पिछले अंक में हम सबने देखा कि किस प्रकार अयोध्या में विस्तार को प्राप्त कर चुके दुःख, निराशा और विषाद के वातावरण को राजकुमार भरत के मुखारबिंद से निकले एक वाक्य " मैं अपने स्वामी राम को वापस लेने जाऊंगा" ने अपरा हर्ष, असीम सुख और आनन्दमय आशा से भर दिया।
सभी प्रजाजन, गुरुजन, मंत्रीजन तथा सभी सजीव सचेतजन एक बार पुन: उस सुबह की प्रतीक्षा में लग जाते हैं जब वो राजकुमार भरत की अगुवाई में प्रभु श्रीराम, माँ जानकी और महा पराक्रमी लक्ष्मण को वापस लेने अयोध्या से वन की ओर प्रस्थान करेंगे।
प्रात:काल होते ही अयोध्या की चतुरंगिनी सेना एक खुले स्थान पर पूर्णतया वीर सैनिको के अद्भुत वेश में सज धज कर एकत्रित हो गई। हजारों हाथी, घोड़े और रथ भी सज धज कर व्यवस्थित खड़े हैं। गुरु वशिष्ठ, मंत्री सुमन्त, और अन्य मुनिजन भी समस्त तैयारी के साथ उचित स्थान पर समुचित रूप से एकत्रित हो गए। जब भरत के संकल्प को माताओ ने सुना तो आँसुओ से बोझल हो चुकी उनकी आँखों में अकस्मात प्रेम और आशा की चमक उतपन्न हो गई , उन्होंने भी अपने प्रिय राम और सीता सहित लक्ष्मण के यंहा जाने के लिए अपनी इच्छा प्रकट की यंहा तक की अपने पुत्र से प्राप्त उलहनो और तिरस्कार के आघात से अपने द्वारा कृत महापाप को जान चुकी माता कैकेयी ने पश्चाताप की अग्नि में जलते हुए अपने पुत्र भरत से अपने सबसे प्रिय राम के दर्शन करने की इच्छा प्रकट करते हुए साथ ले जाने की विनती कि।
माता कौशल्या और माता सुमित्रा के समझाने पर राजकुमार भरत अपनी माता को भी साथ ले जाने को तैयार हो गए। शुभ मुहूर्त में भरत और शत्रुघ्न दोनों भाइयों के साथ पूरी अयोध्या हि मानो प्रभु को मनाकर अयोध्या वापस लाने को आतुर हो वन की ओर प्रस्थान कर गई।
दूसरी ओर: -
उहाँ रामु रजनी अवसेषा। जागे सीयँ सपन अस देखा॥
सहित समाज भरत जनु आए। नाथ बियोग ताप तन ताए॥
:-उधर श्री रामचंद्रजी रात शेष रहते ही जागे। रात को सीताजी ने ऐसा स्वप्न देखा (जिसे वे श्री रामचंद्रजी को सुनाने लगीं) मानो समाज सहित भरतजी यहाँ आए हैं। प्रभु के वियोग की अग्नि से उनका शरीर संतप्त है।।
माता सीता के स्वप्न ने भी राजकुमार भरत के सद्चरित्र को उजागर कर दिया। माता ने स्वय देखा कि राजकुमार भरत अपने स्वामी और बड़े भाई के वियोग में पूर्णतया संतप्त पड़े हुए हैं, उनकी दशा और दिशा अपने पिता से बिछड चुके उस नन्हें और व्याकुल पुत्र की भांति हो चुकी है, जो अपने पिता कि छ्त्र छाया में स्वय को सुरक्षित महसूस करता है।
सकल मलिन मन दीन दुखारी। देखीं सासु आन अनुहारी॥
सुनि सिय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच बिमोचन॥
:-सभी लोग मन में उदास, दीन और दुःखी हैं। सासुओं को दूसरी ही सूरत में देखा। सीताजी का स्वप्न सुनकर श्री रामचंद्रजी के नेत्रों में जल भर गया और सबको सोच से छुड़ा देने वाले प्रभु स्वयं (लीला से) सोच के वश हो गए॥
उन्हें किसी अनहोनी अथवा अप्रिय घटना के घटित होने का आभास हो गया। उनकी व्याकुलता को देख माता सीता और भ्राता लक्ष्मण भी अपनी अकुलाहट को ना छिपा सके।
उधर प्रभु श्रीराम माता जानकी और अनुज लक्ष्मण जिन जिन मार्गो से होते हुए वन की ओर प्रस्थान किये थे, उन्हीं पथ का अनुगामी बन भरत अपने छोटे भाई शत्रुघ्न, माताओ और सभी गुरुजनो, मुनियो, प्रजाजनो तथा चतुरंगी सेना के साथ चलें आ रहे हैं अपने भईया से मिलने। मार्ग में ऋषि भारद्वाज का आशीर्वाद प्राप्त किया, फिर भरत नाम से सशंकित निषादराज के शंका को दूर कर उन्हें अपने सरल ह्रदय और भईया के प्रति समर्पण से आह्लादित कर उन्हें अपना बनाकर संग लेते चलें। अब ऐसे समय में भला केवट का साथ कैसे नहीं भरत जी को प्राप्त होता, वो भी भरत के राम प्रेम कि भक्ति में सराबोर हो उनके सँग हो लिए।
इधर इतनी विशाल सेना को भरत के पीछे पीछे आता देख वन के भोले भाले भील और अन्य वनवासी भयभीत हो इसकी सुचना प्रभु श्रीराम, माता सीता और लक्ष्मण को देते हैं। भरत के आगमन कि सुचना प्राप्त होते हि प्रभु श्रीराम के कमलनयन से आंसूवो की धारा उनके मुखमंडल पर खिल रही मधुर मुस्कान और हर्ष को भिगोने लगती है, ये दृश्य देखा माता सीता भाव विभोर हो जाती हैं। परन्तु लक्ष्मण जी को भरत का चतुरंगी सेना के साथ आना कुछ ठीक प्रतीत नहीं होता।
लक्ष्मण जी को प्रतीत होता है कि भरत को यदि मिलने आना हि था, तो फिर इतनी बड़ी सेना लेकर क्यों आ रहा है, और इस प्रकार के अनेक विचारो ने उनके मस्तिष्क को झिंझोड डाला और उन्हें ऐसा लगने लगा कि भरत, प्रभु श्रीराम को अकेला समझ उन पर आक्रमण करने कि कुत्सित भावना के साथ इतनी विशाल सेना लेकर आ रहा है और इस निष्कर्ष पर पहुंचते हि वे क्रोधाग्नि में जल उठे और भईया को बड़ी विनम्रता से प्रणाम करते हुए आज्ञा मांगी कि वो भरत से युद्ध करके उन्हें और उनकी समस्त चतुरंगी सेना का सर्वनाश कर सके।
लक्ष्मण जी ने कहा, भईया अब स्पष्ट हो गया है कि, भरत अपने राज को निष्कण्टक रखने के लिए राम से युद्ध करने कि इच्छा से आ रहा है अन्यथा इतनी बड़ी सेना लेकर आने की क्या अवश्यक्ता थी।
अति सरोष माखे लखनु लखि सुनि सपथ प्रवान।
सभय लोक सब लोकपति चाहत भभरि भगान॥
:-लक्ष्मणजी को अत्यंत क्रोध से तमतमाया हुआ देखकर और उनकी प्रामाणिक (सत्य) सौगंध सुनकर सब लोग भयभीत हो जाते हैं और लोकपाल घबड़ाकर भागना चाहते हैं॥
जगु भय मगन गगन भइ बानी। लखन बाहुबलु बिपुल बखानी॥
तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा। को कहि सकइ को जाननिहारा॥
:-सारा जगत् भय में डूब गया। तब लक्ष्मणजी के अपार बाहुबल की प्रशंसा करती हुई आकाशवाणी हुई- हे तात! तुम्हारे प्रताप और प्रभाव को कौन कह सकता है और कौन जान सकता है?॥
लक्ष्मण जी को समझाते हुए प्रभु ने तनिक क्रोध और दृढता अपने मुख मंडल पर लाते हुए बोला, लक्ष्मण, भरत के विषय में ऐसा सोचना भी महापाप है अरे वो तो इतना सरल ह्रदय है कि पाप भी उसकी सरलता पर मोहित हो उसके आस पास भी नहीं भटकता। मेरा भरत तो वो पवित्र आत्मा है जिसे स्वार्थ, लोभ, मोह, मद, क्रोध या अन्य अवगुण स्पर्श भी नहीं कर सकते।
प्रभु अपने अनुज को कुछ समझा रहे थे, तभी अकाशवाणी हुई और उसने लक्ष्मण जी को सावधान करते हुए कहा: -
अनुचित उचित काजु किछु होऊ। समुझि करिअ भल कह सबु कोऊ।
सहसा करि पाछे पछिताहीं। कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं॥
:-परन्तु कोई भी काम हो, उसे अनुचित-उचित खूब समझ-बूझकर किया जाए तो सब कोई अच्छा कहते हैं। वेद और विद्वान कहते हैं कि जो बिना विचारे जल्दी में किसी काम को करके पीछे पछताते हैं, वे बुद्धिमान् नहीं हैं॥
प्रभु लक्ष्मण जी को भरत की महिमा बताते हुए कहते हैं: -
जो अचवँत नृप मातहिं तेई। नाहिन साधुसभा जेहिं सेई॥
सुनहू लखन भल भरत सरीसा। बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा॥
:-जिन्होंने साधुओं की सभा का सेवन (सत्संग) नहीं किया, वे ही राजा राजमद रूपी मदिरा का आचमन करते ही (पीते ही) मतवाले हो जाते हैं। हे लक्ष्मण! सुनो, भरत सरीखा उत्तम पुरुष ब्रह्मा की सृष्टि में न तो कहीं सुना गया है, न देखा ही गया है॥
भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ।
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ॥
:-(अयोध्या के राज्य की तो बात ही क्या है) ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का पद पाकर भी भरत को राज्य का मद नहीं होने का! क्या कभी काँजी की बूँदों से क्षीरसमुद्र नष्ट हो सकता (फट सकता) है?॥
तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिलई। गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई॥
गोपद जल बूड़हिं घटजोनी। सहज छमा बरु छाड़ै छोनी॥
:-अन्धकार चाहे तरुण (मध्याह्न के) सूर्य को निगल जाए। आकाश चाहे बादलों में समाकर मिल जाए। गो के खुर इतने जल में अगस्त्यजी डूब जाएँ और पृथ्वी चाहे अपनी स्वाभाविक क्षमा (सहनशीलता) को छोड़ दे॥
मसक फूँक मकु मेरु उड़ाई। होइ न नृपमदु भरतहि भाई॥
लखन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना॥
:-मच्छर की फूँक से चाहे सुमेरु उड़ जाए, परन्तु हे भाई! भरत को राजमद कभी नहीं हो सकता। हे लक्ष्मण! मैं तुम्हारी शपथ और पिताजी की सौगंध खाकर कहता हूँ, भरत के समान पवित्र और उत्तम भाई संसार में नहीं है॥
इतना समझाने के पश्चात प्रभु श्रीराम ने वन देवी अर्थात प्रकृति माता को स्मरण किया और उनसे प्रार्थना कि हे माता मेरी कुटिया तक आने वाले मार्ग में जितने भी कंटक और झाड़ीया होंगी उन्हें आप हटा देना।
माता को प्रभु के द्वारा की गई प्रार्थना से बड़ा आश्चर्य हुआ तो उन्होंने पूछ लिया कि हे प्रभु आप माता सीता और लक्ष्मण जी तो उस मार्ग से परिचित हैं फिर आप किसके लिए निष्कण्टक मार्ग हेतु प्रार्थना कर रहे हैं। प्रभु माता के आश्चर्य को देख कर मुस्करा दिए और बोले हे देवी मेरा प्रिय भरत आने वाला है और मै नहीं चाहता कि उसके पग किसी कंटक पर पड़े और उसे पीड़ा हो, मेरे भरत ने कभी ऐसे मार्ग पर गमन नहीं किया है, वो तो असीम प्रेम मे डूबा अत्यधिक दिनों के पश्चात मुझसे मिलने आ रहा है।
माता ने प्रभु राम के ह्रदय में अपने भाई के प्रति ऐसी प्रेम भावना देखी तो मंत्रमुग्ध हो उठी और सभी पथ को निष्कण्टक कर दिया।
प्रभु श्रीराम इस एक् मे डूबे हुए निशब्द खड़े थे कि, वो भरत के प्रेम को कैसे सम्हाल पाएंगे और कैसे उसके द्वारा की जाने वाली मर्यादामयी निश्चल शिकायतों को संतुष्ट करेंगे। तभी भरत अपने अनुज शत्रुघ्न के साथ वंहा प्रवेश करते हैं परन्तु अपने स्वामी को मुनि वेश में देख और इसका एक मात्र कारण स्वय को मान अत्यंत हीनता के सागर में डूब जाते हैं और अपने भईया के कण्ठ से लगने का साहस नहीं जुटा पाते तो माता पृथ्वी पर अपना मस्तक टीका साक्षात दंडवत कर प्रणाम करते हैं और वंहा की धरा भरत के आंसूवो से भींग जाती है।
सानुज सखा समेत मगन मन। बिसरे हरष सोक सुख दुख गन॥
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाईं। भूतल परे लकुट की नाईं॥
भावार्थ:-छोटे भाई शत्रुघ्न और सखा निषादराज समेत भरतजी का मन (प्रेम में) मग्न हो रहा है। हर्ष-शोक, सुख-दुःख आदि सब भूल गए। हे नाथ! रक्षा कीजिए, हे गुसाईं! रक्षा कीजिए' ऐसा कहकर वे पृथ्वी पर दण्ड की तरह गिर पड़े॥
लक्ष्मण जी अपने बड़े भाई भरत को इस प्रकार भईया श्रीराम के चरण में पड़ा देख स्वय की सोच पर ह्रदय से पश्चाताप करते हैं, परन्तु स्वय को सम्हालते हुए भईया राम से कहते हैं: -
बचन सप्रेम लखन पहिचाने। करत प्रनामु भरत जियँ जाने॥
बंधु सनेह सरस एहि ओरा। उत साहिब सेवा बस जोरा॥
भावार्थ:-प्रेमभरे वचनों से लक्ष्मणजी ने पहचान लिया और मन में जान लिया कि भरतजी प्रणाम कर रहे हैं। (वे श्री रामजी की ओर मुँह किए खड़े थे, भरतजी पीठ पीछे थे, इससे उन्होंने देखा नहीं।) अब इस ओर तो भाई भरतजी का सरस प्रेम और उधर स्वामी श्री रामचन्द्रजी की सेवा की प्रबल परवशता॥
कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनाम करत रघुनाथा॥
उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा॥
:-लक्ष्मणजी ने प्रेम सहित पृथ्वी पर मस्तक नवाकर कहा- हे रघुनाथजी! भरतजी प्रणाम कर रहे हैं। यह सुनते ही श्री रघुनाथजी प्रेम में अधीर होकर उठे। कहीं वस्त्र गिरा, कहीं तरकस, कहीं धनुष और कहीं बाण॥
बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान।
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान॥
:-कृपा निधान श्री रामचन्द्रजी ने उनको जबरदस्ती उठाकर हृदय से लगा लिया! भरतजी और श्री रामजी के मिलन की रीति को देखकर सबको अपनी सुध भूल गई॥
मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी। कबिकुल अगम करम मन बानी॥
परम प्रेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई॥1॥
:-मिलन की प्रीति कैसे बखानी जाए? वह तो कविकुल के लिए कर्म, मन, वाणी तीनों से अगम है। दोनों भाई (भरतजी और श्री रामजी) मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को भुलाकर परम प्रेम से पूर्ण हो रहे हैं॥
इस प्रकार दो भाइयों के मध्य का सरल और अविरल प्रेम देख ना केवल सभा में उपस्थित सभी जनो की आंखे डबडबा गई, अपितु समस्त ब्रह्माण्ड इस मिलाप को देख अपने आंसू ना रोक सका और सर्वत्र भरत और भईया राम के जयकारे लगने लगे।
भाइयों का यह अप्रतिम प्रेम देख सभी देवता एक बार पुन: भयभीत हो गए, उन्हें भरत के प्रेम के प्रति प्रभु के समर्पण को देख ऐसा प्रतीत होने लगा कि प्रभु भाई के प्रेम और इच्छा के अनुसार कंही कोई निर्णय ना ले बैठे।
खैर सभी मेल मिलाप के पश्चात जो विधि का विधान था उसी के अनुरूप भरत जी अपने भईया राम की खड़ाउ लेकर अयोध्या वापस आए और राजगद्दी पर उसी खड़ाउ को रखकर एक तपस्वी का जीवन अंगिकार कर राज काज देखने को तैयार हो गए।
यंहा पर प्रभु श्रीराम और भरत के मध्य अटूट विश्वास और अगाध प्रेम का प्रकटिकरण हुआ है। भले हि भरत को अयोध्या की राजगद्दी मिल रही थी जो स्वर्ग के सिंहासन से भी अधिक सुखदाई थी, परन्तु उन्हें अपने भईया राम के बिना कौड़ी के समान प्रतीत हो रही थी। वही भरत के विषय में सबने कुछ ना कुछ अपशब्द कहे यंहा तक कि स्वय लक्ष्मण जी भी उन्हें शत्रु मान बैठे, परन्तु मर्यादा पुरुषोत्तम ने अपने ह्रदय में तनिक भी सन्शय ना आने दिया और भरत को उसी प्रकार स्नेह और प्रेम करते रहे जैसा वो वनवास से पूर्व करते थे।
आज के परिवेश में राम और भरत का रिश्ता बहुत कुछ सिखाता है बस हमें उसे ध्यान अपनाने की अवश्यक्ता है।
🌹🌸🌻जय् सियाराम जय राधेकृष्णा जय गौरीशंकर 🌹🌸🌻
लेखन और संकलन: - नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)
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