मित्रों स्वयम्बर में प्रभु श्रीराम जी ने अत्यंत सहजता से अपने इष्टदेव महादेव के धनुष को तोड़कर जानकी जी का वरण किया था तब वो और महर्षि विश्वामित्र आने वाले कठोर समय से अवगत थे, क्योंकि परमेश्वर शंकर के धनुष का टूटना दो पवित्र आत्माओ के मिलन का अद्भुत संगम बना। मित्रों भगवान् परशुराम के बारे में कौन नहीं जानता ।महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप उनकी पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को मध्यप्रदेश के इन्दौर जिला में ग्राम मानपुर में इनका अवतरण हुआ। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम कहलाए। वे जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम जी कहलाये।
मित्रों स्वयम्बर में प्रभु श्रीराम जी ने अत्यंत सहजता से अपने इष्टदेव महादेव के धनुष को तोड़कर जानकी जी का वरण किया था तब वो और महर्षि विश्वामित्र आने वाले कठोर समय से अवगत थे, क्योंकि परमेश्वर शंकर के धनुष का टूटना दो पवित्र आत्माओ के मिलन का अद्भुत संगम बना। मित्रों भगवान् परशुराम के बारे में कौन नहीं जानता ।महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप उनकी पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को मध्यप्रदेश के इन्दौर जिला में ग्राम मानपुर में इनका अवतरण हुआ। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम कहलाए। वे जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम जी कहलाये। मित्रों स्वयम्बर में प्रभु श्रीराम जी ने अत्यंत सहजता से अपने इष्टदेव महादेव के धनुष को तोड़कर जानकी जी का वरण किया था तब वो और महर्षि विश्वामित्र आने वाले कठोर समय से अवगत थे, क्योंकि परमेश्वर शंकर के धनुष का टूटना दो पवित्र आत्माओ के मिलन का अद्भुत संगम बना। मित्रों भगवान् परशुराम के बारे में कौन नहीं जानता ।महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप उनकी पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को मध्यप्रदेश के इन्दौर जिला में ग्राम मानपुर में इनका अवतरण हुआ। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम कहलाए। वे जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम जी कहलाये।
परशुराम जी शिवजी के अनन्य भक्त थे।अत: उनके इष्टदेव के धनुष का टूट जाना, उनके लिए असहनीय था। अत: अपने तपोबल से जब उनको धनुष के टूट जाने का आभास हुआ, तो अत्यंत क्रोध में उस धनुष को तोड़ने वाले व्यक्ति को दण्डित करने दौड़ पड़े और मन की गति से चलने वाले परशुराम जी अल्प समय में हि मिथिलधिपति जनक के रंगशाला पर पहुंच गए।
देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला॥
पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दंड प्रनामा॥
परशुरामजी का भयानक वेष देखकर सब राजा भय से व्याकुल हो उठ खड़े हुए और पिता सहित अपना नाम कह-कहकर सब दंडवत प्रणाम करने लगे॥
यही नहीं सारी प्रजा, सभी मंत्रीगण भय से व्याकुल हो उठे, कुछ हि पल पहले सुख, आनंद, प्रेम और हर्शोल्लास से भर् चुके वातावरण में डर का तत्व भर गया।
जनक जी दौड़े दौड़े आए और मुनि को प्रणाम करके वैदेही के स्वयम्बर से संबंधित समस्त घटनाओ से उन्हें अवगत कराते हुए अत्यंत मधुर और प्रिय वचन बोलकर महर्षि कि प्रसन्शा कर अपनी पुत्री जानकी को बुलाया और परशुराम जी का आशीर्वाद प्राप्त कराया। जानकी को आशीर्वाद देने के पश्चात भी महर्षि का ध्यान टूटे हुए धनुष से नहीं हटा और फिर
अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा॥
बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू॥
अत्यन्त क्रोध में भरकर वे कठोर वचन बोले- रे मूर्ख जनक! बता, धनुष किसने तोड़ा? उसे शीघ्र दिखा, नहीं तो अरे मूढ़! आज मैं जहाँ तक तेरा राज्य है, वहाँ तक की पृथ्वी उलट दूँगा॥
जनक जी के साथ ऐसा क्रोधित व्यवहार देख वंहा की प्रजा किसी अनिष्ट के घटित होने की संभावना से घिर गई, अब वंहा पर किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था, सभी राजा महाराजा परशुराम जी के डर से कुछ भी बोलने कि दशा में नहीं थे। सभा में केवल तीन हि व्यक्ति विशेष थे जो इन सभी से परे, भगवान् परसराम के क्रोधित व्यवहार से प्रभावित हुए बिना शांत और भयहीन खड़े थे और वो थे प्रभु श्रीराम, अनुज लक्ष्मण और महर्षि विश्वामित्र।
सर्वप्रथम महर्षि ने आगे बढ़कर परशुराम जी का अभिवादन किया और अपने मधुर और प्रिय वचनो से परशुराम जी के क्रोध को शांत करने की कोशिश करते हुए , प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण जी का परिचय कराया। दोनों राजकुमारो ने भगवान् परशुराम कि चरन् वंदना की और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया।
लक्ष्मण जी ने क्रोध के आवेश में तप रहे मुनि को बार बार धनुष तोड़ने वाले व्यक्ति के बारे में जानने कि उत्कंठा देख अत्यंत बालपन में परशुराम जी से कहा. ..
बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥
एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥
-हे गोसाईं! लड़कपन में हमने बहुत सी धनुहियाँ तोड़ डालीं, किन्तु आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया। इसी धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है? यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजा स्वरूप परशुरामजी कुपित होकर कहने लगे॥
परशुराम जी तो वैसे हि क्रोध कि अग्नि में जल रहे थे, अत: लक्ष्मण के मुख से भगवान् शंकर के पवित्र धनुष को धनुही से तुलना होते देख वे और भी क्रोधित हो उठे ...
रे नृप बालक काल बस बोलत तोहि न सँभार।
धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार॥
अरे राजपुत्र! काल के वश होने से तुझे बोलने में कुछ भी होश नहीं है। सारे संसार में विख्यात शिवजी का यह धनुष क्या धनुही के समान है?॥
परशुराम जी के पास इस तथ्य पर विश्वास करने का कोई कारण हि नहीं था कि इस ब्रह्माण्ड में कोई ऐसा हो सकता है, जिसके पास अद्भुत शक्ति हो और वो महादेव के धनुष को तोड़ दे। अपने इष्टदेव के धनुष तोड़ने वाले के यश, शौर्य और उसके सामर्थ्य पर भगवान् परशुराम अपने क्रोध के कारण विश्वास नहीं कर पा रहे थे, उस अतुलनीय शक्ति को वो पहचान नहीं पा रहे थे। इधर उनके क्रोध को देखकर अब तक शांत बैठे लक्ष्मण जी से रहा नहीं गया और फिर...
लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥
का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें॥1॥
लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे देव! सुनिए, हमारे जान में तो सभी धनुष एक से ही हैं। पुराने धनुष के तोड़ने में क्या हानि-लाभ! श्री रामचन्द्रजी ने तो इसे नवीन के धोखे से देखा था॥ फिर यह तो छूते ही टूट गया, इसमें रघुनाथजी का भी कोई दोष नहीं है। मुनि! आप बिना ही कारण किसलिए क्रोध करते हैं?
लक्ष्मण जी को इस प्रकार हँसते हुए देख, परशुराम जी के क्रोध में और भी तिव्रता आ गई और परशुरामजी अपने फरसे की ओर देखकर बोले- अरे दुष्ट! तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना॥
बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही॥3॥
-मैं तुझे बालक जानकर नहीं मारता हूँ। अरे मूर्ख! क्या तू मुझे निरा मुनि ही जानता है। मैं बालब्रह्मचारी और अत्यन्त क्रोधी हूँ। क्षत्रियकुल का शत्रु तो विश्वभर में विख्यात हूँ॥
मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥
अरे राजा के बालक! तू अपने माता-पिता को सोच के वश न कर। मेरा फरसा बड़ा भयानक है, यह गर्भों के बच्चों का भी नाश करने वाला है॥
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥
भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपदोही॥3॥
लक्ष्मणजी के कडुए वचन सुनकर परशुरामजी ने कुठार सम्हाला। सारी सभा हाय-हाय! करके पुकार उठी। (लक्ष्मणजी ने कहा-) हे भृगुश्रेष्ठ! आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं? पर हे राजाओं के शत्रु! मैं ब्राह्मण समझकर बचा रहा हूँ (तरह दे रहा हूँ)॥
लक्ष्मण जी के संवाद से मुनि के क्रोधाग्नि और भी प्रज्वलित होता देख मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम ने मुनि की भूरी भूरी प्रसन्शा की और एक बार पुन: उनका अभीनन्दन किया और बोले...
सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।
हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु॥
तब श्री रामचन्द्रजी सब लोगों को भयभीत देखकर और सीताजी को डरी हुई जानकर बोले- उनके हृदय में न कुछ हर्ष था न विषाद-॥
परन्तु इसके पश्चात भी भगवान परशुराम कि क्रोधाग्नि शांत नहीं हुई और मिथिला के उस रंगशाला में सभी भय से व्याकुल अवस्था में पड़े थे, तब....
नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥
भावार्थ:-हे नाथ! शिवजी के धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई एक दास ही होगा। क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते? यह सुनकर क्रोधी मुनि रिसाकर बोले-।।
अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी॥
सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना॥
श्री रामचन्द्रजी दोनों हाथ जोड़कर अत्यन्त विनय के साथ कोमल और शीतल वाणी बोले- हे नाथ! सुनिए, आप तो स्वभाव से ही सुजान हैं। आप बालक के वचन पर कान न दीजिए (उसे सुना-अनसुना कर दीजिए)॥
परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु।
संभु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु॥
तब परशुरामजी हृदय में अत्यन्त क्रोध भरकर श्री रामजी से बोले- अरे शठ! तू शिवजी का धनुष तोड़कर उलटा हमीं को ज्ञान सिखाता है॥
बंधु कहइ कटु संमत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें॥
करु परितोषु मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा॥
तेरा यह भाई तेरी ही सम्मति से कटु वचन बोलता है और तू छल से हाथ जोड़कर विनय करता है। या तो युद्ध में मेरा संतोष कर, नहीं तो राम कहलाना छोड़ दे॥
प्रभु श्रीराम ने इतने कठोर वचन सुनने के पश्चात अपनी मर्यादा को बनाये रखा परन्तु युद्ध के लिए ललकारने पर वे क्षत्रिय धर्म के अनुसार वचन बोलने के लिए बाध्य हो गए, उन्होंने मुनिवर से अत्यंत विनम्र परन्तु ओजपूर्ण शब्दों में कहा...
छत्रिय तनु धरि समर सकाना। कुल कलंकु तेहिं पावँर आना॥
कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी॥
क्षत्रिय का शरीर धरकर जो युद्ध में डर गया, उस नीच ने अपने कुल पर कलंक लगा दिया। मैं स्वभाव से ही कहता हूँ, कुल की प्रशंसा करके नहीं, कि रघुवंशी रण में काल से भी नहीं डरते॥
उपरोक्त वचन कहने के पश्चात प्रभु श्रीराम ने पुन: प्रभु परशुराम को उनकी महिमा समझाते हुए अत्यंत मधुर, विनम्र और प्रिय शब्दों के साथ अपने ह्रदय कि भावनाओ को व्यक्त करते हुए कहा कि मुनि हमारी और आपकी कैसी बराबरी।आप स्वामी और हम आपके दास ठहरे। आपकी आज्ञा का पालन करना हमारा परम् कर्तव्य है। और यदि आपका क्रोध धनुष तोड़ने वाले के शीश को काटकर हि शांत होने वाला है, तो लीजिये आपका सेवक आपके सामने प्रस्तुत है आप अपनी इच्छा पूर्ण कर ले।
बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई॥
सुनि मृदु गूढ़ बचन रघुपत के। उघरे पटल परसुधर मति के॥3॥
-ब्राह्मणवंश की ऐसी ही प्रभुता (महिमा) है कि जो आपसे डरता है, वह सबसे निर्भय हो जाता है (अथवा जो भयरहित होता है, वह भी आपसे डरता है) श्री रघुनाथजी के कोमल और रहस्यपूर्ण वचन सुनकर परशुरामजी की बुद्धि के परदे खुल गए॥
प्रभु श्रीराम के इस विनम्रता, धैर्य शीलता और प्रेम के इस अद्भुत व्यवहार को देख प्रभु परशुराम के शीश पर घिर आए क्रोध के बादल छटने लगे।और फिर ज्ञान चक्षु के खुलते हि वो द्रवित हो उठे।
राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू॥
देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ॥
(परशुरामजी ने कहा-) हे राम! हे लक्ष्मीपति! धनुष को हाथ में (अथवा लक्ष्मीपति विष्णु का धनुष) लीजिए और इसे खींचिए, जिससे मेरा संदेह मिट जाए। परशुरामजी धनुष देने लगे, तब वह आप ही चला गया। तब परशुरामजी के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ॥
प्रभु श्रीराम ने एक बार पुन: अपने मधुर मुस्कान से पूरे वातावरण को आनंद से सराबोर करते हुए बोले...
देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें॥
सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे॥4॥
भावार्थ:-हे देव! हमारे तो एक ही गुण धनुष है और आपके परम पवित्र (शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता ये) नौ गुण हैं। हम तो सब प्रकार से आपसे हारे हैं। हे विप्र! हमारे अपराधों को क्षमा कीजिए॥
जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।
जोरि पानि बोले बचन हृदयँ न प्रेमु अमात॥
तब उन्होंने श्री रामजी का प्रभाव जाना, (जिसके कारण) उनका शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो गया। वे हाथ जोड़कर वचन बोले- प्रेम उनके हृदय में समाता न था-॥
कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू॥
अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने॥4॥
भावार्थ:-हे रघुकुल के पताका स्वरूप श्री रामचन्द्रजी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो। ऐसा कहकर परशुरामजी तप के लिए वन को चले गए। (यह देखकर) दुष्ट राजा लोग बिना ही कारण के (मनः कल्पित) डर से (रामचन्द्रजी से तो परशुरामजी भी हार गए, हमने इनका अपमान किया था, अब कहीं ये उसका बदला न लें, इस व्यर्थ के डर से डर गए) वे कायर चुपके से जहाँ-तहाँ भाग गए॥४॥
मित्रों इस सम्पूर्ण संवाद के दौरान परशुराम जी के क्रोध, लक्ष्मण जी के क्षत्रिय स्वभाव वाले स्वाभाविक बोल और वीर धीर और प्रेम रस् में डूबे गंभीरता को धारण करने वाले प्रभु श्रीराम के द्वारा बोले गए वचन जानने, समझने और धारण करने योग्य है।
१:- व्यक्ति विशेष यदि क्रोध में आपके समक्ष प्रस्तुत है, तो आपको कोशिश करनी चाहिए कि उसका क्रोध शांत हो, ताकि उसके द्वारा प्रकट किये गए क्रोध के पीछे छिपे दुःख का पता लगाकर उसका निवारण किया जा सके।
२:- क्रोधित मनुष्य के द्वारा बोले गए शब्दों को तत्समय द्रष्टिगत नहीं करना चाहिए, जब उसका क्रोध शांत हो जाए तब उसे उसके द्वारा प्रस्तुत किये गए आचरण का एहसास कराना चाहिए।
३:- अपने से वरिष्ठ यदि क्रोध करें तो भी उनका सम्मान करना चाहिए, क्योंकि प्रसन्न होने पर यही वरिष्ठ हमें आशीर्वाद भी प्रदान करते हैं।
४:- जब सभी भय से व्याकुल हो तो ऐसे समय पर आगे बढ़कर उस परिस्थिति का सयम, धैर्य और गंभीरता से सामना कर अन्य को अभय प्रदान करना चाहिए।
५:- अपने सामर्थ्य, शक्ति और ज्ञान का अहंकार नहीं करना चाहिए।
६:- अपनी प्रशन्सा स्वय अपने मुख से नहीं करना चाहिए।
🌹🌸🌻🌼🙏 जय श्रीराम, प्रेम से बोलो राधे राधे हर हर महादेव जय श्री कृष्णा 🙏🌹🌸🌻🌼🌷
धन्यवाद
लेखन और संकलन: - नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)
aryan_innag@yahoo.co.in