आइये एक बार पुन: हम कुछ पवित्रता पर चर्चा करते हैं ।
आपने दशानन, दशरथ और राम जैसे पवित्र नामों से तो अवश्य अवगत होंगे।आइये इनके वास्तविक अर्थ का विश्लेषण करते हैं और ईनके मूलस्वरूप को समझने का प्रयास करते हैं।
सर्वप्रथम दशानन शब्द को समझने का प्रयास करते हैं। जैसा की आपको सबको विदित लंका नरेश श्री रावण का एक नाम दशानन भी है। मित्रों हम सबने हिंदी व्याकरण तो अवश्य पढ़ा है, और उसमें समास और अलंकार का भी अध्ययन हम सबने भलीभांति किया है। यंहा पर हम अलंकार कि तो नहीं पर समास कि बात अवश्य करेंगे।
समास का तात्पर्य होता है-‘संक्षिप्तीकरण’ और इसका शाब्दिक अर्थ होता है छोटा रूप। अथार्त जब दो या दो से अधिक शब्द मिलकर जिस नए परन्तु लघु शब्द की रचना करते हैं, उस शब्द को समास (Samas) कहते हैं। समास रचना में दो पद होते हैं। प्रथम पद को ‘पूर्वपद ‘ कहा जाता है और द्वितीय पद को ‘उत्तरपद ‘ कहा जाता है। इन दोनों से जो नया शब्द बनता है वो”समस्त पद” या” सामासिक शब्द” कहलाता है। इसके कुछ उदाहरण देखें जैसे त्रिनेत्र, धनुर्धारी, महादेव, देवधिपति इत्यादि। इसी प्रकार का हमारा शब्द है "दशानन"।
जिस समास में दोनों पद प्रधान न होकर कोई अन्य पद की प्रधानता होती है। उसे बहुब्रीहि समास कहते है। जैसे-दशानन- दस +आनन अर्थात दस मुख वाला।
अब यंहा पर सोचने और विचार करने वाली बात ये है कि आखिर लंकापति रावण का नाम दशानन हि क्यों पड़ा, दशकंधर या दशभुजाधारी, दसकरणीय क्यों नहीं पड़ा।
तो मित्रों इसका उत्तर है, रावण के दस मुख दस इन्द्रियों को प्रकट करते हैं जो सनातन धर्म के अनुसार निम्न प्रकार से हैं: -
पांच ज्ञानेंद्रियां- आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा;
पांच कर्मेंद्रियां- हाथ, पैर, मुंह, गुदा और लिंग ।
प्रत्येक इंद्रियों का एक स्वामी है, जैसे आंख का सूर्य जो "रूप" है । सूर्य के बिना आंखें बेकार हैं। इसी प्रकार कान का स्वामी आकाश जो "शब्द" है। नाक का स्वामी पृथ्वी जो "गंध" है। जीभ का स्वामी जल जो "रस" है और त्वचा के स्वामी वायु देवता हैं जो "स्पर्श" है। इन सभी इंद्रियों का जब हम सदुपयोग करते हैं तो देवता उत्तम सिद्धियां प्रदान करते हैं, किंतु इनका दुरुपयोग मनुष्य को विनाश की ओर अग्रसर करता है।
तो मित्रों यंहा पर हम यही स्पष्ट करना चाहते हैं कि दशानन अर्थात रावण के ये दस मुख ऊपर व्यक्त कि गई दस इन्द्रियों को व्यक्त करते हैं, क्योंकि मनुष्य कि ये इन्द्रियां जब चार अंत:करण अर्थात मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार में से केवल मन के नियंत्रण में होती हैं तो फिर इनसे संबंधित इच्छाओं का कभी अंत नहीं होता। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति के पास जब अपना घर नहीं होता तो वो रहने के लिए किराये का घर लेता है, फिर उस घर में रहते हुए उसे अपने घर कि इच्छा पैदा होती है, वो किसी प्रकार एक कमरे का अपना घर खरीद लेता है। कुछ समय पश्चात उसे यह घर छोटा लगने लगता है, उसके पश्चात् फिर वो मेहनत करके दो कमरों वाला घर ले लेता है। इसी प्रकार कभी उसे अपनी सुविधा के लिए साईकिल कि अवश्यक्ता महसूस होती है, पूरी हो जाने पर मोटरसाइकिल की अवश्यक्ता महसूस होती है, पूरी हो जाने पर फिर वो कार के बारे में सोचने लगता है। इसी प्रकार जैसे हि एक इच्छा पूरी होती है, दूसरी शीश उठाकर खड़ी हो जाती है और इन कभी ना संतुष्ट होने वाली इच्छाओं के भवरजाल में उलझा मनुष्य जीवन भर स्वाद, रूप, स्पर्श, शब्द और गंध से उतपन्न हुई इच्छाओं के पीछे भागता रहता है।
अब आते हैं शब्द "दशरथ" पर। दशरथ का अर्थ होता है दश रथ वाला व्यक्ति अर्थात ऐसा व्यक्ति जिसने अपनी सभी दस इन्द्रियों को अपने मन के नियंत्रण के एकाधिकार से बाहर निकालकर, बुद्धि, चित्त् और अहंकार के भी दायरे से रथ चुका है अर्थात बाँध चुका है, जिसके कारण उसने अपने मन से नियंत्रित होने वाली सभी इच्छाओं पर अधिपत्य स्थापित कर लिया हुआ हो। एक ऐसा व्यक्ति जो अपनी समस्त इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ऐसी सिद्धिया प्राप्त कर चुका हो जिसके फलस्वरुप दैवीय शक्तियां भी देवासुर संग्राम में उसकी सहायता से विजय प्राप्त करती हों और ऐसा व्यक्ति दसो दिशाओ से संतुलित व स्थिर होता है।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रगहमेव च॥
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ३)
इंद्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः।।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ४) नचिकेता ! इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो । मनीषियों, विवेकी पुरुषों, ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिये इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं, इंद्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीररूपी रथ का भोग करने वाला बताया है।
दसों इन्द्रियों को, मन नामक लगाम से कस कर, बुद्धि नामक सारथि के हाथ में मजबूती से पकड़ा कर, जो इस देह नामक रथ की सवारी करने लगा। जो देहादि का गुलाम नहीं रहा, जो अन्तर्मुखी हो गया, परमात्मोन्मुखी हो गया, उस साधक का नाम दशरथ है। और जो दसों इन्द्रियों का बड़ा बड़ा मुँह फाड़ कर, मनमुखी होकर, संसार के समस्त सुखों को भोगना चाहता है, जो वासनालोलुप है, उस संसारी का नाम दशानन है।
तप दोनों प्रकार के मनुष्य करते हैं, दशरथ जैसे परमात्मा प्राप्ति के लिये तप करते हैं, तो दशानन जैसे सुख प्राप्ति के लिये। जो दशानन होता है उसके यहाँ काम (मेघनाद) पैदा होता है, जो दशरथ हो जाता है उसके यहाँ राम पैदा होते हैं । काम विश्राम को खाता है, और राम विश्राम के दाता हैं ।
अब आइये देखते है "राम" नाम की महिमा क्या है।
बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥1॥
भावार्थ:-मैं श्री रघुनाथजी के नाम 'राम' की वंदना करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात् 'र' 'आ' और 'म' रूप से बीज है। वह 'राम' नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदों का प्राण है, निर्गुण, उपमारहित और गुणों का भंडार है॥१॥
आइये इसे दूसरे शब्दों के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं ।जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥
सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेईं पिय संग भवानी॥॥
भावार्थ:-आदिकवि श्री वाल्मीकिजी रामनाम के प्रताप को जानते हैं, जो उल्टा नाम ('मरा', 'मरा') जपकर पवित्र हो गए। श्री शिवजी के इस वचन को सुनकर कि एक राम-नाम सहस्र नाम के समान है, पार्वतीजी सदा अपने पति (श्री शिवजी) के साथ राम-नाम का जप करती रहती हैं॥॥
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥
भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं, "राम" नाम की मणि को मुख रूपी द्वार की जिव्हा रूपी देहलीज पर दीप रूप में धारण करने से अन्दर और बाहर चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश हो जाता है।
ब्रह्माम्भोधि समुद्भवं कलिमलप्रध्वंसनं चाव्ययम् ।
श्रीमच्छम्भुमुखेन्दु सुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा ।
संसारामयभेषजं सुमधुरं श्रीजानकी जीवनम् ।
धन्यास्ते कृतिनः पिबन्ति सततं श्री रामनामामृतम् ।।
श्री रामनामामृत वेदरूपी समुद्र से प्रकट हुआ है और देवताओं का अमृत क्षीर सागर से प्रकट हुआ था । कलियुग के दोषों को नष्ट करने की इसमें अद्भुत शक्ति है और यह अविनाशी है अर्थात् सदा रहने वाला है, रामावतार से पहले भी राम नाम था क्योंकि सतयुग के ऋषि बाल्मीकि जी राम नाम जपके सिद्ध हो गए थे । श्री तुलसीदास जी कहते हैं । रामावतार से पूर्व दशरथ जी भी राम नाम जपते थे । राम नाम भगवान् शंकर के मुख में सदा सुशोभित रहता है, भगवान् शंकर सदा राम मन्त्र का जाप करते रहते हैं ।
रविदास कहै जाकै हदै, रहे रैन दिन राम
सो भगता भगवंत सम, क्रोध न व्यापै काम
रविदास जी कहते हैं कि जिसके हृदय में रात-दिन राम समाए रहते हैं ऐसा भक्त होना राम के समान है क्योंकि फिर उसके ऊपर न तो क्रोध का असर होता है और न ही काम की भावना उस पर हावी होती है।
राम नाम सदा प्रेम्णा संस्मरामि जगद्गुरुम्
क्षणं न विस्मृति याति सत्यं सत्यं वचो मम्
(श्री आदि पुराण)
भगवान श्री कृष्ण श्री आदि पुराण में अर्जुन से कहते हैं कि," हे अर्जुन! मैं सदैव राम नाम स्मरण करता हूँ राम का नाम ही जगत गुरु हैं मैं क्षण भर के लिए भी राम नाम को नहीं भूलता यह मेरा सत्य वचन है"।
उल्टा नाम जपत जग जाना, वाल्मीकि भए ब्रम्ह समाना,
की धुल गए उनके पाप तमाम,परम पद अंत में पाए,
राम सें बड़ा राम का नाम,जो सुमिरे भव पार हो जाए ॥
राम शब्द का अर्थ है – रमंति इति रामः जो रोम-रोम में रहता है, जो समूचे ब्रह्मांड में रमण करता है इसी तरह कहा गया है – रमते योगितो यास्मिन स रामः अर्थात् योगीजन जिसमें रमण करते हैं वही राम हैं।इसी तरह ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है –
राम शब्दो विश्ववचनों, मश्वापीश्वर वाचकः
अर्थात् ‘रा’ शब्द परिपूर्णता का बोधक है और ‘म’ परमेश्वर वाचक है। चाहे निर्गुण ब्रह्म हो या दाशरथि राम हो, विशिष्ट तथ्य यह है कि राम शब्द एक महामंत्र है।
राम का अर्थ है रमना अर्थात ध्यानमग्न हो जाना सदैव गतिशील रहना । आपनि समस्त इन्द्रियों को नियंत्रित कर मुक्ति मार्ग पर प्रशस्त होते हुए भक्ति में लीन हो जाना ही राम का तत्व है। तो इस प्रकार मित्रों हम देखते हैं कि दशानन अर्थात जिसकी इच्छाओं का कोई अंत नहीं, दशरथ अर्थात जिन्होंने समस्त इच्छाओं पर नियंत्रण कर रखा हो और राम इन सभी से मुक्त कर जीवन को सफल बनाने वाला शब्द है।
लेखन और संकलन :- नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)