मित्रों महर्षि विश्वामित्र के साथ साथ अन्य सभी ऋषि मुनियों के भय का कारण बने सुबाहु और ताड़का का वध कर और मारिच को दण्डित कर, देवी अहिल्या का उद्धार करते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ महर्षि के पथ का अनुगमन करते हुए राजा जनक की नगरी पहुँच गए।
पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी॥
बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना॥
श्री रामजी ने जब जनकपुर की शोभा देखी, तब वे छोटे भाई लक्ष्मण सहित अत्यन्त हर्षित हुए। वहाँ अनेकों बावलियाँ, कुएँ, नदी और तालाब हैं, जिनमें अमृत के समान जल है और मणियों की सीढ़ियाँ (बनी हुई) हैं।।
बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥
चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥
नगर की सुंदरता का वर्णन करते नहीं बनता। मन जहाँ जाता है, वहीं लुभा जाता (रम जाता) है। सुंदर बाजार है, मणियों से बने हुए विचित्र छज्जे हैं, मानो ब्रह्मा ने उन्हें अपने हाथों से बनाया है॥ मिथिलापति जनकजी ने जब यह समाचार पाया कि महामुनि विश्वामित्र आए हैं, तो वो अपने राज्य के सभी श्रेष्ठ मंत्रियों और राजगुरु सहित अन्य श्रेष्ठ ब्राह्मणों के साथ मुनि- श्रेष्ठ विश्वामित्र का अभिनन्दन करने दौड़े दौड़े आए। और अत्यंत हि प्रसन्नता के साथ मुनि की चरण वंदना की और कुशल क्षेम जाना। राजा ने मुनि के चरणों पर मस्तक रखकर प्रणाम किया। मुनियों के स्वामी विश्वामित्रजी ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया। फिर सारी ब्राह्मणमंडली को आदर सहित प्रणाम किया और अपना बड़ा भाग्य जानकर मिथिलधिपति आनंद से भाव विभोर हो गए। उसी समय दोनों भाई भी वंहा चलें आए और मुनि ने उन्हें अपने पास बिठाया।
भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता॥
मूरति मधुर मनोहर देखी भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥
सुकुमार किशोर अवस्था वाले श्याम और गौर वर्ण के दोनों कुमार नेत्रों को सुख देने वाले और सारे विश्व के चित्त को चुराने वाले हैं।दोनों भाइयों को देखकर सभी अनायास ही सुख के सागर में डूब गए। सबके नेत्रों में आनंद और प्रेम से भरा जल भर आया (आनंद और प्रेम के आँसू उमड़ पड़े) और शरीर रोमांचित हो उठे। रामजी की मधुर मनोहर मूर्ति को देखकर विदेह (जनक) विशेष रूप से विदेह (देह की सुध-बुध से रहित) हो गए॥
उनकी अद्भुत, सुंदरता, तेज, शौर्य और माधुर्यता के रस में डूब चुके राजा जनक मुनि की ओर श्रद्धा और कौतूहल जी देखते हैं और ह्रदय की जिज्ञासा को प्रकट करते हुए विनती करते हैं: -
कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥
हे नाथ! कहिए, ये दोनों सुंदर बालक मुनिकुल के आभूषण हैं या किसी राजवंश के पालक? अथवा जिसका वेदों ने 'नेति' कहकर गान किया है कहीं वह ब्रह्म तो युगल रूप धरकर नहीं आया है, आखिर ये सुकुमार हैं कौन?
ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी॥
रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए॥
जगत में जहाँ तक (जितने भी) प्राणी हैं, ये सभी को प्रिय हैं। मुनि की (रहस्य भरी) वाणी सुनकर श्री रामजी मन ही मन मुस्कुराते हैं (हँसकर मानो संकेत करते हैं कि रहस्य खोलिए नहीं)। (तब मुनि ने कहा-) ये रघुकुल मणि महाराज दशरथ के पुत्र हैं। मेरे हित के लिए राजा ने इन्हें मेरे साथ भेजा है॥
अभी ये वार्तालाप होता हि रहता है की तभी प्रभु श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के सुंदर चेहरे पर उभर रही मंद मंद मुस्कान के पीछे के उथल पुथल को भाप लेते हैं
लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी॥
प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥
लक्ष्मणजी के हृदय में विशेष लालसा है कि जाकर जनकपुर देख आवें, परन्तु प्रभु श्री रामचन्द्रजी का डर है और फिर मुनि से भी सकुचाते हैं, इसलिए प्रकट में कुछ नहीं कहते, मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं॥
राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हियँ हुलसानी॥
परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई॥
श्री रामचन्द्रजी ने छोटे भाई के मन की दशा जान ली, (तब) उनके हृदय में भक्तवत्सलता उमड़ आई। वे गुरु की आज्ञा पाकर बहुत ही विनय के साथ सकुचाते हुए मुस्कुराकर बोले॥
नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं॥
जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौं॥
हे नाथ! लक्ष्मण नगर देखना चाहते हैं, किन्तु प्रभु (आप) के डर और संकोच के कारण स्पष्ट नहीं कहते। यदि आपकी आज्ञा पाऊँ, तो मैं इनको नगर दिखलाकर तुरंत ही (वापस) ले आऊँ॥
सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती॥
धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता॥
यह सुनकर मुनीश्वर विश्वामित्रजी ने प्रेम सहित वचन कहे- हे राम! तुम नीति की रक्षा कैसे न करोगे, हे तात! तुम धर्म की मर्यादा का पालन करने वाले और प्रेम के वशीभूत होकर सेवकों को सुख देने वाले हो, अत: जाओ और अपने अनुज कि इच्छा को पूर्ण करो। जब नगरवासीयो ने यह सुना की दोनों राजकुमार नगर भ्रमण हेतु आ रहे हैं तो सभी नगर वासी इनके दर्शन का सुख प्राप्त करने दौड़ पड़े और दोनों राजकुमारों के सौन्दर्य और सुदृढ़ शारीरिक सरंचना पर मोहित होकर नाना प्रकार की उपमाओ से विभूषित करने लगे।
देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई॥
जौं सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू॥
श्री रामचन्द्रजी की छबि देखकर कोई एक (दूसरी सखी) कहने लगी- यह वर जानकी के योग्य है। हे सखी! यदि कहीं राजा इन्हें देख ले, तो प्रतिज्ञा छोड़कर हठपूर्वक इन्हीं से विवाह कर देगा॥ इस प्रकार नगरवासीयो को अपने दुर्लभ दर्शन से कृतार्थ करते हुए वे वापस महर्षि के पास लौट आए। प्रभु श्रीराम ने आहार इत्यादि ग्रहण करने के पश्चात महर्षि के पद तब तक दबाते रहे जब तक उन्होंने उन्हें शयन करने की आज्ञा ना दे दी। इसके पश्चात लक्ष्मण जी भी अपने अग्रज के पड़ कमलो कि थकान निकलते रहे जब तक उन्हें शयन करने कि प्यारी सी झिडकी ना मिल गई।
अब यंहा पर हम प्रभु श्रीराम और उनके अनुज दोनो के व्यवहार से कुछ सीखने को अवश्य मिलता है। प्रभु श्रीराम एक राजकुमार थे, वे अपना परिचय स्वय दे सकते थे परन्तु उन्होंने यंहा पर अपनी मर्यादा का पालन किया और महर्षि को ही उनका परिचय कराने दिया। महर्षि जब प्रेम के वशीभूत प्रकृति और पुरुष के इस रहस्य को उजागर करने ही वाले थे, तभी प्रभु ने अपनी मुस्कान से महर्षि को सचेत करते हुए इससे दूर रखा।
प्रभु श्रीराम इन सभी परिस्थितियों के दौरान भी अपने अनुज के स्वभाव को नहीं भूले, उन्हें भली भांति आभास था की जिस नगर के जीवंत सुंदरता ने उनके ह्रदय को बाँध लिया है, उसके मोहपाश से भला उनका अनुज कैसे बचा होगा, अत: अपने अनुज के ह्रदय में उठ रही अभिलाषा की पूर्ति हेतु, उन्होंने स्वय महर्षि से आज्ञा लेने का निश्चय किया। प्रभु ने एक बड़े भाई के कर्तव्य का पालन करने का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए बताया कि यात्रा के दौरान बड़ा भाई हि छोटे भाई के सुख दुःख का उत्तरदाई होता है।
प्रभु श्रीराम यदि इच्छा करते तो महर्षि कि आज्ञा के बिना भी नगर भ्रमण के लिए अपने अनुज के साथ जा सकते थे, परन्तु यंहा भी उन्होंने महर्षि से आज्ञा लेने के पश्चात ही नगर भ्रमण करने का निश्चय किया और यह बताया कि जब आप अपने किसी वरिष्ठ के साथ किसी स्थान पर जाते हैं, तो कुछ भी और कोई भी कैरी करने से पूर्व उनकी आज्ञा लेना अति आवश्यक है।
प्रभु श्रीराम महर्षि के पैर दबाते हुए उनसे ज्ञानवर्धक चर्चा करते हैं, इससे उनके ज्ञान में वृद्धि भी होती है और महर्षि के पैरो कि थकान दूर हो जाने से उन्हें भरपूर आशीर्वाद भी मिल रहा है। प्रभु से अपने बड़ो की सेवा का भी उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं । इसी प्रकार लक्ष्मण जी अपने बड़े भाई कि सेवा का मेवा प्राप्त करने से पीछे नहीं हटते और उन्हीं के पद से लिपट कर सो जाते हैं ।
रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम।
मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम॥
भावार्थ:-ये राम और लक्ष्मण दोनों श्रेष्ठ भाई रूप, शील और बल के धाम हैं। सारा जगत (इस बात का) साक्षी है कि इन्होंने युद्ध में असुरों को जीतकर ऋषि मुनियो के यज्ञ की रक्षा की है॥
लेखन और संकलन :- नागेंद्र प्रताप सिंह(अधिवक्ता)
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