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हम सबके राम भाग_७

7 जून 2023

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मित्रों आप सभी ने आधुनिक परिवेश में प्रचलित "ब्रेन वाश"  जैसे शब्द के बारे में तो अवश्य सुना होगा | आजकल यह शब्द आतंकवाद के मकड़ जाल में फंस कर आतंकी बनने वाले युवाओ और लव जिहादियों के चक्कर में आकर उनका शिकार बनने वाली सनातनी बालिकाओं के संदर्भ में अधिक प्रयोग में लाया जाता है | परन्तु क्या आपने ध्यान दिया है की उक्त "ब्रेन वाश" शब्दावली का तो नहीं परन्तु  कार्यावली का उदाहरण प्रभु श्रीराम के जीवनकाल में भी देखने को मिलती है | आप सभी ने देवी मंथरा के बारे में तो अवश्य सुना होगा, परन्तु क्या आपने कभी सोचा है की आखिर देवी मंथरा ने किस प्रयोजन को ध्यान में रखकर माता कैकेयी का "ब्रेन वॉश" किया था,जिसके वशीभूत होकर उन्होंने अपने प्राणो से प्यारे राम को वनवास जाने और अपने प्राणनाथ महाराज दशरथ को स्वर्गवासी होने के लिए विवश कर दिया |

मित्रों आप सभी ने आधुनिक परिवेश में प्रचलित "ब्रेन वाश"  जैसे शब्द के बारे में तो अवश्य सुना होगा | आजकल यह शब्द आतंकवाद के मकड़ जाल में फंस कर आतंकी बनने वाले युवाओ और लव जिहादियों के चक्कर में आकर उनका शिकार बनने वाली सनातनी बालिकाओं के संदर्भ में अधिक प्रयोग में लाया जाता है | परन्तु क्या आपने ध्यान दिया है की उक्त "ब्रेन वाश" शब्दावली का तो नहीं परन्तु  कार्यावली का उदाहरण प्रभु श्रीराम के जीवनकाल में भी देखने को मिलती है | आप सभी ने देवी मंथरा के बारे में तो अवश्य सुना होगा, परन्तु क्या आपने कभी सोचा है की आखिर देवी मंथरा ने किस प्रयोजन को ध्यान में रखकर माता कैकेयी का "ब्रेन वॉश" किया था,जिसके वशीभूत होकर उन्होंने अपने प्राणो से प्यारे राम को वनवास जाने और अपने प्राणनाथ महाराज दशरथ को स्वर्गवासी होने के लिए विवश कर दिया | मित्रों आप सभी ने आधुनिक परिवेश में प्रचलित "ब्रेन वाश"  जैसे शब्द के बारे में तो अवश्य सुना होगा | आजकल यह शब्द आतंकवाद के मकड़ जाल में फंस कर आतंकी बनने वाले युवाओ और लव जिहादियों के चक्कर में आकर उनका शिकार बनने वाली सनातनी बालिकाओं के संदर्भ में अधिक प्रयोग में लाया जाता है | परन्तु क्या आपने ध्यान दिया है की उक्त "ब्रेन वाश" शब्दावली का तो नहीं परन्तु  कार्यावली का उदाहरण प्रभु श्रीराम के जीवनकाल में भी देखने को मिलती है | आप सभी ने देवी मंथरा के बारे में तो अवश्य सुना होगा, परन्तु क्या आपने कभी सोचा है की आखिर देवी मंथरा ने किस प्रयोजन को ध्यान में रखकर माता कैकेयी का "ब्रेन वॉश" किया था,जिसके वशीभूत होकर उन्होंने अपने प्राणो से प्यारे राम को वनवास जाने और अपने प्राणनाथ महाराज दशरथ को स्वर्गवासी होने के लिए विवश कर दिया |

आइये थोड़ी सी जानकारी देवी मंथरा के विषय में प्राप्त कर लेते हैं | महर्षि वाल्मीकि कहते हैं की मंथरा एक गंधर्व कन्या थी जो देवेंद्र के द्वारा भेजी गयी थी पृथ्वी पर किसी विशेष प्रयोजन हेतु | वंही लोमस ऋषि के अनुसार मंथरा भक्त प्रह्लाद के पुत्र विरोचन की पुत्री थी | विरोचन ने भी अपने काल में देवताओं को पराजित कर उन पर  असुरो का राज कायम कर दिया था, परन्तु अंतत: एक विशेष अभियान के तहत देवताओ ने विरोचन को पराजित कर दिया और फिर सारी आसुरी शक्तियों को संगठित कर मंथरा ने देवताओं से युद्ध किया पर उन्हें वो पराजित न कर सकी और स्वर्ग से पृथ्वी  की ओर धकेल दी गयी | इसलिए मंथरा देवताओं से  ईर्ष्या रखती थी |

पर मुझे सबसे विश्वसनीय जो बात प्रलक्षित होती है वो ये कैकेय प्रदेश के राजा थे अश्वपति | अस्वपति को एक पुत्री की प्राप्ति हुई जिसका नाम उन्होंने कैकेयी रखा | इसी अश्वपति का एक भाई था, जिनका नाम था वृहदश्रव| वृहदश्रव को भी पुत्री के रूप में एक संतान थी जिसका नाम रेखा था |  कैकेयी और रेखा चचेरी बहनें थीं और बहुत अच्‍छी सहेलियां भी। रेखा बेहद खूबसूरत और बड़े-बड़े नैन नक्‍श वाली थी। दोनों में इतनी अच्‍छी दोस्‍ती थी कि वे एक-दूसरे के बिना बिल्‍कुल भी नहीं रहती थीं। रेखा खूबसूरत होने के साथ-साथ बहुत बुद्धिमान थी और उसे इस बात का बहुत घमंड था। परन्तु रेखा को  एक व्याधि थी ,उसे अचानक अधिक मात्रा में पसीना हो जाता था जिससे उसे खूब प्यासा लगती थी | एक बार उसने इलायची, मिश्री और तुलसी से बना एक शरबत का सेवन  कर लिया जिसके फलस्वरूप उसकी कमनीय काया कुबड़ी काया में परिवर्तित हो गयी और वो कुरूप हो गयी | जब माता कैकेयी का विवाह अयोध्या नरेश महाराज दशरथ के साथ हुआ तो वो रेखा अब जो मंथरा के रूप में आ चुकी थी, भी माता कैकेयी के मुख्य सलाहकार के रूप में अयोध्या आ गयी |

मित्रो जब कोई भी व्यक्ति विशेष शारीरिक कुरूपता या अपंगता का शिकार हो जाता है तो उसके अंदर उस कमी को लेकर हिन् भावना का विकास हो जाता है ,जिससे उस व्यक्ति विशेष को प्रत्येक क्षण स्वय के अपमानित होने का एहसास होता रहता है|

अब आइये देखते हैं कि नियति ने किस प्रकार मंथरा को विश्वकल्याण का सबसे बड़ा कारक चूना | मित्रों जब पुरे अयोध्या सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड राम राज के संकल्पना में आनंदित हो रहा था और  खुशियां मना रहा था, उसी समय देवताओ के खेमे में असिम बेचैनी का वातावरण था | सभी देवता इस भय से व्याकुल थे की यदि प्रभु अयोध्या के राजपाठ में उलझ गए तो फिर असुरों के आतंक  का साम्राज्य कौन नष्ट करेगा |   इसीलिए वो माता सरस्वती के शरण में विनती करते हुए पहुंचे |

तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा। चोरहि चंदिनि राति न भावा॥

सारद बोलि बिनय सुर करहीं। बारहिं बार पाय लै परहीं॥

उन्हें  (देवताओं को) अवध के बधावे नहीं सुहाते, जैसे चोर को चाँदनी रात नहीं भाती। सरस्वतीजी को बुलाकर देवता विनय कर रहे हैं और बार-बार उनके पैरों को पकड़कर उन पर गिरते हैं॥

बार बार गहि चरन सँकोची। चली बिचारि बिबुध मति पोची॥

ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती॥

-बार-बार चरण पकड़कर देवताओं ने सरस्वती को संकोच में डाल दिया। तब वे यह विचारकर चलीं कि देवताओं की बुद्धि ओछी है। इनका निवास तो ऊँचा है, पर इनकी करनी नीची है। ये दूसरे का ऐश्वर्य नहीं देख सकते॥

आगिल काजु बिचारि बहोरी। करिहहिं चाह कुसल कबि मोरी॥

हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई॥

परन्तु आगे के काम का विचार करके (श्री रामजी के वन जाने से राक्षसों का वध होगा, जिससे सारा जगत सुखी हो जाएगा) चतुर कवि (श्री रामजी के वनवास के चरित्रों का वर्णन करने के लिए) मेरी चाह (कामना) करेंगे। ऐसा विचार कर सरस्वती हृदय में हर्षित होकर दशरथजी की पुरी अयोध्या में आईं, मानो दुःसह दुःख देने वाली कोई ग्रहदशा आई हो॥

माता सरस्वती ने जब देवताओ के विनय और प्रार्थना के पीछे छुपे विश्व कल्याण के सन्देश को भाँपा तब यह निश्चय किया की उन्हें इस कार्य में सहभागी बनना ही पड़ेगा और इस प्रकार उन्होंने निश्चय किया ये कार्य देवी मंथरा के द्वारा ही सम्पादित होना चाहिए, क्योंकि अयोध्या में एक मंथरा को यदि छोड़ दें तो कबड़ेपन और कुरूपता से प्रताड़ित अन्य कोई दूसरा नहीं है जिसकी पहुंच सीधे राजमहल तक हो और वो भी महारानी कैकेयी तक |

नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकइ केरि।

अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि॥

मन्थरा नाम की कैकेई की एक मंदबुद्धि दासी थी, उसे अपयश की पिटारी बनाकर सरस्वती उसकी बुद्धि को फेरकर चली गईं॥ यंहा पर बुद्धि फेर कर चले जाने का अर्थ है ,देवी मंथरा के ह्रदय को अत्यंत कठोर कर दिया और उनके अंदर इतना साहस भर दिया कि वो रंग में भंग करने जैसा दुस्साहस पैदा करने में सक्षम हो गया | मंथरा के ह्रदय में अयोध्या में बिखरी खुशियों से ईर्ष्या और वैमनस्यता का जबरदस्त तांडव शुरू हो गया, अब  मंथरा को पता था की उन्हें कब और कँहा दबाव बनाना है |

करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती॥

देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवँ तकइ लेउँ केहि भाँती॥

-वह दुर्बुद्धि, नीच जाति वाली दासी विचार करने लगी कि किस प्रकार से यह काम रात ही रात में बिगड़ जाए, जैसे कोई कुटिल भीलनी शहद का छत्ता लगा देखकर घात लगाती है कि इसको किस तरह से उखाड़ लूँ॥ यंहा पर गोस्वामी जी ने कुछ कठोर शब्दों का प्रयोग देवी मंथरा के लिए किया है , जिसे एक भक्त का अपने प्रभु के प्रति प्रेम समझकर ध्यान नहीं देना चाहिए |

भरत मातु पहिं गइ बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि रानी॥

ऊतरु देइ न लेइ उसासू। नारि चरित करि ढारइ आँसू॥

-वह उदास होकर भरतजी की माता कैकेयी के पास गई। रानी कैकेयी ने हँसकर कहा- तू उदास क्यों है? मंथरा कुछ उत्तर नहीं देती, केवल लंबी साँस ले रही है और त्रियाचरित्र करके आँसू ढरका रही है॥ अब यही से "ब्रेन वाश" करने का प्रयोग देवी मंथरा द्वारा किया जाना आरम्भ हो गया |

सभय रानि कह कहसि किन कुसल रामु महिपालु।

लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु॥

भावार्थ:-तब रानी ने डरकर कहा- अरी! कहती क्यों नहीं? श्री रामचन्द्र, राजा, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न कुशल से तो हैं? यह सुनकर कुबरी मंथरा के हृदय में बड़ी ही पीड़ा हुई॥1

कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई॥

रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू॥

:-(वह कहने लगी-) हे माई! हमें कोई क्यों सीख देगा और मैं किसका बल पाकर गाल करूँगी (बढ़-बढ़कर बोलूँगी)। रामचन्द्र को छोड़कर आज और किसकी कुशल है, जिन्हें राजा युवराज पद दे रहे हैं॥

पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु हमारें॥

नीद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई॥

तुम्हारा पुत्र परदेस में है, तुम्हें कुछ सोच नहीं। जानती हो कि स्वामी हमारे वश में हैं। तुम्हें तो तोशक-पलँग पर पड़े-पड़े नींद लेना ही बहुत प्यारा लगता है, राजा की कपटभरी चतुराई तुम नहीं देखतीं॥ जैसे ही ऐसे प्रिय वचन मंथरा के मुख से सुना वो क्रोधित हो गयी और बोली चुप रह घरफोड़ि इस प्रकार की बाते करके मेरे ह्रदय में क्या उत्पन्न करना चाहती है , माता कैकेयी मंथरा के ऊपर इस प्रकार शायद ही कभी कुपित हुई होंगी पर मंथरा के शब्दो ने उन्हें उत्तेजित कर दिया और वो क्रोधित हो गयी |

प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही॥

सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई॥

जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई॥

राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली॥

-(और फिर बोलीं-) हे प्रिय वचन कहने वाली मंथरा! मैंने तुझको यह सीख दी है (शिक्षा के लिए इतनी बात कही है)। मुझे तुझ पर स्वप्न में भी क्रोध नहीं है। सुंदर मंगलदायक शुभ दिन वही होगा, जिस दिन तेरा कहना सत्य होगा (अर्थात श्री राम का राज्यतिलक होगा)॥बड़ा भाई स्वामी और छोटा भाई सेवक होता है। यह सूर्यवंश की सुहावनी रीति ही है। यदि सचमुच कल ही श्री राम का तिलक है, तो हे सखी! तेरे मन को अच्छी लगे वही वस्तु माँग ले, मैं दूँगी॥

करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा॥

कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी॥

विधाता ने कुरूप बनाकर मुझे परवश कर दिया! (दूसरे को क्या दोष) जो बोया सो काटती हूँ, दिया सो पाती हूँ। कोई भी राजा हो, हमारी क्या हानि है? दासी छोड़कर क्या अब मैं रानी होऊँगी! (अर्थात रानी तो होने से रही)॥ हमारा स्वभाव तो जलाने ही योग्य है, क्योंकि तुम्हारा अहित मुझसे देखा नहीं जाता, इसलिए कुछ बात चलाई थी, किन्तु हे देवी! हमारी बड़ी भूल हुई, क्षमा करो| मंथरा के द्वारा कही गयी इन बातो ने माता कैकेयी के ह्रदय में गहरी संवेदना की एक मीठी लहर पैदा कर दी | माता कैकेयी देवी मंथरा के मंतव्य को जानने और समझने के लिए उतावली हो गयी और उनके बार बार आग्रह करने पर मंथरा बोल उठी

भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ छारा॥

जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूँधहु करि उपाउ बर बारी॥

:-सूर्य कमल के कुल का पालन करने वाला है, पर बिना जल के वही सूर्य उनको (कमलों को) जलाकर भस्म कर देता है। सौत कौसल्या तुम्हारी जड़ उखाड़ना चाहती है। अतः उपाय रूपी श्रेष्ठ बाड़ (घेरा) लगाकर उसे रूँध दो (सुरक्षित कर दो)॥ यंहा पर एक मंझे हुए खिलाडी की तरह देवी मंथरा ने जो आक्रमण शुरू किया उसकी परिधि में देवरानी और जेठानी का रिश्ता सबसे पहले आया | माता कैकेयी जंहा महाराज दशरथ की प्रिय थीं वंही वो एक वीर और निर्भीक स्त्री थी   अत: आक्रामक स्वभाव का स्वामिनी होना ही था | ऐसे स्वाभाव पर कुछ बातों का प्रभाव अक्सर ही पड़ता है , जो सामान्य अवस्था में नहीं प्रलक्षित नहीं होते | देवी मंथरा ने आगे कहा :-

तुम्हहि न सोचु सोहाग बल निज बस जानहु राउ।

मन मलीन मुँह मीठ नृपु राउर सरल सुभाउ॥

:-तुमको अपने सुहाग के (झूठे) बल पर कुछ भी सोच नहीं है, राजा को अपने वश में जानती हो, किन्तु राजा मन के मैले और मुँह के मीठे हैं! और आपका सीधा स्वभाव है (आप कपट-चतुराई जानती ही नहीं)॥ यंहा पर देवी मंथरा जंहा एक ओर माता कैकेयी की प्रसंशा कर रहीं हैं वंही दूसरी ओर इस प्रसंशा की आड़ में उनके ह्रदय में अपने पति के प्रति विषारोपण कर रहीं हैं यह कह कर की वो  माता कैकेयी के भोलेपन का लाभ उठाकर माता कौशल्या और उनके पुत्र राम के पक्ष में सारा लाभ अर्पित कर रहे हैं |

चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात सँवारी॥

पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानब रउरें॥

-राम की माता (कौसल्या) बड़ी चतुर और गंभीर है (उसकी थाह कोई नहीं पाता)। उसने मौका पाकर अपनी बात बना ली। राजा ने जो भरत को ननिहाल भेज दिया, उसमें आप बस राम की माता की ही सलाह समझिए!॥ यंहा परिस्थितियों का भी लाभ मंथरा उठा रहीं हैं | एक ओर राजकुमार भरत अपने छोटे भाई शत्रुघ्न के साथ अपने ननिहाल जा चुके हैं, वंही दूसरी ओर महाराज और गुरु वशिष्ठ ने राम को राजगद्दी सौपने का निश्चय कर लिया है ,हालाँकि दोनों स्थितियाँ हैं बिलकुल सामान्य पर अपनी कुटिलता और वाक्पटुता से मंथरा इन्हे एक षड्यंत्र का हिस्सा बता कर माता कैकेयी को समझा रही हैं |

सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें। गरबित भरत मातु बल पी कें॥

सालु तुमर कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होई जनाई॥

:-(कौसल्या समझती है कि) और सब सौतें तो मेरी अच्छी तरह सेवा करती हैं, एक भरत की माँ पति के बल पर गर्वित रहती है! इसी से हे माई! कौसल्या को तुम बहुत ही साल (खटक) रही हो, किन्तु वह कपट करने में चतुर है, अतः उसके हृदय का भाव जानने में नहीं आता (वह उसे चतुरता से छिपाए रखती है)॥ अब यंहा पर जो शक और संदेह का विषाणु देवी मंथरा ने माता कैकेयी के ह्रदय में उतारा है उसका कोई काट नहीं है |

राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी। सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी॥

रचि प्रपंचु भूपहि अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई॥

राजा  का तुम पर विशेष प्रेम है। कौसल्या सौत के स्वभाव से उसे देख नहीं सकती, इसलिए उसने जाल रचकर राजा को अपने वश में करके, (भरत की अनुपस्थिति में) राम के राजतिलक के लिए लग्न निश्चय करा लिया॥

कद्रूँ बिनतहि दीन्ह दुखु तुम्हहि कौसिलाँ देब।

भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब॥

-कद्रू ने विनता को दुःख दिया था, तुम्हें कौसल्या देगी। भरत कारागार का सेवन करेंगे (जेल की हवा खाएँगे) और लक्ष्मण राम के नायब (सहकारी) होंगे॥

रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु।

कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु॥

-इस तरह करोड़ों कुटिलपन की बातें गढ़-छोलकर मन्थरा ने कैकेयी को उलटा-सीधा समझा दिया और सैकड़ों सौतों की कहानियाँ इस प्रकार (बना-बनाकर) कहीं जिस प्रकार विरोध बढ़े॥

कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी॥

तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी॥

-कैकेयी मन्थरा की कड़वी वाणी सुनते ही डरकर सूख गई, कुछ बोल नहीं सकती। शरीर में पसीना हो आया और वह केले की तरह काँपने लगी। तब कुबरी (मंथरा) ने अपनी जीभ दाँतों तले दबाई (उसे भय हुआ कि कहीं भविष्य का अत्यन्त डरावना चित्र सुनकर कैकेयी के हृदय की गति न रुक जाए, जिससे उलटा सारा काम ही बिगड़ जाए)॥

सुनु मंथरा बात फुरि तोरी। दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी॥

दिन प्रति देखउँ राति कुसपने। कहउँ न तोहि मोह बस अपने॥

-कैकेयी ने कहा- मन्थरा! सुन, तेरी बात सत्य है। मेरी दाहिनी आँख नित्य फड़का करती है। मैं प्रतिदिन रात को बुरे स्वप्न देखती हूँ, किन्तु अपने अज्ञानवश तुझसे कहती नहीं॥ अब देखिये माता कैकेयी के द्वारा कहे गए उक्त शब्द इस तथ्य के परिचायक हैं कि देवी मंथरा कि कुटिलता ने अपना कार्य कर दिया और उसका प्रभाव उनके शब्दों में स्पष्ट दिखाई दी लगा |  यंहा कैकेयी माता ये कह रही हैं की उनकी दायी आँख नित्य फड़कती है और मंथरा का प्रभाव ऐसा हुआ की वो इस घटना को एक विशेष अवसर से जोड़ कर देखने लगी | माता कैकेयी ने बातो हो बातो में कह दिया की भले ही मुझे नैहर में जिवन व्यतीत करना पड़े पर कौशल्या और सीता की चाकरी मैं नहीं करूंगी | और ऐसे ही न जाने कितने दिन हिन वचन माता ने कह डाले | मंथरा ने देखा कि चोट सही स्थान पर लग चुकी है अत: अब देर नहीं करनी चाहिए |

पूँछेउँ गुनिन्ह रेख तिन्ह खाँची। भरत भुआल होहिं यह साँची॥

भामिनि करहु त कहौं उपाऊ। है तुम्हरीं सेवा बस राऊ॥

वह तपाक से बोली -मैंने ज्योतिषियों से पूछा, तो उन्होंने रेखा खींचकर (गणित करके अथवा निश्चयपूर्वक) कहा कि भरत राजा होंगे, यह सत्य बात है। हे भामिनि! तुम करो तो उपाय मैं बताऊँ। राजा तुम्हारी सेवा के वश में हैं ही॥ अब माता कैकेयी पर मंथरा के कुटिलता का पूर्ण प्रभाव पड़ चूका था अत: उन्होंने कहा

परउँ कूप तुअ बचन पर सकउँ पूत पति त्यागि।

कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि॥

:-(कैकेयी ने कहा-) मैं तेरे कहने से कुएँ में गिर सकती हूँ, पुत्र और पति को भी छोड़ सकती हूँ। जब तू मेरा बड़ा भारी दुःख देखकर कुछ कहती है, तो भला मैं अपने हित के लिए उसे क्यों न करूँगी॥

दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु छाती॥

सुतहि राजु रामहि बनबासू। देहु लेहु सब सवति हुलासू॥

-तुम्हारे दो वरदान राजा के पास धरोहर हैं। आज उन्हें राजा से माँगकर अपनी छाती ठंडी करो। पुत्र को राज्य और राम को वनवास दो और सौत का सारा आनंद तुम ले लो॥

अब यंहा उन दो वरदानो ( एक बार जब रघुवंश नायक महाराज दशरथ देवासुर संग्राम में देवताओं की ओर से युद्ध कर रहे थे , तो उस दौरान माता कैकेयी भी उनके साथ थी और उन्होंने अद्भुत वीरता और रण-कौशल का परिचय उन्होंने युद्ध भूमि में दिया था, जिससे प्रसन्न होकर महाराज ने उन्हें दो वरदान मांगने का अधिकार दिया था | उस दौरान माता ने उचित अवसर आने पर मांग लुंगी, ऐसा कह कर महाराज को प्रसन्न कर दिया था |) की याद दिलाकर और उनके अंतर्गत क्या मांगना है , इसकी भी रूप रेखा तय करके मंथरा ने माता कैकेयी के वापस लौटने के सारे मार्ग को अवरुद्ध कर दिया | देवी मंथरा ने यँहा तक निर्देश दिया की चाहे कुछ भी हो जाये आपको दो वरदान के रूप में राम को वनवास और भरत को राजगद्दी ही मांगना है,इसके अलावा किसी भी वचन के लिए आपको तैयार नहीं होना है | महाराज कितनी भी दुहाई दें, कितनी भी सौगंध खाएँ, कैसे भी प्रलोभन दे , आपको टस से मस नहीं होना है| याद रखिये यदि आप महाराज के कहे में आ गयी तो आपके साथ साथ आपके पुत्र भरत का भविष्य भी अंधकार में खो जायेगा |

मंथरा के इन वाक्यों ने माता कैकेयी के निश्चय को दृढ़ता प्रदान कर दी और माता बगैर उचित और अनुचित को समझे मंथरा के कहे अनुसार कोप भवन में जाकर स्वय को समेट लिया |

यंहा आप देख सकते हैं कि किस प्रकार "ब्रेन वॉश" करके माता कैकेयी को देवी मंथरा ने अपने वश में कर लिया और उनसे वो व्यवहार का प्रदर्शन करा लिया जो कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था , क्योंकि प्रभु श्रीराम का बालपन अधिकांशत: माता कैकेयी के गोद में ही व्यतीत हुआ था |

इसीलिए हमारे कवी कहते हैं कि " बिना बिचारे जो करे , सो पाछे पछिताये | काम बिगाड़े आपनौ ,जग में होत हंसाये || "

लेखन और संकलन: - नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)

aryan_innag@yahoo.co.in

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हम सबके राम भाग्-११

7 जून 2023
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मित्रों आज हम पति और पत्नी के रिश्तों पर चर्चा करेंगे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम  और माता सीता के  द्वारा प्रस्तुत लीला को ध्यान में रखकर। क्या आपने कभी भी भारतीय भाषाओ में "Divorce" या "

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हम सबके राम भाग-१२

7 जून 2023
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मित्रों हमने मर्यादा पुरूषोतम श्रीराम के लीला के अंतर्गत पित-पुत्र का प्रेम, पुत्र का पितृ और मातृ भक्ति, पत्नी का पति धर्म, अनुज का अपने अग्रज के प्रति समर्पण और निस्वार्थ प्रेम और राजकुमारो का अपन

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हम सबके राम भाग १३

7 जून 2023
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 पिछले अंक में हम सबने देखा कि किस प्रकार अयोध्या में विस्तार को प्राप्त कर चुके दुःख, निराशा और विषाद के वातावरण को राजकुमार भरत के मुखारबिंद से निकले एक वाक्य " मैं अपने स्वामी राम को वापस लेने जा

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हम सबके राम भाग-१४ (राम द्रोह)

7 जून 2023
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हे मित्रों अभी तक के लेखो में हमने मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम के द्वारा दर्शाये गए पुत्र, युवराज, पति, अग्रज भ्राता रूपी लीलाओ का अमृतपान किया। हे मित्रों हमने माता सुमित्रा का त्याग, लक्ष्

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दशानन, दशरथ और राम ।

8 जून 2023
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आइये एक बार पुन: हम कुछ  पवित्रता पर चर्चा करते हैं । आपने दशानन, दशरथ और राम जैसे पवित्र नामों से तो अवश्य अवगत होंगे।आइये इनके वास्तविक अर्थ का विश्लेषण करते हैं और ईनके मूलस्वरूप को समझने का प्रया

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