नेहरु की जगह सरदार पटेल पीएम होते तो देश के हालात कुछ और होते। ये सवाल नेहरु या कांग्रेस से नाराज हर नेता या राजनीति क दल हमेशा उठाते रहे हैं। लेकिन इस सवाल को किसी ने कभी नहीं उठाया कि अगर नेहरु की जगह अंबेडकर पीएम होते तो हालात कुछ और होते। दरअसल अंबेडकर को राजनीतिक तौर पर किसी ने कभी मान्यता दी ही नहीं। या तो संविधान निर्माता या फिर दलितों के मसीहा के तौर पर बाबा साहेब अंबेडकर को कमोवेश हर राजनीतिक सत्ता ने देश के सामने पेश किया। इतिहास के पन्नों को अगर पलटें तो आजादी से पहले या तुरंत बाद देश के हालातों को लेकर अंबेडकर तब क्या सोच रहे थे और क्यों अंबेडकर को राजनीतिक तौर पर उभारने की कोई कोशिश नहीं हुई। मौजूदा वक्त में भी बाबा साहेब अंबेडकर का नाम को लेकर राजनीतिक सत्ता भावुक हो जाती है लेकिन ये कहने से बचती है कि अंबेडकर पीएम होते तो क्या होता। तो आईये जरा अंबेडकर के लेख न, अंबेडकर के कथन और अंबेडकर के अध्ययन को ही परख लें कि वह उस वक्त देश को लेकर वह क्या सोच रहे थे, जिस दौर देश गढ़ा जा रहा था।
तो संविधान निर्माता की पहचान लिये बाबा साहेब अंबेडकर ने संविधान की स्वीकृति के बाद 25 नवंबर 1949 को कहा, "26 जनवरी 1950 को हम अंतर्विरोधों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हम समानता प्राप्त कर लेंगे। परंतु सामाजिक-आर्थिक जीवन में असमानता बनी रहेगी। राजनीति में हम यह सिद्दांत स्वीकार करेंगे कि एक आदमी एक वोट होता है और एक वोट का एक ही मूल्य होता है। अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में अपनी सामाजिक और आर्थिक संरचना के कारण हम यह सिद्दांत नकारते रहेंगे कि एक आदमी का एक ही मूल्य होता है। कब तक हम अंतर्विरोधों का ये जीवन बिताते रहेंगे। कब तक हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे ? बहुत दिनो तक हम उसे नकारते रहे तो हम ऐसा राजनीतिक लोकतंत्र खतरे में डाल कर ही रहेंगे। जिसनी जल्दी हो सके हमें इस अंतर्विरोध को दूर करना चाहिये। वरना जो लोग इस असमानता से उत्पीडि़त हैं वे इस सभा द्वारा इतने परिश्रम से बनाये हुये राजनीतिक लोकतंत्र के भवन को ध्वस्त कर देंगे "
यानी संविधान के आसरे देश को छोड़ा नहीं जा सकता है बल्कि अंबेडकर असमानता के उस सच को उस दौर में ही समझ रहे थे जिस सच से अभी भी राजनीतिक सत्ता आंखे मूंदे रहती है या फिर सत्ता पाने के लिये असमानता का जिक्र करती है। यानी जो व्यवस्था समानता की होनी चाहिये, वह नहीं है तो इस बात की कुलबुलाहट अंबेडकर में उस दौर में इतनी ज्यादा थी कि 13 दिसंबर 1949 को जब नेहरु ने संविधान सभा में संविधान के उद्देश्यों पर प्रस्ताव पेश किया तो बिना देर किये अंबेडकर ने नेहरु के प्रस्ताव का भी विरोध किया। अंबेडकर की राइटिंग और स्पीचीज की पुस्तक माला के खंड 13 के पेज 8 में लिखा है कि आंबेडकर ने कितना तीखा प्रहार नेहरु पर भी किया।
उन्होने कहा, " समाजवादी के रुप में इनकी जो ख्याति है उसे देखते हुये यह प्रस्ताव निराशाजनक है। मैं आशा करता था, कोई ऐसा प्रावधान होगा जिससे राज्यसत्ता आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय को यथार्थ रुप दे सके। उस नजरिए से मै आशा करता था कि ये प्रस्ताव बहुत ही स्पष्ट शब्दों में घोषित करे कि देश में सामाजिक आर्थिक न्याय हो। इसके लिये उघोग-धंधों और भूमि का राष्ट्रीयकरण होगा। जब तक समाजवादी अर्थतंत्र न हो तबतक मै नहीं समझता, कोई भावी सरकार जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय करना चाहती है वह ऐसा कर सकेगी।"
तो अंबेडकर उन हालातों को उसी दौर में बता रहे थे जिस दौर में नेहरु सत्ता के लिये बेचैन थे और उसके बाद से बीते 70 बरस में यही सवाल हर नई राजनीतिक सत्ता पूर्व की सरकारों को लेकर यही सवाल खड़ा करते करते सत्ता पाती रही है फिर आर्थिक असमानता तले उन्हीं हालातों में को जाती है। यूं याद तो ठीक दो बरस संसद में संविधान दिवस मनाये जाने के दौर को भी याद किया किया सकता है, जब 26 नवंबर 2015 को संविधान दिवस मनाते कांग्रेस हो या बीजेपी यानी विपक्ष हो या सत्तादारी सभी ने एक सुर में माना कि अंबेडकर जिन सवालों को संविधान लागू होने से पहले उठा रहे थे, वही सवाल संविधान लागू होने के बाद देश के सामने मुंह बाये खड़े हैं।
ये अलग बात है कि कांग्रेस हो या बीजेपी दोनों ने खुद को आंबेडकर के सबसे नजदीक खड़े होने की कोशिश संसद में बहस के दौरान की। लेकिन दोनो राजनीतिक दलों में से किसी नेता ने यह कहने की हिम्मत नहीं की कि आजादी के बाद अगर अंबेडकर देश के पीएम होते तो देश के हालात कुछ और होते। क्योंकि अंबेडकर एक तरफ भारत की जातीय व्यवस्था में सबसे नीचे पायदान पर खडे होकर देश की व्यवस्था को ठीक करने की सोच रहे थे। दूसरा उस दौर में अंबेडकर किसी भी राजनेता से सबसे ज्यादा सुपठित व्यक्तियों में से थे। जो अमेरिकी विश्वविघालय में राजनीति और सामाजिक अध्ययन करने के साथ साथ भारत की अर्थ नीति कैसे हो इस पर भी लिख रहे थे। यानी अंबेडकर का अध्ययन और भारत को लेकर उनकी सोच कैसे दलित नेता के तौर पर स्थापना और संविधान निर्माता के तौर पर मान्यता तहत दब कर रह गई ये किसी ने सोचा ही नहीं। क्योंकि जिस दौर में महात्मा गांधी हिन्द स्वराज लिख रहे थे और हिन्द स्वराज के जरिये संसदीय प्रणाली या आर्थिक हालातों का जिक्र भारत के संदर्भ में कर रहे थे।
उस दौर में अंबेडकर भारत की पराधीन अर्थव्यवस्था को मुक्त कराने के लिये स्वाधीन इकनॉमिक ढांचे पर भी कोलंबिया यूनिवर्सिटी में कह-बोल रहे थे। भारत के सामाजिक जीवन में झांकने के लिये संस्कृत का धार्मिक पौराणिक और वेद संबंधी समूचा वाड्मंय अनुवाद में पढ़ रहे थे और भौतिक स्थापनायें लोगों के सामने रख रहे थे। इसलिये जो दलित नेता आज सत्ता की गोद में बैठकर अंबेडकर को दलित नेता के तौर पर याद कर नतमस्तक होते है, वह इस सच से आंखे चुराते हैं कि आंबेडकर ब्राह्मण व्यवस्था को सामाजिक व्यवस्था से आगे एक सिस्टम मानते थे। 1930 में उनका बहुत साफ मानना था कि ब्राह्मण सिस्टम में अगर जाटव भी किसी ब्राह्मण की जगह ले लेगा तो वह भी उसी अनुरुप काम करने लगेगा, जिस अनुरुप कोई ब्राह्मण करता। अपनी किताब मार्क्स और बुद्द में आंबेडकर ने बारत की सामाजिक व्यवस्था की उन कुरितियों को उभारा भी और समाधान की उस लकीर को खींचने की कोशिश भी की जिस लकीर को गाहे बगाने नेहरु से लेकर मोदी तक कभी सोशल इंजिनियरिंग तो कभी अमीर-गरीब के खांचे में उठाते हैं।
1942 में आल इंडिया रेडियो पर एक कार्यक्रम में अंबेडकर कहते है, भारत में इस समय केवल मजदूर वर्ग की सही नेतृत्व दे सकता है। मजदूर वर्ग में अनेक जातियों के लोग है जो छूत-अछूत का भेद मिटाती है। संगठन के लिये जाति प्रथा को आधार नहीं बनाते। उसी दौर में अंबेडकर अपनी किताब 'स्टेट्स एंड माइनरटिज' में राज्यो के विकास का खाका भी खींचते नजर आते है। जिस यूपी को लेकर आज बहस हो रही है कि इतने बडे सूबे को चार राज्यों में बांटा जाना चाहिये। वही यूपी को स्पेटाइल स्टेट कहते हुये अंबेडकर यूपी को तीन हिस्से में करने की वकालत आजादी से पहले ही करते है।
फिर अपनी किताब 'स्माल होल्डिग्स इन इंडिया' में किसानो के उन सवालों को 75 बरस पहले उठाते हैं, जिन सवालों का जबाब आज भी कोई सत्ता दे पाने में सक्षम हो नहीं पा रही है। अंबेडकर किसानों की कर्ज माफी से आगे किसानो की क्षमता बढाने के तरीके उस वक्त बताते है। जबकि आज जब यूपी में किसानो के कर्ज माफी के बाद भी किसान परेशान है और कर्ज की वजह से सबसे ज्यादा किसानों की खुदकुशी वाले राज्य महाराष्ट्र में सत्ता किसानों की कर्ज माफी से इतर क्षमता बढाने का जिक्र तो करती है लेकिन ये होगा कैसे इसका रास्ता बता नहीं पाती। जबकि अंबेडकर 'स्माल होल्डिग्स' में तभी उपाय बताते हैं। माना भी जाता है कि अंबेडकर ने नेहरु के मंत्रिमंडल में शामिल होने के बदले योजना आयोग देने को कहा था। क्योंकि आंबेडकर लगातार भारत के सामाजिक-आर्थिक हालातों पर जिस तरह अध्ययन कर रहे थे, वैसे में उन्हें लगता रहा कि आजादी के बाद जिस इकॉनमी को या जिस सिस्टम की जरुरत देश को है, वह उसे बाखूबी जानते समझते हैं। नेहरु ने उन्हीं सामाजिक हालातों की वजह से ही नेहरु मंत्रिमंडल से त्यागपत्र भी दिया, जिन परिस्थितियों को वह तब ठीक करना चाहते थे।
हिन्दू कोड बिल को लेकर जब संघ परिवार से लेकर, हिन्दू महासभा और कई दूसरे संगठनों ने सड़क पर विरोध प्रदर्शन शुरु किया तो संसद में लंबी चर्चा के बाद भी देश की पहली राष्ट्रीय सरकार को भी जब आंबेडकर हिन्दू कोड बिल पर सहमत नहीं कर पाये तो 27 सितंबर 1951 को अंबेडकर ने नेहरु को इस्तीफा देते हुये लिखा, " बहुत दिनों से इस्तीफा देने की सोच रहा था। एक चीज मुझे रोके हुये था, वह ये कि इस संसद के जीवनकाल में हिन्दूकोड बिल पास हो जाये। मैं बिल को तोड़कर विवाह और तलाक तक उसे सीमित करने पर सीमित हो गया थ। इस आशा से कि कम से कम इन्हीं को लेकर हमारा श्रम सार्थक हो जाये, लेकिन बिल के इस भाग को भी मार दिया गया है। आपके मंत्रिमंडल में बने रहने का कोई कारण नहीं दिखता है। " दरअसल इतिहास के पन्नों को पलटिये तो गांधी, अंबेडकर और लोहिया कभी राजनीति करते हुये नजर नहीं आयेंगे बल्कि तीनों ही अपने अपने तरह से देश को गढ़ना चाहते थे ।
आजादी के बाद संसदीय राजनीति के दायरे में तीनों को अपना बनाने की होड़ तो शुरु हुई लेकिन उनके विचार को ही खारिज उनके जीवित रहते हुये उन्हीं लोगों ने किया जो उन्हे अपना बनाते या मानते नजर आये। इसलिये नेहरु या सरदार पटेल का जिक्र प्रशासनिक काबिलियत के तौर पर तो हो सकता है, लेकिन आजादी के ठीक बाद के हालात को अगर परखे तो उस वक्त देश को कैसे गढना हा यही सवाल सबसे बडा था। लेकिन पहले दिन से ही जो सवाल सांप्रदायिकता के दायरे से होते हुये कश्मीर और रोजगार से होते हुये जाति-व्यवस्था और उससे आगे समाज के हर तबके की भागेदारी को लेकर सत्ता ने उठाये या उनसे दो चार होते वक्त जिन रास्तो को चुना। ध्यान दें तो बीते 70 बरस में देश उन्ही मुद्दो में आज भी उलझा हुआ है । और राजनीतिक सत्ता ही कैसे जाति-व्यवस्था के दायरे से इतर सोच पाने में सक्षम नहीं है।
तो इस सवाल को तो अंबेडकर ने नेहरु के पहले मंत्रिमडल की बैठक में ही उठा दिया था। इसलिये आंबेडकर पंचायत स्तर के चुनाव का भी विरोध कर रहे थे। क्योकि उनका साफ मानना था कि चुनाव जाति में सिमटेंगे। जाति राजनीति को चलायेगी और असमानता भी एक वक्त देश की पहचान बना दी जायेगी। जिसके आधार पर बजट से लेकर योजना आयोग की नीतियां बनेंगी और ध्यान दें तो हुआ यही। अंतर सिर्फ यही आया है कि आंबेडकर आजादी के वक्त जब देश को गढने के लिये तमाम सवालो को मथ रहे थे तब देश की आबादी 31 करोड थी और आज दलितो की तादाद ही करीब 21 करोड़ हो चली है। शिक्षित चाहे 66 फीसदी हो लेकिन ग्रेजुएट महज 4 फीसदी है। इतना ही नहीं 70 फीसदी दलित के पास अपनी कोई जमीन नहीं है।
85 फीसदी दलित की आय 5 हजार रुपये महीने से भी कम है। आबादी 16 फीसदी हैं लेकिन सरकारी नौकरियों में दलितों की तादाद महज 3.96 फिसदी है। दलितों के सरकार के तमाम मंत्रालयों का कुल बजट यानी उनकी आबादी की तुलना में आधे से भी कम है। 2016-17 में शिड्यूल कास्ट सब-प्लान आफ आल मिनिस्ट्रिज का मजह 38,833 करोड दिया गया। जबकि आजादी के लिहाज से उन्हे मिलना चाहिये 77,236 करोड रुपये। पिछले बरस यानी 2015-16 में तो ये रकम और भी कम 30,850 करोड थी। यानी जिस नजरिये का सवाल अंबेडकर आजादी से पहले और आजादी के ठीक बाद उठाते रहे उन सवालो के आईने में अगर बाबा साहेब आंबेडकर को देश सिर्फ संविधान निर्माता मानता है या दलितों की मसीहा के तौर पर देखता है तो समझना जरुरी है कि आखिर आजतक किसी भी राजनीतिक दल या किसी भी पीएम ने ये क्यों नहीं कहा कि अंबेडकर को तो प्रधानमंत्री होना चाहिये था।
ये बेहद महीन लकीर है कि महात्मा गांधी जन सरोकार को संघर्ष के लिये तैयार करते रहे और अंबेडकर नीतियों के आसरे जनसरोकार के संघर्ष को पैदा करना चाहते रहे। यानी देश की पॉलिसी ही अगर नीचे से उपर देखना शुरु कर देती तो अंग्रेजों का बनाया सिस्टम बहुत जल्द खत्म होता। यानी जिस नेहरु मॉडल को कांग्रेस ने महात्मा गांधी से जोडने की कोशिश की और जिस नेहरु मॉडल को लोहिया ने खारिज कर समाजवाद के बीज बोने चाहे। इन दोनों को आत्मसात करने वाली राजनीतिक सत्ताओं ने अंबेडकर मॉडल पर चर्चा करना तो दूर आंबेडकर को दलितों की रहनुमाई तले संविधान निर्माता का तमगा देकर ही खत्म करने की कोशिश की, जो अब भी जारी है ।