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बिल्लेसुर बकरिहा (भाग 4 )

9 अप्रैल 2022

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(15)

कातिक की चाँदनी छिटक रही थी। गुलाबी जाड़ा पड़ रहा था। सवन-जाति की चिड़ियाँ कहीं से उड़कर जाड़े भर इमली की फुनगी पर बसेरा लेने लगी थीं; उनका कलरव उठ रहा था। बिल्लेसुर रात को चबूतरे की बुर्जी पर बैठ देखते थे, पहले शाम को आसमान में हिरनी-हिरन जहाँ दिखते थे अब वहाँ नहीं हैं। बिल्लेसुर कहते थे, जब जहाँ चरने को चारा होता है, ये चले जाते हैं। शाम से ओस पड़ने लगी थी, इसलिये देर तक बाहर का बैठना बन्द होता जा रहा था। लोग जल्द-जल्द खा-पीकर लेट रहते थे। बिल्लेसुर घर आये। मन्नी की सास ने रोज़ की तरह रोटी तैयार कर रक्खी थी। इधर बिल्लेसुर कुछ दिनों से मन्नी की सास की पकाई रोटी खाते हुए चिकने हो चले थे। पैर धोकर चौके के भीतर गये। मन्नी की सास ने परोस कर थाली बढ़ा दी। सास को दिखाने के लिये बिल्लेसुर रोज़ अगरासन निकालते थे। भोजन करके उठते वक़्त हाथ में ले लेते थे और रखकर हाथ मुँह धोकर कुल्ले करके बकरी के बच्चे को खिला देते थे। अगरासन निकालने से पहले लोटे से पानी ले कर तीन दफ़े थाली के बाहर से चुवाते हुए घुमाते थे। अगरासन निकाल कर ठुनकियाँ देते हुए लोटा बजाते थे और आँखें बन्द कर लेते थे। वह कृत्य आज भी किया।

जब भोजन करने लगे तब सास जी बड़ी दीनता से खीसें काढ़कर बोलीं, "बच्चा, अब अगहन लगनेवाला है, कहो तो अब चलूँ।" फिर खाँसकर बोली, "वह काम भी तो अपना ही है।"

कौर निगलकर गम्भीर होते हुए, मोटे गले से बिल्लेसुर ने कहा, "हाँ वह काम तो देखना ही है।"

"वही कह रही थी," कुछ आगे खिसककर सासजी ने कहा, "कुछ रुपये अभी दे दो, कुछ वाद को, ब्याह के दो-तीन रोज़ पहले दे देना।"

रुपये के नाम से बिल्लेसुर कुनमुनाये। लेकिन बिना रुपये दिये ब्याह न होगा, यह समझते हुए एक पख लगाकर ब्याह पक्का करने लगे। कहा, "अभी तो अम्मा, किसी पण्डित से विचरवाया भी नहीं गया, न बने, तो?"

"बच्चे की बात" पूरे विश्वास से सर उठाकर मन्नी की सास ने कहा, "उसमें जब कोई दोख नहीं है तब ब्याह बनेगा कैसे नहीं ? बच्चे, वह पूरी गऊ हैं। और उसका ब्याह? वह अब तक होने को रहता? रामखेलावन आये, परदेश से, उल्टे पाँव लौट जाना चाहते थे, हाथ जोड़ने लगे,––चाची, ब्याह करा दो, जितना रुपया कहो, देंगे। अच्छा भाई, लड़की की अम्मा को मनाकर कुण्डली लेकर बिचरवाने गये, फट से बन गया। लड़की की अम्मा को तीन सौ नगद दे रहे थे। पर सिस्टा की बात; लड़की की अम्मा ने कहा, मेरी बिटिया को परदेश ले जायँगे, फिर कभी इधर झाँकेंगे नहीं; बिमारी-अरामी बूँद भर पानी को तरसूँगी; रुपये लेकर मैं क्या करूँगी? बना-बनाया ब्याह उखड़ गया। फिर चुकन्दरपुर के जिमींदार रामनेवाज आये। उनसे भी ब्याह बन गया। फलदान चढ़ने का दिन आया तब लड़की की अम्मा को उनके गाँव के किसी पट्टीदार ने भड़काया कि रामनेवाज अपने बाप का है ही नहीं, बस ब्याह रुक गया। कितने ब्याह आये सब बन गये, लेकिन कोई न हो पाया।"

बिल्लेसुर को निश्चय हो गया कि लड़की के खून में कोई ख़राबी नहीं। उन्होंने सन्तोष की साँस छोड़ी। मन्नी की सास का भावावेश तब तक मन्द न पड़ा था, बङ्गालिन की तरह चटककर बोलीं, "अब तुमसे कहती हूँ, हमारे अपने हो, सैकड़ों सच्ची झूठी बातें न गढ़ती तो वह रॉड़ तुम्हारे लिये राजी न होती।"

बिगड़कर बिल्लेसुर बोले, "तुम तो कहती थीं, बड़ी भलेमानुस है?"

"कहने के लिये, बच्चा ए, भलेमानुस सबको कहते है; लेकिन, कैसा भी भलामानुस हो, अपनी चित कौड़ी को पट होते देखता है? फिर वह दस विस्वेवाली तुम्हार यहाँ कैसे लड़की ब्याह देती? उसको समझाया कि दुरगादास के सुकुल है, परदेस कमा के आये हैं, कहो कि एक साथ गिन दें तो ऐसा न होगा; धीरे-धीरे देंगे। आखिर कहाँ जाती, मान गई। तुमस इसीलिये कहा, ३०) ब्याह से पहले दो, फिर धीरे-धीरे मदद करते रहो।" सासजी टकटकी बाँधे बिल्लेसुर को देखती रहीं। इतने कम पर राज़ी न होना मूर्खता है, समझकर बिल्लेसुर ने कहा, "अच्छा, कल कुण्डली और एक रुपया लेकर चलो, तीन-चार दिन में मैं पण्डित से आकर पूछूँगा कि कैसा बनता है।"

"एक दफे नहीं, बच्चा, दस दफे। लेकिन जब आना तब पन्द्रह रुपये लेते आना कम-से-कम।"

गम्भीर होकर विल्लेसुर उठे और हाथ-मुँह धोने लगे। मन को समझाती हुई सासजी भोजन करने बैठीं। भोजन के बाद दोनों लेटे और अपनी-अपनी गुत्थी सुलझाते रहे। किसी ने किसी से बातचीत न की। फिर सब सो गये। पौ फटने से पहले जब आकाश में तारे थे, मन्नी की सास जगीं और बिल्लेसुर को जगाने के इरादे से राम-राम जपने लगीं।

बिल्लेसुर उठकर बैठे और आँखें मलकर, स्नेह सूचित करते हुए पूछा, "अम्मा, क्या सबेरे-सबेरे निकल जाने का इरादा है?"

मन्नी की सास ने आँखों में आँसू भरे। कहा, "बच्चा, अब देर करना ठीक नहीं। पिछले पहर चलूँगी तो रात होगी, काम न होगा।"

बिल्लेसुर ने अँधेरे में टटोलकर सन्दूक़ में रक्खी कुण्डली निकाली और सासजी को देते हुए कहा, "देखियेगा, कहीं खो न जाय।"

"नहीं, वच्चा, खो क्या जायगी?" कहकर सासजी ने आग्रह से कुण्डली ली। बिल्लेसुर ने टेंट से एक रुपया निकाला; सासजी के हाथ में रखकर पैर छुए; कहा, "यह तुम्हें कुछ दे नहीं रहा हूँ।"

"क्या मैं कुछ कहती हूँ, बच्चा?" असन्तोष को दबाकर मन्नी की सास घर के बाहर निकलीं, रास्ते पर पाकर एक साँस छोड़ी और अपने गाँव का गस्ता पकड़ा। अव तक सवेरा हो चुका था।

(16)

बिल्लेसुर ने इधर बड़ा काम किया। शकरकन्दवाले खेत में मटर बो दिये। उधरवाले में चने वो चुके थे, जो अब तक बढ़ आये थे।

काम करते हुए रह-रहकर बिल्लेसुर को सास की याद आती रही ; विवाह की बेल जैसे कलियाँ लेने लगी; काम करते-करते दुचित्ते होने लगे; साँस रुक-रुक जाने लगी, रोएँ खड़े होने लगे।

आख़िर चलने का दिन आया। बिल्लेसुर दूध दुहकर, एक हण्डी में मुस्का बाँधकर, दूध लेकर चलने के लिये तैयार हुए। रात के काटे पत्ते रक्खे थे, बकरियों के आगे डाल दिये।

फिर पानी भरकर घर में स्नान किया। थोड़ी देर पूजा की। रोज़ पूजा करते रहे हों, यह बात नहीं। पूजा करते समय दरपन कई बार देखा, आँखें और भौहें चढ़ाकर-उतारकर, गाल फुलाकर पिचकाकर, होंठ फैलाकर-चढ़ाकर। चन्दन लगाकर एक दफ़ा फिर मुँह देखा। आँखें निकालकर देर तक देखते रहे कि चेचक के दाग़ कितने साफ़ दिखते हैं। फिर कुछ देर तक अशुद्ध गायत्री का जप करते रहे, मन में यह निश्चय लिए हुए कि काम पूरा हो जायगा। फिर पुजापा समेटकर भीतर के एक ताक़ पर रखकर बासी रोटियाँ निकालीं। भोजन करके हाथ-मुँह धोया, कपड़े पहनने लगे। मोज़े के नीचे तक उतारकर धोती पहनी, फिर कुर्ता पहनकर चारपाई पर बैठे, साफ़ा बाँधने लगे। बाँधकर एक दफ़े फिर उसी तरह दरपन देखा और तरह-तरह की मुद्राएँ बनाते रहे। फिर जेब में वह छोटा-सा दरपन और गले में मैला अँगोछा और धुस्सा डालकर लाठी उठाई। जूते पहले से तेलवाये रक्खे थे, पहन लिये। दरवाज़े निकलकर मकान में ताला लगाया, और दोनों नथनों में कौन चल रहा है, दबाकर देखकर, उसी जगह दायाँ पैर तीन दफ़े दे दे मारा, और दूधवाली हण्डी उठाकर निगाह नीची किये गम्भीरता से चले।

थोड़ी दूर पर भरा घड़ा मिला। बिल्लेसुर खुश हो गये। घड़ेवाली सगुन की सोचकर मुस्कराई, कहा, "मेरी मिठाई कब ले आते हो ?" काम निकलने के बादवाले आशय से सिर हिलाकर आश्वासन देते हुए बिल्लेसुर आगे बढ़े।

नाला मिला। किनारे रियें और बबूल के पेड़। खुश्की पकड़े चले जा रहे थे। बनियों के ताल के किनारे से गुजरे। देखकर कुछ बगले इस किनारे से उस किनारे उड़ गये। बिल्लेसुर बढ़ते गये। शमशेरगंज का बैरहना मिला। एक जगह कुछ खजूर और ताड़ के पेड़ दिखे। सामने खेत, हरियाली लहराती हुई। ओस पर सूरज की किरनें पड़ रही थीं। आँखों पर तरह-तरह का रङ्ग चढ़ उतर रहा था। दिल में गुदगुदी पैदा हो रही थी। पैर तेज़ उठ रहे थे। मालूम भी न हुआ कि हाथ में दूध से भरी भारी हण्डी है।

आम और महुए की कतारें कच्ची सड़क के किनारे पड़ीं। जाड़े की सुहावनी सुनहली धूप छनकर आ रही थी। सारी दुनियाँ सोने की मालूम दी। ग़रीबीवाला रंग उड़ गया। छोटे-बड़े हर पेड़ पर पड़ा मौसिम का असर उनमें भी आ गया। अनुकूल हवा से तने पाल की तरह अपने लक्ष्य पर चलते गये। इस व्ययसाय में उन्हें फ़ायदा-ही-फ़ायदा है, निश्चय बँधा रहा। चारों ओर हरियाली। जितनी दूर निगाह जाती थी, हवा से लहराती तरङ्गें ही दिखती थीं; उनके साथ दिल मिल जाता और उन्हीं की तरह लहराने लगता था।

आशा की सफलता-जैसे, खेत और बगीचों के भीतर से गाँव की दिवारें दिखने लगीं। बिल्लेसुर उतावली से बढ़ते गये। गलियारे-गलियारे गाँव के भीतर पहुँचे। कुएँ की जगत के किनारे नहाने के लिये बनी पक्की चौकी पर बैठे एक वृद्ध सूर्य की ओर मुँह किये काँपते हुए माला जप रहे थे। कुछ आगे बढ़ने पर बढ़इयों का मकान मिला। गाड़ी के पहिये बनने की ठक-ठक दूर तक गूँज रही थी। कुछ और आगे दर्ज़ी की दूकान मिली। वहाँ बहुत-से लोग इकट्ठे दिखे। तरह-तरह के रङ्गीन कपड़े सिलने को आये फैले हुए। दर्ज़ी सिर गड़ाये तत्परता से मशीन चलाता हुआ। एक लड़का चौपाल की दूसरी तरफ़ बैठा भरी रज़ाई में टाँके लगाता हुआ। दो आदमी नये कपड़े काटते और मशीन पर चढ़ाने के लिये टाँकते हुए। लोग ग़ौर से रङ्गों की बहार देखते लाठी के सहारे खड़े ग़प लड़ाते तम्बाकू थूकते हुए। बिल्लेसुर तद्गतेन मनसा सासजी के मकान की ओर बढ़े चले गये। एक कोलिया के भीतर सास जी का अधगिरा मकान था। दरवाज़े खुले थे। आवाज़ देते हुए भीतर चले गये। सासजी इन्तज़ार कर रही थीं। देखकर मुस्कराती हुई उठीं। नज़र हण्डी पर थी। बिल्लेसुर ने गर्व से हण्डी रख दी और सास जी के पैर छुए। सासजीने कुशल पूछी जैसे एक मुद्दत के बाद मुलाक़ात हुई हो; फिर बिछी चारपाई पर ले चलकर बैठाया और गौर से बिल्लेसुर की ब्याहवाली उतावली की आँख देखती रहीं।

कुछ देर तक बिल्लेसुर बैठे गम्भीर होते रहे; फिर आवाज़ में भारीपन लाकर भल, गृहस्थ की तरह पूछा, "ब्याह बिचरवा तो लिया गया होगा?"

सासजी के समन्दर पर जैसे तूफ़ान आ गया। उद्वेल होकर तारीफ़ करने लगीं; किस तरह पण्डित के यहाँ गईं,––पण्डित ने विचारा,––आँखें चढ़ाकर कहा,––'साक्षात् लक्ष्मी है, घर पर पैर रखते ही घर भर देगी,'––विवाह बहुत बनता है, लड़की वैश्य वर्ण है और देव गण,––बिल्लेसुर से कोई बैर नहीं पड़ता। साथ ही यह भी कहा कि कुल में ऊँचे हैं, इसलिये बिल्लेसुर यहाँ अपने को छंगे के नहीं तो दुर्गादासवाले ज़रूर कहें, नहीं तो उनकी तौहीन होगी।

बिल्ले सुर की बाछें खिल गईं। विनम्र भाव से कहा, माँ-बाप का कहना सभी मानते हैं, जैसी आज्ञा होगी, कहने में मुझे ऐतराज़ न होगा।

सासजी ने तृप्ति की साँस छोड़ी। फिर बिल्लेसुर के पास पण्डित बुला लाईं। पण्डित ने शीघ्रबोध के अनुसार बनते हुए ब्याह की प्रशंसा की। बिल्लेसुर श्रद्धापूर्वक मान गये। अगली लगन में ब्याह होना निश्चित हो गया, और सासजी की आज्ञा के अनुसार उन्हीं के यहाँ से ब्याह होने की बात तै रही। शाम को एक लड़की ले आई गई और दीये के उजाले में बिल्लेसुर ने उसे देखा। उन्हें विश्वास हो गया कि कहीं कोई कलङ्क नहीं। हाथ-पैर के अलावा उन्होंने उसका मुँह नहीं देखा। उसकी अम्मा से देर तक बातचीत करते रहे। उन्हें ढांढस देकर गाँव की राह ली। रुपये मन्नी की सास को दे आये।

(17)

बिल्लेसुर गाँव आये जैसे क़िला तोड़ लिया हो। गरदन उठाये घूमने लगे। पहले लोगों ने सोचा, शकरकन्दवाली मोटाई है। बाद को राज़ खुला। त्रिलोचन दाँत-काटी-रोटीवाले मित्र से मिले। वहीं मालूम हुआ कि यह वही लड़की है, जिससे वह गाँठ जोड़ना चाहते थे। गाँव के रँडुओं और बिल्लेसुर से ज़्यादा उम्रवाले क्वारों पर ब्याह का जैसे पाला पड़ा। त्रिलोचन ने बिल्लेसुर के खिलाफ़ जली-कटी सुनाते हुए गरमी पहुँचाई; कहा, "ब्राह्मण है! ––बाप का पता नहीं। किसी भलेमानस को पानी पिलाने लायक़ न रहेगा।" लोगों को दिलजमई हुई।

गाँव के बाजदार डोम और परजा बिल्लेसुर को आ-आकर घेरने लगे। खुशामद की चार बातें सुनाते हुए कि घर की सूरत बदली, चिराग़ रौशन हुआ, साल भर में बाप-दादे का नाम भी जग जायगा, पहले सूने दरवाज़े से साँस लेकर निकल जाते थे, अब अड़े रहेंगे, कुछ लेकर टलंगे। बिल्लेसुर को ऐसी गुदगुदी होती थी कि झुर्रियों में मुस्करा देते थे। सोचते थे, परजे नाक के बाल बन गये। पतले हाल की परवा न कर चढ़कर ब्याह करने की ठानी; लोग-हँसाई से डरे। परजे ऐसा मौक़ा छोड़कर कहाँ जायँगे, सोचा, इन्हें कुछ लिया-दिया न गया तो रास्ता चलना दूभर कर देंगे, बाप-दादों से बँधी मेड़ कट जायगी। भरोसा हुआ कि ब्याह का ख़र्च निबाह लेंगे।

नाई रोज़ तेल लगाने और बाल बनाने को पूछने लगा। कहार एक रोज़ अपने आप आकर दो घड़े पानी भर गया। बेहना बत्ती बनाने के लिये रुई की चार पिंडियाँ दे गया। चमार पाकर पूछ गया, ब्याह के जोड़े नरी बनाये या मामूली। चौकीदार पासी रोज़ आधीरात को हाँक लगाता हुआ समझा जाने लगा कि पूरी रखवाली कर रहा है। गङ्गावासी एक दिन दो जनेऊ दे गया। एक दिन भट्टजी आये और सीता स्वयंवर के कुछ कवित्त भूषण की अमृत ध्वनि सुना गये। गर्ज़ यह कि इस समय कोई नहीं चूका।

बिल्लेसुर का पासा पड़ा। ज़मीन्दार ने उनकी देहली पर पैर रक्खा । सारा गाँव टूट पड़ा। ज़मीन्दार गये थे, ब्याह हो रहा है, कम-से-कम दो रुपये बिल्लेसुर नज़र देंगे, फिर मदद के लिए पूछेंगे, कुछ इस तरह वसूल हो जायगा जैसे कानपुर से आटा-शकर मँगवायँगे तो बैल-गाड़ी के किराये के अलावा कुछ काट-कपट करा ही ली जा सकेगी। त्रिलोचन भी ज़मीन्दार के साथ थे, सोचा था, उनके पीछे पूरी ताक़त खर्च कर देंगे; कुछ हाथ लग ही जायेगा। त्रिलोचन को देखकर बिल्लेसुर ने निगाह बदली। जब भी त्रिलोचन तथा दूसरों ने ज़मीन्दार के समन्दर पर बरसने के लिये बिल्लेसुर को बहुत समझाया––"रिक्तपाणिर्न पश्येत राजानं देवतां गुरुम्." फिर भी बिल्लेसुर अपनी जगह से हिले नहीं, ज़मीन्दार के सम्मान में बैठे, दाँतों में तिनके-सा लिये रहे। कुछ देर बाद ज़मीन्दार मन मारकर उठ गये, त्रिलोचन पीछे लगे रहे। आगे बढ़कर अच्छी तरह कान भर दिये कि हुक्म भर की देर है। गाँव में दूसरे दिन से बिल्लेसुर की इज्ज़त चौगुनी हो गई। ज़मीन्दार के घर जाने का मतलब लोगों ने लगाया, बिल्लेसुर के हाथ कारूँ का खज़ाना लगा है। तरह-तरह की मन-गढन्तें फैलीं। किसी ने कहा, "सोने की ईंटें उठा लाया है, किसी से बतलाता नहीं, छिपा जोगी है, दो साल में देखो, गवाँ खरीदेगा।" किसी ने कहा, "महाराज के यहाँ से जवाहरात चुरा लाया है; लेकिन घर में नहीं रक्खे, बाहर कहीं घूरे में या पेड़ के तले गाड़ दिये है ताकि चोरों के हाथ न लगें।" ऐसी बातचीत जितनी बढ़ी, बिल्लेसुर के सामने लोगों की आँख उतनी ही झुकती गईं। दुसरे गाँव के लोग भी दरवाज़े से निकलते हुए बिल्लेसुर को पूछने लगे।

एक दिन नाई को बुलाकर बिल्लेसुर ने कहा, मन्नी की ससुराल गोवर्द्धनपुर जाओ और कह आओ, ब्याह बरात ले जाकर करेंगे। लड़की को मन्नी की सास बुला लें। उन्हीं के घर में खम गड़ेगा। बाक़ी यहाँ आकर समझ जायँ।

नाई कह आया। फिर नातेदारों के यहाँ न्यौता पहुँचाने चला––एक गाँठ हल्दी, एक सुपाड़ी और तेल-मयन-ब्याह के दिन ज़बानी। जितने मान्य थे, दोनों जगहों की बिदाई की सोचकर मडलाने लगे।

बिल्लेसुर के बड़प्पन की बात के पर बढ़ चुके थे। वे अवसर नहीं चूके। दूसरे गाँव में गाड़ी माँगी। व्यवहार रक्खे रहने के लिये मालिक ने गाड़ी दे दी। बिल्लेसुर चक्की से गोहुँ पिसा लाये। गाँव की निटल्ली बेवाओं से दाल दरा ली। मलखान तेली को कापुर से शकर ले पाने के लिये कहा। बाक़ी कपड़ा और सामान गाँव के जुलाहे, काछी, तेली, तम्बोली, डोम और चमारों से तैयार करा लिया। घर के लिये चिन्ता थी कि बकरियों में नातेदारों की गुज़र न होगी, वह भी दूर हो गई; सामने रहनेवाली चौधरी की बेवा ने एक कोठरी अपने लिये रखकर बाक़ी घर छोड़ देने का पूरी उत्सुकता से वचन दिया––बिल्लेसुर की खुली क़िस्मत से उन्होंने भी शिरकत की।

नातेदार आने लगे, कुन-के-कुल बिल्लेसुर के पिता के मान्य यानी रुपये लेनेवाले। चौधरी के मकान में डेरा डलवाया गया तो चौकन्ने हुए। बकरियों का हाल मालूम कर खिंचे, फिर अलग रहने के कारण से खुश होकर, बाहर-ही-बाहर बरतौनी और बिदाई लेकर कट जाने की सोचकर बाज़ी-सी मार बैठे।

अपने लिये ब्याह के कुल गहने कण्ठा, मोहनमाला, बजुल्ला, पहुँची, अँगूठी बिल्लेसुर मगनी माग लाये। मुरली महाजन को देने में कोई ऐतराज़ नहीं हुआ। वह भी बिल्लेसुर का माहात्म्य सुन चुका था। चढ़ाव का कुल ज़ेवर बिल्लेसुर ने चोरों से खरीदा रुपये में नक़्द दो आने क़ीमत चुकाकर। फिर साफ़ कराकर पटवे से गुहा लिये; कड़े-छड़े पायजेबें रहने दीं।

तेल के दिन डोमों के विकट वाद्य से गाँव गूँज उठा। बिल्लेसुर के अदृश्य वैभव का सब पर प्रभाव पड़ा। पड़ोस के ज़मीन्दार ठाकुर तहसील से लौटते हुए दरवाज़े से निकले। बिल्लेसुर को देखकर प्रणाम किया। कारूँ के खज़ाने की सोचकर कहा, "लोगों की आँख देखकर हम कुल भेद मालूम कर लेते हैं। ब्याह करने जा रहे हो, हमारा घोड़ा चाहो तो ले जाओ।" बिल्लेसुर ने राज़ दबाकर कहा, "हम ग़रीब ब्राह्मण, ब्राह्मण की ही तरह जायँगे। आप हमारे राजा हैं, सब कुछ दे सकते है।" ठाकुर साहब यह सोचकर मुस्कराये कि खुलना नहीं चाहता, फिर प्रणाम कर बिदा हुए।

मातृपूजन के दूसरे दिन बरात चली। कुआ पूजा गया। दूध बिल्लेसुर की एक चाची ने पिलाया। पैर लटकाये देर तक कुएँ की जगत पर अड़ी बैठी रहीं। पूछने पर कहा, "सोने की एक ईंट लेंगे।" बिल्लेसुर समझकर मुस्कराये। गाँववालों ने कहा, "बुरा नहीं कहा, आखिर और किस दिन के लिये जोड़कर रक्खा गई हैं?" बिल्लेसुर ने कहा, "चाची, यहाँ तो निहत्था हूँ। पैर निकालो, लौटकर तुम्हें ईंट ही दूँगा।" चाची खुश हो गईं। गाँववालों के मुँह पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। उन्हें पूरा विश्वास हो गया कि बिल्लेसुर के सोने की पचासों ईंटें हैं।

बरात निकली। अगवानी, द्वारचार, ब्याह, भात, छोटा-बड़ा आहार, बरतौनी, चतुर्थी, कुल अनुष्ठान पूरे किये गये। वहाँ इन्हीं का इन्तज़ाम था। मान्य कुल मिला कर पाँच। बाक़ी कहार, वाजदार, भैय्याचार। चार दिन के बाद दूल्हन लेकर बिल्लेसुर घर लौटे। फिर अपने धनी होने का राज़ जीते-जी न खुलने दिया।

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रचनाएँ
हिन्दी कहानियाँ
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सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' हिन्दी साहित्य में छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कई कहानियाँ, उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेषरुप से कविता के कारण ही है।
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1 बारह साल तक मकड़े की तरह शब्दों का जाल बुनता हुआ मैं मक्खियाँ मारता रहा। मुझे यह ख्याल था कि मैं साहित्य की रक्षा के लिए चक्रव्यूह तैयार कर रहा हूँ, इससे उसका निवेश भी सुन्दर होगा और उसकी शक्ति का

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बिल्लेसुर बकरिहा

9 अप्रैल 2022
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1) ‘बिल्लेसुर’ नाम का शुद्ध रूप बड़े पते से मालूम हुआ-‘बिल्वेश्वर’ है। पुरवा डिवीजन में, जहाँ का नाम है, लोकमत बिल्लेसुर शब्द की ओर है। कारण पुरवा में उक्त नाम का प्रतिष्ठित शिव हैं। अन्यत्र यह नाम न

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बिल्लेसुर बकरिहा (भाग 2)

9 अप्रैल 2022
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(6) बिल्लेसुर गाँव आये। अंटी में रुपये थे, होठों में मुसकान। गाँव के ज़मींदार, महाजन, पड़ोसी, सब की निगाह पर चढ़ गये––सबके अन्दाज़ लड़ने लगे––'कितना रुपया ले आया है।' लोगों के मन की मन्दाकिनी में अव्

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बिल्लेसुर बकरिहा (भाग 3 )

9 अप्रैल 2022
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(11) जब से त्रिलोचन के बैल न लेकर बिल्लेसुर ने बकरियाँ ख़रीदी तभी से इस बेचारे को जुटाने के लिये त्रिलोचन पेच भर रहे थे। बकरियों के बच्चों के बढ़ने के साथ गाँव में धनिकता के लिये बिल्लेसुर का नाम भी

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बिल्लेसुर बकरिहा (भाग 4 )

9 अप्रैल 2022
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(15) कातिक की चाँदनी छिटक रही थी। गुलाबी जाड़ा पड़ रहा था। सवन-जाति की चिड़ियाँ कहीं से उड़कर जाड़े भर इमली की फुनगी पर बसेरा लेने लगी थीं; उनका कलरव उठ रहा था। बिल्लेसुर रात को चबूतरे की बुर्जी पर ब

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