लखनऊ: बसपा सुप्रीमो मायावती अपनी चुनावी सभाओं में यह दावा ठोंकती फिर रही हैं कि उनकी पार्टी हर हाल में तीन सौ से भी अधिक सीटें जीतेगी। सरकार उन्हीं की बनेगी। लेकिन,क्या यह सच होकर रहेगा अथवा यह बसपा सुप्रीमो का सिर्फ ख्याली पुलाव ही है? इस सवाल का चैंका देने वाला जवाब एक अनपढ़ और खुद उनकी ही बिरादरी के एक दलित ने दिया है। इसी 22 फरवरी को बस पर इस संवाददाता के हमसफर दलित सहयात्री श्रीचंद का कहना था-‘मायावती नहीं, मोदी जीतेंगे‘। उसकी दलील थी कि मायावती ने हम गरीबों के लिये क्या किया? हमारी ही छाती पर चढकर कुर्सी पर बैठती रही हैं। खुद तो बहुत पैसे वाली हो गयीं और हम गरीब जस के तस रह गये। मोदी ने सबको बराबर करने की कोशिश की है। उसकी मंशा मोदी के नोटबंदी अभियान की तारीफ करने जैसी थी।
श्रीचंद इलाहाबाद के पास झलवा बाजार में किसी के यहां चैकीदारी करता है। पांच हजार रु महीने की पगार पर। यह बसपा के दिग्गज नेता और मायावती की सरकार में असरदार काबीना मंत्री रहे इंद्रजीत सरोज के विधान सभाई निर्वाचन क्षेत्र मंझनपुर के तहत सरसवाँ के पास का रहने वाला है। जाति से खुद को रैदास बताया। इलाहाबाद और उसके आसपास के इलाकों के चमार अपने को रैदास ही कहते हैं। यह संत रविदास के नाम का अपभ्रंश है। मायावती के भी इसी बिरादरी का होने के कारण ये रैदास कभी उनके अंधसमर्थक रहे हैं। उनके एकमुश्त वोट बसपा को ही पडते रहे हैं। लेकिन, इस बार ऐसा नहीं हुआ है। इनका रुझान भाजपा की ओर भी हुआ है।
लगता है कि बसपा सुप्रीमो मायावती उत्तर प्रदेश की सियासी फिजा में आ रहे इस बडे बदलाव को समझ नहीं पा रही हैं और न वह बदलते जमाने की नब्ज के मुताबिक खुद को बदल ही पा रही हैं। शायद यही वजह है कि इनके सोचने और काम करने का तौरतरीका आज भी पहले जैसा ही है। इनके मिजाज में महारानियों जैसी ठसक और तानाशाहों जैसी बू अभी भी बाकी है। अपने कार्यकर्ताओं को एक खास नजरिये से देखने समझने और उनसे बर्ताव करने का इनका तरीका पहले जैसा ही है। उनका विरोध करने का साहस पहले किसी बसपाई में नहीं रहा है जिसने भी ऐसी कोशिश की, उसे अर्श से फर्श पर पटकने में इन्होंने देर नहीं की थी।
लेकिन , अब ऐसा नहीं रह गया है। बसपाइयों में बडा बदलाव आ गया है। अब वे मायावती की राजशाही मनमानी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। मसलन, इस चुनाव में कुछ ही समय पहले इलाहाबाद मंडल के सिराथू विधान सभाई क्षेत्र में मायावती के मनमानी फरमान के खिलाफ बसपाइयों ने बगावत का झंडा बुलंद कर दिया था। वह भी बसपा के राष्ट्रीय महासचिव इंद्रजीत सरोज के सामने। वजह यह थी कि इस चुनाव में पहले से ही घोषित किये गये इलाकाई बसपा प्रत्याशी राजेश मौर्य का टिकट काट कर मायावती ने इलाहाबाद धनाढ्य सईदुर्रब को टिकट दे दिया। इसके विरोध में बसपाइयों ने जमकर नारे बाजी की। सभा में कुर्सियां चलीं और लातजूते भी। इसमें कई बसपाई घायल भी हो गये थे।
मायावती के खिलाफ बसपाइयों की यह बगावत इस बात का स्पष्ट संकेत है कि अपने कार्यकर्ताओं पर उनकी पकड अब बहुत ढीली हो गयी है। पासी, कोरी, पाल, कनौजिया, सोनकर जैसी अनेक दलित जातियों में अब उनके प्रति पहले जैसी प्रतिबद्धता और एकजुटता नही रह गयी है। जहां तक मुस्लिम वोट बैंक का सवाल है, इनका अपनी चिरपरिचित हथकंथा रहा है। मुस्लिम समुदाय का रुझान उसी हालत में बसपा के प्रति होता है, जब चुनाव में सपा प्रत्याशी भाजपा के मुकाबले कमजोर पडते से वह उसे हराने की स्थिति में नहीं रहता है। उसकी इसी सियासी सोच के चलते इस चुनाव के पहले तीन चरणों में हुए मतदान के दौरान मुस्लिम वोटों का जमकर बिखराव हुआ है।
रही बात ब्राह्मणों की तो 2012 के विधान सभाई चुनाव के समय ही उसका मायावती के मोहभग हो गया था। इसके पहले 2007 के विधान सभाई चुनाव में मायावती ने ब्राह्मणों को रिझाने के लिये उन्हें बडे सपने दिखाये थे। लेकिन, उनकी सरकार बनने पर आम ब्राह्मण शंख और घंटा घडियाली ही बजाता रह गया। सत्ता की सारी मलाई मायावती के बेहद करीबी एक ब्राह्मण नेता और उसके बंधुबांधव ही चट कर गये। इसी का नतीजा रहा है कि इस चुनाव में ब्राह्मणों ने मायावती से पूरी तरह कन्नी काट लिया है। सियासी कारणों से मोदी ने पिछडे और अतिपिछडों के आगे इन्हें हाशिये पर ही डाल रखा है। लेकिन, इसके बावजूद, उसका रुझान भाजपा की ही ओर जान पड रहा है। यह मायावती और उनकी बसपा के राजनीति क अवसर का स्पष्ट संकेत है। इस स्थिति में मायावती अपने दावे पर किस सीमा तक खरी उतर सकेगीं, इसकी जानकारी तो 11 मार्च को ही मिल सकेगी।