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बिल्लेसुर बकरिहा

9 अप्रैल 2022

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1)

‘बिल्लेसुर’ नाम का शुद्ध रूप बड़े पते से मालूम हुआ-‘बिल्वेश्वर’ है। पुरवा डिवीजन में, जहाँ का नाम है, लोकमत बिल्लेसुर शब्द की ओर है। कारण पुरवा में उक्त नाम का प्रतिष्ठित शिव हैं। अन्यत्र यह नाम न मिलेगा, इसलिए भाषातत्त्व की दृष्टि से गौरवपूर्ण है। बकरिहा जहाँ का शब्द है, वहां बोकरिहा कहते हैं। वहां बकरी को बोकरी कहते हैं। मैंने इसका हिन्दुस्तानी रूप निकाला है। ‘हां’ का प्रयोग हनन के अर्थ में नहीं। पालन के अर्थ में है।

बिल्लेसुर जाति के ब्राह्मण, ‘तरी’ के सुकुल हैं, खेमेवाले के पुत्र खैयाम की तरह किसी बकरीवाले के पुत्र बकरिहा नहीं। लेकिन तरी के सुकुल को संसार पार करने की तरी नहीं मिली तब बकरी पालने का कारोबार किया। गाँववाले उक्त पदवी से अभिहित करने लगे।

हिन्दी भाषा साहित्य में रस का अकाल है, पर हिन्दी बोलनेवालों में नहीं; उनके जीवन में रस की गंगा-जमुना बहती हैं; बीसवीं सदी साहित्य की धारा उनके पुराने जीवन में मिलती है। उदाहरण के लिए अकेला बिल्लेसुर का घराना काफी है। बिल्लेसुर चार भाई आधुनिक साहित्य के चारों चरण पूरे कर देते हैं।

बिल्लेसुर के पिता का नाम मुक्ताप्रसाद था; क्यों इतना शुद्ध नाम था, मालूम नहीं; उनके पिता पण्डित नहीं थे। मुक्ताप्रसाद के चार लड़के हुए, मन्नी, ललई, बिल्लेसुर, दुलारे। नाम उन्होंने स्वयं रक्खे, पर ये शुद्ध नाम हैं। उनके पुकारने के नाम गुणानुसार और-और हैं। मन्नी पैदा होकर साल भर के हुए, पिता ने बच्चे को गर्दन उठाये बैठा झपकता देखा तो ‘गपुआ’ कह पुकारना शुरू किया आदर में ‘गप्पू’। दूसरे लड़के ललई की गोराई रोयों में निखर आयी थी, आँखें भी कंजलोचन, स्वभाव में बदले-बदले, पिता ने नाम रक्खा भर्रा, आदर में ‘भूरू’। बिल्लेसुर के नाम में ही गुण था; पिता ‘बिलुआ’ आदर में ‘बिल्लू’ कहने लगे। दुलारे अपना ईश्वर के यहाँ से खतना कराकर आये थे, पिता को नामकरण में आसानी हुई, ‘कटुआ’ कहकर पुकारने लगे, आदर में ‘कट्टू’।

अभाग्यवश पुत्रों का विकास देखने से पहले मुक्ताप्रसाद संसार बन्धन से मुक्त हो गये। उनकी पत्नी देख-रेख करती रहीं। पर वे भी, पीसकर, चौका टहल कर, कण्डे पाथकर, ढोर छोड़कर, रोटी पकाकर, छोटे से बाग के आम-महुए बीनकर, लड़कों को किसानी के काम में लगाकर ईश्वर के यहाँ चली गयीं। उनके न रहने पर चारो भाइयों की एक राय नहीं रही। विवाद काम में विघ्न पैदा करता है। फलतः चार भाइयों की दो टोलियाँ हुईं। मन्नी और बिल्लेसुर एक तरफ हुए, ललई और दुलारे एक तरफ, जैसे सनातनधर्मी और आर्यसमाजी। कुछ दिन इसी तरह चला। फिर इसमें भी शाखें फूटीं जैसे वैष्णव और शाक्त, वैदिक और वितण्डावादी। फिर सबकी अपनी डफली और अपना राग रहा।

सनातन धर्मानुसार मन्नी दुखी हुई कि तरी के सुकुल होने के कारण कोई लड़की नहीं ब्याह रहा। पर विवाह आवश्यक है, इस लोक के लिए भी और परलोक के लिए भी। माता-पिता गुजर गये हैं, पानी तो उन्हें मिल जाता है। पर माताजी को बड़ियाँ नहीं मिलतीं। बिना गृहिणी के घर में भूत डेरा डालते हैं। विचार के अनुसार मन्नी बातचीत करते और जहाँ कहीं अनाथ की लड़की देखते थे। डोरे डालते थे। एक जगह लासा लग गया। कहना न होगा, ऐसे विवाह की बातचीत में अत्युक्ति ही प्रधान होती है, अर्थात् झूठ ही अधिक यानी एक पैसे की हैसियत एक लाख की बतायी जाती है मन्नी के विवाह में ऐसा ही हुआ। लड़की ने माँ का दूध छोड़ा ही था, माँ बेवा थी, कहा गया, रुपये दो तीन सौ लेकर क्या करोगी जब कि लड़की को अभी दस साल पालना पोसना है,-वहीं चलकर रहो, घी दूध खाओ और रानी की तरह रहकर लड़की की परवरिश करो। बात माँ के दिल में बैठ गयी। मन्नी तब तीस साल के थे; पर चूँकि नाटे कद के थे, इसलिए अट्ठारह उन्नीस की उम्र बतलायी गयी। मूछों की वैसी बला न थी। बात खप गयी।

मन्नी के खेतों के पास एक झाड़ी है; कहते हैं, वहाँ देवता झाड़खण्डेश्वर रहते हैं। एक दिन शाम को मन्नी धूप-दीप, अक्षत-चन्दन, फूल-फल, जल लेकर गये और उकड़ू बैठकर उनकी पूजा करते न जाने क्या क्या कहते रहे। फिर लौटकर प्रसाद पाकर लेटे और पहर रात पुरवा की तरफ चल दिये। एक हफ्ते बाद बैंगनी साफा बाँधे, एक बेवा और उसकी लड़की को लेकर लौटे। रास्त में जमींदार का खेत लगा था, दिखकर कहा-सब अपनी ही रब्बी है। सासुजी ने मुश्किल से आनन्दातिरेक को रोका। कुछ बढ़े। गाँव के बाग़ात देख पड़े। मन्नी ने हाथ उठाकर बताया-वहाँ से वहाँ तक सब अपनी ही बागें हैं। सासुजी को सन्देह न रहा कि मन्नी मालदार आदमी है। घर टूटा था। भाइयों से जुदा होकर एक खण्डहर में रहे थे; लेकिन बाग्देवी प्रचण्ड थीं, खण्डहर को भी खिला दिया। पहुँचने से पहले रास्ते में जमींदार की हवेली दिखाकर बोले-हमारा असली मकान यह है, लेकिन यहाँ भाई लोग हैं, आपको एकान्त में ले चलते हैं।

वहाँ आराम रहेगा, यहाँ आपकी इज्जत न होगी, फिर उसी को हवेली बना लेंगे। सासु ने श्रद्धापूर्वक कहा-हाँ भय्या, ठीक है, बाहरी आदमियों में रहना अच्छा नहीं। मन्नी खण्डहर में ले गये। इस दिन पसेरी भर दूध ले आये। सासुजी लज्जित होकर बोलीं-ऐ इतना दूध कौन पियेगा ? मन्नी ने गम्भीरता से उत्तर दिया-औटने पर थोड़ा रह जायगा, तीन आदमी हैं, ज्यादा नहीं; फिर अभी कुछ दूध चीनी शरबत के तौर पर पियेंगे। सासु ने आराम की साँस ली। मन्नी भंग छानते थे। ठाकुरद्वारे में एक गोला पीसकर तैयार किया और चुपचाप ले आये। दूध में शकर मिलाकर गोला घोल दिया। भंग में बादाम की मात्रा काफी थी सासुजी को अमृत का स्वाद आया, एक साँस में पी गयीं। मन्नी ने थोड़ी सी अपनी भावी पत्नी को पिलायी, फिर खुद पी। सासुजी हाथ पैर धोकर बैठीं, मन्नी पूड़ी निकालने लगे। जब तक नशा चढ़े-चढ़े तब तक काम कर लिया।

पूड़ी-तरकारी, दूध-शकर, मिठाई-खटाई बड़ी तत्परता से सासुजी को परोसा। सासुजी को मालूम दिया, मन्नी बडी तपस्या के फल मिले। खूब खाया। मन्नी ने पलँग बिछा दिया था, माँ-बेटी लेटीं। मन्नी भोजन करके ईश्वर स्मरण करने लगे। आधी रात को जोर से गला झाड़ा, पर सासुजी बेखबर रहीं। फिर दरवाजे पर हाथ दे दे मारा, पर उन्होंने करवट भी न ली। मन्नी समझ गये कि सुबह से पहले आँखें न खोलेंगी। बस अपनी भावी पत्नी को गले लगाया और भगवान बुद्ध की तरह घर त्यागकर चल दिये। पत्नी गले लगी सोती रही। सुबह होते होते मन्नी ने सात कोस का फासला तै किया। जहाँ पहुँचे, वहाँ रिश्तेदारी थी। लोग सध गये। सासुजी ने सबेरे हल्ला मचाया। बात खुली। पर चिड़िया उड़ चुकी थी। वे रो पीटकर शाप देती हुई तू मर जा-तेरी चारपाई गंगाजी जाय, घर चली गयीं। मन्नी शुभ दिन देखकर चुपचाप विवाह कर पत्नी को साथ लेकर परदेश चले गये। पत्नी की दस बारह साल सेवा की। अब धर्म की रक्षा करते हुए, उसे बीस साल की अकेली, उसकी माँ की गोद में जैसे एक कन्या छोड़कर स्वर्ग सिधार गये हैं। मन्नी कट्टर सनातनधर्मी थे।

ललई का दूसरा हाल है। पहले ये भी कलकत्ता बम्बई की खाक छानते फिरे, अन्त में रतलाम में आकर डेरा जमाया। यहाँ एक आदमी से दोस्ती हो गयी। कहते हैं, ये गुजराती ब्राह्मण थे। ईश्वर की इच्छा कुछ दिनों में दोस्त ने सदा के लिए आँखे मूँदीं। लाचार, दोस्त के घर का कुल भार ललई ने उठाया। दोस्त का एक परिवार था। पत्नी, दो बेटे बड़े, बेटे की स्त्री। इन सबसे ललई का वही रिश्ता हुआ जो इनके दोस्त का था। इस परिवार में कुछ माल भी था, इसलिए ललई ने परदेश रहने से देश रहना आवश्यक समझा। चूँकि अपने धर्म-कर्म में दृढ़ थे इसलिए लोक निन्दा और यशःकथा को एक सा समझते थे। अस्तु इन सबको गाँव ले आये। एक साथ पत्नी, दो-दो पुत्र और पुत्रवधू को देखकर लोग एकटक रह गये। इतना बड़ा चमत्कार उन्होंने कभी नहीं देखा था। कहीं सुना भी नहीं था। गाँववालों की दृष्टि ललई पहले ही समझ चुके थे, जानते थे, जिस पर पड़ती है, उसका जल्द निस्तार नहीं होता, इसलिए निस्तार की आशा छोड़कर ही आये थे। गाँववालों ने ललई का पान-पानी बन्द किया। ललई ने सोचा, एक खर्च बचा। गाँववाले भी समझे, इसने बेवकूफ बनाया, माल ले आया है जिसका कुछ भी खर्च न कराया गया। ललई निर्विकार चित्त से अपने रास्ते आते-जाते रहे। मौके की ताक में थे। इसी समय आन्दोलन चला। ललई देश के उद्धार में लगे। बड़ा लड़का गुजरात में कहीं नौकर था, खर्चा भेजता रहा। गाँववाले प्रभाव में आ गये। ललई की लाली के आगे उनका असहयोग न टिका ! अब मिलने की बातें कर रहे हैं। ललई राजनीतिक सुधारक सामाजिक आदमी हैं।

बिल्लेसुर का हाल आगे लिखा जायगा। इनमें बिल और ईश्वर दोनों के भाव साथ-साथ रहे।

दुलारे आर्यसमाजी थे। बस्तीदीन सुकुल पचास साल की उम्र में एक बेवा ले आये थे। लाने के साल ही भर में उनकी मृत्यु हो गयी। दुलारे ने उस बेवा को समझाया, पति के रहते भी तीन साल या तीन महीने खबर न लेने पर पत्नी को दूसरा पति चुनने का अधिकार है। फिर जब बस्तीदीन नहीं रहे तब तीसरे पति के निर्वाचन की उन्हें पूरा स्वतन्त्रता है, और दुलारे उनकी सब तरह सेवा करने को तैयार हैं। स्त्री को एक अवलम्ब चाहिए। वह राजी हो गयी। लेकिन दुलारे भी साल-भर के अन्दर संसार छोड़कर परलोक सिधार गये। पत्नी को हमल रह गया था, बच्चा हुआ। अब वह नारद की तरह ललई के दरवाजे बैठा खेला करता है। माँ नहीं रही।

(2)

मन्नी मार्ग दिखा गये थे, बिल्लेसुर पीछे-पीछे चले। गाँव में सुना था, बंगाल का पैसा टिकता है, बम्बई का नहीं, इसलिए बंगाल की तरह देखा। पास के गाँवों के कुछ लोग बर्दवान के महाराज के यहाँ थे सिपाही अर्दली जमादार। बिल्लेसुर ने साँस रोककर निश्चय किया, बर्दवान चलेंगे। लेकिन खर्च न था। पर प्रगतिशील को कौन रोकता है ? यद्यपि उस समय बोल्शेविज्य का कुछ ही लोगों ने नाम सुना था, बिल्लेसुर को आज भी नहीं मालूम, फिर भी आइडिया अपने-आप बिल्लेसुर के मस्तिष्क में आ गयी। वे उसी फटे-हाल कानपुर गये। बिना टिकट कटाये कलकत्तेवाली गाड़ी पर बैठ गये। इलाहाबाद पहुँचते-पहुचँते चेकर ने कान पकड़कर गाड़ी से उतार दिया। बिल्लेसुर हिन्दुस्तान की जलवायु के अनुसार सविनय कानून भंग कर रहे थे, कुछ बोले नहीं, चुपचाप उतर आये; लेकिन सिद्धान्त नहीं छोड़ा। प्लेटफार्म पर चलते-फिरते समझते बूझते रहे। जब पूरब जानेवाली दूसरी गाड़ी आयी, बैठ गये। मोगलसराय तक सिर उतारे गये; लेकिन, दो-तीन दिन में चढ़ते-उतरते, बर्दवान पहुँच गये।

पं. सत्तीदीन सुकुल, महाराज बर्दावान के यहाँ जमादार थे। यद्यपि बंगालियों को ‘सत्तीदीन’ शब्द के उच्चारण में अड़चन थी, वे ‘सत्यदीन’ या ‘सतीदीन’ कहते थे, फिर भी ‘सत्तीदीन’ की उन्नति में वे कोई बाधा नहीं पहुँचा सके। अपनी अपार मूर्खता के कारण सत्तीदीन महाराज के खजाञ्ची हो गये आधे, आधे इसलिए कि ताली सत्तीदीन के पास रहती थी, खाता एक-दूसरे बाबू लिखते थे। सत्तीदीन इसे अपने एकान्त विश्वासी होने का कारण समझते थे। दूसरे हिन्दोस्तानियों पर भी इस मर्यादा का प्रभाव पड़ा। बिल्लेसुर समझ-बूझकर इनकी शरण में गये। सत्तीदीन सस्त्रीक रहते थे। दो-तीन गायें पाल रक्खी थीं। स्त्री ‘शिखरिदशना’ थीं, यानी सामने के दो दाँत आवश्यकता से अधिक बड़े थे। होंठों से कोशिश करने पर भी न बन्द होते थे। पैकू के सुकूल। कनवजियापन में बिल्लेसुर से बहुत बड़े। फलतः बिल्लेसुर को यहाँ सब तरह अपनी रक्षा देख पड़ी।

बिल्लेसुर सत्तीदीन के यहाँ रहने लगे। ऐसी हालत में गरीब की तहजीब जैसी, दबे पाँव, पेट झुलाये, रीड़ झुकाये, आँखें नीची किये आते जाते रहे। उठते जोबन में सत्तीदीन की स्त्री को एक सुहलाने वाला मिला। दो-तीन दिन तक भोजन न खला। एक दिन औरतवाले कोठे जी गया।

नक्की सुरों में बोली, ‘‘मैं कहती हूँ, बिल्लेसुर तुम तो आ ही गये हो और अभी हो ही, इस चरवाहे को विदा क्यों न कर दूँ ? हराम का पैसा खाता है। कोई काम है ? घास खड़ी है, दो बाझ काट लानी है; नहीं, पैर की बँधी मूँठें हैं-यहाँ-वहाँ का जैसा धान का पैरा नहीं-बड़ा-बड़ा कतर देना है और थोड़ी सी सानी कर देनी है, देश में जैसे डण्डा लिये यहाँ ढोरों के पीछे नहीं पड़ा रहना पड़ता, लम्बी-लम्बी रस्सियाँ तीन गायें हैं, घास खड़ी है, बस गये और खूँटा गाड़कर बाँध दिया, गायें चरती रहीं, शाम को बाबू की तरह टहलते हुए गये और ले आये, दूध दुह लिया, रात को मच्छड़ लगते हैं, गीले पैरे का धुवाँ दे दिया; कहने में तो देर भी लगी।’’ कहकर सत्तीदीन की स्त्री ने कनपटी घुमायी और दोनों होंठ सटाने शुरू किये।

बिल्लेसुर चौकन्ने। ढोरे चराने के लिए समन्दर पार नहीं किया। यह काम गाँव में भी था। लेकिन परदेश है। अपना कोई नहीं। दूसरे के सहारे पार लगना है। सोचा, तब तक कर लें; नौकरी न लगी तो घर का रास्ता नापेंगे।

बिल्लेसुर को जवाब देते देर हुई। सत्तीदीन की स्त्री ने कनपटी घुमायी कि बिल्लेसुर बोले, ‘‘कौन बड़ा काम है। काम के लिए ही तो आया हूँ सात सौ कोस-देस सात सौ कोस तो होगा ?’’

बिल्लेसुर के निश्चय पर जमकर सत्तीदीन की स्त्री ने कहा, ‘‘ज्यादा होगा।’’ कानपुर से बर्दवान की दूरी। सोचकर बोली, ‘‘जमादार आयेंगे तो पूछूँगी, उनकी किताब में सब लिखा है।’’

‘‘बिल्लेसुर खामोश रहे। मन में किस्मत को भला-बुरा कहते रहे।

शाम को जमादार आये। भोजन तैयार था। स्त्री ने पैर धुला दिये। जमादार पाटे पर बैठे। स्त्री दिन को मक्खियाँ उड़ाती हैं, रात को सामने बैठी रहती हैं। जमादार भोजन करने लगे। स्त्री ने कहा, ‘‘जमादार, बिल्लेसुर कहते हैं, अपना देस यहाँ से सात सौ कोस है, मैं कहती हूं, और होगा। तुम्हारी किताब में तो सबकुछ लिखा है ?’’

सत्तीदीन को एक डायरी मिली थी। डायरी भी वही बाबू लिखता था। लिखने के विषय के अलावा और क्या क्या उसमें लिखा है, सत्तीदीन उस बाबू से कभी-कभी पढ़ाकर समझते थे। सत्तीदीन ने सोचा, महाराज ने ऊँचा पद तो दिया ही है, संसार को भी उनकी मुट्ठी में बेर की तरह डाल दिया है। कई रोज वह किताब घर ले आये थे, और वहाँ जो कुछ सुना था, जितना याद था, जबानी स्त्री को सुनाया था।

बायें हाथ से मूछों पर ताव देते हुए मुँह का नेवाला निगलकर सत्तीदीन ने कहा, ‘‘सात सौ कोस इलाहाबाद तक पूरा हो जाता है।’’ उनकी स्त्री चमकती आँखों से बिल्लेसुर को देखने लगतीं। बिल्लेसुर हार मानकर बोले, ‘‘जब किताब में लिखा है तो यही ठीक होगा।’’

पति को प्रसन्न देखकर पत्नी ने अर्जी पेश की जिस तरह पहले बड़े आदमियों का मिजाज परखा जाता था, फिर बात कही जाती थी। बिल्लेसुर गर्जमन्द की बावली निगाह से देखते रहे। सत्तीदीन ने उसमें एक सुधार की जगह निकाली, कहा, ‘‘बिल्लेसुर अपने आदमी हैं इसमें शक नहीं, लेकिन इसमें भी शक नहीं कि उस छोकड़े से ज्यादा खायेंगे। हम तनख्वाह न देंगे। दोनों वक्त खा लें। तनख्वाह की जगह हम तहसील के जमादार से कह देंगे, वे इन्हें गुमाश्तों के नाम तहलीस की चिट्ठियाँ देते रहें, ये चार-पाँच घण्टे में लगा आयेंगे, इन्हें चार-पाँच रुपये महीने मिल जाया करेंगे, हमारा काम भी करते रहेंगे।’’

सत्तीदीन की स्त्री ने किये उपकार की निगाह से बिल्लेसुर को देखा। बिल्लेसुर खुराक और चार-पाँच का महीना सोचकर अपने धनत्व को दबा रहे थे। इतने से आगे बहुत कुछ करेंगे। सोचते हुए उन्होंने सत्तीदीन की स्त्री से हामी की आँख मिलायी।

जमादार गम्भीर भाव से उठकर हाथ-मुँह धोने लगे।

(3)

बिल्लेसुर जीवन-संग्राम में उतरे। पहले गायों के काम की बहुत-सी बातें न कही गई थीं, वे सामने आईं। गोबर उठाना, जगह साफ़ करना, मूत पर राख छोड़ना, कंडे पाथना, कभी कभी गायों को नहलाना आदि भीतरी बहुत सी बातें थीं। दरअस्ल फुर्सत न मिलती थी। पर बिना चिट्ठी लगाये पूरा न पड़ता था। पास-पास की चिट्ठियाँ मिलती थीं, जैसा सत्तीदीन कह गये थे। एक चिट्ठी के तीन आने मिलते थे। कुछ दिनों में बिल्लेसुर को मालूम हुआ, दूर की चिट्ठी में दूना मिलता है। उन्होंने हाथ बढ़ाया। तहसील के जमादार ने कहा, न तुम नौकर हो, न किसी की एवज़ पर हो, फिर सत्तीदीन ने मना किया है, दूर की चिट्ठी हम न देंगे। बिल्लेसुर पैरों पड़े, कहा, नौकर तो आप ही करेंगे, तब तक दूरवाली चिट्ठी भी दें, मैं बारह कोस छः घण्टे में जाऊँगा-आऊँगा। जमादार चिट्ठी देने लगे।

चिट्ठी लगाना सत्तीदीन की स्त्री को अखरता था। बिल्लेसुर लौटकर सदा चढ़ी त्योरियाँ देखते थे। गोकि काम में कसर न रहती थी। दस बजे तक कुल काम कर जाते थे। लौटकर गायों को खोल लाते थे और रात नौ बजे तक उनके पीछे लगे रहते थे। फिर भी सत्तीदीन की स्त्री की शिकन न मिटती थी। दूसरा नौकर भी न रक्खा, क्योंकि बिल्लेसुर सस्ते थे। बातें कभी कभी सुनाती थीं जो कानों को प्यारी न थीं, और उनसे पेट की आँतें निकलने को होती थीं। बिल्लेसुर बरदाश्त करते थे। गरमी के दिनों में दस बारह बजे तक घर का कुछ काम करते थे, फिर चिट्ठी लगाते हुए, देर हुई सोचकर धूप में, नंगे सिर, बिना छाता, दौड़ते हुए रास्ता पार करते थे। लौटते थे, हाँफते हुए, मुँह का थूक सूखा हुआ, होंठ सिमटे हुए, पसीने-पसीने, दिल धड़कता हुआ, यहाँ का बाक़ी काम करने के लिये। पहुँचकर ज़मीन पर ज़रा बैठते थे कि सत्तीदीन की स्त्री पूछती थीं, कितना कमा लाये बिल्लेसुर? ज़बान छुरी से पैनी, मतलब हलाल करता हुआ। बिल्लेसुर उस गरमी में बनावटी नरमी लाते हुए, खीस निपोड़कर जवाब देते हुए, ज़रा सुस्ताकर गायों के पीछे तरह तरह के काम में दौड़ते हुए।

उन दिनों कइयों से बिल्लेसुर कह चुके, मर्द से औरत होना अच्छा। कोई नहीं समझा। बिल्लेसुर सूखे होठों की हार खाई हँसी हँसकर रह गये।

गाँव में भी बिल्लेसुर की बरदाश्त करने की आदत पड़ी थी। कभी कुछ बोले नहीं। अपनी ज़िन्दगी की किताब पढ़ते गये। किसी भी वैज्ञानिक से बढ़कर नास्तिक।

बिल्लेसुर दूसरे का अविश्वास करते करते एक खास शक्ल के बन गये थे। पर अपना बल न छोड़ा था, जैसे अकेले तैराक हों। सत्तीदीन की स्त्री को न मालूम होने दिया कि दूर की कौड़ी लाते हैं। बारह कोस की दौड़ छः कोस की रही। दुनिया को खुश करने की नस टोये पा चुके थे; दम साधे, दबाते हुए कई महीने खे गये। एक दिन जमादार को खुश देखकर बोले, 'बाबा; अब नौकरी लगा देते!'

उन्होंने कहा, 'अच्छा, कल नाप देना।'

बिल्लेसुर मन्नी के भाई थे, पाँच फ़ीट से कुछ ही ऊपर। जानते थे, ऊँचाई घटेगी। तरकीब निकाली। चमरौधा जूता था डेढ़ इंच से कुछ ज्यादा ऊँचे तले का। उसमें रुई की गद्दी लगाई। पहनकर खड़े हुए तो जैसे ईंटों पर खड़े हों। लेकिन झेंपे नहीं, न डरे, जैसे फ़र्ज़ अदा कर रहे हों, गये। कचहरी में लट्ठ लाकर लगाया गया। बिल्लेसुर ने आँख उठाई कि देखें, पूरे हो गये। नापनेवाले ने कहा, डेढ़ इंच घटा।

बिल्लेसुर ने जमादार को उड़ी निगाह से देखा। साथ आरज़ू मिन्नत। जमादार मुस्कराये। कहा, 'बिल्लेसुर, तुम नौकर नहीं हो सकते, लेकिन कोई-न-कोई सिपाही छुट्टी पर रहता है, जगह तुम्हें मिलती रहेगी, बिना तनख़्वाह की छुट्टी वाले की तनख़्वाह भी।'

बिल्लेसुर तरक़्क़ी की सोचकर मुस्कराये।

एक साल बीत गया।

(4)

सत्तीदीन की स्त्री को आये कई साल हो गये, उन्होंने जगन्नाथजी के दर्शन नहीं किये। पैसा पास न था। एक दिन जमादार से बोलीं, 'जमादार, पैसा तो पास है, लेकिन लड़का बच्चा कोई नहीं। हमारे-तुम्हारे बाद पैसा अकारथ जाएगा। इतने दिन आये हुए, अभी जगन्नाथजी के दर्शन नहीं हुए। अबके सोचती हूँ, बाबा के दर्शन करूँ और कहूँ, बाबा मेरी गोद भर दो तो तुम्हारे चरणों पर लोटकर तुम्हारी एक सौ एक रुपये की शिरनी चढ़ाऊँ। मेरा जी कहता है, बाबा मेरी मनोकामना पूरी करेंगे। देश-देश के लोग जाते हैं, मुँहमाँगा वरदान उन्हें मिलता है, भगवान ही हैं––अरे हाँ––जो कर, थोड़ा। फिर न जाने क्या सोचकर सत्तीदीन की स्त्री फूट-फूटकर रोने लगीं, फिर अपने हाथ आँसू पोंछकर हिचकियाँ लेती हुई बोलीं, 'मुझे सब सुख है। जैसा अच्छा वर मिला, वैसा अच्छा घर; धन है, मान है, गहने है, कपड़े हैं, दूध से भरी हूँ, लेकिन ऊँ हूँ हूँ––'फिर रोदन, यानी पूत नहीं।

सत्तीदीन ने छाती से लगाकर कहा, 'अभी तुम्हारी कोई उमर हो गई है? पहली होतीं तो एक बात होती। वे तो बेचारी चक्की पीसती हुई चली गईं। पाँच साल हुए तुम्हें ब्याह कर लाया हूँ। अब तुम्हारी उम्र बीस साल की होगी?'

सिसकियाँ लेते हुए स्त्री ने कहा, 'उन्नीसवाँ चल रहा है।' हालां कि उनकी उम्र पच्चीस साल से ऊपर थी।

'फिर?' सत्तीदीन ने कहा, 'इतनी उतावली क्यों होती हो? मैं भी अभी बुड्ढा नहीं। लड़के-बच्चे जब आते हैं, अपने आप आते हैं।'

"ऐसा न कहो', स्त्री ने कहा, 'कहो, जगन्नाथ जी की कृपा से आते हैं।'

सत्तीदीन गम्भीर हो गये; बोले 'जगन्नाथजी की कृपा सब तरफ़ है। ऊँचा ओहदा मिला है, यह भी जगन्नाथजी की कृपा है; और उनके दर्शन हम रोज़ करते हैं मन में, रही बात उनकी पुरी में जाने की, सो चले चलेंगे, दस दिन की छुट्टी ले लेंगे। यह कौन बड़ी बात है?

स्त्री को ढाढस बँधा। इसी समय बिल्लेसुर आये। जमादार ने पूछा, 'बिल्लेसुर, जगन्नाथ जी चलोगे?'

बिल्लेसुर खरचा नहीं लगाना चाहते थे। सत्तीदीन समझ गये। लेकिन बिल्लेसुर के पास होगा भी कितना, सोचकर कहा, 'अच्छा, अपनी छुट्टी मंजूर करा लेना दस दिन की, अगले इतवार को चलेंगे।' सत्तीदीन को साथ एक नौकर चाहिये था।

बिल्लेसुर जब दूसरे की एवज़ में काम करने लगे, तब कचहरी की लगातार हाज़िरी ज़रूरी हो गई। सत्तीदीन को गायों के काम के लिये दूसरा नौकर रखना पड़ा। बाहर का बहुत सा काम बिल्लेसुर कर देते थे, यों वे अब अलग रहते थे, अलग पकाते खाते थे।

फोकट में जगन्नाथ जी के दर्शन होंगे, बिल्लेसुर के आनन्द का आरपार न रहा। उन्होंने छुट्टी मंजूर करा ली। अगले इतवार के दिन सत्तीदीन के सामान के रक्षक के रूप से जगन्नाथ जी के दर्शनों के लिये सत्तीदीन और उनकी स्त्री के साथ रवाना हुए।

जिस तरह सत्तीदीन की स्त्री का विश्वास था कि जगन्नाथ जी की कृपा की दृष्टि पड़ते ही वे गर्भिणी हो जायँगी, उसी तरह बिल्लेसुर का विश्वास था कि सत्तीदीन की इच्छामात्र से उनकी नौकरी स्थायी हो जायगी, चाहे वे डेढ़ इंच की जगह बालिश्त भर छोटे पड़ें।

अपने विश्वास को फलीभूत करने का उपाय बिल्लेसुर रास्ते में सोचते गये।

पुरी पहुँचकर बहुत खुश हुए। ऐसा दृश्य कानपुर से बर्दवान तक न देखा था। समन्दर का किनारा––बालू के दूह––देखकर बहुत खुश हुए, समुद्र देखकर जामे से बाहर हो गये। जगन्नाथ जी की स्मृति में बहुत से घोंघे समुद्र के किनारे से चुनकर रख लिये, कुछ छोटे छोटे शंख-से।

मार्कण्डेय, वटकृष्ण, चन्दनतालाब आदि प्रसिद्ध जगहें देखते फिरे । मन्दिर के अहाते में और छोटे छोटे मन्दिर हैं। एक एक देखते फिरे। एकादशी को एक जगह उल्टा टंगी देखकर हँसे। सत्तीदीन ने कहा 'बाबा के प्रताप से यहाँ एकादशी उल्टा टाँग दी गई हैं; यहाँ कोई एकादशी का व्रत नहीं कर सकता। बिल्लेसुर ने उन्हें भी हाथ जोड़कर प्रणाम किया। फिर सब लोग कलियुग की मूर्ति देखने गये। कलियुग अपनी बीबी को कन्धे पर बैठाये बाप को पैदल चला रहा है। सत्तीदीन की स्त्री ग़ौर से देखती रहीं। कई रोज़ बड़े आनन्द से कटे। भुवनेश्वर चलने की तैयारी हुई।

जगन्नाथ जी में जूठा नहीं होता, या दूसरे की जूठन खाना प्रचलित है। इधर के लोग जिन्हें चौके की क़ैद माननी पड़ती है, वहाँ खुलकर एक दूसरे की जूठन खाते हैं। कोई बुरा नहीं मानता। बिल्लेसुर ने जमादार और जमादारिन की पत्तलों में अपने जूठे हाथ से भात उठाकर डाल दिया। वे कुछ न बोले, बल्कि खाते हुए हँसते रहे।

दो दिन बीत जाने पर की बात है, जमादार नहा चुके थे, बिल्लेसुर भी नहाकर आये। आकर सीधे जमादार के पास गये और उनके पैर पकड़ कर पेट के बल लेट गये। 'क्या है बिल्लेसुर? क्या है बिल्लेसुर?' जमादार शंका की दृष्टि से देखते हुए पूछने लगे। बिल्लेसुर ने करुण स्वर से कहा, 'कुछ नहीं, बाबा, मेरा भवसागर से उद्धार करो।'

भवसागर से उद्धार हम कैसे करें, बिल्लेसुर? क्या हो गया है?' सत्तीदीन विचलित हो गये।

पैर पकड़े गए ही बिल्लेसुर ने कहा, 'बाबा, मुझे गुरुमन्त्र दो!'

'अरे, गुरु यहाँ एक-से-एक बड़े हैं, छोड़ो पाँव, उनमें जिससे चाहो, मन्त्र ले लो।' सत्तीदीन ने पैर छुड़ाने को किया।

'मेरी निगाह में तुमसे बड़ा कोई नहीं। तुम मुझ पर दया करो।' पैर पकड़े हुए बिल्लेसुर ने पैरों पर माथा रख दिया।

'मुझे तो काई गुरुमन्त्र आता ही नहीं। सिर्फ़ गायत्री आती है।' विकल होकर सत्तीदीन ने कहा।

'बाबा, गायत्री से बड़ा गुरुमन्त्र और कोई नहीं। मैं यही मन्त्र लूँगा।'

'अरे, गायत्री तो जनेऊ होते वक़्त तुम सुन चुके हो।'

'मैं भूल गया हूँ। तुम्हारे पैर छूकर कहता हूँ। कल मैने सपना देखा है कि बाबा जगन्नाथ जी कहते हैं.........लेकिन कहूँगा तो सपना फलियायगा नहीं।'

स्वप्न की बात से सत्तीदीन की स्त्री रोमांञ्चित हुई। बिल्लेसुर बाज़ी मार ले गया, सोचा। पुकार कर कहा, 'बिल्लेसुर, पैर छोड़ दो। तुम्हें बाबा का सपना हुआ है, तो मैं कहती हूँ, जमादार गुरुमन्त्र देंगे। यहाँ आओ, अकेले में मुझसे बताओ कि क्या सपना देखा।'

बात पाकर बिल्लेसुर ने पैर छोड़ दिये। सत्तीदीन की स्त्री कोठरी की तरफ़ बढ़ीं। बिल्लेसुर साथ साथ गये। वहाँ जाकर कहा, 'मैं सोता था, सोता था, देखा भुस्स से एक आग जल उठी, उसमें तीन मुँह वाला एक आदमी बैठा था, उसने कहा, बिल्लेसुर, तू ग़रीब ब्राह्मण है, सताया हुआ है, लेकिन घबड़ा मन, तू जिसके साथ आया है, उनकी सेवा कर, उनसे गुरुमन्त्र ले ले, तू दूधों-पूतों फलेगा। फिर देखता हूँ तो कहीं कुछ नहीं।'

सत्तीदीन की स्त्री ने निश्चय किया, फल उल्टा हुआ। यह सपना दरअस्ल उन्हें होना था। कोई खता न हो गई हो। हर सोमवार बाबा के नाम घी की बत्ती देने का सङ्कल्प किया। फिर सत्तीदीन से मन्त्र दे देने के लिये कहा। सत्तीदीन ने कराठी, माला, मिठाई, अँगोछा आदि बाज़ार से ख़रीद लाने के लिये बिल्लेसुर से कहा। बिल्लेसुर गये, क्षण भर में ख़रीद लाये। सत्तीदीन ने गायत्री मंत्र से पुनर्वार बिल्लेसुर को दीक्षित किया।

बिल्लेसुर की श्रद्धालु आँखों का प्रभाव सत्तीदीन की स्त्री पर पड़ा। जगन्नाथ-दर्शन बिल्लेसुर के मुकाबिले उनका फीका रहा सोचकर जमादार से बोलीं, 'जमादार, मैं कहती हूँ, मंत्र मैं भी क्यों न ले लूँ।' जमादार ने कहा, 'अच्छा, पण्डा जी आवें, तो पूछ लें।' ईश्वर की इच्छा से पण्डा जी कुछ ही देर में आ गये। सत्तीदीन ने पूछा। पण्डा जी ने सत्तीदीन की स्त्री को देखा और कहा 'अभी तुम रख नहीं सकेगा। अभी तो तुमको मासिक धर्म होता है।'

सत्तीदीन की स्त्री कटी निगाह देखती रही। पण्डा जी ने सत्तीदीन को सलाह दी कि चौथेपन में गुरुमन्त्र लेना लाभदायक होता है। जब तक स्त्री को मासिक धर्म होता है तब तक वह मंत्र की रक्षा नहीं कर सकती, अशुद्ध रहती है और तरह तरह से पैर फिसलने की सम्भावना है। सत्तीदीन मान गये।

वहाँ से भुवनेश्वर गये, फिर बर्दवान वापस आये।

(5)

सत्तीदीन की स्त्री एक साल तक जगन्नाथ जी की शक्ति की परीक्षा करती रहीं। हर सोमवार को घी का दिया देती थीं; और हर महीने के अन्त तक प्रतीक्षा करती थीं। लेकिन कोई फल न हुआ।

बिल्लेसुर की क्रिया-काष्ठा बहुत बढ़ गई। तिलक, माला और गायत्री के धारण से उनकी प्रखरता दिन पर दिन निखरती गई।

जब एक साल तक पुत्र-विषय में बाबा जगन्नाथ जी ने कृपा न की तब सत्तीदीन की स्त्री का देवता पर कोप चढ़ा और वे दिव्य शक्ति की पक्षपातिनी बन गईं; यथार्थवादी लेखक की तरह।

बिल्लेसुर को बड़ी ग्लानि हुई। उनके गुरुमंत्र का लोग मज़ाक उड़ाते थे। उनकी हालत में भी कोई सुधार नहीं हुआ। उन्होंने निश्चय किया, देश चलकर रहेंगे, ज़मींदार की ग़ुलामी से गुरु की ग़ुलामी सख़्त है, यहाँ से वहाँ की आबोहवा अच्छी, अपने आदमी बोलने-बतलाने के लिये हैं, अब यहाँ नहीं रहेंगे।

गुरुआईन का यथार्थवाद भी बिल्लेसुर को खला। एक दिन वे अपनी कण्ठी और माला लेकर गये और गुरुआइन के सामने रखकर कहा, "मैंने देश जाने की छुट्टी ली है। लौटूँ, या न लौटूँ, कहने को क्यों रहे, यह माला है और यह कंठी, लो, अब मैं चेला नहीं रहूँगा, जैसे गुरु वैसी तुम, यह तुम्हारा मन्त्र है।"

कहकर गायत्री मन्त्र की आवृत्ति कर गये और सुनाकर चल दिये, फिर पैर भी नहीं छुए।

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रचनाएँ
हिन्दी कहानियाँ
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सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' हिन्दी साहित्य में छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कई कहानियाँ, उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेषरुप से कविता के कारण ही है।
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लिली

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हिरनी

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एक चरवाहा लड़का गाँव के जरा दूर पहाड़ी पर भेड़ें ले जाया करता था। उसने मजाक करने और गाँववालों पर चड्ढी गाँठने की सोची। दौड़ता हुआ गाँव के अंदर आया और चिल्लाया, ''भेड़िया, भेड़िया! मेरी भेड़ों से भेड़ि

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एक गधा लकड़ी का भारी बोझ लिए जा रहा था। वह एक दलदल में गिर गया। वहाँ मेंढकों के बीच जा लगा। रेंकता और चिल्‍लाता हुआ वह उस तरह साँसें भरने लगा, जैसे दूसरे ही क्षण मर जाएगा। आखिर को एक मेंढक ने कहा, ''

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एक गाड़ीवान अपनी भरी गाड़ी लिए जा रहा था। गली में कीचड़ था। गाड़ी के पहिए एक खंदक में धँस गए। बैल पूरी ताकत लगाकर भी पहियों को निकाल न सके। बैलों को जुए से खोल देने की जगह गाड़ीवान ऊँचे स्‍वर में चिल्

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एक शेर एक रोज जंगल में शिकार के लिए निकला। उसके साथ एक गधा और कुछ दूसरे जानवर थे। सब-के-सब यह मत ठहरा कि शिकार का बराबर हिस्सा लिया जाएगा। आखिर एक हिरन पकड़ा और मारा गया। जब साथ के जानवर हिस्सा लगाने

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बाबू प्रेमपूर्ण मेरे अभिन्न हृदय मित्र हैं। मेरे बी.ए. क्लास के छात्रों में आप भी सबसे वयोज्येष्ठ हैं। आपकी बुद्धि की नामतौल इस वाक्य से पाठक स्वयं कर लें कि जब मैं कॉलेज में भर्ती हुआ, तभी से आप कॉले

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चतुरी चमार डाकखाना चमियानी मौजा गढ़कला, उन्नाव का एक कदीमी बाशिंदा है। मेरे नहीं, मेरे पिताजी के बल्कि उनके पूर्वजों के भी मकान के पिछवाडे़ कुछ फासले पर, जहाँ से होकर कई और मकानों के नीचे और ऊपरवाले प

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श्रीमती गजानंद शास्त्रिणी

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श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी श्रीमान् पं. गजानन्द शास्त्री की धर्मपत्नी हैं। श्रीमान् शास्त्री जी ने आपके साथ यह चौथी शादी की है, धर्म की रक्षा के लिए। शास्त्रिणी के पिता को षोडशी कन्या के लिए पैंतालीस

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दो घड़े

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एक घड़ा मिट्टी का बना था, दूसरा पीतल का। दोनों नदी के किनारे रखे थे। इसी समय नदी में बाढ़ आ गई, बहाव में दोनों घड़े बहते चले। बहुत समय मिट्टी के घड़े ने अपने को पीतलवाले से काफी फासले पर रखना चाहा। प

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एक आदमी था, जिसके पास काफी जमींदारी थी, मगर दुनिया की किसी दूसरी चीज से सोने की उसे अधिक चाह थी। इसलिए पास जितनी जमीन थी, कुल उसने बेच डाली और उसे कई सोने के टुकड़ों में बदला। सोने के इन टुकड़ों को गल

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सौदागर और कप्तान

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एक सौदागर समुद्री यात्रा कर रहा था, एक रोज उसने जहाज के कप्तान से पूछा, ''कैसी मौत से तुम्हारे बाप मरे?" कप्तान ने कहा, ''जनाब, मेरे पिता, मेरे दादा और मेरे परदादा समंदर में डूब मरे।'' सौदागर ने कहा

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देवी

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1 बारह साल तक मकड़े की तरह शब्दों का जाल बुनता हुआ मैं मक्खियाँ मारता रहा। मुझे यह ख्याल था कि मैं साहित्य की रक्षा के लिए चक्रव्यूह तैयार कर रहा हूँ, इससे उसका निवेश भी सुन्दर होगा और उसकी शक्ति का

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1) ‘बिल्लेसुर’ नाम का शुद्ध रूप बड़े पते से मालूम हुआ-‘बिल्वेश्वर’ है। पुरवा डिवीजन में, जहाँ का नाम है, लोकमत बिल्लेसुर शब्द की ओर है। कारण पुरवा में उक्त नाम का प्रतिष्ठित शिव हैं। अन्यत्र यह नाम न

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बिल्लेसुर बकरिहा (भाग 2)

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बिल्लेसुर बकरिहा (भाग 3 )

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(11) जब से त्रिलोचन के बैल न लेकर बिल्लेसुर ने बकरियाँ ख़रीदी तभी से इस बेचारे को जुटाने के लिये त्रिलोचन पेच भर रहे थे। बकरियों के बच्चों के बढ़ने के साथ गाँव में धनिकता के लिये बिल्लेसुर का नाम भी

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बिल्लेसुर बकरिहा (भाग 4 )

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