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उग्र साहित्य की प्रासंगिकता

13 अगस्त 2022

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 साहित्यकारों की प्रासंगिकता और अप्रासंगिकता के बारे में अक्सर प्रश्न उठाया जाता रहा है। लेकिन जो साहित्य विभिन्न समस्याओं और सत्यों का दर्शन कराता हो, उसकी प्रासंगिकता कभी समाप्त नहीं होती, क्योंकि वे सत्य मानव जीवन के मूलभूत सत्य होते हैं। क्या वाल्मीकि और व्यास कभी अप्रासंगिक हो सकते हैं? उन्होंने मानव के जिन आदर्शों का स्वप्न देखा था, उसे प्राप्त करने में अभी मानव जाति को न जाने कितना समय लग जाए। यदि ‘उग्र’ साहित्य की प्रासंगिकता की बात करें तो उसे दो स्तरों पर देख सकते हैं- प्रथम तो उसकी अपने समय में क्या प्रासंगिकता रही? और दूसरे आज उनका साहित्य किन अर्थों और रूपों में स्वीकार किया जाता है, पाठक व आलोचक उसे किस दृष्टि से देखते हैं? 

‘उग्र’ ऐसे साहित्यकार थे जिन्होंने जन समाज की आशाओं-आकांक्षाओं का सदैव प्रतिनिधित्व किया। उन्हें मानव की पूर्ण प्रतिष्ठा में विश्वास था। उनके साहित्य की देन सारे समाज की मंगल चेतना का आकलन है। उनको समाज द्वारा कभी घृणा, कभी इर्ष्या, कभी प्रशंसा और कभी प्रोत्साहन मिलता रहा, लेकिन किसी की परवाह किए बिन वे निरंतर प्रगति पथ पर अग्रसर रहे। तत्कालीन साहित्य की लगभग सभी विधाओं में उन्होंने विश्वासपूर्वक लिखा। उन्हें युग प्रवर्तक साहित्यकार होने का गौरव भले ही न मिला हो, परन्तु पूरे द्विवेदी युग, छायावाद और प्रगतिवाद युग में उनकी अलग रही। हर कोई उनकी प्रतिभा को पहचानता था। असंगतियों से बचने के लिए उन्होंने अनेक उपनामों से भी पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखा। 

यह गौर करने वाली बात है कि ‘उग्र’ के साहित्य में ऐसा क्या है जो उसने अपने समय में हंगामा खड़ा कर दिया था। समय-समय पर उनके लगभग बीस कहानी संग्रह और एक दर्जन से अधिक उपन्यास प्रकाशित हुए। जिनमें से अधिकांश चर्चा का विषय अवश्य बने। अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाकर ‘उग्र’ ने जो कुछ लिखा वह काफी समय तक अप्रासंगिक या मूल्यहीन लगने की सम्भावना नहीं लगती। क्योंकि समाज में फैली गंदगियों का कूड़ा बटोरकर आग लगाना, उनका स्वभाव हो गया था। वे उन लेखकों की पंक्ति में आते हैं जिन्होंने आलोचकों की अभिरूचि के अनुरूप न लिखकर पाठकों के अनुरूप लिखा। पाठक को क्या चाहिए, इसकी उन्हें परख थी। उन्होंने सच को सच कहने में कभी आनाकानी नहीं की। कल्पना की ऊँची उड़ान न उड़कर जैसा देखा वैसा वर्णित कर दिया। उपन्यासों के अतिरिक्त उनकी चाकलेट, चाँदनी, प्यारे, भुनगा, माँ, बलात्कार, बदमाश, मलंग, खूँखार मौला, ईश्वर द्रोही, खुदा के सामने, शाप, जल्लाद, चौड़ा छुरा, वीभत्स आदि कहानियाँ भी अत्यधिक चर्चित रही। 

‘चाकलेट’ के कारण ‘उग्र’ बदनाम होकर भी पूरे हिन्दी समाज में प्रसिद्धि पा गए थे। ‘प्यारे’ कहानी पर बहुत विवाद उठा था। देश भक्ति की भावना से परिपूर्ण होने के कारण, इस पर ब्रिटिश सरकार ने आपत्ति जताई थी। इसने साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार को इतना अधिक उत्तपत कर दिया था कि कोलकाता के तत्कालीन प्रशासक ने इसके वितरण पर पाबन्दी लगा दी थी। प्रतिबंधित होने के कारण यह उस समय ‘चिंगारियाँ’ नामक संकलन में सम्मिलित होने से वंचित रह गयी थी। ‘चाँदनी’ का नाम उनकी सबसे अधिक विवादास्पद कहानियों में लिया जाता है। जब यह प्रकाशित हुई इस पर घोर अश्लीलता का आरोप लगा था। चाँदनी एक सिंहली युवती है, जो महाराज के दरबार में नृत्य करके भी अपना शरीर बेचना नहीं चाहती। व्यंग्य और करूणा का इस कहानी में अद्भुत संगम है। हिन्दू-मुस्लिम दंगों को आधार बनाकर लिखी गयी, चौड़ा छुरा और खुँखार मौला की विषयवस्तु और निष्कर्ष को लेकर काफी विवाद उठ खड़ा हुआ था। इसी प्रकार आँखों में आँसू, ईश्वर द्रोही, खुदा के सामने, शाप, खुदाराम जैसी कहानियों के माध्यम से ‘उग्र’ ने हिन्दू-मुस्लिम दंगो और साम्प्रदायिकता के ऊपर करारा व्यंग्य किया है। तत्कालीन समय में इस प्रकार की कहानियों की खूब चर्चा रही। कला का पुरस्कार, वीभत्स, जल्लाद, बदमाश, पोली इमारता, मलंग, बलात्कार, पंजाब की महारानी, रिसर्च, दोज़ख की आग आदि कहानियाँ भी बहुप्रसंशित और बहुचर्चित रही। 

कला का पुरस्कार, एकांगी प्रेम के पराभव को चित्रित करती है। ‘वीभत्स’ में ‘उग्र’ ने आदमी की मजबूरी और ज़िन्दगी का वीभत्स चित्रण किया है। ‘जल्लाद’ अत्यधिक मार्मिक कहानी है। कुछ आलोचकों का कहना है कि हिन्दी की चंद अमर कहानियों में इसको स्थान दिया जाना चाहिए। ‘बदमाश’ मनोवैज्ञानिक सत्य पर आधारित कहानी है। ‘मलंग’ न केवल सम्प्रदायवाद की भावना, बल्कि व्यक्ति के सामाजिक कुसंस्कारों पर भी उचित आक्रमण करती है। ‘पंजाब की महारानी’ अपनी विषयवस्तु के कारण ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त हुई थी। ‘उग्र’ की कहानियाँ विविधतामयी हैं। अनेक विषय उनमें समाहित हैं। सच कहा जाए तो अपनी रचना चमत्कारिता के कारण वे अपने समकालिकों से काफी आगे दिखाई देते हैं। इसीलिए उन्हें प्रेमचंद और प्रसाद के अतिरिक्त एक तीसरे स्कूल का संस्थापक भी माना गया। उनकी साम्प्रदायिकता के सवाल से टकराने वाली कहानियाँ ठेट कबीरी अंदाज की हैं, जो धर्म के नाम पर लड़ने वाले हिन्दू या मुसलमान को नहीं बख्शती। इन कहानियों में उन्होंने बार-बार इस बात पर बल दिया है कि धर्म जोड़ता है तोड़ता नहीं। 

‘उग्र’ ने अपने जीवनकाल में लगभग एक दर्जन उपन्यास लिखे। यह उपन्यास यात्रा ‘चंद हसीनों के खतूत’ से आरम्भ होकर ‘सब्जबाग’ पर समाप्त होती है। उन्होंने अपने कथा-साहित्य के माध्यम से जिन विषयों, प्रश्नों और मुद्दों को उठाया, वे उस समय साहित्य की परिधि से दूर और वर्जित समझे जाते थे। यही कारण रहा कि उन्हें उपेक्षित रचनाकार मान लिया गया। उनके कथा-साहित्य का प्रधान उद्देश्य यथार्थवाद और मनोरंजकता है। अपनी अतियथार्थवादिता के कारण वे अपने जीवनकाल में ही ‘बेस्ट सेलर’ का खिताब प्राप्त कर चुके थे। जो कुछ लिखते हाथों-हाथ बिकता था। उनकी कहानियों और उपन्यासों की पाठकों में हमेशा मांग रही। 

उस समय के सम्मानित पत्रों में भी कभी-कभी ‘उग्र’ की रचनाएं प्रकाशित होती थी। क्योंकि उनकी रचनाओं की माँग जनता में थी इसलिए पत्र उन्हें छापना चाहते थे। लेकिन उनकी रचना कोई विस्फोट न कर दे इसका भय भी संपादकों को रहता था और उनसे बैर मोल लेना साधारण लोगों के वश के बाहर की बात थी। आम पाठक वर्ग तो उनकी कलम का लोहा मानता ही था। आलोचक-इतिहासकार भी उनके महत्व को समझने लगे थे। लेकिन वे समाज में फैली रूढ़ियों पर जब भी प्रहार करते तब उन्हें बदनाम करने का भरसक प्रयत्न किया जाता। परन्तु ऐसा संयोग बनता रहा कि वे प्रसिद्धि पाते रहे। दर्शक को क्या चाहिए, इसका प्रमाण उन्होंने अपने नाटकों और फिल्मी जीवन के द्वारा दिया। उन्हें बाजार-भाव और पाठक के मन-मस्तिष्क की परख थी। तभी तो वे निराला को सुनाकर हमेशा कहा करते थे, ‘‘मैं मिड़िल फेल बाजार सम्राट हूँ, हिन्दी लेखकों में अकेला रेस खेलता हूँ, स्टेटस्मैन पढ़ता हूँ, विलायती शराब पीता हूँ।’’ 

जब हिन्दी लेखकों की दयनीय दशा थी, रोजी-रोटी के लाले थे, उस समय ‘उग्र’ अपने लेखन से अच्छी-खासी कमाई कर रहे थे। सम्भवतः इसी कारण उनके समकालिक लेखक-आलोचक उनसे चिढ़कर उनकी उपेक्षा करते हुए कहते हों कि वे अश्लील साहित्य अधिक लाभ कमाने के लिए लिखते हैं। लेखकीय कर्म उनके लिए ताने-उलाहनों भरा अवश्य रहा, पर घाटे का सौदा कभी नहीं रहा। उस समय के बड़े व प्रतिष्ठित प्रकाशक भी उनकी लेखनी के वशीभूत थे। उनके यायावारी जीवन ने उन्हें समाज के कोने-कोने से अवगत करा दिया था।  

जिस समय ‘उग्र’ के उपन्यासों के प्रकाशन का सिलसिला आरम्भ हुआ, उन्होंने बिकरी के पूर्ववर्ती सभी रिकार्ड तोड़ दिए थे। सन् 1923 में प्रकाशित ‘चंद हसीनों के खतूत’ ने मतवाला मंडल कार्यालय की प्रसिद्धि में चार-चाँद लगा दिए थे। उपन्यास की तीन वर्षों में पाँच हजार से अधिक प्रतियाँ बिक गई थी। हिन्दी उपन्यास लेखन के क्षेत्र में एक नया भूचाल आ गया था। इससे अनेक लेखकों को नई प्रेरणा मिली। उपन्यास विधा को नई दिशा और दशा मिली। इससे प्रभावित होकर प्रेमचंद ने पत्रात्मक शैली में एक लम्बी कहानी यानी लघु उपन्यास, लगभग 20 हजार शब्दों में लिखी जो ‘माधुरी’ पत्रिका में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुई। जिस कृति से स्वयं प्रेमचंद प्रभावित हुए हों और उसके आधार पर वैसी ही रचना लिखी हो, तो भला उसकी प्रासंगिकता के विषय में क्या कहा जाए? उस समय अधिकांश युवक ‘चंद हसीनों के खतूत’ की प्रति पाठ्यक्रम की पुस्तकों के साथ बगल में दबाए फिरते थे। इसी कारण कई आलोचकों ने हिन्दी के कुछ श्रेष्ठतक प्रेमपरक उपन्यासों में इसकी गणना, अनेक आरोपों के उपरांत भी की है। ‘दिल्ली का दलाल’ तत्कालीन समाज की वास्तविक स्थिति का यथार्थ चित्रण है। ‘दिल्ली का दलाल’ के कारण ही इसके प्रकाशक ‘बालकृष्ण प्रेस कोलकाता’ ने अपना नाम बदलकर ‘बीसवीं सदी प्रकाशन मंडल’ रख लिया था। और इसकी एक शाखा मिरजापुर में भी खुल गई थी। यह सारा करिश्मा ‘दिल्ली का दलाल’ के कारण हुआ था। इस पर भले ही अश्लीलता के आरोप लगे हों, पर ‘दिल्ली का दलाल’ की रचना करके ‘उग्र’ ने हिन्दी पाठकों के हृदय में अपना सुदृढ़ स्थान बना लिया था, जो प्रतिकूल आलोचनाओं के बावजूद अक्षुण्ण बना रहा। 

जिस दलित विमर्श की चर्चा आज हिन्दी साहित्य में जोरों पर है, उस पर ‘उग्र’ ने बहुत पहले कलम चलाई थी। ‘बुधुआ की बेटी’ के माध्यम से उन्होंने इस विषय को विशेष अभिव्यक्ति दी। उस समय तक यह विषय हिन्दी में एक तरह से वर्जित सा था, इसलिए इस पर विवाद भी बहुत हुआ। उनको यह उपन्यास बहुत प्रिय था। इसलिए इसके प्रथम प्रकाशन सन् 1927 के 37 वर्षो बाद सन् 1964 में इसकी भाषा संबंधी तथा छोटी-मोटी भूलों में सुधार करते हुए उन्होंने ‘मनुष्यानंद’ के नाम से इसे पुनः प्रकाशित कराया था। ‘शराबी’ की विषयवस्तु से प्रेमचन्द अत्यधिक प्रभावित थे। उन्होंने जैनेन्द्र को एक पत्र द्वारा बताया था कि पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ का उपन्यास ‘शराबी’ बेहद मौलिक और नई चेतना का प्रतिनिधि था। प्रेमचंद ने ‘शराबी’ के साथ प्रसाद जी के ‘कंकाल’, वृंदावनलाल वर्मा के ‘गढ़ कुंडार’ को भी मौलिक माना था, लेकिन कथ्य की नवीनता, प्रस्तुतिकरण की रोचक शैली तथा भाषा की अभिनवता के साथ प्रस्तुत करने में ‘शराबी’ को प्रथम स्थान पर रखा था। इसी प्रकार ‘उग्र’ के घंटा, सरकार तुम्हारी आँखों में, जी जी जी, कढ़ी में कोयला आदि की भी अपने समय में काफी चर्चा रही। ‘फागुन के दिन चार’ में उनका फिर नया तेवर दिखा, जिसमें उन्होंने फिल्मी जगत तथा काशी के कथक समाज में व्याप्त व्यभिचार से परदा उठाया। 

कुल मिलकर देखा जाए तो ‘उग्र’ का साहित्य अपने समय में अत्यधिक प्रासंगिक रहा। उसने प्रसिद्धि के नए कीर्तिमान स्थापित किए। कुछ लोग उन्हें हिन्दी-कथा साहित्य में एक अलग स्कूल का संस्थापक भी मानते है, जिसमें ‘उग्र’ के अलावा कुशवाहा कान्त, गोविन्द सिंह, प्यारे लाल आवारा आदि को रखा जाता है। 

‘उग्र’ के साहित्य को लेकर मैंने कई विद्वानों के साथ बातचीत की है लेकिन उनमें से अधिकांश ने उन्हें मामूली सा व्यंग्य कथाकार ही कहा है। शायद ये उनकी बदनामी का ही परिणाम है जो उन्हें आज तक अछूत बनाए हुए है। उनका बड़ा अपराध यही माना जा सकता है कि वे समय से आगे की बात लिख गए। आज यह कितना हास्यास्पद लगता है कि समलैंगिकता के ऊपर लिखी उनकी कहानियों के कारण उनके बहिष्कार का आन्दोलन चला था। आज जब मनुष्य और मनुष्यता को हाशिये पर लाने का प्रयास निरंतर जारी है। साम्प्रदायिक शक्तियाँ नई ताक़त के साथ उभरकर, सामाजिक सद्भावना छिन्न-भिन्न कर रही हैं। ऐसे में ‘उग्र’ की याद आना स्वाभाविक है। वे एक भविष्य दृष्टा कथाकार के रूप में हमारे सामने आते हैं। अपनी मृत्यु के बाद लगभग 30-35 वर्षों तक साहित्य जगत में बिलकुल अचर्चित रहने के बाद शताब्दी वर्ष में उन्हें फिर से स्मरण किया गया। वर्जित विषयों पर लिखे जाने के कारण वे उपेक्षित रहे और भुलावे का शिकार भी बने। लेकिन उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से जिन विषयों को उठाया वे हर युग की सच्चाई हैं। उनसे मुँह चुराना, समाज में फैली गंदगी से मुँह फेरना है। हिन्दी साहित्य में वे अकेले रचनाकार हैं, जिनके बहिष्कार का आन्दोलन चला था। 

‘उग्र’ के रचनात्मक जीवन का लक्ष्य था, सामाजिक गंदगी, नारी यौन शोषण, दलित समस्या, राजनीतिक भ्रष्टाचार आदि के प्रति लोगों को सचेत करना। इसलिए हिन्दी साहित्य में चलने वाले आज के अधिकांश विमर्शों में वे सम्मिलित हैं। उन्होंने ऐसे साहित्य की रचना की जो हृदय के अन्तराल की गहराई में उतर जाता है। उनकी कुछ कहानियाँ और उपन्यास तो हिन्दी साहित्य की अमर सृष्टियाँ बन गई हैं। उन्हें जितनी बार भी पढ़ते हैं, उनमें नवीनता का आभास होता है। वे नया अर्थ बोध देने के साथ ही समाज का बदलता स्वरूप भी पाठक के सामने प्रस्तुत करने में सक्षम हैं। ‘कला का पुरस्कार’ एक ऐसी कहानी है, जो आज के भारतीय कलाकार और लेखक, सृजन कार्य में लगे हुए सारे लोगों की वास्तविक परिस्थिति, सही और स्पष्ट ढंग से उपस्थित करती है। कलाकार को उसकी कला का उचित मूल्य न पहले मिलता था और न आज मिलता है। 

वे भाषा, कथा-चमत्कार और स्थापत्य की दृष्टि से अपने समकालीन लेखकों से कुछ आगे दिखाई देते थे। इसलिए उनका कथा-साहित्य आज भी पुराना नहीं, नया लगता है। यदि तुलनात्मक दृष्टि से अनुशीलन किया जाए तो उनका कथा-साहित्य गुण या परिमाण में किसी भी बड़े रचनाकार से निम्न या हीनतर नहीं है। उनके कथा-साहित्य का उद्देश्य, रस प्रदान करने के साथ ही सुधार भी है। उनके उपन्यासों की तत्कालीन समय में धूम रही है। उन पर नए विवाद उठे, चर्चा के विषय बने। उनकी लोकप्रियता का अलम यह है कि प्रकाश उन्हें आज भी ज्यों के त्यों अर्थात् पुराने संस्करणों के रूप में ही प्रकाशित कर रहे हैं। ‘चन्द हसीनों के खतूत’ पहली बार सन् 1927 में मतवाला मंडल कार्यालय, कोलकाता से प्रकाशित हुआ था। लेकिन यह इसकी प्रसिद्धि का ही प्रभाव है कि सन् 1987 में वाणी प्रकाशन ने इसे पुनः प्रकाशित किया। ‘शराबी’ उपन्यास का आत्माराम एण्ड संस, प्रकाशक दिल्ली ने सन् 1967 में पुनः प्रकाशन किया। ‘सरकार तुम्हारी आँखो में’ उपन्यास को वाणी प्रकाशन, दिल्ली ने सन् 2007 में पुनः प्रकाशित किया और आज तक उनकी पुस्तक सूची में इसका नाम समाहित है। 

वर्तमान में ‘उग्र’ के जिन उपन्यासों की चर्चा सबसे अधिक होती रही है, उनके नाम हैं- कढ़ी में कोयला, जी जी जी, फागुन के दिन चार और गंगामाता। कढ़ी में कोयला और जी जी जी का सन् 1999 में राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली से पेपर बैक्स में पुनः प्रकाशन हुआ। दोनों उपन्यासों के प्रकाशकीय में लिखा है, ‘‘अपने समय के विद्रोही लेखक ‘उग्र’ जी का रचनात्मक साहस और अनुभवगत वैविध्य, समाज और साहित्य के लिए आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना तब था। बल्कि कहना चाहिए कि हमारे आज के दोमुहेपन और सामाजिकता के तहत स्वीकार्य मान ली गई ‘हिप्पोक्रेसी’ को देखते हुए ऐसे साहित्य की ज़रूरत अब और भी ज़्यादा है जो कड़वी चीजों को कड़वे ही ढंग से सामने रखता हो, ताकि पता चले कि वास्तव में हम कहाँ आ पहुँचे हैं। ‘उग्र’ जी में वह धार थी जो झूठ को कटती है।’’ राधाकृष्ण प्रकाशन ने उक्त दोनों उपन्यासों को ज्यों का त्यों प्रकाशित किया है। जी जी जी ‘उग्र’ का एक मात्र आदर्शवादी उपन्यास है। जिसमें अनमेल विवाह के दुष्परिणाम को दिखाया गया है। 

डॉ भवदेव पाण्डेय ने ‘उग्र’ के अनेक संस्मरण और कुछ असंकलित रचनाओं को संग्रहीत करके सन् 2008 में ‘भरतीय ज्ञानपीठ दिल्ली’ से प्रकाशित कराया। राजशेखर व्यास ने उनकी कहानियों को संपादित कर ‘उग्र संचयन’ भाग-1 व 2, नाम से 2013 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित कराया। यह सब ‘उग्र’ की लोकप्रियता नहीं तो और क्या है कि प्रकाशक उनकी रचनाएँ आज भी प्रकाशित कर रहे हैं। इतना ही नहीं एन.सी.इ.आर.टी. ने उनकी कहानी ‘उसकी माँ’ को इन्टरमीडिएट के पाठ्यक्रम में शामिल किया हुआ है। ‘वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय, कोटा (राजस्थान), और ई-पाठशाला’ ने उनकी आत्मकथा ‘अपनी खबर’ को स्नातकोत्तर कक्षाओं के पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया हुआ है। इन सब उदाहरणों को देखकर लगता है कि ‘उग्र’ आज भी पूरी तरह से प्रासंगिक हैं और पाठक उन्होंने रूचि के साथ पढ़ रहे हैं।      

वर्तमान परिप्रेक्ष्य और ‘उग्र’- काव्यशास्त्र में एक प्रश्न बार-बार उठता रहा है कि सौन्दर्य वस्तु में है या फिर देखने वाले की दृष्टि में। उसी प्रकार ‘उग्र’ के विषय में अभी तक यह निर्णय नहीं हो पाया है कि वे मामूली से व्यंग्यकार हैं या युग प्रवर्तक कथाकार। उनका साहित्य विवादास्पद है अथवा नहीं। यदि अश्लील और विवादास्पद है तो किस कारण? सुंदर-श्लील है तो कैसे? 

उनका नाम जितना विचित्र है, उनका व्यक्तित्व और कृतित्व भी उतना ही आश्चर्यचकित करने वाला है। यही कारण है कि उनको समझने की आलोचकों ने सदैव भूल की और उनकी रचनाओं में दोष ही दोष दिखाए। एक ओर यदि प्रशंसक उन्हें गद्य शैली का श्रेष्ठ शैलीकार, अतियथार्थवादी वर्ग का श्रेष्ठ कथाकार, तेज तर्रार पत्रकार, निबंधकार आदि अनेक उपाधियों से अलंकृत करते हैं। तो दूसरी ओर ऐसे भी लेखक-आलोचक हैं जो उन्हें घासलेटी लेखक, प्रकृतवादी, कुत्सित और अश्लील साहित्य परोसने वाला लेखक घोषित करते हैं। ऐसी स्थिति में सामान्य पाठक निर्णय नहीं कर पाता है कि वास्तविकता क्या है? भ्रमित करने वाली ऐसी बयानबाजी के बीच ‘उग्र’ का व्यक्तित्व और कृतित्व ढक सा गया है। प्रायोजित आन्दोलनों के कारण वे स्मृति लोप का शिकार भी हुए हैं। ऐसे अनेक उदाहरण प्रकाश में आए हैं, जिनसे उनकी कम आकलनी का पता चलता है। आलोचकों की बुद्धि निर्णायक मत नहीं दे पायी है। एक आलेख में स्मृति जोशी ने लिखा है, ‘‘उपन्यासकार के रूप में जब ‘उग्र’ ने ‘चाकलेट’ का सृजन किया तो साहित्य में हड़कंप मच गया।’’ जोशी जी को याद रखना चाहिए कि ‘चाकलेट’ उपन्यास नहीं बल्कि समलैंगिकता के ऊपर लिखी हंगामाखेज़ कहानियों का संग्रह है। जिसके कारण ‘उग्र’ के विरूद्ध ‘घासलेटी आन्दोलन’ चला था। ‘उग्र’ पूरे साहित्य जगत में बदनाम हो गए थे। यहाँ तक कि चिढ़कर उन्होंने साहित्य सेवा का त्याग भी कर दिया था। इस समय तक ‘उग्र’ की उपन्यासकार के रूप में प्रसिद्धि भी नहीं हुई थी और न उनका कोई उपन्यास ही प्रकाशित हुआ था। इसी प्रकार ‘हिन्दी-साहित्य’ नामक पुस्तक में, जिसके संपादक मंडल में हजारी प्रसाद द्विवेदी, डा. नगेन्द्र, डा. ब्रजेश्वर वर्मा तथा डा. रघुवंश हैं ‘चाकलेट’ और चुबंन’ को उपन्यास बताया गया है। जबकि ‘चुंबन’ नाटक है। यह सब ‘उग्र’ के साथ चालाकी नहीं तो क्या है? इसी प्रकार के और बहुत से उदाहरण खोजते हुए डा. क्षमाशंकर ने अपनी पुस्तक ‘उग्र’- विमर्श में लिखा है, ‘‘उग्र’ का व्यक्तित्व ही नहीं कृतित्व भी आलोचकों और रचनाकारों के बीच भ्रम का शिकार बना रहा है। इसका एक उदाहरण है ‘बुढ़ापा’। ‘उग्र’ के जीवन में ही यह भ्रम बराबर बना रहा कि यह कहानी है या निबन्ध। प्रेमचंद जी ने इसे कहानी माना था तो पद्म सिंह शर्मा कमलेश ने निबंध।’’ आचार्य रामचंद्र शुक्ल और डा. नगेन्द्र इसे भावात्मक निबंध कहते हैं। ‘उग्र’ की ‘इंद्रधनुष’ नामक पुस्तक को सुधाकर पांडेय ने कहानी संग्रह माना है। जबकि इस पुस्तक में ‘उग्र’ की विविध रचनाएं संकलित हैं जिनमें निबंध, कहानी, प्रहसन, एकांकी, गीतिनाट्य आदि सभी कुछ है। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि ‘उग्र’ की रचनाओं को लेखक-आलोचक ठीक से नहीं समझ पाए हैं। अतः उनकी भृत्सना हुई और वे औचित्यहीन आलोचना के शिकार बने। 

‘उग्र’ अपने विद्रोही लेखन के कारण सदैव चर्चा के विषय बने रहे। इसीलिए वे मत्सरी आलेचना के शिकार बने भी बने। आलोचकों ने उनके महत्व को स्वीकार करते हुए भी, उनकी अनदेखी की। इतिहास गवाह है, आदर्शवादी युग में कई यथार्थवादी लेखकों के साथ ऐसा दुर्व्यवहार हुआ था। जिस समय साहित्य में ‘उग्र’ का प्रवेश हुआ, उस समय साहित्य में आदर्शवाद की प्रतिष्ठा थी। साहित्य यथार्थ से अधिक कल्पना में लिखा जाता था। क्रूर और घिनौनी चीजों का साहित्य में नाम लेना भी अपराध समझा जाता था। जबकि तत्कालीन समाज में दबे ढ़ग से अनैतिक व्यापार तो खूब चलता था, लेकिन साहित्य में उसका उजागर होना निंदनीय था। समाज में कुछ ऐसी कुरीतियाँ फैली हुई थी, जिन्होंने ‘उग्र’ को झकझोर दिया। अतः कलम उठाकर ‘उग्र’ ने सामाजिक कुरीतियों का यथार्थ और नग्न चित्रण आरंभ कर दिया। इस कारण आदर्शवादी उनसे चिढ़ गए और सबक सिखाने के उद्देश्य से उन्होंने ‘उग्र’ के विरूद्ध सीधा मोर्चा खोल दिया। सुधाकर पाण्डेय लिखते हैं, ‘‘उग्र’ सामाजिक विद्रूपताओं पर तिलमिला उठते थे, उनका उग्र स्वभाव उग्रतर हो जाता था और वे कलम की जगह कुठार उठा लेते थे। परशुराम के अवतार हो जाते थे। उन्होंने कुत्सित चरित्र को अपना लेखन विषय बनाकर उसका संहार किया है। जिससे वे एक सम्मोहन उत्पन्न करते हैं। वे अपने मकड़ जाल में पाठकों को बांध लेते हैं। इसीलिए लोग उन्हें प्रकृतवादी, कुत्सित, अश्लील लेखक कहते हैं। उनकी यथार्थवादी, सुधारवादी प्रकृति को इस शैली ने प्रकृतवाद का वस्त्र प्रदान कर दिया था। इसीलिए वे निंदा और प्रशंसा दोनों के भागीदार बन गए।’’ 

‘उग्र’ के बहुविधात्मक लेखन में मानवीय कमजोरियों को उजागर किया गया था। वर्जित विषयों पर लिखते हुए वे मानवतावादी उद्देश्यों से ज़रा भी विचलित नहीं हुए थे। छद्मों का परदाफाश करके बुराई को प्रकाश में लाना उनका प्रमुख उद्देश्य था। उन्होंने उन विषयों को अपने लेखन का आधार बनाया था, जो उनके समकालीनों से छूट रहा था। स्वतंत्रता पूर्व और स्वतंत्रता बाद लिखते हुए वे अपने समकालीनों के बीच एकदम अलग दिखाई देते रहे। उनका लेखन अभी भी सही मूल्यांकन की अपेक्षा रखता है। जो उनका प्राप्तव्य था वह उन्हें कभी नहीं मिला। उपेक्षाओं के बीच ‘उग्र’ का कृतित्व दबकर रह गया है। लेकिन अनेक दृष्टियों से विचार करने पर सिद्ध हुआ है कि ‘उग्र’ युग प्रवर्तक कथाकार हैं क्योंकि विषय की दृष्टि से ऋषभचरण जैन और शिल्प की दृष्टि से अनूप मंडल ने उनका अनुकरण किया है। 

‘उग्र’ का बचपन जिन परिस्थितियों में बीता था, उनमें उनका उग्र और उद्दंड हो उठना स्वाभाविक था। अपनी आत्मकथा में उन्होंने अपनी आर्थिक तंगियों का जैसा मार्मिक वर्णन किया है, उससे पत्थरों का दिल भी पिंघल सकता है। घोर अभावों के कारण उनका घर वेश्यावृत्ति और जुए का अड्डा था। रामलीला मंडलियों में होने वाले दुराभिचार को उन्होंने अपनी आँखों से देखा था। यहाँ तक कि इलाहाबाद की एक रामलीला मंडली में वे स्वयं एक नागा के दुराभिचार का शिकार बनते-बनते बचे थे। गुप्त रूप से समाज में चलने वाले इस प्रकार के विषयों को जब उन्होंने साहित्य में अभिव्यक्ति दी तो उन पर आरोप लगना स्वाभाविक था। साहित्य को समाज का दर्पण कहने वाले भी कड़वी सच्चाईयों को बर्दाश्त नहीं कर पाए। इस कारण ‘उग्र’ की चारों ओर अवहेलना हुई। 

‘उग्र’ ने विषय चयन, दिगम्बरी शैली, निजी अनुभव और चिंतन के आधार पर संकल्प लेकर साहित्य का उपयोग सृजन के तीव्र छुरे की तरह किया था। वे समाज में प्रचलित कुरीतियों पर तीखी व्यंग्यात्मक शैली में करारी चोट करते थे। उन्होंने कबीर के समान लुकाठी हाथ में लेकर जो कुछ कहा डंके की चोट पर कहा। अपनी आलोचनाओं से अवगत रहते हुए भी उन्होंने सत्य को सत्य कहने में चूक नहीं की। उनका व्यक्तित्व कबीर जैसा ही था, जिसका उल्लेख करते हुए डा. भवदेव पांडेय ने लिखा है, ‘‘अगर कोई पूछे कि बनारस में कबीर के बाद निर्भीक चेतना का लेखक कौन हुआ तो शायद उत्तर हो, पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’। लेकिन कबीर और बेचन के सच में थोड़ा अन्तर है। कबीर का सच लौकिक और आध्यात्मिक दोनों था, परन्तु बेचन का सच केवल लौकिक था। ...... दिल से सच बोलने के कारण बेचन को हर दरबार से दुतकारा गया, निकाला गया, और साहित्य के धर्माधिकारियों द्वारा बहिष्कार का फतवा जारी किया गया।’’ उन्हें धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और कामोद्दीपक अत्याचारों को झेलकर, निरंकुश, नग्न और उग्र होना पड़ा था। इसलिए उन्हें निंदा और उपेक्षा दोनों का सामना करना पड़ा। 

वे संपादक और पत्रकार तो थे ही, उन्होंने ‘मतवाला’ और अन्य पत्रों के माध्यम से कई क्रांतिकारी रचनाओं का सृजन किया। सामाजिक विडंबनाओं और कुप्रवृत्तियों का नग्न रूप समाज को दिखाया। लेकिन सोची-समझी राजनीति के कारण समकालीन पत्र-पत्रिकाओं ने उन्हें बदनाम करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। ‘विशाल भारत’ द्वारा चलाए गए ‘घासलेटी’ आन्दोलन को कौन नहीं जानता। काशी नागरी प्रचारिणी सभा और हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग जैसी संस्थाओं ने भी इनमें योगदान दिया। सरस्वती पत्रिका और प्रेमचंद ने भी उनका मजाक उड़ाया। भवदेव पांडेय कहते हैं, ‘‘पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ के निजी जीवन और उनके लेखन को लेकर अखबारों द्वारा उन पर कड़े प्रहार किए गए थे। उनके चरित्र पर कीचड़ उछाला गया था। उनके साहित्य को घासलेटी कहा गया। उनके उपन्यासों और कहानियों को अश्लील, समाज संहारक, उद्देश्यहीन, भोड़़ा और पागल का प्रलाप घोषित किया गया।’’ उनके साहित्य को अश्लील मानकर ही आलोचना की गई थी। उसमें छिपी गहराई को परखने का प्रयास तनिक से लोगों ने किया। आज के सन्दर्भ में यह कितना हास्यास्पद लगता है कि उस समय महात्मा गाँधी जैसे युग पुरूष से भी ‘उग्र’ की आलोचना का आह्वान किया गया था। 

प्रतिष्ठा और सम्मान से वंचित कथाकार : ‘उग्र’ ने साहित्य का परंपरा विमुख रूप लोगों के सामने रखा था इसलिए उसे स्वीकारने में कठिनाई हुई। वे समय से बहुत आगे की बातें लिख रहे थे, इस कारण उनकी शैली का अनोखापन बड़े-बड़े आलोचकों की भी समझ में नहीं आ रहा था। अतः उनके साहित्य में छिपी गहराई को ठीक से न समझकर, आलोचकों ने उन्हें अश्लीलता परोसने वाला मामूली-सा कथाकार मान लिया। उन्हें जो सम्मान और प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिल सकी। इसके पीछे अनेक सोची-समझी योजनाएं और व्यक्तिगत कारण रहे। हर किसी से झगड़ा मोल लेना ‘उग्र’ का स्वभाव था। उनकी मिरजापुरी गालियों को सहन करने की क्षमता किसी में नहीं थी। इसी कारण वे कभी एक स्थान पर टिककर भी नहीं रह सके। यायावारीपूर्ण जीवन में उन्हें सदैव हानि उठानी पड़ी। उनका सदैव क्षरण होता रहा। वे आज हमारे बीच नहीं, लेकिन उनकी कृतियाँ आने वाली पीढ़ी को सदियों तक रचनात्मक समृद्धि देती रहेंगी।  

डा. रत्नाकर पांडेय, सुधाकर पांडेय, डा. भवदेव पांडेय, डा. क्षमाशंकर, राजकमल चौधरी, विनोद शंकर व्यास और आचार्य नलिन विलोचन शर्मा ने ‘उग्र’-साहित्य को पर्याप्त महत्वपूर्ण माना है। एक समर्थक आलोचक के रूप में डा. भवदेव पांडेय ने ‘उग्र’-साहित्य का पूनर्मूल्यांकन किया। इन सब ने ‘उग्र’ की आलोचना यथार्थवादी दृष्टि से करते हुए उन्हें युग-प्रवर्तक साहित्यकार घोषित किया। 

डा. नगेन्द्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी, जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी और बनारसी दास चतुर्वेदी जैसे आलोचकों ने ‘उग्र’ को भले ही अधिक महत्व न दिया हो, लेकिन साहित्य में उनके अस्तित्व को कोई नकार भी नहीं सका। उनकी शैली और कला को सबने श्रेष्ठ एवं मौलिक माना था। लेकिन उनकी शैली का खरापन आलोचकों को चुभता भी रहा। निर्भीकता, स्पष्टवादिता और जीवन के प्रति संशयहीन दृष्टिकोण उनकी रचना का प्रधान गुण रहा। वे क्रांतिकारी लेखक थे, जिधर चलते थे, उधर ही तोड़फोड़ करते थे। समाज के प्रत्येक कुसंस्कार पर उन्होंने कुठाराघात किया। उन्होंने व्यक्ति विशेष अथवा समाज के मिथ्या चरित्र की तरफदारी कभी नहीं की। कोई उनके साथ नहीं चला, वे अपनी राह अकेले चलते रहे। उनकी रचनाएं उनके कोलाहलकारी मन की अनुगूंज हैं। ऐसा बहुत कम हुआ कि उनकी कोई रचना प्रकाशित हुई और वह चर्चा का विषय न बनी हो। आलेाचकों पर ‘उग्र’ की अधूरी आलोचना का आरोप लगाते हुए, भवदवे पांडेय ने उनके साहित्य को भूलभूलैया और चक्रव्यूह कहा है। क्योंकि आलोचक केवल उनकी रचनाओं को नैतिकता और अनैतिकता की कसौटी पर कसते रहे इसलिए उनका सही मूल्यांकन नहीं हो पाया।  

उन्होंने जिन विवादास्पद विषयों पर आज, मतवाला और अन्य पत्र-पत्रिकाओं में लिखा उनमें सत्य और स्वाभिमान का अंश आज भी स्पष्ट दिखाई पड़ता है। उनके व्यक्तिगत संपर्क में आए हुए लोगों के विचारों और स्वयं उनकी आप बीती का विवेचन करने से ज्ञात है कि वे प्रत्येक परिस्थिति में ज़िंदगी भर अपने मन, चित, विवेक और अहम् के अनुसार सारे समाज और बड़ी से बड़ी शक्तियों से लोहा लेते रहे। उग्र-साहित्य का अध्ययन करते हुए बार-बार मन में प्रश्न उठता रहा कि जल्लाद, बदमाश, मलंग, चांदनी, यह कंचन सी काया, पोली इमारत जैसी कालजयी कहानियाँ और चंद हसीनों के खतूत, बधुआ की बेटी, और शराबी जैसे अमर उपन्यास लिखने वाले ‘उग्र’ बदनाम क्यों हुए? शुक्ल जैसे मर्यादावादी समीक्षक ने उनकी आलोचना नहीं की थी, लेकिन डा. नगेन्द्र ने उन्हें दो कौड़ी का कथाकार माना। इससे लगता है कि वे परिस्थिति का शिकार थे। वे हिन्दी में व्यक्तिवादी आलोचना के एक मात्र साहसी प्रणेता है। जैसा अकसर महान साहित्यकारों के साथ होता रहा है, उनके साथ भी वैसा ही हुआ। इसलिए उनका विश्वास था, जैसे तुलसीदास अपने समाज द्वारा जीवन भर नहीं पहचाने जा सके, परंतु आगे चलकर उन्हें ही लोगों ने मनुष्यता की कसौटी मान लिया। अतः उन्हें पहचानने वाले भी कभी न कभी जागेंगे। 

‘उग्र’ का मर्मभेदी साहित्यकार रूप : किसी भी रचनाकार की छोटी से छोटी रचना के पीछे भी कोई न कोई प्रेरणा या प्रयोजन अवश्य होता है। शायद ही कोई रचना हो जो निष्प्रयोजन लिखी जाती हो। संस्कृत की उक्ति भी है, ‘बिन प्रयोजनं तू मूढ़ोऽपि न प्रवर्तते।’ अर्थात् बिन प्रयोजन के मूर्ख व्यक्ति भी किसी कार्य में संलग्न नहीं होता। ‘उग्र’ की रचनाओं के पीछे भी उनकी प्ररेणामयी भावना छिपी हुई है। फिर चाहे उनका उद्देश्य कोई नैतिक संदेश न होकर मात्र मनोरंजन ही क्यों न हो? समाज का एक्स-रे खींचना उनका प्रधान उद्देश्य था। अतः उनकी रचनाओं को तत्कालीन समाज का दर्पण कहा जा सकता है। उस समय की समस्याओं को उन्होंने अपनी रचनाओं का आधार बनाया है। उन्होंने स्वयं अपने उपन्यासों को समाजशास्त्रीय समस्या प्रधान बताया है। उनकी कहानियों की विषयवस्तु तत्कालीन हादसों और घटनाओं से उठाई गयी है। हादसे और घटनाएं भी ऐसी जो सभ्यों को सदैव असभ्य लगती रही। उन्होंने प्रेमचंद युग की आदर्शवादिता के विरूद्ध, जीवन के कुत्सित अंगो का चित्रण करके एक नवीन पथ का निर्माण किया। उनका प्रभाव प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उनके समकालीन तथा परवर्ती कई लेखकों पर देखा जा सकता है। दिल्ली का दलाल, चंद हसीनों के खतूत, बुधुआ की बेटी, सरकार तुम्हारी आँखों में, फागुन के दिन चार आदि ऐसे उपन्यास हैं जो ‘उग्र’ को लेखकों की भीड़ से अलग पंक्ति में ला बैठाते हैं। 

इसी प्रकार उन्होंने बहुत सी भावात्मक, राजनीतिक, ऐतिहासिक और प्रतीकात्मक कहानियाँ लिखी जो आज भी अनेक विशेषताओं के कारण स्मरण की जाती हैं। यही कारण है कि वे प्रसाद और प्रेमचंद के बाद हिन्दी साहित्य में एक मौलिक शिखर के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त थे। उनकी कहानियों का शैली शिल्प अनूठा है उनमें तत्कालीन युग की भावनाओं का स्पंदन है। वे सच्चे अर्थों में जनता के लेखक थे। उन्होंने जनसामान्य की भावनाओं के अनुरूप ही उपन्यास और कहानियाँ लिखी। जब उन्होंने समलैंगिकता के ऊपर ‘चाकलेट’ की कहानियाँ लिखी थी तो मतवाला मंडल को इस विषय पर लेखकों ने अनेक कहानियाँ लिखकर भेजी थी। उन समस्त को प्रकाशित न कर पाने की असमर्थता जताते हुए प्रकाशक महोदय को लेखकों से क्षमा याचना करते हुए अन्य कहानियाँ न भेजने का आग्रह किया गया था। 

‘उग्र’ के उपन्यास और कहानियों ने बड़े तूफान खड़े किए। उनकी अन्तर्वस्तु जितनी व्यापक है, उतनी ही गहरी भी है। उन्होंने समाज, व्यक्ति-जीवन और युग का जैसा यथार्थ साक्षात्कार किया अपने साहित्य में वैसा ही अभिव्यक्त किया। उसकी माँ, पंजाब की महारानी, नेता का स्थान, प्यारे, रेन ऑफ टेरर जैसी अनेक कहानियों की विषयवस्तु राजनीतिक है। देशभक्ति भावनापरक साहित्य लिखने के कारण वे कई बार रचना जब्ती का शिकार भी बने। ‘चाकलेट’ की कहानियों में तो उन्होंने समाज को बिलकुल नंगा करके दिखाया। जिसके कारण उनको साहित्य के ब्राह्मण समाज में अछूत समझा गया। 

उन्होंने अपने साहित्य में जिन विभिन्न विषयों को अभिव्यक्ति दी उनमें से साम्प्रदायिकता भी एक थी। उनके साहित्य का एक बड़ा भाग इस विषय से संबंधित है। हिन्दू-मुस्लिम विवाद की समस्या भारत में कई सौ वर्षों से चरम पर रही है। आज भी मंदिर-मस्जिद के नाम पर साम्प्रदायिक दंगे होते रहते हैं। वोटों की कलुषित राजनीति ने जिन्हें और भी बढ़ावा दिया है। साम्प्रदायिकता पर आक्षेप करते हुए ‘उग्र’ ने उसे अपने कई उपन्यास-कहानियों की विषयवस्तु के रूप में चुना। चंद हसीनों के खतूत का मूल स्वर साम्प्रदायिकता के खिलाफ हस्तक्षेप करना ही था। दोज़ख की आग, खुदा के सामने, मलंग, यह कंचन सी काया, चौड़ा छुरा, पोली इमारत, जैसी बहुत सी कहानियों की विषयवस्तु साम्प्रदायिकता है। ‘उग्र’ ने इस प्रकार की कहानियों में उन लोगों को बेनकाब किया है जो धर्म के नाम पर दंगे भड़काकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। वे धर्म की आड़ में होने वाले अधार्मिक कृत्यों से अत्यधिक आहत थे। ऐसी कहानियाँ तत्कालीन राष्ट्रवादी, समाजवादी, उदारवादी और उग्रवादी परिस्थितियों को हमारे सामने लाकर खड़ा कर देती हैं। उन्होंने श्लील-अश्लील के चक्कर में न पड़कर सामाजिक यथार्थ का बेबाक चित्रण किया। इसी कारण उन्हें अपने परिवेश से पूरी तरह जुड़ा हुआ लेखक कहा जा सकता है। उन्होंने अपने समय के ज्वलंत प्रश्नों से मुँह नहीं चुराया, बल्कि उनसे सीधा साक्षात्कार करते हुए अपने समकालीन किसी भी रचनाकार से ज्यादा शिद्दत के साथ टकराकर उसका रचनात्मक प्रस्तूतीकरण किया है। 

वे ऐसे रचनाकार थे, जिनकी रचनाओं का सीधा प्रभाव जनता पर पड़ता था। उन्होंने सामाजिक चेतना के अन्तर्गत नारी समस्या, अछूतोद्धार, आर्थिक विषमता, साम्प्रदायिकता जैसी समस्यओं को उठाकर पाठकों को सोचने पर मजबूर किया। उनकी प्रेम विवाह, वेश्यावृत्ति, समलैंकिगकता आदि विषयों पर लिखी रचनाओं को प्रशंसा के साथ निंदा भी खूब मिली। उनकी जिन रचनाओं को अश्लील या विवादास्पद समझा गया, उन्होंने ‘उग्र’ को प्रसिद्धि भी खूब दिलाई। ऐसी रचनाओं में वे गहराई तक उतरकर पाठकों की संवेदना को झकझौर डालते हैं। इतना ही नहीं वहाँ उनका कबीरी अंदाज काशी के गुंडानुमा पंडो तक में बौखलाहट पैदा कर देता है। 

वे साहित्य का प्रमुख उद्देश्य मनोरंजन मानते थे। इसी कारण उन्होंने सामाजिक घटनाओं को बड़ा ही आकर्षक और मनोरंजनात्मक बनाकर अपने उपन्यास कहानियों में प्रस्तुत किया। समाज का शायद ही कोई अंग-रंग या वर्ग हो जो उनकी पैनी दृष्टि से बच पाया हो। किसी भी श्रेणी का व्यक्ति हो जिसके गुण-दोषों को उन्होंने चित्रित न किया हो चाहे कोई उनसे चिढ़ता रहा हो, उन पर बिगड़ता रहा हो या उनके लिखे में दोष निकालता रहा हो, पर उन्होंने कभी किसी की परवाह नहीं की। वे यथार्थवादी कथाकार के रूप में आने वाली पीढ़ी के लिए सदैव प्रेरणादायक बने रहेंगे। उनकी मौलिक स्थापनाएं उन्हें आज भी समीचीन और प्रासंगिक बनाएँ हुए है।  

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रचनाएँ
"उग्र बनाम मंटो"
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उर्दू में सआदत हसन मंटो की बहुत सी कहानियाँ पढ़ने के बाद विचार आया कि हिंदी में भी मंटो जैसा कोई विवादस्पद लेखक है? काफी खोजबीन करने पर ज्ञात हुआ कि ऐसा लेखक तो पाण्डेय बेचन शर्मा "उग्र" ही है. उग्र की अनेक कहानियाँ और उपन्यास पढ़ने के बाद विचार आया कि क्यों न उग्र और मंटो की तुलना की जाए. उसी के परिणाम स्वरुप इस किताब को लिखने की प्रेरणा मिली.
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भूमिका

13 अगस्त 2022
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 जब दो साहित्यकारों की तुलना की जाती है तो उनके व्यक्तित्व, रचनागत साम्य-वैषम्य, कृतियों की विषयवस्तुगत विशिष्टताएं, सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण और युगीन प्रवृत्तियों आदि को आधार बनाया जाता है। इस प्

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"उग्र"- एक परिचय

13 अगस्त 2022
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 हिन्दी साहित्य में ‘उग्र’ अपनी ही तरह के साहित्यकार माने जाते हैं। जिस तरह उनका नाम थोड़ा विचित्र सा है उसी प्रकार उनका साहित्य भी अपने ही ढंग का है। नाम ही देखिए आगे-पीछे जाति सूचक विशेषण और उससे जुड़

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"उग्र"- साहित्यिक अवदान

13 अगस्त 2022
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 ‘उग्र’ ने लेखन की शुरूआत काव्य से की थी। वे अपने स्कूल के दिनों से ही काव्य रचना करने लगे थे। साहित्य के प्रति उनका विशेष अनुराग बढ़ा था, लाला भगवानदीन के सम्पर्क में आने के पश्चात। जिनकी प्रेरणा से उ

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उग्र के साहित्य की मूल चेतना और प्रतिपाद्य विषय

13 अगस्त 2022
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 जिस समय ‘उग्र’ का साहित्य-क्षेत्र में प्रवेश हुआ, उस समय तक छायावाद का आगमन हो चुका था। पद्य हो या फिर गद्य, कल्पना की ऊँची उड़ाने भरकर साहित्य की रचना हो रही थी। अतः समकालिक लेखक-कवियों पर भी इस साहि

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क्या थे उग्र पर आक्षेप के कारण?

13 अगस्त 2022
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 ‘उग्र’ ने ऐसे समय में लिखना आरम्भ किया था, जब हिन्दी साहित्य में ‘आदर्शवाद’ का बोलबाला था और साहित्य यथार्थ से अधिक कल्पना में लिखा जाता था। ऐसे समय में जब उन्होंने अपनी कलम की नोक से समाज के यथार्थ

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उग्र साहित्य की प्रासंगिकता

13 अगस्त 2022
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 साहित्यकारों की प्रासंगिकता और अप्रासंगिकता के बारे में अक्सर प्रश्न उठाया जाता रहा है। लेकिन जो साहित्य विभिन्न समस्याओं और सत्यों का दर्शन कराता हो, उसकी प्रासंगिकता कभी समाप्त नहीं होती, क्योंकि व

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मंटो- एक परिचय

13 अगस्त 2022
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 दो साहित्यकारों की जब आपस में तुलना की जाती है तो उनके जीवन के उतार-चढ़ाव, साहित्यिक अवदान, सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण, साहित्यिक विषयवस्तुगत विशेषताएं आदि को आधार बनाना ही उचित होता है। पूर्व में ह

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मंटो की साहित्य यात्रा

13 अगस्त 2022
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 सआदत हसन मंटो ने अपने जीवन में कहानियों के अतिरिक्त एक उपन्यास, फिल्मों और रेडियो नाटकों की पटकथा, निबंध-आलेख, संस्मरण आदि लिखे। लेकिन उसकी प्रसिद्धि मुख्य रूप से एक कहानीकार की है। चेखव के बाद मंटो

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मंटो के साहित्य की मूल चेतना और प्रतिपाद्य विषय

13 अगस्त 2022
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 मंटो आज न केवल उर्दू बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं में बड़े चाव से पढ़े जाते हैं। हिन्दी में तो उनकी सम्पूर्ण रचनाएं उपलब्ध हैं। उनकी ‘टोबा टेकसिंह’ और ‘खोल दो’ कहानियों को मैंने संस्कृत में भी पढ़ा है। लेक

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मंटो पर आक्षेप- कुछ उलझे सवाल

13 अगस्त 2022
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 मंटो का लेखन ज़बरदस्त प्रतिरोध का लेखन है। यही उसके लेखन की शक्ति भी है। वह दौर ही शायद ऐसा था कि साहित्य से हथियार का काम लेने की अपेक्षा की जाती थी। मंटो ने इसका भरपूर लाभ उठाया और अपनी कहानियों से

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मंटो के साहित्य की प्रासंगिकता

13 अगस्त 2022
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 सआदत हसन मंटो नैसर्गिक प्रतिभा के धनी और स्वतन्त्र विचारों वाले लेखक थे। वे ऐसे विलक्षण कहानीकार थे जिन्होंने अपनी कहानियों से समाज में अभूतपूर्व हलचल उत्पन्न की और उर्दू कथा-साहित्य को नई ऊँचाईयों त

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उग्र और मंटो- तुलनात्मक बिंदु

13 अगस्त 2022
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 पिछले अध्यायों में हमने ‘उग्र’ और मंटो के व्यक्तित्व और कृतित्त्व को अलग-अलग रूपों और सन्दर्भों में जानने-समझने का प्रयास किया है। अब हम दोनों साहित्यकारों की एक साथ तुलना करके देखते हैं कि वे कहाँ ए

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उग्र और मंटो- समानताएं और असमानताएं

13 अगस्त 2022
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 ‘उग्र’ और मंटो ने अपने समय के सवालों से सीधे साक्षात्कार करते हुए उन्हें अपना रचनात्मक उपजीव्य बनाया। वे विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी तरह जिए और अपनी तरह की कहानियाँ लिखी। इस कारण उन्होंने बहुत चो

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परिशिष्ट

13 अगस्त 2022
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 सन्दर्भ सूची-  आलोचनात्मक-ऐतिहासिक व अन्य ग्रन्थ :-  1. पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ : अपनी खबर (आत्मकथा), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पेपर बैक्स, दूसरा संस्करण, 2006।  2. डा0 भवदेव पांडेय : ‘उग्र’ का

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