं। हिन्दी में तो उनकी सम्पूर्ण रचनाएं उपलब्ध हैं। उनकी ‘टोबा टेकसिंह’ और ‘खोल दो’ कहानियों को मैंने संस्कृत में भी पढ़ा है। लेक

10

मंटो पर आक्षेप- कुछ उलझे सवाल

13 अगस्त 2022
1
0
0

 मंटो का लेखन ज़बरदस्त प्रतिरोध का लेखन है। यही उसके लेखन की शक्ति भी है। वह दौर ही शायद ऐसा था कि साहित्य से हथियार का काम लेने की अपेक्षा की जाती थी। मंटो ने इसका भरपूर लाभ उठाया और अपनी कहानियों से

11

मंटो के साहित्य की प्रासंगिकता

13 अगस्त 2022
0
0
0

 सआदत हसन मंटो नैसर्गिक प्रतिभा के धनी और स्वतन्त्र विचारों वाले लेखक थे। वे ऐसे विलक्षण कहानीकार थे जिन्होंने अपनी कहानियों से समाज में अभूतपूर्व हलचल उत्पन्न की और उर्दू कथा-साहित्य को नई ऊँचाईयों त

12

उग्र और मंटो- तुलनात्मक बिंदु

13 अगस्त 2022
1
0
0

 पिछले अध्यायों में हमने ‘उग्र’ और मंटो के व्यक्तित्व और कृतित्त्व को अलग-अलग रूपों और सन्दर्भों में जानने-समझने का प्रयास किया है। अब हम दोनों साहित्यकारों की एक साथ तुलना करके देखते हैं कि वे कहाँ ए

13

उग्र और मंटो- समानताएं और असमानताएं

13 अगस्त 2022
0
0
0

 ‘उग्र’ और मंटो ने अपने समय के सवालों से सीधे साक्षात्कार करते हुए उन्हें अपना रचनात्मक उपजीव्य बनाया। वे विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी तरह जिए और अपनी तरह की कहानियाँ लिखी। इस कारण उन्होंने बहुत चो

14

परिशिष्ट

13 अगस्त 2022
0
0
0

 सन्दर्भ सूची-  आलोचनात्मक-ऐतिहासिक व अन्य ग्रन्थ :-  1. पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ : अपनी खबर (आत्मकथा), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पेपर बैक्स, दूसरा संस्करण, 2006।  2. डा0 भवदेव पांडेय : ‘उग्र’ का

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए