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हम सबके राम। भाग-१

7 जून 2023

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मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम के जीवन की समस्त लीलाये आज भी उतनी हि प्रासंगिक हैं, जितनी त्रेतायुग और द्वापरयुग में हुआ करती थी और यही नहीं कलयुग के अंत के पश्चात जिस नविन जड़ और चेतना के क्रमिक विकास से नविन सृष्टि का प्रदुर्भाव होगा, उसमें भी प्रासंगिक रहेगी।

आइये इसे कुछ बिंदुओं के अंतर्गत विश्लेषित कर समझने का प्रयास करते हैं। प्रभु श्रीराम का बालपन तो उनके माता पिता सहित समस्त चराचरा जगत और दैवीय शक्तियों को आनंद के सागर में डुबो कर भवसागर पार कराने वाला था हि परन्तु गुरुकुल में ज्ञानार्जन करने में व्यतीत किये गए पल भी आधुनिक जीवन शैली से ओतप्रोत विद्यार्थियों को अनुपम और पवित्र सिख देने वाला था और है।

आइये हम उस वक़्त से शुरू करते हैं, जब महर्षि विश्वामित्र,  महाराज दशरथ के महल में पधारते हैं और ऋषि मुनियों कि निर्मम प्राण हरने वाले और उनके यज्ञ अनुष्ठान का विध्वन्स करने वाले आसुरी शक्तियों को दण्डित करने हेतु प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण को अपने साथ ले जाने देने का प्रस्ताव रखते हैं ।

जहँ जप जग्य जोग मुनि करहीं। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं॥

देखत जग्य निसाचर धावहिं। करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥२॥

गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी॥

तब मुनिबर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥३॥

एहूँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौं दोउ भाई॥

ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मैं देखब भरि नयना॥४॥

जहाँ वे ऋषि -मुनि जप, यज्ञ और योग करते थे, वंहा  मारीच और सुबाहु नामक असुरों ने तांडव मचा रखा था अत: ऋषि मुनि उनसे बहुत डरते थे। यज्ञ देखते ही राक्षस दौड़ पड़ते थे और उपद्रव मचाते थे, जिससे मुनि (बहुत) दुःख पाते थे।

गाधि के पुत्र महर्षि विश्वामित्रजी के मन में चिन्ता छा गई कि ये पापी राक्षस भगवान के (मारे) बिना न मरेंगे। तब श्रेष्ठ मुनि ने मन में विचार किया और उन्हें ज्ञात हुआ कि प्रभु ने पृथ्वी का भार हरने के लिए हि तो अवतार लिया है॥

महर्षि जंहा एक ओर ऋषि मुनियों के कल्याण और उद्धार के लिए चिन्तन कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर उनके ह्रदय में प्रभु के दर्शन करने कि उमंगे भी हिलोरे मार रही थी और उन्होंने निश्चय किया कि इसी बहाने जाकर मैं उनके चरणों का दर्शन करूँ और विनती करके दोनों भाइयों को ले आऊँ। (अहा!) जो ज्ञान, वैराग्य और सब गुणों के धाम हैं, उन प्रभु को मैं नेत्र भरकर देखूँगा ये सोच सोच कर वे आह्लादित हुए जा रहे थे।

मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयउ लै बिप्र समाजा॥

करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥1॥

महाराज दशरथ अपने पुत्रों के आनंद में डूबे हुए थे, गुरुकुल में  कई वर्ष बिताने के पश्चात एक पिता अपने पुत्रों से मिल रहा था अत: उन सभी के आनंद की कोई सीमा हि नहीं थी। इसी समय्जब् महाराज  ने मुनि के आगमन को जाना, तब वे ब्राह्मणों के समाज को साथ लेकर उनसे मिलने गए और दण्डवत् करके मुनि का सम्मान करते हुए उन्हें लाकर अपने आसन पर बैठाया।

तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ॥केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा॥

महाराज ने आवभगत करने के पश्चात अपने चारों पुत्रों को महर्षि विश्वामित्र के चरणो में समर्पित कर दिया। अपने प्रभु को प्रभु श्रीराम के अवतार में देख महर्षि सुद्बुद्ध खो बैठे और प्रभु के अलौकिक स्वरूप को निहारते रहे।तब राजा ने मन में हर्षित होकर ये वचन कहे- हे मुनि! इस प्रकार कृपा तो आपने कभी नहीं की। आज किस कारण से आपका शुभागमन हुआ? कहिए, मैं उसे पूरा करने में देर नहीं लगाऊँगा॥

असुर समूह सतावहिं मोही। मैं जाचन आयउँ नृप तोही॥

अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥

भावार्थ:-(मुनि ने कहा-) हे राजन्! राक्षसों के समूह हम ऋषि मुनियों को बहुत सताते हैं, इसीलिए मैं तुमसे कुछ माँगने आया हूँ। छोटे भाई सहित श्री रघुनाथजी को मेरे साथ जाने की आज्ञा दे दो। राक्षसों/ असुरों  के आतंक के मिट जाने पर हम ऋषि मुनि सनाथ (सुरक्षित) हो जाएँगे और उसके पश्चात आपके तेजस्वी और यशश्वी पुत्र भी वापस आ जाएँगे।

सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी॥

चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥1॥

इस अत्यन्त अप्रिय वाणी को सुनकर राजा का हृदय काँप उठा और उनके मुख की कांति फीकी पड़ गई। (उन्होंने कहा-) हे ब्राह्मण! मैंने चौथेपन में चार पुत्र पाए हैं, आपने विचार कर बात नहीं कही॥महर्षि के आग्रह को सुन महाराज दशरथ और माताये ( माता कौशल्या, माता कैकेई और माता सुमित्रा) भाव विभ्वल हो जाती हैं, क्योंकि गुरुकुल में कई वर्ष बिताने के पश्चात उनके लाडले उनके पास आए थे। और अभी नैनभर उनको देखा भी नहीं था कि महर्षि उन्हें अपने साथ ले जाने के लिए आ गए और वो भी उन भयानक असुरों से युद्ध करने के लिए।

सब सुत प्रिय मोहि प्रान की नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाईं॥

कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा॥

पिता कि पीड़ा को अपनी छाती में दबाये, महाराज दशरथ, महर्षि विश्वामित्र से कहते हैं , हे प्रभु सभी पुत्र मुझे प्राणों के समान प्यारे हैं और उनमें भी हे प्रभो! राम को तो (किसी प्रकार भी) देते नहीं बनता। कहाँ अत्यन्त डरावने और क्रूर राक्षस और कहाँ परम किशोर अवस्था के (बिलकुल सुकुमार) मेरे सुंदर पुत्र! पिता के प्रेम के वशीभूत हो महाराज दशरथ भूल जाते हैं कि उनका कुल रघुकुल है जिसके शौर्य, कर्तव्यपरायणता और वचन बद्धता का यश तो दसो दिशाओं में फैला है। और पितृ प्रेम में जिन्हें वो सुकुमार समझ रहे हैं अरे वो तो स्वय जगत को भवसागर के पार लगाने वाले हैं।

सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी॥

तब बसिष्ट बहुबिधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा॥॥

पुत्र के प्रति एक पिता के अद्भुत और निश्चल प्रेम  रस में सनी हुई राजा की वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि विश्वामित्रजी के हृदय में अपार हर्ष हुआ। तब वशिष्ठजी ने राजा को बहुत प्रकार से समझाया, जिससे राजा का संदेह नाश को प्राप्त हुआ।।

अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए॥

मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥5॥

भावार्थ:-राजा ने बड़े ही आदर से दोनों पुत्रों को बुलाया और हृदय से लगाकर बहुत प्रकार से उन्हें शिक्षा दी। (फिर कहा-) हे नाथ! ये दोनों पुत्र मेरे प्राण हैं। हे मुनि! (अब) आप ही इनके पिता हैं, दूसरा कोई नहीं॥

पुरुष सिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन।

कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन॥

पुरुषों में सिंह रूप दोनों भाई (राम-लक्ष्मण) मुनि का भय हरने के लिए प्रसन्न होकर चले। वे कृपा के समुद्र, धीर बुद्धि और सम्पूर्ण विश्व के कारण के भी कारण हैं॥॥

अब यंहा पर ध्यान देने वाली बात ये है की प्रभु श्रीराम ने किस प्रकार मर्यादा की पराकाष्ठा को स्पर्श करते हुए निम्न प्रतिमान स्थापित किये:-

१:- जैसे हि पिता कि आज्ञा प्राप्त हुई प्रभु श्रीराम एक आज्ञाकारी पुत्र की भांति अपने राजमहल में मिलने वाले समस्त भौतिक सुख सुविधाओं को त्याग कर महर्षि को अभय प्रदान करने हेतु तैयार हो गए।

२:- जब वे अपनी माताओ से आज्ञा लेने पहुंचे तो उनकी ममता और आँखों से बहती अश्रुधारा ने उनके कोमल ह्रदय को कई बार बेधने का प्रयास कर उन्हें रोकने का साहस किया, परन्तु उन्होंने अपने पिता के वचन की पूर्ति करने के साथ साथ एक युवराज होने के नाते अपनी प्रजा के प्रति अपने दायित्व को निभाने को प्राथमिकता दी और अपने सुवचनो से माताओ को सांत्वना देकर महर्षि के साथ वनगमन को तैयार हो गए।

३:- गुरुकुल से प्राप्त शास्त्र और शस्त्र के ज्ञान से उनका अत्मविश्वास ओतप्रोत था। यद्यपि उन्हें युद्ध का कोई अनुभव नहीं था और असुर प्रजाति के बारे में उन्होंने सुन रखा था परन्तु उनसे आमना सामना नहीं हुआ था, इसके पश्चात भी तनिक भी सोच विचार ना करते हुए तुरंत असुरों के तांडव से अपनी प्रजा की सुरक्षा के लिए वो युद्ध के मैदान में कूद पड़े।

४:- प्रभु श्रीराम ने महर्षि विश्वामित्र से असुरों के संदर्भ में अपनी जिज्ञासा को प्रकट करते हुए कई महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त कि, जो ऊनके यौद्धिक कौशल का परिचायक है, क्योंकि युद्ध के मैदान में उतरने से पूर्व अपने दुश्मन के संदर्भ में आवश्यक जानकारी प्राप्त करना हर योद्धा का प्रारम्भिक कार्य होता है।

५:- अपने अग्रज भ्राता के पदचिन्हों का अनुकरन् करते हुए प्रभु श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण जी ने भी अपनी मर्यादा का पालन किया और उनके साथ चल दिए।

चले जात मुनि दीन्हि देखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥

एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥॥

वनगमन के दौरान मार्ग में चलते हुए महर्षि विश्वामित्र ने सबसे ताकतवर नारी असुर ताड़का को दिखलाया और अपने नाम का उच्चारण सुनते ही वह क्रोध करके महर्षि और दोनों भाइयों को अपना निवाला बनाने हेतु दौड़ पड़ी। प्रभु श्री रामजी ने एक ही बाण से उसके प्राण हर लिए और दीन जानकर उसको निजपद (अपना दिव्य स्वरूप) दिया॥

प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई॥

होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी॥

एक रात्रि विश्राम करने के पश्चात  सबेरे श्री रघुनाथजी ने मुनि से कहा- आप जाकर निडर होकर यज्ञ कीजिए। यह सुनकर सब मुनि ऋषि  हवन करने लगे। और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम अपने अनुज के साथ उनको सुरक्षा देने में लग गए।

* सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही॥

बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा॥

महर्षि अपने यज्ञ और हवन कि सुरक्षा हेतु दो राजकुमारो को लेकर आए हैं और उनकी सुरक्षा में अभय महसूस कर रहे हैं, यह समाचार सुनकर मुनियों का शत्रु कोरथी राक्षस मारीच अपने सहायकों को लेकर उनका सन्हार करने दौड़ा। श्री रामजी ने बिना फल वाला बाण उसको मारा, जिससे वह सौ योजन के विस्तार वाले समुद्र के पार जा गिरा॥

पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा॥

मारि असुर द्विज निर्भयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी॥

मरीच को दण्डित करने के पश्चात  सुबाहु को अग्निबाण मारा और उसे धाराशाई कर दिया। इधर छोटे भाई लक्ष्मणजी ने राक्षसों की सेना का संहार कर डाला। इस प्रकार श्री रामजी ने राक्षसों को मारकर ऋषि मुनियों को निर्भय कर दिया। तब सारे देवता और मुनि स्तुति करने लगे॥

उपरोक्त तथ्यों का सूक्ष्म अवलोकन करने के पश्चात हमें एक पुत्र, एक युवराज और एक योद्धा के धर्म का भली भांति ज्ञान प्राप्त होता है। मर्यादा पुरुषोत्तम ने पिता के वचन और अपने कर्तव्य को अपने भौतिक सुख सुविधाओं के ऊपर रखा और इसी का अनुसरण उनके अनुज ने भी किया। युद्ध के दौरान ताड़का, सुबाहु और मारिच जैसे महाबलशाली और मायावी योद्धाओ का विनाश किया। मारीच को मुक्ति माता सीता के साथ वनगमन के दौरान किया।

लेखन और् सन्कलन :- नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)

aryan_innag@yahoo.co.in

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हम सबके राम।
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