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हम सबके राम भाग-१४ (राम द्रोह)

7 जून 2023

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हे मित्रों अभी तक के लेखो में हमने मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम के द्वारा दर्शाये गए पुत्र, युवराज, पति, अग्रज भ्राता रूपी लीलाओ का अमृतपान किया। हे मित्रों हमने माता सुमित्रा का त्याग, लक्ष्मण और भरत जी का अटूट और अकाट्य "राम प्रेम" भी देखा। हमने माता कौशल्या, माता सुमित्रा और उनकी बहु माता सीता का पति के प्रति अद्भुत व अलौकिक प्रेम, स्नेह और समर्पण का अमृतमय  रसपान भी किया।

अब हम इस अंक में ये देखने का प्रयास करेंगे कि राम के प्रेम, त्याग और तपस्या पर विश्वास ना करने वाले और प्रभु श्रीराम को काल्पनिक बताने वाले राम्-द्रोहियो के प्रति प्रभु कैसी लीला  दर्शाते हैं।

प्रस्तुत घटना महाकवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित "श्रीरामचरितमानस" के "अरण्य कांड" नामक अध्याय से ली गई है। हे मित्रों प्रभु श्रीराम और माता जानकी को मानव रूप में  वन में जीवन यापन करता देख, देवो के अधिपति इंद्र के पुत्र "जयंत" को  भ्रम हो गया और वो प्रभु श्रीराम को तुच्छ और साधारण मानव समझने लगा। सभी देवो तथा स्वय उनके पिताश्री इंद्र ने भी जयंत को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की महिमा बतलाई, पर जयंत कि मति मरी गई थी, अत: उसने किसी के भी तथ्यों पर विश्वास नहीं किया और उन प्रभु श्रीराम कि परीक्षा लेने की ठानी जिन्हें देवो के देव महादेव स्वय अपना आराध्य स्वीकार कर उनकी स्तुति करते रहते हैं, ठीक उसी प्रकार और उसी समर्पण जी जिस प्रकार प्रभु श्रीराम उनकी स्तुति करते रहते हैं।

एक बार रघुनाथ जी अपनी कुटिया के आंगन में  माता जानकी के साथ बैठे हुए थे कि तभी प्रभु श्रीराम के बल और पौरुष कि परीक्षा लेने कि उद्देश्य से इंद्र पुत्र जयंत छल का प्रयोग करता हुआ एक काक अर्थात कौवे के बजे में आया:-

सुरपति सुत धरि बायस बेषा। सठ चाहत रघुपति बल देखा॥
जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मंदमति पावन चाहा॥
अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह।
ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह॥
देवराज इन्द्र का मूर्ख पुत्र जयन्त कौए का रूप धरकर श्री रघुनाथजी का बल देखना चाहता है। जैसे महान मंदबुद्धि चींटी समुद्र का थाह पाना चाहती हो॥श्री रघुनाथजी, जो अत्यन्त ही कृपालु हैं और जिनका दीनों पर सदा प्रेम रहता है, उनसे भी उस अवगुणों के घर मूर्ख जयन्त ने आकर छल किया॥

सीता चरन चोंच हति भागा। मूढ़ मंदमति कारन कागा॥
चला रुधिर रघुनायक जाना। सींक धनुष सायक संधाना।।
-वह मूढ़, मंदबुद्धि कारण से (भगवान के बल की परीक्षा करने के लिए) बना हुआ कौआ सीताजी के चरणों में चोंच मारकर भागा। जब माता जानकी के चरणों से रक्त बह चला, तब श्री रघुनाथजी ने जाना और धनुष पर सींक (सरकंडे) का बाण संधान किया और उसे दिव्य मंत्र के उच्चारण द्वारा शक्ति प्रदान कि।

प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा। चला भाजि बायस भय पावा॥
धरि निज रूप गयउ पितु पाहीं। राम बिमुख राखा तेहि नाहीं॥
मंत्र से प्रेरित होकर वह ब्रह्मबाण, कौवा रूपी जयंत की और अतिशय गति से दौड़ा, जिसे देख क्षण भर पूर्व जो श्रीराम को एक साधारण  मानकर अहंकार के वशीभूत होकर उनकी परीक्षा लेने की उद्दंडता करने वाला जयंत अर्थात कौआ भयभीत होकर भाग चला। वह अपना असली रूप धरकर पिता इन्द्र के पास गया, पर श्री रामजी का विरोधी जानकर इन्द्र ने उसको नहीं रखा॥

हे मित्रों यंहा एक पिता ने भी अपने पुत्र की रक्षा करन के अपने कर्तव्य से स्वय को विमुख कर लिया, क्योंकि उनका पुत्र जयंत प्रभु श्रीराम से छल कर बैठा था और यही नहीं उसने अपने ताकत और अहंकार के मद मे चूर होकर माता जानकी के चरणों को घायल भी कर दिया था अत: ऐसे राम द्रोही को भला कौन शरण देने का साहस प्रदान कर सकता था।

सर्वतीर्थमयी  माता  सर्वदेवमयः  पिता
मातरं पितरं तस्मात्  सर्वयत्नेन पूजयेत्
मनुष्य के लिये उसकी माता सभी तीर्थों के समान तथा पिता सभी देवताओं के समान पूजनीय होते है।अतः उसका यह परम् कर्तव्य है कि वह् उनका अच्छे से आदर और सेवा करे। परन्तु अहंकारी जयंत ने अपने पिता के उपदेश को अस्वीकार कर प्रभु श्रीराम से छल करने का दुस्साहस किया था, अत: उसको उसके कर्मो का दंड तो मिलना स्वाभाविक था।

अपने पिता की  शरण प्राप्त ना होने पर जयंत का ह्रदय व्याकुलता और भय से त्राहि त्राहि कर उठा, वो अपने जिवन कि रक्षा करने हेतु पिता के द्वार से विमुख किसी अन्य देव के शरण कि प्राप्ति हेतु इधर उधर भागने लगा।

भा निरास उपजी मन त्रासा। जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा॥
ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका। फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका॥
-तब वह निराश हो गया, उसके मन में भय उत्पन्न हो गया, जैसे दुर्वासा ऋषि को चक्र से भय हुआ था। वह ब्रह्मलोक, शिवलोक आदि समस्त लोकों में थका हुआ और भय-शोक से व्याकुल होकर भागता फिरा परन्तु एक राम द्रोही को भला क्यों शरणागत कि प्राप्ति होती।

काहूँ बैठन कहा न ओही। राखि को सकइ राम कर द्रोही ॥
मातु मृत्यु पितु समन समाना। सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना॥3॥
-(पर रखना तो दूर रहा) किसी ने उसे बैठने तक के लिए नहीं कहा। श्री रामजी के द्रोही को कौन रख सकता है? (काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) है गरुड़ ! सुनिए, उसके लिए माता मृत्यु के समान, पिता यमराज के समान और अमृत विष के समान हो जाता है, जो प्रभु श्रीराम से द्वेश रख उनसे छल करता है। मित्र, सैकड़ों शत्रुओं की सी करनी करने लगता है। देवनदी गंगाजी उसके लिए वैतरणी (यमपुरी की नदी) हो जाती है। हे भाई! सुनिए, जो श्री रघुनाथजी के विमुख होता है, समस्त जगत उनके लिए अग्नि से भी अधिक गरम (जलाने वाला) हो जाता है॥

हे मित्रों हमारे साधु संतो का ह्रदय अत्यंत हि कोमल और दया तथा करुणा से भरा होता है। सनातन धर्म के साधु संत सदैव अपने शरणागत कि रक्षा करने का हर संभव उपाय करते हैं, जिसे सम्पूर्ण समाज ठुकरा देता है, उसे सनातन धर्म के संत स्वीकार कर उसके सद्चरित्र का निर्माण करते हैं और सत्य, धर्म और कर्म कि दिशा में उसके जीवन को जोडकर उसे पूर्ण: समाज में स्थापित कर देते हैं।

नारद देखा बिकल जयंता। लगि दया कोमल चित संता॥
पठवा तुरत राम पहिं ताही। कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही॥5॥
:-नारदजी ने जयन्त को व्याकुल देखा तो उन्हें दया आ गई, क्योंकि संतों का चित्त बड़ा कोमल होता है। उन्होंने उसे (समझाकर) तुरंत श्री रामजी के पास भेज दिया। उसने (जाकर) पुकारकर कहा- हे शरणागत के हितकारी! मेरी रक्षा कीजिए॥ इस प्रकार हे मित्रों एक संत ने अपने कर्तव्य का पालन करते हुए स्वय की शरण में आए जयंत का उचित मार्गदर्शन कर उसका उद्धार कर दिया।

आतुर सभय गहेसि पद जाई। त्राहि त्राहि दयाल रघुराई॥
अतुलित बल अतुलित प्रभुताई। मैं मतिमंद जानि नहीं पाई॥6॥
:-आतुर और भयभीत जयन्त ने जाकर श्री रामजी के चरण पकड़ लिए (और कहा-) हे दयालु रघुनाथजी! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए। आपके अतुलित बल और आपकी अतुलित प्रभुता (सामर्थ्य) को मैं मन्दबुद्धि जान नहीं पाया था॥

निज कृत कर्म जनित फल पायउँ। अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ॥
सुनि कृपाल अति आरत बानी। एकनयन करि तजा भवानी॥
:-अपने कर्म से उत्पन्न हुआ फल मैंने पा लिया। अब हे प्रभु! मेरी रक्षा कीजिए। मैं आपकी शरण में  आया हूँ। (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! कृपालु श्री रघुनाथजी ने उसकी अत्यंत आर्त्त (दुःख भरी) वाणी सुनकर उसे एक आँख का काना करके  जीवन दान दे दिया।।

कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित।
प्रभु छाड़ेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम॥2॥
:-उसने मोह और अहंकार वश द्रोह किया था, इसलिए यद्यपि उसका वध ही उचित था, पर प्रभु ने कृपा करके उसे छोड़ दिया। श्री रामजी के समान कृपालु और कौन होगा?॥

रघुपति चित्रकूट बसि नाना। चरित किए श्रुति सुधा समाना॥
बहुरि राम अस मन अनुमाना। होइहि भीर सबहिं मोहि जाना॥
:-चित्रकूट में बसकर श्री रघुनाथजी ने बहुत से चरित्र किए, जो कानों को अमृत के समान (प्रिय) हैं। फिर (कुछ समय पश्चात) श्री रामजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि मुझे सब लोग जान गए हैं, इससे (यहाँ) बड़ी भीड़ हो जाएगी अत: उन्होंने उक्त स्थान को छोड़ देने का निर्णय लिया।

मित्रों जयंत कि भांति हि कांग्रेस पार्टी और उनके कई नेताओं ने  राम द्रोह का पाप किया था और उनके कर्मो का फल उन्हें प्राप्त हुआ। आप देख रहे हैं कैसे कांग्रेस एक प्रमुख राष्ट्रीय दल से क्षेत्रीय दल में लगभग परिवर्तित हो चुकी है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम को काल्पनिक कहने वाले नेता आज अपने राजनितिक जीवन के हासिये पर पड़े हैं।

इसी प्रकार मित्रों कुछ अन्य विपक्षी नेताओं ने भी सनातन समाज के संतो का अपमान करना अपना नैतिक कर्तव्य बना लिया है और वो भी श्रीरामचरितमानस के कुछ चौपाइयो के मर्म और अर्थ को जाने या समझे बिना उनकी कटु आलोचना कर रहे हैं और यही नहीं इस पवित्र ग्रंथ को नफरत फैलाने वाला ग्रंथ बता रहे हैं।

ये जयंत से भी अधिक मोह और अहंकार के वश में होकर मिथ्या प्रवन्चना और अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं और इन्ही कि मूर्खता के बारे में हमारे शास्त्र कहते हैं :-

अज्ञ: सुखमाराध्य: सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञ:।
ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्माऽपि तं नरं न रञ्जयति।।३।।
जो अज्ञानी है उसे सरलता से प्रसन्न किया जा सकता है। जो विशेष बुद्धिमान् है उसे और भी आसानी से अनुकूल बनाया जा सकता है।किन्तु जो मनुष्य अल्प ज्ञान से गर्वित है उसे स्वयं ब्रह्मा भी प्रसन्न नहीं कर सकते (मनुष्य की तो बात ही क्या है?)।।३।।(भर्तृहरि के नीतिशतक)

मित्रों ये वहीं अल्पज्ञानी, महामूर्ख, अहंकारी और मोह में अंधे होकर प्रभु श्रीराम से द्रोह करने वाले लोग है, जिन्हें ना तो ज्ञान दिया जा सकता है और ना समझाया जा सकता है। मित्रों ये दुराग्रही व्यक्तित्व वाले जीव हैं, जिन्होंने यदि तय कर लिया कि वो किसी सुंदर वस्तु में कुरुपता, किसी अच्छाइ में बुराई, सत्य में असत्य और धर्म मे अधर्म के तत्व को हि देखेंगे और यदि ये तत्व ना मिले तो स्वय इसे काल्पनिक रूप से उससे जोड कर बताएंगे। दुराग्रह से पीड़ित होकर प्रदुषण फैलायेंगे।

लभेत सिकतासुतैलमपि यत्नत: पीडयन् पिबेच्चमृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दित:।कदाचिदपि पर्यटञ्छशविषाणमासादये-न्न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत्।।५।।
यत्नपूर्वक निचोड़ने पर बालू से तेल प्राप्त हो सकता है, प्यासा व्यक्ति मृगमरीचिकाओं में भी जल पी सकता है। भ्रमण करते हुए कभी खरगोश के सिर पर सींग पाया जा सकता है, परन्तु दुराग्रही मूर्ख के चित्त को कभी भी प्रसन्न नहीं किया जा सकता।।५।।(भर्तृहरि के नीतिशतक)

मूर्खस्य पञ्चचिह्नानि गर्वो दुर्वचनं तथा।
क्रोधस्य दृढ़वादश्च परवाक्येष्वनादर।।
अहंकार (गर्व), अपशब्द का प्रयोग, क्रोध, हठ से भरी बातें करना और दूसरों की बात का अनादर करना। मूर्ख लोग अहंकार में ही जीते हैं, हर वक्त लोगों को अपशब्द ही बोलते हैं, उनकी वाणी अप्रिय होती है, दूसरों को नीचा दिखाने में ही उनको रस होता हैं, बिना मतलब का क्रोध करते हैं, दूसरों की बात का अनादर करके उनके साथ बुरा व्यवहार करते हैं।

और हे मित्रों उपर्युक्त प्रसंग से यही शिक्षा प्राप्त होती है कि दम्भ, अहंकार और मोह के वशीभूत होकर किया जाने वाला प्रत्येक  कार्य, व्यक्ति के जीवन को भय, व्याकुलता, अकुलाहट और असमान्य स्थितियो से भर देता है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम  तो अपने साथ छल करने वाले दुष्टो और मूर्खो को भी अभयदान देते हैं और उनके जीवन को इस भवसागर से पार लगा देते हैं त्: ऐसे करुणामयि, दया के सागर और सभी का भला करने वाले रघुनाथ जी से द्रोह कोई कैसे कर सकता है।
गंगेवाधविनाशिनो जनमनः सन्तोषसच्चन्द्रिका
तीक्ष्णांशोरपि सत्प्रभेव जगदज्ञानान्धकारावहा ।
छायेवाखिलतापनाशनकारी स्वर्धेनुवत् कामदा
पुण्यैरेव हि लभ्यते सुकृतिभिः सत्संगति र्दुर्लभा ॥

गंगा की तरह पाप का नाश करनेवाली, चंद्र किरण की तरह शीतल, अज्ञानरुपी अंधकारका नाश करनेवाली, ताप को दूर करनेवाली, कामधेनु की तरह इच्छित चीज देनेवाली, बहुत पुण्य से प्राप्त होनेवाली सत्संगति दुर्लभ है और ये केवल सनातन धर्म के संतो में हि अक्सर पायी जाती है। संतो कि संगति से इस जीवन को यथार्थ का अनुभव होता है, जिसे अहंकारी और अल्पज्ञानी ना तो समझ सकते हैं और ना हि जयंत कि भांति अपनी गलती स्वीकार कर अपने जीवन का उद्धार कर सकते हैं।

तो हे मित्रों प्रेम से बोलो जय सियाराम।🙏

लेखन और संकलन :- नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)
aryan_innag@yahoo.co.in

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