shabd-logo

बिल्लेसुर बकरिहा (भाग 3 )

9 अप्रैल 2022

36 बार देखा गया 36

(11)

जब से त्रिलोचन के बैल न लेकर बिल्लेसुर ने बकरियाँ ख़रीदी तभी से इस बेचारे को जुटाने के लिये त्रिलोचन पेच भर रहे थे। बकरियों के बच्चों के बढ़ने के साथ गाँव में धनिकता के लिये बिल्लेसुर का नाम भी बढ़ा। लोग तरह-तरह की राय ज़ाहिर करने लगे। क्वार का महीना; बिल्लेसुर की शकरकन्द की बेलें लहलही दिख रही थीं; लोग अन्दाज़ा लड़ा रहे थे कि इतने मन शकरकन्द निकलेगी; बिल्लेसुर छप्पर के नीचे बकरी के दूध में सानकर सत्तू गुड़ खा रहे थे, त्रिलोचन आये। बकरी के बच्चों पर एक झौआ औंधाया था, उस पर चढ़कर बैठने के लिये घूमे, लेकिन बिल्लेसुर को हाथ हिलाते देखकर वहीं ज़मीन पर बैठ गये। "एक बड़ी बढ़िया ख़बर है, बिल्लेसुर।" बिल्लेसुर से मुस्कराते हुए कहा। उपदेशक की मुद्रा से हथेली उठाकर बिना कुछ बोले, आश्वासन देते हुए, बिल्लेसुर ने समझाया, कुछ देर धीरज रक्खो। त्रिलोचन ने पूछा "भोजन करते बोलते नहीं क्या?" गम्भीर भाव से आँखें मूँदकर सिर हिलाते हुए बिल्लेसुर ने जवाब दिया। त्रिलोचन अपनी बातचीत का सिलसिला मन-ही-मन जोड़ते रहे।

जल्दी-जल्दी सत्तू खाकर बिल्लेसुर उठे। पनाले के पास बैठकर हाथ धोये, कुल्ले किये, अभ्यास के अनुसार जनेऊ में बँधी ताँबे की दंतखोदनी उठाकर दाँत खरिका किये, फिर कुल्ले किये, और एक डकार छोड़कर सर झुकाये हुए कोठरी के भीतर गये। त्रिलोचन देखते रहे। बिल्लेसुर एक खटोला निकालकर बाहर ले आये।

डालकर कहा,––"आओ, ज़रा सँभलकर बैठना, हचकना नहीं।" त्रिलोचन उठकर खटोले पर बैठे। एक तरफ़ बिल्लेसुर बैठे।

त्रिलोचन ने बिल्लेसुर को देखा, फिर आश्चर्य से आँखें निकालकर कहा, "करना चाहो तो एक बड़ा अच्छा ब्याह है।"

विवाह के नाममात्र से बिल्लेसुर की नसों में बिजली दौड़ गई; लेकिन हिन्दुधर्म के अनुसार उसे उपयोगितावाद में लाते हुए कहा, "अब देखते ही हो सत्तू खाना पड़ा है। औरत कोई होती तो मरती हुई भी रोटी सेंककर रखती।"

"यथार्थ है," त्रिलोचन गम्भीर होकर बोले।

बिल्लसुर को बढ़ावा मिला, कहा, "गाँव के चार भाइयों का मोह है, पड़ा हूँ, नहीं तो मरने के लिये दुनिया भर में मुझे ठौर है।"

"अब यह भी तुम समझाओगे तब समझेंगे?"

बिल्लेसुर का पौरुष जग गया। उन्होंने कहा, "बंगाल गया था, चाहता तो एक बैठा लेता; लेकिन बापदादे का नाम भी तो है? सोचा, कौन नाक कटाये? तुम्हीं लोग कहते, बिल्लेसुर ने बाप के नाम की लुटिया डुबो दी।" बिल्लेसुर अपनी भूमिका से एकाएक विषय पर नहीं आ सकते थे। आने के लिये बढ़कर फिर हट जाते थे। त्रिलोचन ने कहा, "सारा गाँव तुम्हारी तारीफ़ करता है; गाँव ही नहीं, ग्वेंड़ भी कि बिल्लेसुर मर्द आदमी है।"

बिल्लेसुर ने कहा, "नाम के लिये दुनिया मरती है। इतनी मिहनत हम क्यों करते हैं? नाम ही नहीं तो कुछ नहीं। हमारे बाप मरकर भी नहीं मरे, क्यों? और अगर उनके पोता न रहा तो?"

त्रिलोचन ने कहा, "तुम्हारे जैसा समझदार लड़का जिनके है––"उनके पोता कैसे न रहेगा?" कहकर त्रिलोचन गम्भीर हो गये।

बिल्लेसुर ने कहा, "मा-बाप ही दुनिया के देवता हैं। धर्म तो रहा ही न होता अगर माँ-बाप न रहे होते।"

त्रिलोचन ने कहा, "वेशक! धर्म की रक्षा हर एक को करनी चाहिये। तभी दो धर्म के पीछे जान दे देने के लिये कहा है।"

"अब देखो, खेत में काम करने गये, घर आये, औरत नहीं; बिना औरत के भोजन विधि-समेत नहीं पकता, न जल्दी में नहाते बनता है, न रोटी बनाते, न खाते; धर्म कहाँ रहा?" बिल्लेसुर उत्तेजित होकर बोले।

"हम तो बहुत पहले समझ चुके थे, अब तुम्हीं समझो।" कहकर त्रिलोचन ने तीसरी आँख पर मन को चढ़ाया।

बिल्लेसुर ने एक दफ़ा त्रिलोचन को देखा, फिर सोचने लगे, "देखो, दलाल बनकर आया है। सोचता है, दुनिया में हम ही चालाक है। अभी रुपए का सवाल पेश करेगा। पता नहीं, किसकी लड़की है, कौन है? ज़रूर कुछ दाग होगा। अड़चन यह है कि निबाह नहीं होता। भूख लगती है, इसलिए खाना पड़ता है। पानी बरसता है, धूप होती है, लू चलती है इसलिये मकान में रहना पड़ता है। मकान की रखवाली के लिए ब्याह करना पड़ता है। मकान का काम स्त्री ही आकर सँभालती है। लोग तरह-तरह की चीज़-वस्तुओं से घर भर देते हैं; स्त्री को ज़ेवर गहने बनवाते हैं। यों सब झोल है––ढोल में सब पोल ही पोल तो है?" बिल्लेसुर को गुरुआईन की याद आई, गाँव के घर-घर का सुना इतिहास आँख के सामने घूम गया। अब तक वे झूठ कहते रहे। यही कारण है कि बुलबुल काँपे में फँसता है। त्रिलोचन के ज्ञान में रहने की प्रतिक्रिया बिल्लेसुर में हुई। फिर यह सोचकर कि अपना क्या बिगड़ता है,––इसका मतलब मालूम कर लेना चाहिये, करुण स्वर से बोले, "हाँ भय्या, समझदार तुमको गाँव के सभी मानते हैं।"

खुश होकर त्रिलोचन ने कहा, "ऐसी औरत गाँव में आई नहीं–– सोलह साल की, आगभभूका।"

बिल्लेसुर को देवियों की याद आ गई थी, इसलिये बिचलित होकर सँभल गये। कहा, "तुम्हारी आँख कभी धोखा खा सकती है? कहाँ की है?"

"यह तो न बतायेंगे, जब ब्याहन चलोगे, तभी मालूम करोगे।"

"पहले तो फलदान चढ़ेंगे, या इसकी भी ज़रूरत नहीं?"

"फलदान चढ़ेंगे, लेकिन कोई पूछ-ताछ न होगी, तिवारियों के यहाँ की लड़की है। सब काम हमारी मारफ़त होगा।"

"किस गाँव की है?"

"इतना बता दिया तो क्या रह जायगा? यह ब्याह से पहले मालूम हो ही जायगा। मगर एक बात है। उनके यहाँ ब्याह का खर्च नहीं। भलेमानस हैं। लड़की नहीं बेचेंगे, पर ख़र्च तुम्हे दना होगा।"

"कितना?"

त्रिलोचन हिसाब लगाने लगे, खुलकर कहते हुए, "तुम्हारे यहाँ फलदान चढ़ाने आयेंगे तो ठहरेंगे हमारे यहाँ। थाल में सात रुपये रक्खेंगे और नारियल के साथ एक थान। इसमें बीस रुपये का ख़र्च है। यह तुम्हें फलदान के दिन से सात रोज़ पहले दे देना होगा। फिर फलदान चढ़ जाने पर डेढ़-सौ रुपए विवाह के ख़र्च के लिए उसी दिन देना पड़ेगा, सब हमारी मारफ़त। भले आदमी हैं, नहीं निबाह सकते। तुमसे हाथ फैलाकर लें, तो कैसे? द्वार के चार से, ब्याह, भात और बड़ाहार, बरतौनी तक डेढ़ सौ, दाल में नमक के बराबर भी नहीं। लेकिन तुम्हें भी तो नहीं उजाड़ सकते? कुल में तुम से बड़े।"

बिल्लेसुर ने कहा, "कुल में बड़े हैं तो ब्याह फलेगा नहीं। मन्नु बाजपेयी ने, रुपये न होने से, उतरकर ब्याह किया, लड़की बेवा हो गई। भय्या, मुझे तो यही बड़ा डर है कि कहीं......"

त्रिलोचन का चेहरा उतर गया। बोले, "घबड़ाते हो नाहक। जितने बड़े हैं, सब बने हुए हैं। अस्ल में बड़े हैं ही नहीं। मन्नी बाजपेयी की लड़की ने अपने पति को मार डाला। कहते हैं, उसकी उम्र ज़्यादा हो गई थी, मायके में ही वह बिगड़ गई थी, इसीलिये मन्नु ने उसका ब्याह उतरकर कर दिया था। अपने यार के कहने से उसने पति को ज़हर खिला दिया। वह कुछ दिन से बीमार था, दवा हो रही थी।"

"कहीं यह भी ऐसा ही मुझ पर करे।" बिल्लेसुर शंका की दृष्टि से देखने लगे।

"कहता तो हूँ, किसी तरह का खौफ़ न खाओ। विचवानी में हूँ। लड़की में न दाग़, न कलङ्क, न चाल-चलन बिगड़ा, न काली कानी-लँगड़ी-लूली।"

जब तुम कह रहे हो तो एतबार सोलहो आने है। लेकिन पता बिना जाने दस रोज़ पहले आये नातेदारों से क्या कहूँगा? उनसे यह भी नहीं कहते बनता कि त्रिलोचन भय्या जानते हैं; इसीलिए पता पूछता हूँ। दूसरी बात; कुण्डली बिचरवा लेनी है। लड़की की कुण्डली ले आओ। मैं अपने सामने बिचरवाऊँगा। लड़की मंगली निकली तो बेमौत मरना होगा? ब्याह करना है तो आँखें खोलकर करना चाहिये।"

त्रिलोचन मन से बहुत नाराज़ हुए। बोले, "ऐसी बातें करते हो जैसे बाला के हो। तुम्हारे यहाँ वे नहीं आए और कभी कोई भलामानस न आयेगा। हम कहते थे कि भद्रा के जैसे मारे इधर उधर घूमते हो, तुम्हारा घर बस जाय, लेकिन तुम आ गये अपनी अस्लियत पर। मान लो, तुम्हीं मङ्गली निकले, तो? कौन बाप अपनी लड़की तुम्हें सौंप देगा? रही बात नातेदारी वाली, सो हम तो इस सोलहो आने बेवकूफ़ी समझते हैं। बैठे-बैठाये पच्चीस रुपये का ख़र्च सिर पर। हम तो कहते हैं, चुपचाप चले चलो, विवाह कर लाओ। लड़की के बाप का नाम मालूम करना चाहते हो तो चले चलो, उनका घर भी देख आओ। लेकिन तुम्हारा जाना शोभित नहीं है, गाँव भर तुम दोनों को हँसेंगे।"

बिल्लेसुर को कुछ विश्वास हुआ। लेकिन रुपये की सोचकर कटे। लड़की के रूप का मोह भी घेरे था, सैकड़ों कलियाँ चटक रही थीं, खुशबू उड़ रही थी, पर त्रिलोचन पर पूरा-पूरा विश्वास न हो रहा था। पूछा, "यहाँ से कितनी दूर है?"

"तीन-चार कोस होगा।"

बिल्लेसुर ने सोचा, एक दिन में चले चलेंगे और लौट भी आयेंगे। बकरियों को बड़ी तकलीफ़ न होगी। पत्ते काटकर डाल जायेंगे। बोले, "तो चले चलो भय्या, देख लेना चाहिये, जिस दिन कहो तैयारी कर दी जाय।"

त्रिलोचन ने मतलब गाँठकर कहा, "अच्छा आज के चौथे दिन चलेंगे।"

(12)

बिल्लेसुर को उस रात नींद न आई। वही रूप देखते रहे। बहुत गोरी है सोचते रामरतन की स्त्री की याद आई। सोलह साल की है सोचा तो रामचरन सुकुल की बिटिया की सूरत सामने आ गई। बड़ी-बड़ी आँखें होंगी, जैसी पुखराजबाई की लड़की हसीना की हैं। इस घर में आयेगी तो घर में उजाला छाया रहेगा। जिस कोठरी में बच्चे रक्खे जाते हैं, उसमें उसका सामान रहेगा। बच्चे दहलीज में रहेंगे। एक छप्पर डाल लेंगे, सब ऋतुओं के लिए आराम रहेगा।

एक दफ़ा भी बिल्लेसुर ने नहीं सोचा कि बकरी की लेंड़ियों की बदबू से ऐसी औरत एक दिन भी उस मकान में रह सकेगी।

सबेरे उठकर पड़ोस के एक गाँव में बज़ाज़ के यहाँ गये और कुर्त्ते का कपड़ा लिया, साफ़ा खरीदा गुलाबी रंग का, धोती एक ली। दरजी को कुर्ते की नाप दी। उसी दिन बना दने के लिए कहा। गाँव के चमार से जूते का जोड़ा खरीदा।

इधर यह सब कर रहे थे, उधर ताड़े रहे कि त्रिलोचन कहाँ है। तीसरे दिन त्रिलोचन घर से निकले। पहनावा और हाथ का डंडा देखकर बिल्लेसुर समझ गये कि जा रहा है, बातचीत करके कल इन्हें ले जायगा। चलने की दिशा देख कर अपने साधारण पहनावे से दूर-दूर रहकर, पीछा किया। त्रिलोचन बाबू के पुरवा के सीधे कच्ची सड़क छोड़कर मुड़े। बिल्लेसुर दूर पुरवा के किनारे खड़े होकर देखने लगे कि त्रिलोचन दूसरे गाँव के लिये पुरवा से बाहर निकलते न दिखे, तब बिल्लेसुर को विश्वास हो गया कि यहीं है। वे भी गाँव के भीतर गये। निकास पर एक आदमी मिला। बिल्लेसुर ने पूछा, "यहाँ श्यामपुर के त्रिलोचन आये हैं?" आदमी ने कहा, "हाँ, वहाँ रामनारायण के यहाँ बैठा है, ठग कहीं का। दोनों एक से, किसी का गला नाप रहे होंगे।"

बिल्लेसुर का कलेजा धक से हुआ। पूछा, "रामनारायण के लड़की-लड़के कुछ है?"

आदमी चौंककर बिल्लेसुर को देखने लगा, "तुम कहाँ रहते हो? तुम रामनागयण को नहीं जानते? उसके साले के लड़की लड़के! पूछो, ब्याह भी हुआ है?"

आदमी इतना कहकर आगे बढ़ा। बिल्लेसुर को बड़ी कायली हुई। वे उसी तरफ़ मन्नी की ससुराल को चले। मन्नी की सास से मिले। भली-बुरी सुख-दुख की बातें हुईं। बिल्लेसुर ने ढाढस बँधाया। कहा, ख़र्चा न हो तो आकर ले जाया करो। कहकर एक रुपया हाथ पर रख दिया। मन्नी अच्छी तरह हैं, कहा। उनकी लड़की की अच्छी सेवा होती है, मन्नी उसकी बड़ी देख-रेख रखते हैं। अब वह बहुत बड़ी हो गई है।

मन्नी की सास बहुत प्रसन्न हुईं। रुपया उठा लिया और पूछा, "घर बसा या नहीं। बिल्लेसुर ने जबाव दिया कि घर माँ-बाप के बसाये बसता है। मन्नी की सास ने कहा कि वे दस-पन्द्रह दिन में आयेंगी तब ब्याह की पक्की बातचीत करेंगी। बिल्लेसुर पैर छूकर विदा हुए।

(13)

त्रिलोचन दूसरे दिन आये, और कहा, "बिल्लेसुर, तैयार हो जाओ।"

बिल्लेसुर ने कहा, "मैं तो पहले से तैयार हो चुका हूँ।"

त्रिलोचन खुश होकर बोले, "तो अच्छी बात है, चलो।"

बिल्लेसुर ने कहा, "भय्या, मन्नी की मौसिया सास की भतीजी को ससुराल में एक लड़की है, कल आये थे, बातचीत पक्की कर गये हैं, अब तो मुझे माफ़ी दीजिये।"

त्रिलोचन नाराज होकर बोले, "तो वह ब्याह ज़रूर गैतल होगा। वैसी ही लड़की होगी। हम शर्त बदकर कह सकते है।" मुस्कराकर बिल्लेसुर ने जवाब दिया, "और तुम्हारा दूध का धोया है? मन्नी की मौसिया सास की भतीजी की ससुराल की लड़की में दाग़ है, और तुम्हारी में, जिसके न बाप का पता, न माँ का, न सम्बन्ध का, मखमल का झब्बा लगा है?"

"देखो, फिर पीछे पछताओगे।" त्रिलोचन बढ़कर बोले।

"पछताने का काम ही नहीं करते; बहुत समझकर चलते हैं, त्रिलोचन भय्या।" बिल्लेसुर ने कड़ाई से जवाब दिया।

"अच्छा, चलकर ज़रा लड़की तो देख लो, तुम्हें लड़की भी दिखा देंगे।"

"अब, लड़की नहीं, लड़की की आजी तक को दिखाओ तो भी मैं नहीं जाऊँगा। जब घर में, अपने नातेदारों में लड़की है तब दूसरी जगह नहीं जाना चाहिये। यह तो धर्म छोड़ना है। गृहस्थ की लड़की का रूप नहीं देखा जाता, गुण देखा जाता है। कहते हैं, रूपवती लड़की बदचलन होती है।"

"तो यह तेरे लिये सावित्री आ रही है। देख ले, अगर गाँव के धिंगरों से पीछा छूटे।"

"वह सब हमें मालूम है। लेकिन घर का सामान लेकर भाग न जायगी, देख लेना। जो मुसीबत पड़ेगी, झेलेगी। किसी का धर्म बिगाड़ने से नहीं बिगड़ता। गाँव में सब का हाल हमें मालूम है।"

"तू सबको दोष लगा रहा है।"

"मैं किसी को दोष नहीं लगा रहा, सच-सच कह रहा हूँ।"

"अच्छा बता, हमें क्या दोष लगा है, नहीं तो––"

"तुम चले जाओ यहाँ से, नहीं तो मैं चौकीदार के पास जाता हूँ।"

चौकीदार के नाम से त्रिलोचन चले। करुणा-भरे क्रोध से घूमघूमकर देखते जाते थे।

बिल्लेसुर अपना काम करने निकले।

(14)

कातिक लगते मन्नी की सास आईं। कुछ भटकना पड़ा। पूछते पूछते मकान मालूम कर लिया। बिल्लेसुर ने देखा, लपककर पैर छुए। मकान के भीतर ले गये। खटोला डाल दिया। उस पर एक टाट बिछाकर कहा, "अम्मा, बैठो।" खटोले पर बैठते हुए मन्नी की सास ने कहा, "और तुम खड़े रहोगे?" बिल्लेसुर ने कहा, "लड़कों को खड़ा ही रहना चाहिये। आपकी बेटी हैं तो क्या? जैसे बेटी, वैसे बेटा। मुझसे वे बड़ी हैं। आप तो फिर धर्म की माँ। पैदा करनेवाली तो पाप की माँ कहलाती है। तुम बैठो, मैं अभी छनभर में आया।"

बिल्लेसुर गाँव के बनिये के यहाँ गये। पावभर शकर ली। लौटकर बकरी के दूध में शकर मिलाकर लोटा भरकर खटोले के सिरहाने रक्खा। गिलास में पानी लेकर कहा, "लो अम्मा, कुल्ला कर डालो। हाथ-पैर धोने हों तो डोल में पानी रक्खा है, बैठे-बैठे गिलास से लेकर धो डालो।" कहकर दूधवाला लोटा उठा लिया। मन्नी की सास ने हाथ-पैर धोये। बिल्लेसुर लोटे से दूध डालने लगे, मन्नी की सास पीने लगीं। पीकर कहा, "बच्चा, मैं बकरी का दूध ही पीती हूँ। इससे बड़ा फ़ायदा है, कुल रोगों की जड़ मर जाती है।"

शाम हो रही थी। आसमान साफ़ था। इमली के पेड़ पर चिड़ियाँ चहक रही थीं। बिल्लेसुर ने आसमान की ओर देखा, और कहा, "अभी समय है। अम्मा, तुम बैठो। मैं अभी आता हूँ। बकरियों को देखे रहना, नहीं, भीतर से दरवाज़ा बन्द कर लो। आकर खोलवा लूँगा। यहाँ अम्मा, बकरियों के चोर बड़े लागन है।" बिल्लेसुर बाहर निकले। मन्नी की सास ने दरवाज़ा बन्द कर लिया।

सीधे खेत-खेत होकर रामगुलाम काछी की बाड़ी में पहुँचे। तब तक रामगुलाम बाड़ी में थे। बिल्लेसुर ने पूछा, "क्या है?" रामगुलाम ने कहा, "भाँटे हैं, करेले है, क्या चाहिये?" बिल्लेसुर ने कहा, "सेरभर भाँटा दे दो। मुलायम मुलायम देना।" रामगुलाम भाँटे उतारने लगा। बिल्लेसुर खड़े बैंगन के पेड़ों की हरियाली देखते रहे। एक-एक पेड़ ऐंठा खड़ा कह रहा था, "दुनिया में हम अपना सानी नहीं रखते।" रामगुलाम ने भाँटे उतारकर, तोलकर, मालवाला पलड़ा काफ़ी झुका दिखाते हुए, बिल्लेसुर के अँगोछे में डाल दिये। बिल्लेसुर ने पहले अँगोछे में गाँठ मारी, फिर टेंट से एक पैसा निकालकर हाथ बढ़ाये खड़े हुए रामगुलाम को दिया। रामगुलाम ने कहा, "एक और लाओ।" बिल्लेसुर मुस्कराकर बोले, "क्या गाँववालों से भी बाज़ार का भाव लोगे?" रामगुलाम ने कहा, "कौन रोज़ अँगोछा बढ़ाये रहते हो? आज मन चला होगा या कोई नातेदार आया होगा।" बिल्लेसुर ने कहा, "अच्छी बात है, कल ले लेना। इस वक्त नहीं है।" बिल्लेसुर की तरकारी खाने की इच्छा होती थी तो चने भिगो देते थे, फिर तेल मसाले में तलकर रसदार बना लेते थे। लौटते हुए मुरली कहार से कहा, "कल पहर भर दिन चढ़ते हमें दो सेर सिंघाड़े दे जाना।' फिर घर आकर दरवाज़ा खोलवाया। दीया जलाकर बकरियों को दुहा। सबेरे की काटी पत्तियाँ डाली और रसोई में रोटी बनाने गये। रोटी, दाल, भात, बैंगन की भाजी, आम का अचार, बकरी का गर्म दूध और शकर परोसकर फटा डालकर पानी रखकर सास जी से कहा, "अम्मा, चलो, भोजन कर लो।" मन्नी की सास शरमाई हुई उठीं; हाथ-पैर धोकर चौक में जाकर प्रेम से भोजन करने लगीं। खाते-खाते पूछा, "भैंस तो तुम्हारे है नहीं, लेकिन घी भैंस का पड़ा जान पड़ता है।" बिल्लेसुर ने कहा, "गृहस्थी में भैंस का घी रखना ही पड़ता है, कोई आया-गया, अपने काम में बकरी का घी ही लाता हूँ।" मन्नी की सास ने छककर भोजन किया, हाथ-मुँह धोकर खटोले पर बैठीं। बिल्लेसुर ने इलायची, मसाले से निकालकर दी। फिर स्वयं भोजन करने गये। बहुत दिनों बाद तृप्ति से भोजन करके पड़ोस से एक चारपाई माँग लाये; डालकर खटोले का टाट उठाकर अपनी चारपाई पर डाला और मन्नी की सास के लिये बंगाल से लाई रंगीन दरी बिछा दी, वहीं का गुरुआइन की पुरानी धोतियों का लपेटकर सीया तकिया लगा दिया। सास जी लेटीं। आँखें मूदकर बिल्लेसुर की बकरियों की बात सोचने लगीं। जब बिल्लेसुर काछी के यहाँ गये थे, उन्होंने एक-एक बकरी को अच्छी तरह देखा था। गिनकर आश्चर्य प्रकट किया था। इतनी बकरियों और बच्चों से तीन भैंस पालने के इतना मुनाफ़ा हो सकता है, कुछ ज्यादा ही होगा।

बिल्लेसुर धैर्य के प्रतीक थे। मन में उठने पर भी उन्होंने विवाह की बातचीत के लिये कोई इशारा भी नहीं किया। सोचा, "आज थकी हैं, आराम कर लें, कल अपने आप बातचीत छेड़ेंगी, नहीं तो यहाँ सिर्फ मुँह दिखाने थोड़े ही आई हैं?"

बिल्लेसुर पड़े थे। एकाएक सुना, खटाले से सिसकियाँ आ रही हैं । सांस रोककर पड़े सुनते रहे। सिसकियाँ धीरे-धीरे गुँजने लगीं, फिर रोने की साफ़ आवाज़ उठने लगी। बिल्लेसुर के देवता कूच कर गये कि खा-पीकर यह काम करके रोना कैसा? जी धक से हुआ कि विवाह नहीं लगा, इसकी यह अग्रसूचना है। घबराकर पूछा, "क्यों अम्मा, रोती क्यों हो?” मन्नी की सास ने रोते हुए कहा, "न जाने किस देश में मेरी बिटिया को ले गये! जब से गये, एक चिट्ठी भी न दी।"

बिल्लेसुर ने समझाया, "अम्मा, रोओ नहीं। भाभी बड़े मज़े में हैं। मन्नी भय्या उनकी बड़ी सेवा करते हैं। मैं जहाँ गया था, मन्नी वहाँ से दूर हैं। हाल मिलते थे। लोग कहते थे अच्छी नौकरी लग गई है। उनका सारा मन भाभी पर लगा है। अब भाभी उतनी ही बड़ी नहीं हैं। लोग कहते थे, बिल्लेसुर अब दो-तीन साल में तुम्हारे भतीजा होगा।

"राम करे, सुख से रहें। हमको तो धोखा दे गये बच्चे! हमारे और कौन था? जिस तरह दिन कटते हैं, हमारी आत्मा जानती है।" कहकर मन्नी की सास ने अघाकर साँस छोड़ी।

बिल्लेसुर ने कहा, "जैसे मन्नी, वैसे मैं। तुम यहाँ रहो। खाने की यहाँ कोई तकलीफ़ नहीं। मुझे भी बनी बनाई दो रोटियाँ मिल जायँगी।"

मन्नी की सास बहुत प्रसन्न हुईं। कहा, "बच्चा, फूलो-फलो, तुम्हारा तो आसरा ही है। अब के आई है तो कुछ दिन रहकर जाऊँगी। तुम्हारा काम-काज यहाँ का देख लूँ। ब्याह एक लगा है, हो गया तो उसे तुम्हारी गृहस्थी समझा दूँ।"

"इससे अच्छी बात और क्या होगी?" बिल्लेसुर पौरूष में जगकर बोले।

मन्नी की सास ने कहा, "बच्चा, अब तक नहीं कहा था, सोचा था, जब काम से छुट्टी पा जाओगे, तब कहूँगी। ब्याह एक ठीक है। लड़की तुम्हारे लायक, सयानी है। लेकिन हमारी बिटिया की तरह गोरी नहीं। भलेमानस है। घर का कामकाज सँभाल लेगी। बताओ, राज़ी हो?"

बिल्लेसुर भक्तिभाव से बोले, "आप जानें। आप राज़ी हैं तो मैं भी हूँ।"

मन्नी की सास प्रसन्न हुईं, कहा, "ठीक है। कर लो। उसको भी तुम्हारे साथ तकलीफ़ न होगी। थोड़ी-सी मदद उसकी माँ की तुम्हें करती रहनी पड़ेगी। ब्याह से पहले, बहुत नहीं, तीस रुपये दे दो ! ग़रीब है, कर्जदार है। फिर कुछ-कुछ देते रहना। उसके भी और कोई नहीं। मैं लड़की को तुम्हारे यहाँ ले आऊँगी। यहीं विवाह कर लो। बरात उसके यहाँ ले जाओगे तो कुल ख़र्चा देना पड़ेगा, इसमें ज़्यादा ख़र्चा बैठेगा। घर में अपने चार नातेदार बुलाकर ब्याह कर लोगे, भले भले पार लग जाओगे।"

बिल्लेसुर को मालूम दिया, इस जुबान में छल नहीं, कहा, "हाँ, बड़ी नेक सलाह है।"

मन्नी की सास कई रोज़ रहीं। बिल्लेसुर को बना-बनाया खाने को मिला। तीन-चार दिन में रंग बदल गया। उन्होंने आग्रह किया कि ब्याह तक वे वहीं रहें। मन्नी की सास ने भी स्वीकार कर लिया।

गाँव में बिल्लेसुर की चर्चा ने ज़ोर मारा। एक दिन त्रिलोचन ने मन्नी की सास को घेरा और पूछा, 'बताओ, व्याह कहाँ रचा रही हो?"

"अपनी नातेदारी में" मन्नी की सास ने कहा।

"वह कहाँ है?' त्रिलोचन ने पूछा।

"क्यों, क्या विल्लेसुर तुम्ही हो?" मन्नी की सास ने आँखें नचाकर पूछा: फिर कहा, "बच्चे, मेरी निगाह साफ़ है, मुझे तींगुर नहीं लगता। अब तुम बताओ कि तुम बिल्लेसुर के कौन हो?"

बल्ली नहीं लगी। त्रिलोचन बहुत कटे। कहा, "अच्छी बात है, कौन हैं, यह होने पर बतायेंगे जब उनका पानी बन्द होगा।"

"नातेदार रिश्तेदार जिसके साथ हैं, उसका पानी परमात्मा नहीं बन्द कर सकते। अच्छा, हमारे घर से बाहर निकलो और गाँव में पानी बन्द करो चलकर।" त्रिलोचन खिसियाये हुए घर से बाहर निकल गये।

बड़े आनन्द से दिन कट रहे थे। बिल्लेसुर की शकरकन्द खूब बैठी थी। कई रोज़ उन्होंने मन्नी की सास को शकरकन्द भूनकर बकरी के दूध में खिलाया। मन्नी की सास मन्नी से जितना अप्रसन्न थीं, बिल्लेलुर से उतना ही प्रसन्न हुईं। उन्होंने बिल्लेसुर के उजड़े बाग़ का एक-एक पेड़, शकरकन्द के खेत की एक-एक लता देखी। उनके आ जाने से ताकने के लिये बिल्लेसुर रात को शकरकन्द के खेत में रहने लगे। दो-एक दिन जंगली सुअर लगे; दो-तीन दिन कुछ->कुछ चोर खोद ले गये। अभी बौड़ी पीली नहीं पड़ी थी। नुकसान होता देखकर मन्नी की सास ने कुछ शकरकन्द खोद लाने की सलाह दी। बिल्लेसुर ने वैसा ही किया। उन्होंने घर में ढेर लगाकर देखा, इतनी शकरकन्द हुई है कि साग घर भर गया है। एक-एक शकरकन्द जैसे लोढ़ा, मन्नी की सास ने मुस्कराते हुए कहा, "इससे तुम्हारा ब्याह भी हो जायगा और काफ़ी शकरकन्द भी खाने को बच रहेगी।" शकरकन्दों को विश्वास की दृष्टि से देखते हुए बिल्लेसुर ने कहा, "अम्मा, सब तुम्हारा आसिरवाद, नहीं तो मैं किस लायक हूँ?" सास ने साँस छोड़कर कहा, "मेरा बच्चा जीता होता तो अब तक तुम्हारे इतना हुया होता। खेती-किसानी करता; मैं मारीमारी न फिरती।" बिल्लेसुर ने उन्हें धीरज दिया, कहा, "हमी तुम्हारे लड़के हैं। तुम कैसी भी चिन्ता न करो, मेरी जब तक साँस चलती है, मैं तुम्हारी सेवा करूँगा। जी न छोटा करो।" सास ने आँचल से आँसू पोंछे। बिल्लेसुर दूसरे गाँव की तरफ़ शकरकन्दों का खरीदार लगाने चले। सोचा, बकरियों के लिये लौटकर पत्ते काटूँगा। दूसरे दिन खरीदार आया और ७०) की बिल्लेसुर ने शकरकन्द बेची। सारे गाँव में तहलक़ा मच गया। लोग सिहाने लगे। अगले साल सबने शकरकन्द लगाने की ठानी।

17
रचनाएँ
हिन्दी कहानियाँ
0.0
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' हिन्दी साहित्य में छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कई कहानियाँ, उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेषरुप से कविता के कारण ही है।
1

लिली

9 अप्रैल 2022
0
0
0

पद्मा के चन्द्र-मुख पर षोड़श कला की शुभ्र चन्द्रिका अम्लान खिल रही है। एकान्त कुंज की कली-सी प्रणय के वासन्ती मलयस्पर्श से हिल उठती,विकास के लिए व्याकुल हो रही है। पद्मा की प्रतिभा की प्रशंसा सुनकर

2

हिरनी

9 अप्रैल 2022
0
0
0

1 कृष्णा की बाढ़ बह चुकी है; सुतीक्ष्ण, रक्त-लिप्त, अदृश्य दाँतों की लाल जिह्वा, योजनों तक, क्रूर; भीषण मुख फैलाकर, प्राणसुरा पीती हुई मृत्यु तांडव कर रही है। सहस्रों गृह-शून्य, क्षुधाक्लिष्ट, निःस्व

3

‘भेड़िया, भेड़िया’

9 अप्रैल 2022
0
0
0

एक चरवाहा लड़का गाँव के जरा दूर पहाड़ी पर भेड़ें ले जाया करता था। उसने मजाक करने और गाँववालों पर चड्ढी गाँठने की सोची। दौड़ता हुआ गाँव के अंदर आया और चिल्लाया, ''भेड़िया, भेड़िया! मेरी भेड़ों से भेड़ि

4

गधा और मेंढक

9 अप्रैल 2022
0
0
0

एक गधा लकड़ी का भारी बोझ लिए जा रहा था। वह एक दलदल में गिर गया। वहाँ मेंढकों के बीच जा लगा। रेंकता और चिल्‍लाता हुआ वह उस तरह साँसें भरने लगा, जैसे दूसरे ही क्षण मर जाएगा। आखिर को एक मेंढक ने कहा, ''

5

महावीर और गाड़ीवान

9 अप्रैल 2022
0
0
0

एक गाड़ीवान अपनी भरी गाड़ी लिए जा रहा था। गली में कीचड़ था। गाड़ी के पहिए एक खंदक में धँस गए। बैल पूरी ताकत लगाकर भी पहियों को निकाल न सके। बैलों को जुए से खोल देने की जगह गाड़ीवान ऊँचे स्‍वर में चिल्

6

शिकार को निकला शेर

9 अप्रैल 2022
0
0
0

एक शेर एक रोज जंगल में शिकार के लिए निकला। उसके साथ एक गधा और कुछ दूसरे जानवर थे। सब-के-सब यह मत ठहरा कि शिकार का बराबर हिस्सा लिया जाएगा। आखिर एक हिरन पकड़ा और मारा गया। जब साथ के जानवर हिस्सा लगाने

7

प्रेमपूर्ण तरंग

9 अप्रैल 2022
0
0
0

बाबू प्रेमपूर्ण मेरे अभिन्न हृदय मित्र हैं। मेरे बी.ए. क्लास के छात्रों में आप भी सबसे वयोज्येष्ठ हैं। आपकी बुद्धि की नामतौल इस वाक्य से पाठक स्वयं कर लें कि जब मैं कॉलेज में भर्ती हुआ, तभी से आप कॉले

8

चतुरी चमार

9 अप्रैल 2022
0
0
0

चतुरी चमार डाकखाना चमियानी मौजा गढ़कला, उन्नाव का एक कदीमी बाशिंदा है। मेरे नहीं, मेरे पिताजी के बल्कि उनके पूर्वजों के भी मकान के पिछवाडे़ कुछ फासले पर, जहाँ से होकर कई और मकानों के नीचे और ऊपरवाले प

9

श्रीमती गजानंद शास्त्रिणी

9 अप्रैल 2022
0
0
0

श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी श्रीमान् पं. गजानन्द शास्त्री की धर्मपत्नी हैं। श्रीमान् शास्त्री जी ने आपके साथ यह चौथी शादी की है, धर्म की रक्षा के लिए। शास्त्रिणी के पिता को षोडशी कन्या के लिए पैंतालीस

10

दो घड़े

9 अप्रैल 2022
0
0
0

एक घड़ा मिट्टी का बना था, दूसरा पीतल का। दोनों नदी के किनारे रखे थे। इसी समय नदी में बाढ़ आ गई, बहाव में दोनों घड़े बहते चले। बहुत समय मिट्टी के घड़े ने अपने को पीतलवाले से काफी फासले पर रखना चाहा। प

11

कंजूस और सोना

9 अप्रैल 2022
0
0
0

एक आदमी था, जिसके पास काफी जमींदारी थी, मगर दुनिया की किसी दूसरी चीज से सोने की उसे अधिक चाह थी। इसलिए पास जितनी जमीन थी, कुल उसने बेच डाली और उसे कई सोने के टुकड़ों में बदला। सोने के इन टुकड़ों को गल

12

सौदागर और कप्तान

9 अप्रैल 2022
0
0
0

एक सौदागर समुद्री यात्रा कर रहा था, एक रोज उसने जहाज के कप्तान से पूछा, ''कैसी मौत से तुम्हारे बाप मरे?" कप्तान ने कहा, ''जनाब, मेरे पिता, मेरे दादा और मेरे परदादा समंदर में डूब मरे।'' सौदागर ने कहा

13

देवी

9 अप्रैल 2022
0
0
0

1 बारह साल तक मकड़े की तरह शब्दों का जाल बुनता हुआ मैं मक्खियाँ मारता रहा। मुझे यह ख्याल था कि मैं साहित्य की रक्षा के लिए चक्रव्यूह तैयार कर रहा हूँ, इससे उसका निवेश भी सुन्दर होगा और उसकी शक्ति का

14

बिल्लेसुर बकरिहा

9 अप्रैल 2022
0
0
0

1) ‘बिल्लेसुर’ नाम का शुद्ध रूप बड़े पते से मालूम हुआ-‘बिल्वेश्वर’ है। पुरवा डिवीजन में, जहाँ का नाम है, लोकमत बिल्लेसुर शब्द की ओर है। कारण पुरवा में उक्त नाम का प्रतिष्ठित शिव हैं। अन्यत्र यह नाम न

15

बिल्लेसुर बकरिहा (भाग 2)

9 अप्रैल 2022
0
0
0

(6) बिल्लेसुर गाँव आये। अंटी में रुपये थे, होठों में मुसकान। गाँव के ज़मींदार, महाजन, पड़ोसी, सब की निगाह पर चढ़ गये––सबके अन्दाज़ लड़ने लगे––'कितना रुपया ले आया है।' लोगों के मन की मन्दाकिनी में अव्

16

बिल्लेसुर बकरिहा (भाग 3 )

9 अप्रैल 2022
0
0
0

(11) जब से त्रिलोचन के बैल न लेकर बिल्लेसुर ने बकरियाँ ख़रीदी तभी से इस बेचारे को जुटाने के लिये त्रिलोचन पेच भर रहे थे। बकरियों के बच्चों के बढ़ने के साथ गाँव में धनिकता के लिये बिल्लेसुर का नाम भी

17

बिल्लेसुर बकरिहा (भाग 4 )

9 अप्रैल 2022
0
0
0

(15) कातिक की चाँदनी छिटक रही थी। गुलाबी जाड़ा पड़ रहा था। सवन-जाति की चिड़ियाँ कहीं से उड़कर जाड़े भर इमली की फुनगी पर बसेरा लेने लगी थीं; उनका कलरव उठ रहा था। बिल्लेसुर रात को चबूतरे की बुर्जी पर ब

---

किताब पढ़िए