छोटा भाई और उसका अपने बड़े भाई से प्रेम और उसके प्रति समर्पण।
जी हाँ मित्रों आज का आधुनिक परिवेश कभी कभी हि हमें छोटे भाइयों का अपने अग्रज के प्रति प्रेम और समर्पण को देखने, सुनने और पढ़ने का अवसर प्रदान करता है, क्योंकि स्वार्थ, लालच, घृणा, ईर्ष्या और मैं की परिधि में बंध चुके इन रिश्तों ने अपना महत्व लगभग खो सा दिया है।
परन्तु मर्यादा पुरुषोत्तम की सम्पूर्ण जीवन लीला में भाई का भाई के प्रति स्नेह, सम्मान और समर्पण का दर्शाया गया स्वरूप आज भी प्रसांगिक है। आज हम सर्वप्रथम लक्ष्मण जी के भाई प्रेम के ऊपर चर्चा और परिचर्चा करेंगे।
लक्ष्मण जी अपने अग्रज प्रभु श्रीराम के राज अभिषेक का सुसमाचार सुनकर अत्यंत प्रश्न थे और वो पूरे समर्पण से उसकी तैयारी में युद्धस्तर पर मग्न हो गये। विश्राम की सबसे लम्बी रात्रि पहर के बीत जाने के पश्चात आने वाली भोर ने जब उन्हें कुछ अनहोनी के घटित होने का अभास कराया तो उनका ह्रदय विचलित हो उठा।
और सुबह होते होते जब यह ह्रदय विदारक समाचार उनके कानो में पड़ा कि " महाराज दशरथ ने माता कैकेयि के कथन पर श्रीराम को वनवास और भरत को अयोध्या के राज प्रदान करने का निर्णय ले लिया है तो उनके क्रोध की कोई सीमा तक ना रही। पर जब उन्होंने ये सुना कि उनके बड़े भईया ने स्वय इसे स्वीकार कर लिया है तो उनका क्रोध और तीव्र हो गया।
वो प्रभु श्रीराम के समक्ष आए और उन्होंने कहा:- भईया ये मैं क्या सुन रहा हूँ, महाराज दशरथ ने उस कैकेयि के कहने पर आप से राज सिंहासन छीन लिया।
प्रभु श्रीराम:- लक्ष्मण के अवेश के मर्म को समझते हुए , कहा लक्ष्मण तुमने माता कैकेयि को कबसे कैकेयि कहना शुरू कर दिया।
लक्ष्मण:- भईया आप उस कुलघतिनि को माता कहके पुकारो, मैं उसे सम्मान नहीं दे सकता।
श्रीराम:- बस करो लक्ष्मण माता को इस प्रकार के शब्दों से सम्बोन्धित करना बंद कर दो।
लक्ष्मण:- भईया आप तनिक भी विचार ना करें, मैं अकेला हि महाराज दशरथ के चतुरंगिनी सेना का सन्हार कर सकता हूँ आने दो भरत को उसे भी छठि का दूध याद दिला दूँगा।
प्रभु श्रीराम:- लक्ष्मण अपनी मर्यादा को ना भूलो, तुम्हें अपने पिता के सम्बन्ध में ऐसी नीच सोच नहीं रखनी चाहिए।
अरे भाई मै तो ये सोच कर लज्जित हो उठा कि मेरे स्नेह और प्रेम में बंधकर मेरे यशश्वी और कीर्तिकारि पिता कि ऐसी दयनीय दशा हो गई। मेरे बलशाली पिता किसी असहाय मनुष्य कि भांति अपनी शैय्या पर पड़े हैं, उनकी इस दयनीय दशा का कारण मै हूँ, अत: ये तो मेरे लिए सबसे बड़ा दुर्भाग्य है, अत: अपने पिता कि कीर्ति को बढ़ाने हेतु मैंने उनके वचन का पालन करना स्वीकार किया जो कि एक पुत्र का परम कर्तव्य था।
लक्ष्मण:- भईया मैं उस पिता को कैसे सम्मान दूँ, जिसने अपने धर्मात्मा पुत्र को सिंहासन देने कि घोषणा करके उसे छीन लिया हो, सारी प्रजा विद्रोह करने के लिए तैयार है। अब छोडे सबको, आपका यह दास हि सक्षम है महाराज दशरथ और भरत को बंदी बनाकर आपके सभा में उपस्थित करने को। याद रखिये भईया अन्याय सहन करना क्षत्रिय धर्म के विरुद्ध है।
प्रभु श्रीराम्:- लक्ष्मण तुम्हारी इस निम्न कोटि की सोच ने मुझे लज्जित कर दिया, जाओ अबसे अपना मुख मुझे कभी मत दिखलाना। अपने स्वामी के मुख से ऐसे कठोर वचन सुन लक्ष्मण जी का ह्रदय द्रवित हो उठा, प्रतिशोध कि भावना ने अचानक अपना स्वरूप परिवर्तित कर लिया और वो प्रत्यक्ष घट रही इस घटना के समाचार ने मानो उनका सबकुछ छीन लिया।
समाचार जब लछिमन पाए। ब्याकुल बिलख बदन उठि धाए॥
कंप पुलक तन नयन सनीरा। गहे चरन अति प्रेम अधीरा॥
भावार्थ:-जब लक्ष्मणजी ने समाचार पाए, तब वे व्याकुल होकर उदास मुँह उठ दौड़े। शरीर काँप रहा है, रोमांच हो रहा है, नेत्र आँसुओं से भरे हैं। प्रेम से अत्यन्त अधीर होकर उन्होंने श्री रामजी के चरण पकड़ लिए॥
अब लक्ष्मण जो को अंदर हि अंदर यह भय सताने लगा कि, कंही भईया उन्हें अपने साथ ले जाने से इंकार ना कर दे, अत: अपने भईया के चरण पकड़ अपने आँसुओ से धोने लगे। अपने अनीज को इस प्रकार अपने प्रेम में रोता बिलखता देख, दया के सागर प्रभु श्रीराम द्रवित हो उठे और उन्हें अपनी कठोरता का आभास हुआ और
बोले बचनु राम नय नागर। सील सनेह सरल सुख सागर॥
तात प्रेम बस जनि कदराहू। समुझि हृदयँ परिनाम उछाहू॥
भावार्थ:-तब नीति में निपुण और शील, स्नेह, सरलता और सुख के समुद्र श्री रामचन्द्रजी वचन बोले- हे तात! परिणाम में होने वाले आनंद को हृदय में समझकर तुम प्रेमवश अधीर मत होओ॥
अस जियँ जानि सुनहु सिख भाई। करहु मातु पितु पद सेवकाई॥
भवन भरतु रिपुसूदनु नाहीं। राउ बृद्ध मम दुखु मन माहीं॥
भावार्थ:-हे भाई! हृदय में ऐसा जानकर मेरी सीख सुनो और माता-पिता के चरणों की सेवा करो। भरत और शत्रुघ्न घर पर नहीं हैं, महाराज वृद्ध हैं और उनके मन में मेरा दुःख है॥
* मैं बन जाउँ तुम्हहि लेइ साथा। होइ सबहि बिधि अवध अनाथा॥
गुरु पितु मातु प्रजा परिवारू। सब कहुँ परइ दुसह दुख भारू॥
भावार्थ:-इस अवस्था में मैं तुमको साथ लेकर वन जाऊँ तो अयोध्या सभी प्रकार से अनाथ हो जाएगी। गुरु, पिता, माता, प्रजा और परिवार सभी पर दुःख का दुःसह भार आ पड़ेगा॥
प्रभु श्रीराम के द्वारा बोले गए प्रिय वचन को सुनकर, लक्ष्मण जी समझ गए, कि प्रभु उन्हें साथ चलने की आज्ञा देने से विमुख हो रहे हैं, परन्तु वो तो अपने स्वामी से एक पल भी दूर रहने को तैयार नहीं थे, अत: बड़े हि करुणामय निवेदन करूणानिधान से करते हुए बोले...
दीन्हि मोहि सिख नीकि गोसाईं। लागि अगम अपनी कदराईं॥
नरबर धीर धरम धुर धारी। निगम नीति कहुँ ते अधिकारी॥
(:-हे स्वामी! आपने मुझे सीख तो बड़ी अच्छी दी है, पर मुझे अपनी कायरता से वह मेरे लिए अगम (पहुँच के बाहर) लगी। शास्त्र और नीति के तो वे ही श्रेष्ठ पुरुष अधिकारी हैं, जो धीर हैं और धर्म की धुरी को धारण करने वाले हैं॥
मैं सिसु प्रभु सनेहँ प्रतिपाला। मंदरु मेरु कि लेहिं मराला॥
गुर पितु मातु न जानउँ काहू। कहउँ सुभाउ नाथ पतिआहू॥
:-मैं तो प्रभु (आप) के स्नेह में पला हुआ छोटा बच्चा हूँ! कहीं हंस भी मंदराचल या सुमेरु पर्वत को उठा सकते हैं! हे नाथ! स्वभाव से ही कहता हूँ, आप विश्वास करें, मैं आपको छोड़कर गुरु, पिता, माता किसी को भी नहीं जानता॥
मागहु बिदा मातु सन जाई। आवहु बेगि चलहु बन भाई॥
मुदित भए सुनि रघुबर बानी। भयउ लाभ बड़ गइ बड़ि हानी॥
भावार्थ:-(और कहा-) हे भाई! जाकर माता से विदा माँग आओ और जल्दी वन को चलो! रघुकुल में श्रेष्ठ श्री रामजी की वाणी सुनकर लक्ष्मणजी आनंदित हो गए। बड़ी हानि दूर हो गई और बड़ा लाभ हुआ!॥
अब यंहा इस प्रसंग का तनिक सूक्ष्म विवेचना यदि हम करें तो पाएंगे कि:-
अपने बड़े भाई के प्रेम और सम्मान में बँधा अनुज किस प्रकार अपने भाई के साथ होने वाले अन्याय को बर्दास्त नहीं कर पा रहा है।
अनुज अपने बड़े भाई के प्रति हो रहे अन्याय के लिए अपने पिता और माता को उत्तरदाई समझने लगता है और उनके प्रति कठोर शब्दों का प्रयोग करने से भी परहेज नहीं करता।
अनुज अपने बड़े भाई के प्रति हो रहे अन्याय के लिए अपने जनक से भी युद्ध के लिए तैयार है।
परन्तु बड़े भाई के द्वारा अवेश में आकर कि जाने वाली उद्दंडता के लिए फटकारे जाने पर अपनी गलती का एहसास कर पुन: अपने बड़े भाई के चरण की वंदना करने लगता है।
वो अनुज अपने बड़े भाई को अकेले वन में जाने से ना केवल रोक लेता है, अपितु स्वय भी उनके साथ चलने कि आज्ञा प्राप्त कर लेता है।
तं व्रजन्तं प्रियो भ्राता लक्ष्मणोऽनुजगाम ह ।
स्नेहाद्विनिसम्पन्नस्सुमित्रानन्दवर्धन: ।।1.1.25।।
भ्रातरं दयितो भ्रातुस्सौभ्रात्रमनुदर्शयन् ।
राम के प्रिय भाई लक्ष्मण उनकी ओर खिंचे चले आते हैं। शील से सम्पन्न वह अपनी माता सुमित्रा के आनन्द को बढ़ाने वाला है। अपने भ्रातृ प्रेम का प्रदर्शन करते हुए, उन्होंने राम का अनुसरण किया जो वन को प्रस्थान कर रहे थे।
रामायणमें हमें मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके यशोमय दिव्य शरीरकी प्रत्यक्ष झाँकी मिलती है । रामायण केवल हिंदू संस्कृतिका ही नहीं, मानव संस्कृतिका भी प्राण है । यदि रामायणके ही आदर्शोपर मानव जीवनका संगठन और संचालन किया जाय तो वह दिन दूर नहीं कि सर्वत्र रामराज्यके समान सुख शान्तिका स्रोत बहने लगे ।
मित्रों क्या आज के समय में ऐसे भाई प्रेम का अप्रतिम उदाहरण मिल सकता है, नहीं ना, अरे आज का भाई तो ऐसा है कि ऐसे अवसर को वाह गवाता नहीं अपितु बड़े भाई को शिघ्रता से वन भेजकर, दूसरे बड़े भाई भरत के आने से पूर्व स्वय अयोध्या की गद्दी को प्राप्त करने की चेष्टा करता, परन्तु यही तो भिन्नता है। प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण का अभूतपूर्व प्रेम अद्भुत और धारण किये जाने योग्य है। याद रखिये इस भाई प्रेम से ऊपर केवल एक और भाई का प्रेम है, जिस पर आने वाले किसी खंड में चर्चा और परिचर्चा करेंगे।
तब तक के लिए जय श्रीराम।🙏🕉️
लेखन और संकलन:- नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)
aryan_innag@yahoo.co.in