मित्रों आधुनिक परिवेश में हम अक्सर ये देखते हैं, पढ़ते हैं और सुनते हैं कि, कुछ इंच भूखन्ड के लिए भाई ने भाई के या पिता ने बेटे के या बेटे ने पिता के या चाचा ने भतीजे के या मामा ने भान्जे के प्राण हर लिए। इतिहास में भी हमें अनेक उदाहरण प्राप्त हो जाते हैं, जब सत्ता कि प्राप्ति हेतु बेटे ने पिता को बंदी बना लिया या भाई ने अपने अन्य भाइयों का कत्ल कर डाला या फिर सेनापति ने अपने राजा के साथ छल कर दिया। उपरोक्त कथन का तात्पर्य यह है की कुछ जमीन के टुकड़े के लिए लोग अपनो का हि खून करने से नहीं हिचकिचाते वंहा मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम के द्वारा व्यक्त किया गया मर्यादामय आचरण कितना अद्भुत और अनुकरणीय है। आइये देखते हैं ।
मित्रों आधुनिक परिवेश में हम अक्सर ये देखते हैं, पढ़ते हैं और सुनते हैं कि, कुछ इंच भूखन्ड के लिए भाई ने भाई के या पिता ने बेटे के या बेटे ने पिता के या चाचा ने भतीजे के या मामा ने भान्जे के प्राण हर लिए। इतिहास में भी हमें अनेक उदाहरण प्राप्त हो जाते हैं, जब सत्ता कि प्राप्ति हेतु बेटे ने पिता को बंदी बना लिया या भाई ने अपने अन्य भाइयों का कत्ल कर डाला या फिर सेनापति ने अपने राजा के साथ छल कर दिया। उपरोक्त कथन का तात्पर्य यह है की कुछ जमीन के टुकड़े के लिए लोग अपनो का हि खून करने से नहीं हिचकिचाते वंहा मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम के द्वारा व्यक्त किया गया मर्यादामय आचरण कितना अद्भुत और अनुकरणीय है। आइये देखते हैं ।मित्रों आधुनिक परिवेश में हम अक्सर ये देखते हैं, पढ़ते हैं और सुनते हैं कि, कुछ इंच भूखन्ड के लिए भाई ने भाई के या पिता ने बेटे के या बेटे ने पिता के या चाचा ने भतीजे के या मामा ने भान्जे के प्राण हर लिए। इतिहास में भी हमें अनेक उदाहरण प्राप्त हो जाते हैं, जब सत्ता कि प्राप्ति हेतु बेटे ने पिता को बंदी बना लिया या भाई ने अपने अन्य भाइयों का कत्ल कर डाला या फिर सेनापति ने अपने राजा के साथ छल कर दिया। उपरोक्त कथन का तात्पर्य यह है की कुछ जमीन के टुकड़े के लिए लोग अपनो का हि खून करने से नहीं हिचकिचाते वंहा मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम के द्वारा व्यक्त किया गया मर्यादामय आचरण कितना अद्भुत और अनुकरणीय है। आइये देखते हैं ।
हमारे शास्त्रों में भी त्याग की महिमा का बखान कुछ इस प्रकार किया गया है।
मानं हित्वा प्रियो भवति। क्रोधं हित्वा न सोचति।।
कामं हित्वा अर्थवान् भवति। लोभं हित्वा सुखी भवेत्।।
अहंकार को त्याग कर मनुष्य प्रिय होता है, क्रोध ऐसी चीज है जो किसी का हित नहीं सोचती। कामेच्छा को त्याग कर व्यक्ति धनवान होता है तथा लोभ को त्याग कर व्यक्ति सुखी होता है।
सम्पूर्ण अयोध्या रामराज आने की संकल्पना में आनंदित थी। हर ओर हर्शोल्लास का वातावरण था। सभी के मुख से केवल आनंद के स्वर प्रस्फुटित हो रहे थे, सभी को केवल रात्रि पहर के बीत जाने की प्रतीक्षा थी। उधर महराज दशरथ में अद्भुत तैयारी हो रही थी। अयोध्या के प्रजाजन मानो रात्रि पहर से हि सज धज के बैठे थे की प्रभात कि प्रथम किरण द्वारा धरती को स्पर्श करते ही वो पूरे धूम धाम से अपने ह्रदय सम्राट प्रभु श्रीराम के राज अभिषेक के साक्षी बनेंगे।
महाराज दशरथ तो आनंद के सागर में मानो समा से गए थे, वो प्रसन्न मुद्रा में कभी किसी को तो कभी किसी को कुछ ना कुछ करने का आदेश डॉ रहे थे और इसी क्रम में वे अपने महल में प्रवेश करते हैं और माता कौशल्या और माता सुमित्रा से आनंदित वार्तालाप करते हुए माता कैकेयी के कछ की ओर बढ़ते हैं पर वंहा सदैव की भांति हंसी ठिठोली की ध्वनि तरंगो को उठता ना देख वो थोड़ा शंकित हो जाते हैं ।
जब वो माता कैकेयी को अपने कछ में नहीं पाते हैं, तब पूछने पर ज्ञात होता है कि वो किसी बात से दुःखी होकर कोप भवन में है। राजा को विश्वास हि नहीं होता कि जिसके सबसे प्रिये पुत्र के राजतिलक की तैयारी में पूरी अयोध्या हर्षित होकर मग्न है, वहीं माता इस शुभ अवसर पर कोप भवन में जा बैठी है।
वो तुरंत कोप भवन में पहुंचते हैं, जंहा सदैव अलंकृत अभूषण और कीमती वस्त्र से सुसज्जित रहने वाली उनकी रानी एक काले और मोटे परिधान में सिमटी धरती पर पड़ी हुई थी। राजा के समझ से परे था यह व्यवहार अत:
केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।
मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई॥
दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।
तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई॥
:-'हे रानी! किसलिए रूठी हो?' यह कहकर राजा उनको हाथ से स्पर्श करते हैं, तो वह उनके हाथ को (झटककर) हटा देती है और ऐसे देखती है मानो क्रोध में भरी हुई नागिन क्रूर दृष्टि से देख रही हो। दोनों (वरदानों की) इच्छाये उस नागिन की दो जीभें हैं और दोनों वरदान दाँत हैं, वह काटने के लिए मर्मस्थान देख रही है।
महाराज बारम्बार प्रयत्न करते हैं और रानी के दुःखी होने के मर्म को जानकर उसे दूर करने कि इच्छा रखते हैं पर रानी मंथरा के द्वारा दिए गए निर्देशों पर अडिग रहने का प्रयास करते हुए, उन्हें और विचलित करना चाहती है।
बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचनि पिकबचनि।
कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर॥
भावार्थ:-राजा बार-बार कह रहे हैं- हे सुमुखी! हे सुलोचनी! हे कोकिलबयनी! हे गजगामिनी! मुझे अपने क्रोध का कारण तो सुना॥ राजा ने फिर कहा कि हे प्रिये तुम्हें अगर किच चाहिए तो बेझिझक अपनी मांग बताओ, मैं प्रस्तुत हूँ उसे पूर्णता प्रदान करने के लिए, अरे मृगनयनी कुछ तो कहो, ऐसे शुभ अवसर लड़ इस प्रकार का व्यवहार क्यों?
जब रानी ने देखा महाराज व्यकुलता की उत्कंठा की परिकाष्ठा को स्पर्श करने लगे हैं तब इस अच्छा अवसर जान कहने लगी
मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।
देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु॥
भावार्थ:-हे प्रियतम! आप माँग-माँग तो कहा करते हैं, पर देते-लेते कभी कुछ भी नहीं। आपने दो वरदान देने को कहा था, उनके भी मिलने में संदेह है॥
महाराज ने जब यह बात सूनी तो मुस्करा दिए और प्रिय वचन बोलते हुए कहा कि हे रानी बस इतनी सी बात के लिए तुम दुःखी हो, अरे तुमने स्वय कभी इस विषय में कभी बात नहीं कि और मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि जब भी तुम्हें इच्छा होगी तुम उसे प्राप्त कर लोगी, चलो बताओ तुम्हें क्या चाहिए।
सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका॥
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥
तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी॥
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥
-(वह बोली-) हे प्राण प्यारे! सुनिए, मेरे मन को भाने वाला एक वर तो दीजिए, भरत को राजतिलक और हे नाथ! दूसरा वर भी मैं हाथ जोड़कर माँगती हूँ, मेरा मनोरथ पूरा कीजिए--तपस्वियों के वेष में विशेष उदासीन भाव से (राज्य और कुटुम्ब आदि की ओर से भलीभाँति उदासीन होकर विरक्त मुनियों की भाँति) राम चौदह वर्ष तक वन में निवास करें। कैकेयी के कोमल (विनययुक्त) वचन सुनकर राजा के हृदय में ऐसा शोक हुआ जैसे चन्द्रमा की किरणों के स्पर्श से चकवा विकल हो जाता है॥
रानी के मांगे गए वरदान को सुन महाप्रतापी राजा के आँखों के समक्ष अँधेरा छा गया, उन्हें सहसा विश्वास हि नहीं हुआ कि कोई ऐसे कठोर और निर्दयी विचार भी प्रकट कर सकता है।
राजा दुःख के महासागर में डूब गए, उन्होंने रानी को कई प्रकार से प्रिय वचन बोलकर समझाना चाहा परन्तु रानी ने अपना हठ नहीं छोड़ा। अब राजा समझ गए कि ये कुछ और नहीं बस काल रानी के शीश बैठ उन्हें अपने अंतिम यात्रा की ओर धकेल रहा है।वो मुर्छित हो गिर पड़े तब रानी ने दास दासियो के सहयोग से राजा को सुनहरे बिस्तर पर लिटाया।
इधर सूर्योदय हो चुका था, परन्तु ब्रह्म मुहुर्त में उठने वाले राजा अभी तक राज सभा में नहीं पधारे। महर्षि वशिष्ठ ने महामंत्री सुमंत को आदेश दिया कि हे सुमंत जाओ महाराज को शुभ मुहूर्त की सुचना दो। इधर सुमंत जब महल में पधारे तो महाराज कि अवस्था देख वो स्वय भी मुर्छित अवस्था में जाने से बाल बाल बचे। महाराज के मुख से रह रह के केवल "राम राम" कि हि ध्वनि निकल रही थी।
सुमंत तुरंत प्रभु श्रीराम को बुलाने दौड़ पड़े और उनके कछ में पहुंचकर सारा वृतांत कह सुनाया। इतना सुनते हि प्रभु श्रीराम व्याकुल हो उठे और महाराज अर्थात अपने पिता के कछ की ओर नंगे पाँव दौड़ पड़े। कछ का दृश्य अत्यंत करुणामय और ह्रदय विदारक था। प्रभु श्रीराम ने मुर्छित अवस्था में पड़े अपने पिता को देखा और तब वो अपनी माता के चरण स्पर्श कर हाथ जोड़कर बोले, माते आप बताए, क्या विषय है और ये विषाद का वातावरण क्यूँ है?
मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होइ निवारन॥
सुनहु राम सबु कारनु एहू। राजहि तुम्ह पर बहुत सनेहू॥
:-हे माता! मुझे पिताजी के दुःख का कारण कहो, ताकि उसका निवारण हो (दुःख दूर हो) वह यत्न किया जाए। (कैकेयी ने कहा-) हे राम! सुनो, सारा कारण यही है कि राजा का तुम पर बहुत स्नेह है॥
माता कैकेयी के स्वभाव में तनिक भी परिवर्तन नहीं आया था, वो अपने पति को इस असहाय अवस्था में देखकर वही विचलित ना हुई और बोली
* देन कहेन्हि मोहि दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोहि सोहाना॥
सो सुनि भयउ भूप उर सोचू। छाड़ि न सकहिं तुम्हार सँकोचू॥
भावार्थ:-इन्होंने मुझे दो वरदान देने को कहा था। मुझे जो कुछ अच्छा लगा, वही मैंने माँगा। उसे सुनकर राजा के हृदय में सोच हो गया, क्योंकि ये तुम्हारा संकोच नहीं छोड़ सकते॥
सुत सनेहु इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु।
सकहु त आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु॥
:-इधर तो पुत्र का स्नेह है और उधर वचन (प्रतिज्ञा), राजा इसी धर्मसंकट में पड़ गए हैं। यदि तुम कर सकते हो, तो राजा की आज्ञा शिरोधार्य करो और इनके कठिन क्लेश को मिटाओ॥
प्रभु ने जब यह बात सूनी तो मधुर मुस्कान बिखेरते हुए बोले, बस इतनी सी बात है। अरे ये तो मेरा सौभाग्य है कि विधाता ने मुझे अपने माता पिता कि इच्छा कि पूर्ति के लिए चूना है।
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा॥
:-हे माता! सुनो, वही पुत्र बड़भागी है, जो पिता-माता के वचनों का अनुरागी (पालन करने वाला) है। (आज्ञा पालन द्वारा) माता-पिता को संतुष्ट करने वाला पुत्र, हे जननी! सारे संसार में दुर्लभ है॥
मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर॥
भावार्थ:-वन में विशेष रूप से मुनियों का मिलाप होगा, जिसमें मेरा सभी प्रकार से कल्याण है। उसमें भी, फिर पिताजी की आज्ञा और हे जननी! तुम्हारी सम्मति है,॥
भरतु प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजू॥
जौं न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा॥
:-और प्राण प्रिय भरत राज्य पावेंगे। (इन सभी बातों को देखकर यह प्रतीत होता है कि) आज विधाता सब प्रकार से मुझे सम्मुख हैं (मेरे अनुकूल हैं)। यदि ऐसे काम के लिए भी मैं वन को न जाऊँ तो मूर्खों के समाज में सबसे पहले मेरी गिनती करनी चाहिए॥
रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई॥
सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मैं कछु जाना॥
:-रानी कैकेयी श्री रामचन्द्रजी का रुख पाकर हर्षित हो गई और कपटपूर्ण स्नेह दिखाकर बोली- तुम्हारी शपथ और भरत की सौगंध है, मुझे राजा के दुःख का दूसरा कुछ भी कारण विदित नहीं है॥
पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेंपन जेहिं अजसु न होई॥
तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे॥
:-मैं तुम्हारी बलिहारी जाती हूँ, तुम पिता को समझाकर वही बात कहो, जिससे चौथेपन (बुढ़ापे) में इनका अपयश न हो। जिस पुण्य ने इनको तुम जैसे पुत्र दिए हैं, उसका निरादर करना उचित नहीं॥
इसी वार्तालाप के मध्य महाराज दशरथ कि मुर्छा भंग हो गई और उन्होंने राम राम कहते अपनी आंखे खोली और पाया कि उनके पुत्र राम उनके चरण को स्पर्श करते बैठे हुए हैं। महाराज एक शब्द भी ना बोल पाये और उनकी आँखों से अश्रु धारा बहती जा रही है।
लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई॥
रामहि चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू॥
:-स्नेह से विकल राजा ने रामजी को हृदय से लगा लिया। मानो साँप ने अपनी खोई हुई मणि फिर से पा ली हो। राजा दशरथजी श्री रामजी को देखते ही रह गए। उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा बह चली॥
अति लघु बात लागि दुखु पावा। काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा॥
देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता। सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता॥
भावार्थ:-इस अत्यन्त तुच्छ बात के लिए आपने इतना दुःख पाया। मुझे किसी ने पहले कहकर यह बात नहीं जनाई। स्वामी (आप) को इस दशा में देखकर मैंने माता से पूछा। उनसे सारा प्रसंग सुनकर मेरे सब अंग शीतल हो गए (मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई)॥
मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।
आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात॥
:-हे पिताजी! इस मंगल के समय स्नेहवश होकर सोच करना छोड़ दीजिए और हृदय में प्रसन्न होकर मुझे आज्ञा दीजिए। यह कहते हुए प्रभु श्री रामचन्द्रजी सर्वांग पुलकित हो गए॥
आयसु पालि जनम फलु पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई॥
बिदा मातु सन आवउँ मागी। चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी॥
भावार्थ:-आपकी आज्ञा पालन करके और जन्म का फल पाकर मैं जल्दी ही लौट आऊँगा, अतः कृपया आज्ञा दीजिए। माता से विदा माँग आता हूँ। फिर आपके पैर लगकर (प्रणाम करके) वन को चलूँगा॥
रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा। मुदित मातु पद नायउ माथा॥
दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे। भूषन बसन निछावरि कीन्हे॥1॥
भावार्थ:-रघुकुल तिलक श्री रामचंद्रजी ने दोनों हाथ जोड़कर आनंद के साथ माता के चरणों में सिर नवाया। माता ने आशीर्वाद दिया, अपने हृदय से लगा लिया और उन पर गहने तथा कपड़े निछावर किए॥
आप स्वय तनिक विचार करें की ऐसे अनगिनत उदाहरण मिल जाते हैं जंहा एक भाई ने स्वय को राजा बनाने के लिए अपने हि पिता को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया या अपने अन्य भाइयों का सामूहिक कत्ल कर डाला या फिर अपने चाचा का कत्ल कर डाला , वही पर ऐसा त्याग, समर्पण और पिता और माता के प्रति अटूट प्रेम कंही और देखने को नहीं मिलता है।
प्रभु राम यदि इच्छा रखते तो, सम्पूर्ण अयोध्या उनके लिए विद्रोह कर देती और अयोध्या का सम्पूर्ण एश्वर्य उनके अधिकार में होता, वो उनका उपभोग करते परन्तु नहीं इतने बड़े साम्राज्य को उन्होंने अपने पिता के वचन और माता के इच्छा के समक्ष तुच्छ माना और सहर्ष त्याग दिया और यही नहीं अपने शोक संतप्त पिता को भी ढांढस बँधा अपनी अन्य माताओ से वन गमन हेतु आज्ञा प्राप्त करने चलें गए।
यान्ति न्यायप्रवृत्तस्य तिर्यंचों अपि सहायताम्।
अपन्थानं तु गच्छन्तं सोदरोपि विमुञ्चति।।
धर्म और न्याय के मार्ग पर चलने वाली की संसार के सभी प्राणी सहायता करते हैं। जबकि अन्याय के मार्ग पर चलने वाले को उसका सगा भाई भी छोड़ देता है।
प्रभु श्रीराम के त्याग, भाई के प्रति प्रेम, माता कि इच्छा और पिता के वचन का पालन करने हेतु किये गए आचरण आज भी सम्पूर्ण विश्व के मानव सभ्यता के लिए एक महान सीख है, जिसका अनुकरन् सभी को करना चाहिए। प्रभु श्रीराम का एक संदेश यह भी था:-
सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता।
मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत् ।।
अर्थात : मनुष्य के लिये उसकी माता सभी तीर्थों के समान तथा पिता सभी देवताओं के समान पूजनीय होते है। अतः उसका यह परम् कर्तव्य है कि वह् उनका अच्छे से आदर और सेवा करे।
अष्टौ गुणा पुरुषं दीपयंति प्रज्ञा सुशीलत्वदमौ श्रुतं च।
पराक्रमश्चबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च॥
अर्थात् : आठ गुण मनुष्य को सुशोभित करते है – बुद्धि, अच्छा चरित्र, आत्म-संयम, शास्त्रों का अध्ययन, वीरता, कम बोलना, क्षमता और कृतज्ञता के अनुसार दान।
🙏🌷🌺🌼 जय श्रीराम प्रेम से बोलो राधे राधे हर हर महादेव जय श्री कृष्णा 🌸🌻🌼🙏
लेखन और संकलन: - नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)
aryan_innag@yahoo.co.in