मंटो का लेखन ज़बरदस्त प्रतिरोध का लेखन है। यही उसके लेखन की शक्ति भी है। वह दौर ही शायद ऐसा था कि साहित्य से हथियार का काम लेने की अपेक्षा की जाती थी। मंटो ने इसका भरपूर लाभ उठाया और अपनी कहानियों से न केवल उर्दू बल्कि हिन्दी में भी हंगामा बरपा दिया। उन्होंने समाज के नंगे सच को जिस शैली और बेबकाना अंदाज़ में उजागर किया, वह बहुत कड़वाहट लिए हुए है। समाज उसे गले नहीं उतार पाता। अपनी सपाट बयानी में उन्होंने किसी तथ्य को छिपाया नहीं। इसलिए उन पर एक या दो नहीं बल्कि पूरे पाँच मुकदमें चले। इनमें से तीन भारत और दो पाकिस्तान में चले। अत्यन्त दुःख का विषय है कि दोनों देशों ने उनके साथ एक जैसा सुलूक़ किया। मंटो आजीवन मानवीय अस्मिता और गरिमा की परोपकारी करते रहे, लेकिन इसका मूल्य उन्हें मुकदमों के रूप में चुकाना पड़ा। मुकदमों के अलावा और कितने तरह के प्रतिरोध का मंटो को सामना करना पड़ा, उसकी तो कोई गिनती ही नहीं। पाखंड़, अनाचार, शोषण की पोषक व्यवस्था, धार्मिक रूढ़िवादिता आदि के प्रति उनके लेखन में जबरदस्त प्रतिरोध का स्वर समाहित है। विवादों और विरोधों को झेलने वाले मंटो को निराशा के स्वर में लिखना पड़ा, ‘‘अपने अफसानों के सिलसिले में मुझ पर चार मुकदमें चल चुके हैं, पाँचवाँ अब चल रहा है, जिसकी रूदाद (वृत्तान्त) मैं बयान करना चाहता हूँ- पहले चार अफसाने जिन पर मुकदमा चला, उनके नाम हस्बे जैल (निम्नवत्) हैं-
एक : ‘काली सलवार’
दो : ‘धुआँ’
तीन : ‘बू’
चार : ‘ठंड़ा गोश्त’ और
पाँचवाँ : ‘ऊपर, नीचे और दरमियान’
पहले तीन अफसानों में मेरी खलासी हो गयी; ‘काली सलवार’ के सिलसिले में मुझे दिल्ली से दो-तीन बार लाहौर आना पड़ा।
‘धुआँ और बू’ ने मुझे बहुत तंग किया, इसलिए कि मुझे लाहौर से बम्बई आना पड़ा था ............. लेकिन ठंड़ा गोश्त का मुकदमा सबसे बाजी ले गया। इसने मेरा भुरकस निकाल दिया।’’
आरम्भ में मंटो को अश्लीलता परोसने वाला मामूली सा कहानीकार समझा गया था और नग्न सच्चाईयों से मुँह फेरने वालों ने उन्हें खूब सताया। मंटो की कहानियों में क्या अश्लीलता है और क्या नहीं यह आज भी बड़े विवाद का प्रसंग है। बहुत से लोग आज भी उन्हें गन्दा लेखक ही मानते हैं। एक बार देवबंद (जिला सहारनपुर, उत्तर प्रदेश) की प्रमुख धार्मिक संस्था दार-उल-उलूम के कुछ तालबाओं (शिक्षार्थियों) से मैं मंटो के साहित्य के विषय में बातचीत करने लगा तो उन्होंने तुरंत ‘ला हौल बिला कुव्वत’ पढ़कर कहा, ‘बड़ा ही फहश अदीब (अश्लील साहित्यकार) है।’ उत्तर आधुनिकता के इस दौर में अभी हाल ही में मंटो की एक पुस्तक पर लिखी ये पंक्तियाँ पढ़कर बड़ा अजीब लगा, “सआदत हसन मंटो अपने आपमें एक ऐसा नाम है जिसे कोई परिचय कराने की ज़रूरत नहीं है, परन्तु उनकी कहानियाँ आपके मन पर विपरीत असर डाल सकती हैं इसलिए आप कहानियाँ या लेख को अन्यथा न लें। यह सिर्फ और सिर्फ भूतकाल में बीती घटनाओं को कागजों पर उकेरी गई कहानियाँ हैं।” अब ऐसी बातों को लेकर मंटों के बारे में क्या कहा जाए? वैसे आज की पीढ़ी उनके महत्व को धीरे-धीरे पहचान रही है और उनका बहुत अध्ययन हो रहा है। यहाँ तक कि आज वे विभिन्न कक्षाओं के पाठ्यक्रमों में भी सम्मिलित कर लिए गए हैं। लेकिन 40-50 के दसक में मंटो की कहानियाँ घर के कोने में छुपकर ही पढ़ी जाती थी। कई लोगों को ऐसा लगता था कि मंटो समाज को बिगाड़ रहा है।
मंटो का महत्वपूर्ण सृजनकाल 40-50 का दसक रहा है। उस समय समाज में दबे ढंग से अनैतिक कार्य व्यापार तो खूब चलता था, लेकिन साहित्य में उसका उजागर होना अपराध समझा जाता था। ऐसे बनावटी सभ्य समाजीय वातावरण में जब मंटो अपनी यथार्थ अभिव्यक्ति वाली कलम लेकर अवतरित हुए तो उसकी मार से कुछ कठमुल्ला किस्म के लेाग तिलमिला उठे। सबक़ सिखाने के उद्देश्य से उन्होंने मंटो को अदालत में घसीटना आरम्भ किया। उन्होंने मुक़दमों के जाल में उलझाकर मंटो को खूब सताया। पुलिस का अपमानजनक रवैया भी मंटो के लिए अत्यन्त दुःखदायी होता था, वह विष का घूँट पीकर रह जाता। जबकि उसकी प्रवृत्ति वैसी नहीं थी, वह प्रति क्षण प्रतिकार करने वाला व्यक्ति थी।
मंटो के कुछ विरोधी भी इस प्रकार की अफवाएं फैलाते रहते थे कि अश्लील कहानियाँ लिखकर उन पर केस करवाने का उसका धंधा हो गया है। सस्ती प्रसिद्धि पाने और लोगों में अपना नाम चर्चित करने के लिए वह अश्लील कहानियाँ लिखता है। इस कारण कुछ पत्र-पत्रिका वाले उसके पीछे पड़ गए थे। उन्होंने मंटो को अश्लील और विद्रोही लेखक घोषित करके सरकार को उकसाने का प्रयास किया। उनका स्पष्ट तर्क यह था कि ये कहानियाँ युवा लड़के, लड़कियों में कुसंस्कार फैलाती हैं और वातावरण को दूषित करती हैं। दूसरा आक्षेप उन्होंने यह लगाया कि मंटो की कहानियों में जिस प्रकार की भाषा का प्रयोग होता है, वह शालीन भाषा नहीं है। मंटो की कहानी ‘बू’ पर जिस समय मुकदमा चल रहा था, उसी समय इस्मत चुग़ताई की कहानी ‘लिहाफ’ पर भी मुकदमा चल रहा था। उस समय का छोटा-सा प्रसंग इस्मत ने अपनी आत्मकथा ‘काग़जी है पैरहन’ में इस प्रकार लिखा है-
‘‘पहले ‘बू’ का नम्बर आया।
ये कहानी फुहश (अश्लील) है?
मंटो के वकील ने पूछा।
‘जी हाँ, गवाह बोला।’
‘किस लफ़्ज (शब्द) से मालूम (ज्ञात) हुआ कि फुहश है?
‘गवाह - लफ़्ज छाती।’
‘वकील - माई लार्ड, लफ़्ज छाती फुहश नहीं है।’
‘जज - दुरूस्त (बिलकुल सही) ।’
‘गवाह - नहीं, मगर मुसन्निफ (लेखक) ने औरत के सीने को छाती कहा है।’
मंटो एकदम खड़ा हो गया और बोला, ‘औरत के सीने को छाती न कहूँ तो क्या मूँगफली कहूँ?’
‘कोर्ट में कहकहा पड़ा। मंटो भी हंसने लगा।’’
मंटो को लेकर समस्त पत्रकारिता जगत दो भागों में बंट गया था। एक को यदि उसके साहित्य में आधुनिकता के समस्त लक्षण दिखाई देते थे, तो दूसरे में उसके विरूद्ध भारी रोष व्याप्त था। वे कहते थे कि मंटो की गंदी कहानियाँ मैगजीनों में छापकर हजारों रूपये कमाने वाले मालिकों, प्रेसवालों एवं इस लेखक को तीन साल जेल में बंद कर देना चाहिए। अदब-ए-लतीफ, खैयाम, जावेद जैसे जिन सम-सामयिक पत्रों में मंटो की कहानियाँ प्रकाशित होती थी उनके विरूद्ध कुछ न कुछ छपता ही रहता था। ‘अदब-ए-लतीफ’ में मंटो की एक कहानी के विषय में लिखा गया, इसमें मंटो की कहानी छपी है, हम इसका विरोध करते हैं। हमें इस बात का दुःख है कि सरकार छोटी-छोटी बातों में उलझ जाती है, पर इस प्रकार की गंदी, नग्न कहानियों पर उसकी नज़र नहीं पड़ती। ‘खैयाम’ सामयिक में मंटो की कहानी ‘बू’ छपी तो उसके खिलाफ आवाज़ उठाई गयी। इस कारण पत्र जब्त कर लिया गया। ‘ठंडा गोश्त’ छापने के लिए ‘जावेद’ मैगजीन को जुर्माना भरना पड़ा था। ‘खोल दो’ कहानी को छापने वाले पत्र ‘नुकूश’ पर सरकार ने छह महीने का प्रतिबन्ध लगाया क्योंकि सरकार को भय था कि इस कहानी की विषयवस्तु से साम्प्रदायिक दंगे भड़क सकते हैं।
प्रत्येक वस्तु के दो पक्ष होते हैं- सबल और दुर्बल। यह देखने वाले पर निर्भर करता है कि उसकी दृष्टि किस पक्ष पर अधिक पड़ती है। विद्वान आलोचक भी किसी कृति को पूर्ण निष्पक्षता के साथ शायद ही परख पाते हों। मत्सरी आलोचकों को तो किसी की अच्छी से अच्छी कृति भी देाषयुक्त दिखाई देती है। सम्भवतः उस समय दूसरे पक्ष के आलोचकों के शिकार मंटो हो रहे थे। वे समय से बहुत आगे की बातें लिख रहे थे, जिन्हें पचा पाना लोगों को कठिन हो रहा था। आलोचकों को मंटो की कहानियों का दुर्बल पक्ष (कामुकता या अश्लीलता) ही अधिक दिखाई दे रहा था; उनमें छिपी गहरी तह तक वे नहीं पहुँच पा रहे थे। मंटो की जब भी कोई नई कहानी प्रकाशित होती आलोचक उसमें कामुक और गर्मा देने वाली सामग्री की खोज में लग जाते और कहानी चर्चा का विषय बन जाती। लेकिन मंटो में रचनात्मक साहस बहुत अधिक था इसलिए वे किसी से ड़रे नहीं और न कभी भौंड़ी आलोचनाओं की परवाह की। बलराज मेनरा ने लिखा है, ‘‘मंटो अपनी अनुभूतियों की स्वतंत्रता से डरता नहीं था। इसी निड़रता ने उसे गिरे हुए मर्द और औरतों या ऐसे फूहड़ रचनाकार विश्लेषण का साहस प्रदान किया, जिन्हें परम्परागत ढंग के नीति भीरू व्यक्ति, मौलवी और राजनीतिक मौलवी देखकर लाहौल पढ़ते हुए आगे बढ़ जाते थे।’’
भावुक दिलों में अंगड़ाई लेने वाले जजबातों का मंटो को सूक्ष्म ज्ञान था। इस विषय पर उन्होंने कई कहानियाँ लिखी जो काफी सराही गई। स्त्री-पुरूष के अश्लील समझे जाने वाले संबंध, उनकी कहानियों का अन्य प्रमुख विषय रहा। वेश्याओं और उनके दलालों को उसकी कलम समर्पित रही। उनकी संवेदना, त्याग, उदारता, प्रेम और आन्तरिक पीड़ा को आधार बनाकर कई महान कहानियाँ लिखी। मुस्टेनवाला, ब्लाऊज, बू, धुआँ, खुशिया, चूहेदानी, फाहा, जैसी ढेरों कहानियों की पृष्ठभूमि यौन-प्रवृत्तियाँ हैं। उस समय यही प्रगतिशीलता भी समझी जाती थी। इसीलिए मंटो लम्बे समय तक प्रगतिशीलों का प्रिय लेखक बना रहा। लेकिन जब उसकी प्रगतिशीलों के साथ अनबन हुई तो वे उसका मजाक उड़ाने लगे। उसका मज़ाक उड़ाते हुए देवेन्द्र सत्यार्थी ने लिखा है, ‘‘उसकी प्रगतिशीलता बहुत दूर तक नग्न-वासना की चर्चा से घिरी रहती थी, लेकिन कुछ समय से उसके मस्तिष्क में यह सन्देह एकत्र हो गया था कि वह किसी भी जड़ या चेतन वस्तु के चारों ओर अपनी कहानियों को घुमा सकता है- अपनी एक कहानी में उसने एक पत्थर की गाथा प्रस्तुत की थी जो एकाएक किसी कुंवारी की उठती-मचलती हुई छातियों से टकराने के लिए व्याकुल हो उठा था।’’
मंटो बार-बार कहता है कि मुझमें जो बुराईयाँ हैं, वे इस व्यवस्था की बुराईयाँ है। मेरी कहानियों में जो दोष हैं, मौजूदा व्यवस्था के दोष हैं। लेकिन मंटो की गुहार किसी को सुनाई न दी। क्योंकि उस समय के कानून अंधे थे। साथ ही आदर्शवादी-मर्यादावादियों की पहुँच बहुत दूर तक थी। इसलिए अनेक मर्यादावादियों ने उसके नाम के साथ अनैतिक, अश्लील और आतंकवादी नत्थी करके उसका सर कलम करने का फतवा तक दिया। इस दुष्चक्र से आजीवन मंटो का पीछा नहीं छूटा। मंटो की कलम में खुलापन बहुत अधिक था, बेबाकी उसकी नस-नस में बसी थी; इसलिए लोग उसे ग़लत समझ लेते थे। पाकिस्तानी कानून के अनुसार मंटो की दो कहानियाँ ‘ठंडा गोश्त’ और ‘ऊपर, नीचे और दरमियान’ वर्तमान तक अश्लील मानी जाती रही। सन् 2012 में जब पाकिस्तान सरकार ने मंटो को मरणोपरान्त, पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक सम्मान देने की घोषणा की तो उसने अभियोग वापस लिया।
मंटो पर बार-बार आरोप लगे, मुक़दमें चले। लेकिन वे कभी मुजरिम नहीं ठहराए जा सके। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की अनेक बड़ी-बड़ी साहित्यिक-असाहित्यिक हस्तियों जैसे- डा. खलील अब्दुल हकीम (एम.ए, एल.एल.बी, पी.एच.डी, डी.एस-सी) फैज अहमद फैज, राजेन्द्र सिंह बेदी, कन्हैयालाल कपूर, खान बहादुर, अब्दुल रहमान चुग़ताई आदि ने मंटो के पक्ष में अनेक बार गवाही दी। और रूढ़िवादियों को समझाया कि मंटो की कहानियों में कामुकता जगाने वाली कोई अश्लील चीज़ नहीं। उनकी कहानियाँ प्रगतिशील हैं और उनका आधुनिक साहित्य में समावेश होता है। परन्तु इस बात को समझने में लोगों को ख़ासा समय लग गया और मंटो बेचारा बेमौत मारा गया।
मंटो और यौन विकृतियाँ :- मंटो, यौन विकृतियों पर लिखने के कारण सर्वाधिक बदनाम हुआ। जिस समय का पाठक खुले चित्रणों का अभ्यस्त नहीं हुआ था, उस समय मंटो समाज के रिसते नासूर को दिखा रहा था। अतः धार्मिक रूढ़िवादिता से ग्रस्त दृष्टिकोण वालों का आतंकित होना स्वाभाविक था। लेकिन प्रश्न यह है कि मंटो ने यौन-विकृतियों पर क्यों लिखा? क्या अपना नाम चर्चित करने के लिए अथवा सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के उद्देश्य से। यदि ऐसा होता तो वह एक या दो मुकदमें झेलकर शांत बैठ जाते। लेकिन वे आजीवन विवादों और विरोधों से घिरे रहने पर भी इस राह पर चलते रहे। बलराज मेनरा ने प्रश्न पूछते हुए लिखा है, ‘‘सवाल यह है कि मंटो ने यौन संबंधी विकृतियों पर क्यों लिखा, क्या चैंकाने के लिए? और इसी से मिलता-जुलता दूसरा सवाल यह है कि उसने वेश्याओं, दलालों और उच्छंखल लोगों पर क्यों लिखा? समाज के रिसते नासूर को दिखाने के लिए?’’ मंटो से पूर्व उर्दू साहित्य कल्पनाशील अधिक था। ऊँची-ऊँची काल्पनिक उड़ाने भरकर आदर्शवादी कहानियाँ लिखी जाती थी। मंटो ने सबसे प्रशंनसनीय कार्य यह किया कि वह इसे कल्पना लोक से वास्तविकता के धरातल पर खींच लाया। उसने स्वयं सच देखा और दूसरों को दिखाया। उस पर यौन-संबंधी विकृतियों के चित्रण का भले ही आरोप लगाया जाता रहा हो लेकिन वह यह मानने को तैयार नहीं था कि उसने अश्लील कहानियाँ लिखी हैं। वह कहता था कि उसकी कहानियाँ सत्य घटनाओं पर आधारित हैं। लोगों को अश्लील लगे तो वह क्या करे? वह घटना ही अश्लील है। उसके अनुसार पूरा समाज ही अश्लील है। वह मात्र फोटोग्राफर है। उसने एक भी अश्लील शब्द का प्रयोग नहीं किया है। उसने वेश्याओं, दलालों और किशोरिय मन को आधार बनाकर जो कहानियाँ लिखी उनमें सर्वाधिक यौन-विकृतियाँ मिलती हैं।
मंटो की जिन कहानियों पर मुकदमें चले उन्हीं पर यौन-विकृतियों का आरोप सर्वाधिक लगा। उनमें से ‘ठंडा गोश्त’ का वर्णन यहाँ अप्रासंगिक न होगा। मंटो का जिगरी दोस्त अहमद नसीम कासमी जब पाकिस्तान चला गया, उसने अपनी पत्रिका ‘नकूश’ के लिए बहुत दिनों तक बार-बार कोई कहानी भेजने का आग्रह किया। रिश्तेदारों के आग्रह और कुछ विकट परिस्थितियों के कारण जब मंटो भी पाकिस्तान चला गया, तब उसने वहाँ अपनी पहली कहानी ‘ठंडा गोश्त’ लिखी। जब कासमी साहब ने कहानी पढ़ी तो, तोते उड़ गए। घबराकर कहने लगे, ‘‘मंटो साहब, माफ कीजिए। अ़फसाना तो बहुत अच्छा है, लेकिन ‘नकूश’ के लिए बहुत गर्म है।’’ कासमी साहब ने ‘ठंड़ा गोश्त’ छापने से मना किया तो कहानी ‘अदब-ए-लतीफ’ में भेजी गई। जब प्रूफ निकल गया और सभी त्रुटियाँ ठीक कर ली गयी, तभी किसी की दृष्टि कहानी की विषयवस्तु पर पड़ी। एक सनसनी सी प्रकाशन विभाग में फैल गयी और कहानी छपने से रोक दी गयी। ‘नया दौर’ ने भी जब उसे छापने से मना कर दिया तो ‘ठंड़ा गोश्त’ को ठंड़े-चूल्हे पर रख दिया गया। लगभग एक वर्ष बाद ‘जावेद’ के विशेषांक मार्च 1949 में ‘ठंड़ा गोश्त’ छपी। जैसी कि आशा की जा रही थी ठीक वैसा ही हुआ। कहानी छपते ही भूचाल सा मच गया। ‘जावेद’ पर छापा लगा और समस्त सामग्री जब्त कर ली गयी। मामला कोर्ट में पहुँचा और कहानी के पक्ष-विपक्ष में अनेक गवाह प्रस्तुत हुए। जब फैज-अहमद-फैज ने कहा, ‘‘कहानी अश्लील नहीं, लेकिन साहित्य की उच्चादर्श भूमि को पूरा नहीं करती, तभी मौलाना अख्तर अली गरज़ पड़े, नहीं, नहीं, अब ऐसा अदब (साहित्य) पाकिस्तान में नहीं चलेगा। ........ इस कहानी की थीम है कि हम मुसलमान इतने बेशर्म हैं कि सिखों ने हमारी मुर्दा लड़की तक नहीं छोड़ी।’’
‘ठंडा गोश्त’ की कहानी में दो प्रमुख पात्र हैं- ईशर सिंह और कुलवंत कौर। दोनों गँवार सिख हैं और शारीरिक दृष्टि से बहुत तगड़े हैं। कहानी के अनुसार ईशर सिंह को यौन-तृप्ति सिर्फ कुलवंत कौर जैसी औरत से ही और कुलवन्त को यौन-तृप्ति ईशर सिंह जैसे मजबूत और तन्दुरूस्त मर्द से ही मिल सकती है। दोनों एक दूसरे की काम वासना शान्त करते चले आ रहे थे, लेकिन एक समय कुलवन्त कौर को ऐसा अनुभव हुआ कि ईशर सिंह बदल गया। अब वह उसकी काम वासना को तृप्त करने में सक्षम नहीं, उसमें पहले जैसा पौरूष नहीं रहा। कुलवन्त को भ्रम होता है कि ईशर सिंह ने किसी अन्य स्त्री से संबंध बना लिए, इसीलिए वह उससे नाता तोड़ना चाह रहा है। लेकिन वास्तविक बात यह थी कि सरदार ईशर सिंह एक जबरदस्त जिन्सी (यौन) विघटन का शिकार हो गया था, जिसके कारण उसकी जिन्सी कूवत (यौन शक्ति) लकवाग्रस्त हो चुकी थी। वह लूटमार में कई क़त्ल करने के बाद एक नौजवान लड़की उठा लाया था, जिससे अपनी कामवासना शान्त करना चाहता था, लेकिन जब उसने ऐसा करना चाहा तो उसे ज्ञात हुआ कि लड़की तो मारे ड़र उसके कंधो पर ही मर चुकी थी और उसके सामने एक ठंडी लाश पड़ी थी। इस घटना का ईशर सिंह पर इतना भयानक असर हुआ कि वह नामर्द हो गया। ‘ठंडा गोश्त’ कहानी को भले ही मंटो की लकवाग्रस्त मानसिक प्रवृति का परिणाम कहा गया हो, लेकिन स्पष्ट है कि मंटो इस मनोवैज्ञानिक सत्य से किस हद तक व़ाकिफ था कि आन्तरिक भय मनुष्य को नामर्द अथवा पौरूषहीन बना देता है।
जिन विषयों को लेाग अश्लील और अनैतिक मानते रहे, मंटो उनमें यथार्थ की पृष्ठभूमि खोजता रहा। जब प्रयोगधर्मिता ने साहित्य की दिशा और दशा को परिवर्तित और परिवर्धित किया तो लोगों को लगा कि लीक से हटकर भी बहुत कुछ अच्छा लिखा जा सकता है। आज का पाठक जब अश्लील और अशिष्ट विषयों को पढ़कर उनसे अपनी सम्मति देता प्रतीत होता है, तब मंटो की याद बरबस ही आ जाती है। विभिन्न विकृतियों को देखकर लगता है कि यौन शिक्षा भी पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा होनी चाहिए अतः मंटो की दाद देनी होगी, जिसे इसका अनुभव वर्षों पूर्व हो गया था। उसकी यौन-विकृतियों को आधुनिक शिक्षा का अंग स्वीकार किया जाना चाहिए। यह सर्वविदित है कि मनुष्य आनन्द की अनुभूति के लिए साहित्य पढ़ने के साथ ही कई और तरह के हथकंडे भी अपनाता है। वर्तमान में यौन सम्बन्धों पर आधारित साहित्य को जबरदस्त स्वीकृति मिल रही है। ऐसे विषयों पर लिखने के कारण ही सलमान रश्दी को मिडनाईट चिल्ड्रन और बलादीमीर को लोलिता पर बुकर तथा नॉबल प्राइज़ मिल चुके हैं। इसलिए आज के सन्दर्भ से देखें तो मंटो का साहित्य बहुत महान है।