आज हम माता सुमित्रा के त्याग, तपस्या और अद्भुत बलिदान के ऊपर चर्चा और परिचर्चा करेंगे।
माँ तुझसे तेरे बच्चों का बड़ा है अद्भुत नाता।
पूत कपूत सुने हैं पर ना माता सूनी कुमाता।
सब पे करुणा दरसाने वाली अपनी
ममता बरसाने वाली, सबके दुःख को तू हि निवारती
ओ माता हम सब उतारे तेरी आरती।
उपर्युक्त पंक्तियां मात्र भजन नहीं है, अपितु एक माँ की अनुपम आभा को व्यक्त करने वाली हैं। हमने रामायण में माता कौशल्या और माता कैकेयी के बारे में तो बहुत कुछ जाना और समझा है, परन्तु उतनी गहराई से माता सुमित्रा के व्यक्तित्व को समझने की शायद कोशिश नहीं की है।
आइये माता सुमित्रा के संदर्भ में कुछ ज्ञान का आदान प्रदान कर लेते हैं। जैसा कि महर्षि वाल्मीकि ने अपनी रचना के अंतर्गत माता कौशल्या को कौशल प्रदेश और माता कैकेयी को कैकेय प्रदेश की राजकुमारी बताया है परन्तु माता सुमित्रा के संदर्भ में ऐसा वर्णन नहीं किया है। अधिकांश विद्वानो का मत है कि वो काशी नरेश की सुपुत्री थी पर महाकवि कालिदास उन्हें मगध राज्य से जोड़ते हुए "रघुवंश" में लिखते हैं तो तीनों रानियों में सर्वप्रथम सुमित्रा जी को स्थान देते हैं ।
तमलभन्त पति पतिदेवताः शिखारिणामिव सागरमापगाः ॥ मगधकोसलकेकयशासिनां दुहितरोऽहितरोपितमार्गणम् ॥ १७॥
:- शत्रुओं के ऊपर बाण का संधान करने वाले चक्रवर्ती महाराज दशरथ को मगधराज कन्या सुमित्रा, कोशलराज कन्या भगवती कौशल्या तथा कैकय राजकन्या कैकयी ने उसी प्रकार पति रूप में प्राप्त किया जिस प्रकार पर्वत प्रसूता नदियां समुद्र को प्राप्त कर कृतकृत्य हो जाती है।
महारानी सुमित्रा महाराज दशरथ कि प्रथम पत्नी माता कौशल्या से अत्यंत प्रेम करती थी और उनकी सेवा एक छोटी और आज्ञाकारी बहन की तरह करती थी। माता सुमित्रा ने अपने अस्तित्व को माता सुमित्रा और महाराज दशरथ की सेवा और अन्य धार्मिक कार्यों के लिए समर्पित कर दिया था। माता कैकेयी के से भी वो उतना हि प्रेम और स्नेह करती थी, परन्तु माता कैकेयी तनिक अधीर और अभिमानी थी अत: महाराज पर वो अत्यधिक अधिकार जताने का प्रयास करती थी। परन्तु इन सभी से परे माता सुमित्रा अपने त्यागमयी जीवन और बलिदान से स्वय को परिष्कृत करती रहती थी।
सभी बालक माता सुमित्रा की देखरेख में पले बढ़े और सभी का स्नेह और प्रेम माता सुमित्रा की ओर अत्यधिक था। माता सुमित्रा कि गोद में बैठने के लिए बालको में होड़ सी मच जाती थी। माता सुमित्रा से बालको का यह प्रेम देख कभी कभी अन्य माताये रुष्ट हो जाया करती थी और ये दृश्य देख माता सुमित्रा बालको को उनके पास छोड़ अन्य कार्य का बहाना बना हसती हुई चली जाती थी और इधर सुमित्रा के इस बुद्धिमतापूर्ण कार्य से अन्य माताये उनको खूब स्नेह और प्रेम करने लगती थी।
माता को जब यह समाचार मिला कि प्रभु श्री राम को राजगद्दी देने का निश्चय किया गया है, तो सबसे अधिक वो प्रसन्न हुई और हर्ष उल्लास से अपने ह्रदय को भर कर वो उसकी तैयारी में लग गई। परन्तु जैसे उन्हें सुबह सबेरे माता कैकेयी के हठ और उनके द्वारा मांगे गए दो वारदानो की बात पता चली वो महाराज दशरथ की भांति हि दुःख के सागर में जा पड़ी। अचानक इस विपत्ति कि घड़ी में स्वय उनको तो अपनी सुध बुध ना रही, परन्तु वो अपनी दीदी माता कौशल्या के ऊपर हुए आघात की वेदना को सोच स्वय को सम्हाल उनकी सेवा में जुट गई।
इधर लक्ष्मण जी के बारम्बार अनुनय विनय करने के पश्चात प्रभु श्रीराम ने उन्हें अपने साथ वन में चलने की आज्ञा प्रदान कर दी और कहा की जाओ सर्वप्रथम माता से आज्ञा प्राप्त करके आओ।
हरषित हृदयँ मातु पहिं आए। मनहुँ अंध फिरि लोचन पाए॥
जाइ जननि पग नायउ माथा। मनु रघुनंदन जानकि साथा॥
:-वे हर्षित हृदय से माता सुमित्राजी के पास आए, मानो अंधा फिर से नेत्र पा गया हो। उन्होंने जाकर माता के चरणों में मस्तक नवाया, किन्तु उनका मन रघुकुल को आनंद देने वाले श्री रामजी और जानकीजी के साथ था॥
पूँछे मातु मलिन मन देखी। लखन कही सब कथा बिसेषी।
गई सहमि सुनि बचन कठोरा। मृगी देखि दव जनु चहुँ ओरा॥
:-माता ने उदास मन देखकर उनसे (कारण) पूछा। लक्ष्मणजी ने सब कथा विस्तार से कह सुनाई। सुमित्राजी कठोर वचनों को सुनकर ऐसी सहम गईं जैसे हिरनी चारों ओर वन में आग लगी देखकर सहम जाती है॥
लखन लखेउ भा अनरथ आजू। एहिं सनेह सब करब अकाजू॥
मागत बिदा सभय सकुचाहीं। जाइ संग बिधि कहिहि कि नाहीं॥
:-लक्ष्मण ने देखा कि आज (अब) अनर्थ हुआ। ये स्नेह वश काम बिगाड़ देंगी! इसलिए वे विदा माँगते हुए डर के मारे सकुचाते हैं (और मन ही मन सोचते हैं) कि हे विधाता! माता साथ जाने को कहेंगी या नहीं॥
माता सुमित्रा उस वक़्त की परिस्थितियों से पूर्णतया रुष्ट थी, परन्तु अपनी भावनाओं के उफान पर नियंत्रण रखते हुए उन्होंने अत्यंत हि धीरज से कार्य लिया
धीरजु धरेउ कुअवसर जानी। सहज सुहृद बोली मृदु बानी॥
तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही॥
भावार्थ:-परन्तु कुसमय जानकर धैर्य धारण किया और स्वभाव से ही हित चाहने वाली सुमित्राजी कोमल वाणी से बोलीं- हे तात! जानकीजी तुम्हारी माता हैं और सब प्रकार से स्नेह करने वाले श्री रामचन्द्रजी तुम्हारे पिता हैं!॥
अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू॥
जौं पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं॥
:-जहाँ श्री रामजी का निवास हो वहीं अयोध्या है। जहाँ सूर्य का प्रकाश हो वहीं दिन है। यदि निश्चय ही सीता-राम वन को जाते हैं, तो अयोध्या में तुम्हारा कुछ भी काम नहीं है॥
धन्य है ये माता जिसने एक पुत्र शत्रुघ्न को माता कैकेयी के पुत्र भरत की सेवा में समर्पित कर दिया है, जो उनके नैनो से दूर है अब वहीं माता अपने दूसरे पुत्र को माता कौशल्या के पुत्र और अपने सबसे प्रिय राम की सेवा में वन भेजने को तत्पर है।
पूजनीय प्रिय परम जहाँ तें। सब मानिअहिं राम के नातें॥
अस जियँ जानि संग बन जाहू। लेहु तात जग जीवन लाहू॥
:-जगत में जहाँ तक पूजनीय और परम प्रिय लोग हैं, वे सब रामजी के नाते से ही (पूजनीय और परम प्रिय) मानने योग्य हैं। हृदय में ऐसा जानकर, हे तात! उनके साथ वन जाओ और जगत में जीने का लाभ उठाओ!॥
दोहा :
भूरि भाग भाजनु भयहु मोहि समेत बलि जाउँ।
जौं तुम्हरें मन छाड़ि छलु कीन्ह राम पद ठाउँ॥
:-मैं बलिहारी जाती हूँ, (हे पुत्र!) मेरे समेत तुम बड़े ही सौभाग्य के पात्र हुए, जो तुम्हारे चित्त ने छल छोड़कर श्री राम के चरणों में स्थान प्राप्त किया है॥
यंहा पर माता ने अपनी ममता को अपने पुत्र की बेडियां नहीं बनने दी, अपितु एक कदम आगे बढ़कर उसे अत्यंत उत्साहित किया और यही नहीं अपने पुत्र को शिक्षा देते हुए कहा कि आज से श्रीराम तुम्हारे पिता और जानकी तुम्हारी माता हैं, उनके चरण ही तुम्हारे लिए सबकुछ हैं। हे पुत्र मुझे तुम पर अभिमान है कि ऐसी परिस्थिति में तुम्हारे चित्त में किसी भी प्रकार के छल ने अपना स्थान नहीं बनाया और तुम निस्वार्थ प्रेम से सराबोर हो अपने बड़े भाई की सेवा के लिए प्रेरित हो और वन का जीवन जीने के लिए तैयार हो।
धन्य है माता सुमित्रा और इनका त्याग।
तुम्हरेहिं भाग रामु बन जाहीं। दूसर हेतु तात कछु नाहीं॥
सकल सुकृत कर बड़ फलु एहू। राम सीय पद सहज सनेहू॥
:-तुम्हारे ही भाग्य से श्री रामजी वन को जा रहे हैं। हे तात! दूसरा कोई कारण नहीं है। सम्पूर्ण पुण्यों का सबसे बड़ा फल यही है कि श्री सीतारामजी के चरणों में स्वाभाविक प्रेम हो॥
रागु रोषु इरिषा मदु मोहू। जनि सपनेहुँ इन्ह के बस होहू॥
सकल प्रकार बिकार बिहाई। मन क्रम बचन करेहु सेवकाई॥
भावार्थ:-राग, रोष, ईर्षा, मद और मोह- इनके वश स्वप्न में भी मत होना। सब प्रकार के विकारों का त्याग कर मन, वचन और कर्म से श्री सीतारामजी की सेवा करना॥
उपदेसु यहु जेहिं तात तुम्हरे राम सिय सुख पावहीं।
पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं॥
तुलसी प्रभुहि सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आसिष दई।
रति होउ अबिरल अमल सिय रघुबीर पद नित-नित नई॥
:-हे तात! मेरा यही उपदेश है (अर्थात तुम वही करना), जिससे वन में तुम्हारे कारण श्री रामजी और सीताजी सुख पावें और पिता, माता, प्रिय परिवार तथा नगर के सुखों की याद भूल जाएँ। तुलसीदासजी कहते हैं कि सुमित्राजी ने इस प्रकार हमारे प्रभु (श्री लक्ष्मणजी) को शिक्षा देकर (वन जाने की) आज्ञा दी और फिर यह आशीर्वाद दिया कि श्री सीताजी और श्री रघुवीरजी के चरणों में तुम्हारा निर्मल (निष्काम और अनन्य) एवं प्रगाढ़ प्रेम नित-नित नया हो!
ठीक ऐसे ही जब लक्ष्मण के लिए हनुमान संजीवनी लेने जाते हैं तो अयोध्या में भरत से मिलते हैं। समाचार सुनकर माता सुमित्रा भी आती है । लेकिन देखिए इस अवसर पर भी अपने पुत्र वियोग में भी उनका कहना क्या है ?
कपिसौं कहति सुभाय अँबके अंबक अँबु भरे हैं ।
रघुनन्दन बिनु बन्धु कुअवसर जधपि धनु दुसरे हैं ।
श्रीराम बुरे समय पर भाई से बिछड़ गए । जबकि उनके पास धनु बाण हैं। जिसके होते उन्हें किसी और की सहायता की आवश्यकता ही नहीं । वे अपने आप को धन्य समझती है कि उनके एक पुत्र का जीवन और मृत्यु दोनों श्रीराम के काम आया और उसी समय दूसरे पुत्र को भी वहां जाने का आदेश देती हैं । ऐसे में भी अधीर नहीं होती।
नतमस्तक हूँ मैं तेरे चरणों में, करूँ प्रणाम बारम्बार...
धन्य है तू माता वो पुत्र जिनकी तू जामाता है ।
माता सुमित्रा के त्याग और बलिदान के विषय में चर्चा और परिचर्चा करते जाएं आपको इसकी सीमा के दर्शन नहीं हो पाएंगे और माँ के ममता का अनुपम उदाहरण इस श्लोक के तहत दर्शाया जा सकता है:-
आदाय मांसमखिलं स्तनवर्जमंगे
मां मुञ्च वागुरिक याहि कुरु प्रसादम्।
अद्यापि शष्पकवलग्रहणानभिज्ञः
मद्वर्त्मचञ्चलदृशः शिशवो मदीयाः।।
एक मां आदमखोर के सामने आग्रह करती है कि तुम मेरे इस
शरीर के हर भाग को काट कर ले लो लेकिन मेरे दोनों स्तनों को
छोड़ दो क्योंकि मेरा एक छोटा सा बच्चा है, जिसने अभी तक घासखाने के लिए नहीं सीखा है वह केवल मेरे स्तनों का दूध पीकर हीरहता है वह बड़ी व्याकुलता से मेरा इंतजार कर रहा होगा इसलिए है।आदमखोर मेरे शरीर के स्तनों को छोड़ दो।
हमारा सनातन धर्म तो माँ के विषय में अपनी सम्पूर्ण भक्ति भावना को इस श्लोक के तहत दुनिया के सामने ले आता है:-
नास्ति मातृसमा छाया नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राणं नास्ति मातृसमा प्रपा।।
मां के जैसा ना कोई छाया दे सकता है और ना
ही कोई आश्रय ही दे सकता है और मां के समान
ना ही कोई हमें सुरक्षा ही दे सकता है मां इस पूरे
ब्रह्मांड में जीवन दायिनी है और उसके जैसा कोई दूसरा नहीं है।
माता सुमित्रा का जीवन दर्शन आज भी प्रासंगिक है और आधुनिक परिवेश में सनातन धर्मीयों के कुटुंब को सुरक्षित रखने हेतु प्रथम अनुकरणीय है। हम सबको इसे शिरोधार्य करना चाहिए।
जय श्रीराम प्रेम से बोलो राधे राधे हर हर महादेव जय श्री कृष्णा।🙏🕉️
लेखन और सनकलन :- नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)
aryan_innag@yahoo.co.in