मित्रों हमने मर्यादा पुरूषोतम श्रीराम के लीला के अंतर्गत पित-पुत्र का प्रेम, पुत्र का पितृ और मातृ भक्ति, पत्नी का पति धर्म, अनुज का अपने अग्रज के प्रति समर्पण और निस्वार्थ प्रेम और राजकुमारो का अपनी प्रजा के प्रति उत्तरदायित्व के निर्वहन के अनुपम दृश्य देखें, परन्तु आज हम जिस भाई का अपने बड़े भाई के प्रति प्रेम और समर्पण की बात करने जा रहे हैं, आज के परिवेश में उसकी मिसाल मिलना असंभव है।
उस भाई का प्रभु श्रीराम के ह्रदय में क्या स्थान है, यह महाकवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित हनुमान चलीसा की इन अनुपम पंक्तियो द्वारा बड़े हि सुंदर ढंग से व्यक्त किया गया है। प्रभु श्रीराम हनुमान को यश कहकर गले से लगा लेते हैं :-
"लाई सजीवन लखन जियाये, श्री रघुवीर हर्षि उर लाए।
रघुपति किन्ही बहुत बड़ाई, तुम मम प्रिय भरत सम भाई।।"
जी हाँ, मित्रों आखिर ऐसा क्या है, भरत में जिनका गुणगान प्रभु स्वय कर रहे हैं। मित्रों बचपन में हम जब भी श्रीरामलीला देखने जाया करते थे, तब बनारस के नाटी इमली क्षेत्र में होने वाले "भरत मिलाप" का तो अत्यंत व्यापक महत्व था और मुझे पूरी उम्मीद है कि अब तो और भी होगा। " भरत-मिलाप" देखने के लिए स्वय रामनगर के राजा आया करते थे और प्रथम आरती वहीं करते थे। "भरत-मिलाप" देखने के लिए पूरे भारत वर्ष से रामभक्त एकत्रित होते थे और मित्रों सच में वो दृश्य बड़ा हि अद्भुत और मार्मिक होता था, जब दोनों भाई आपस में एक दूसरे को कण्ठ से लगाते थे वंहा उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति भाव विभोर होकर अपने आँसुओ को रोक नहीं पाता था।
अब यंहा जिज्ञासा ये उत्पन्न होती है कि आखिर भरत का व्यक्तित्व कैसा था कि प्रभु स्वय उनकी प्रसन्शा कर रहे हैं, आइये देखते हैं। प्रभु श्रीराम माता सीता और अपने अनुज लक्ष्मण के साथ वन गमन कर चुके हैं। अयोध्या हि नहीं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में माता कैकेयी और देवी मंथरा को छोड़ प्रत्येक दुःख के सागर में डूबा हुआ है। पुत्र के वियोग में पिता ने अपने प्राण त्याग दिए हैं और सबके चेहरे पर केवल और केवल असहनीय पीड़ा के भाव ने कब्जा कर लिया है और ऐसे में भरत और शत्रुघ्न दोनों भाइ जब अयोध्या में प्रवेश करते हैं, तब....
हाट बाट नहिं जाइ निहारी। जनु पुर दहँ दिसि लागि दवारी॥
आवत सुत सुनि कैकयनंदिनि। हरषी रबिकुल जलरुह चंदिनि॥
:-बाजार और रास्ते देखे नहीं जाते। मानो नगर में दसों दिशाओं में दावाग्नि लगी है! पुत्र को आते सुनकर सूर्यकुल रूपी कमल के लिए चाँदनी रूपी कैकेयी (बड़ी) हर्षित हुई॥
कैकेई हरषित एहि भाँती। मनहुँ मुदित दव लाइ किराती॥
सुतिह ससोच देखि मनु मारें। पूँछति नैहर कुसल हमारें॥
:-एक कैकेयी ही इस तरह हर्षित दिखती है मानो भीलनी जंगल में आग लगाकर आनंद में भर रही हो। पुत्र को सोच वश और मन मारे (बहुत उदास) देखकर वह पूछने लगी- हमारे नैहर में कुशल तो है?॥
सकल कुसल कहि भरत सुनाई। पूँछी निज कुल कुसल भलाई॥
कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता॥
:-भरतजी ने सब कुशल कह सुनाई। फिर अपने कुल की कुशल-क्षेम पूछी। (भरतजी ने कहा-) कहो, पिताजी कहाँ हैं? मेरी सब माताएँ कहाँ हैं? सीताजी और मेरे प्यारे भाई राम-लक्ष्मण कहाँ हैं?॥
माता कैकेयी ने बड़े हि कुटिलता से स्वय का बचाव करते हुए अपने पुत्र भरत को महाराज के परलोक सिधार जाने वाला समाचार सुना दिया, कोमल ह्रदय भरत पर मानो वज्रपात सा हो गया, वो असहनीय पीड़ा के दलदल में मानो धंसकर जीवन प्राप्ति के लिए छटपटाने वाले जीव की भांति दयनीय अवस्था को प्राप्त हो गये: -
सुनत भरतु भए बिबस बिषादा। जनु सहमेउ करि केहरि नादा॥
तात तात हा तात पुकारी। परे भूमितल ब्याकुल भारी॥
:-भरत यह सुनते ही विषाद के मारे विवश (बेहाल) हो गए। मानो सिंह की गर्जना सुनकर हाथी सहम गया हो। वे 'तात! तात! हा तात!' पुकारते हुए अत्यन्त व्याकुल होकर जमीन पर गिर पड़े॥
चलत न देखन पायउँ तोही। तात न रामहि सौंपेहु मोही॥
बहुरि धीर धरि उठे सँभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी॥
:-(और विलाप करने लगे कि) हे तात! मैं आपको (स्वर्ग के लिए) चलते समय देख भी न सका। (हाय!) आप मुझे श्री रामजी को सौंप भी नहीं गए! फिर धीरज धरकर वे सम्हलकर उठे और बोले- माता! पिता के मरने का कारण तो बताओ॥
अब यंहा पर भरत के लिए प्रभु श्रीराम का क्या स्थान है, स्पष्ट दृष्टिगत होता है। भ्राताश्रेष्ठ भरत को जंहा इस बात का दुःख था कि उनके शीश से उनके जनक का साया उठ गया, वही इस तथ्य से अधिक दुःख था कि उनके पिता उन्हें प्रभु श्रीराम के चरणकमलो में सौपे बिना हि स्वर्गवासी हो गए और स्वय भरत अपने पिता के अंतिम क्षण में उनके साथ नहीं थे।
उनके आग्रह पर माता कैकेयी ने बड़ी ही कुटिलता से मंथरा और स्वय के द्वारा उतपन्न किये गए विषाक्त वातावरण की पृष्ठभूमि को अपार हर्ष के साथ कह सुनाया।
भरतहि बिसरेउ पितु मरन सुनत राम बन गौनु।
हेतु अपनपउ जानि जियँ थकित रहे धरि मौनु॥
:-श्री रामचन्द्रजी का वन जाना सुनकर भरतजी को पिता का मरण भूल गया और हृदय में इस सारे अनर्थ का कारण अपने को ही जानकर वे मौन होकर स्तम्भित रह गए (अर्थात उनकी बोली बंद हो गई और वे सन्न रह गए)॥ भरत इतने कोमल ह्रदय के थे कि वे अपने सबसे प्रिय भाई के वनगमन और महाराज दशरथ के स्वर्गवासी होने का कारण स्वय को मानकर विधि द्वारा रचित इस विधान पर विश्वास ही नहीं कर पाये। भरत के ह्रदय में तो ऐसी भावना उत्पन्न हि नहीं हो सकती थी, जिससे उक्त भयानक घटनाओ के घटित होने का आधार प्राप्त हो।
बिकल बिलोकि सुतहि समुझावति। मनहुँ जरे पर लोनु लगावति॥
तात राउ नहिं सोचै जोगू। बिढ़इ सुकृत जसु कीन्हेउ भोगू॥
:-पुत्र को व्याकुल देखकर कैकेयी समझाने लगी। मानो जले पर नमक लगा रही हो। (वह बोली-) हे तात! राजा सोच करने योग्य नहीं हैं। उन्होंने पुण्य और यश कमाकर उसका पर्याप्त भोग किया॥
सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू। पाकें छत जनु लाग अँगारू॥
धीरज धरि भरि लेहिं उसासा। पापिनि सबहि भाँति कुल नासा।।
:-राजकुमार भरतजी यह सुनकर बहुत ही सहम गए। मानो पके घाव पर अँगार छू गया हो। उन्होंने धीरज धरकर बड़ी लम्बी साँस लेते हुए कहा- पापिनी! तूने सभी तरह से कुल का नाश कर दिया॥
राम बिरोधी हृदय तें प्रगट कीन्ह बिधि मोहि।
मो समान को पातकी बादि कहउँ कछु तोहि॥
:-विधाता ने मुझे श्री रामजी से विरोध करने वाले (तेरे) हृदय से उत्पन्न किया (अथवा विधाता ने मुझे हृदय से राम का विरोधी जाहिर कर दिया।) मेरे बराबर पापी दूसरा कौन है? मैं व्यर्थ ही तुझे कुछ कहता हूँ॥
इतने कठोर शब्द अपनी माता के लिए भरत जी के मुख से निकल रहे हैं तो केवल एक कारण है और वो है अपने प्रभु श्रीराम से अथाह प्रेम, अपार श्रद्धा और अनन्य भक्ति। भरत एक निर्जीव की भांति उठे और माता कौशल्या के कछ कि ओर बढ़ गए।
माता कौशल्या की निरीह अवस्था देख उनके ह्रदय के विकलता और आकुलता ने अपने चरम को स्पर्श कर उससे अत्यधिक बाहर निकल गए हो। माता बेसुध अवस्था में पड़ी थी और जैसे हि भरत के आने की आहट उन्हें मिली :-
भरतहि देखि मातु उठि धाई। मुरुचित अवनि परी झइँ आई॥
देखत भरतु बिकल भए भारी। परे चरन तन दसा बिसारी॥
:-भरत को देखते ही माता कौसल्याजी उठ दौड़ीं। पर दुःख और विषाद के कारण चक्कर आ जाने से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। यह देखते ही भरतजी बड़े व्याकुल हो गए और शरीर की सुध भुलाकर चरणों में गिर पड़े, उनकी आँखों से अविरल आंसू बह रहे थे, सब कुछ धुंधला सा हो गया था। मुख से शब्द नहीं निकल रहे थे और फिर उन्होंने इन सभी विषाक्त परिस्थितियों के लिए स्वय को दोषी बताया और शीश झुका दिया।
पितु सुरपुर बन रघुबर केतू। मैं केवल सब अनरथ हेतू॥
धिग मोहि भयउँ बेनु बन आगी। दुसह दाह दुख दूषन भागी॥
:-पिताजी स्वर्ग में हैं और श्री रामजी वन में हैं। केतु के समान केवल मैं ही इन सब अनर्थों का कारण हूँ। मुझे धिक्कार है! मैं बाँस के वन में आग उत्पन्न हुआ और कठिन दाह, दुःख और दोषों का भागी बना॥
भरत को इस प्रकार शोक और दुःख से व्यथित देख माता का ह्रदय तार तार हो गया। उन्होंने समझ लिया कि अपने बड़े भाई राम को अपना सब कुछ मानने वाला, निष्कपट, निस्वार्थी भरत स्वय को इस विधि के विधान का कारण समझ दुःखी हो रहा है। माता जानती हैं कि भरत अपने बड़े भाई राम से कभी बिछड़ने की सोच भी नहीं सकता।
सरल सुभाय मायँ हियँ लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए॥
भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई॥
:-सरल स्वभाव वाली माता ने बड़े प्रेम से भरतजी को छाती से लगा लिया, मानो श्री रामजी ही लौटकर आ गए हों। फिर लक्ष्मणजी के छोटे भाई शत्रुघ्न को हृदय से लगाया। शोक और स्नेह हृदय में समाता नहीं है॥
माता ने बड़े स्नेह और ममत्व से भरत को समझाते हुए कहती हैं
राम प्रानहु तें प्रान तुम्हारे। तुम्ह रघुपतिहि प्रानहु तें प्यारे॥
बिधु बिष चवै स्रवै हिमु आगी। होइ बारिचर बारि बिरागी॥1॥
:-श्री राम तुम्हारे प्राणों से भी बढ़कर प्राण (प्रिय) हैं और तुम भी श्री रघुनाथ को प्राणों से भी अधिक प्यारे हो। चन्द्रमा चाहे विष चुआने लगे और पाला आग बरसाने लगे, जलचर जीव जल से विरक्त हो जाए,॥
भएँ ग्यानु बरु मिटै न मोहू। तुम्ह रामहि प्रतिकूल न होहू॥
मत तुम्हार यहु जो जग कहहीं। सो सपनेहुँ सुख सुगति न लहहीं॥
:-और ज्ञान हो जाने पर भी चाहे मोह न मिटे, पर तुम श्री रामचन्द्र के प्रतिकूल कभी नहीं हो सकते। इसमें तुम्हारी सम्मति है, जगत में जो कोई ऐसा कहते हैं, वे स्वप्न में भी सुख और शुभ गति नहीं पावेंगे॥
माता के मुख से ऐसे स्नेहमय और प्रेममय शब्दों को सुनकर भरत को थोड़ा ढांढस बँधा और माता की आज्ञा पाकर वो अपना कर्तव्य निभाने हेतु कर्तव्य पथ पर अग्रसरित हो गए।
गुरु वशिष्ठ की आज्ञा तथा अन्य मंत्रीजन के सहयोग से सम्पूर्ण विधि विधान से अपने पिता की अंत्येष्टि की। तत्पश्चात उन्होंने दान दक्षिणा देने का पवित्र कार्य पूर्ण किया।
पितु हित भरत कीन्हि जसि करनी। सो मुख लाख जाइ नहिं बरनी॥
सुदिनु सोधि मुनिबर तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए॥
:-पिताजी के लिए भरतजी ने जैसी करनी की वह लाखों मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकती। तब शुभ दिन शोधकर श्रेष्ठ मुनि वशिष्ठजी आए और उन्होंने मंत्रियों तथा सब महाजनों को बुलवाया॥
रायँ राजपदु तुम्ह कहुँ दीन्हा। पिता बचनु फुर चाहिअ कीन्हा॥
तजे रामु जेहिं बचनहि लागी। तनु परिहरेउ राम बिरहागी॥
:-राजा ने राज पद तुमको दिया है। पिता का वचन तुम्हें सत्य करना चाहिए, जिन्होंने वचन के लिए ही श्री रामचन्द्रजी को त्याग दिया और रामविरह की अग्नि में अपने शरीर की आहुति दे दी॥
गुरु वशिष्ठ ने भरत को अपने बड़े भाई राम और अपने पिता के वचन अनुसार अयोध्या की राजगद्दी सम्हालने के लिए प्रेरित किया। गुरु ने कहा कि हे राजकुमार, आपके पिता का स्वर्गवास हो गया और आपके बड़े भाई पिता के वचन का पालन करने हेतु वन को प्रस्थान कर गए हैं, ऐसे समय में अयोध्या का सिंहासन सम्हाल अपनी प्रजा के कल्याण हेतु अपने राजधर्म का पालन करो।
सभी मन्त्रिजन ने भी राजकुमार भरत को गुरु के आदेशानुसार हि राजधर्म का पालन करने हेतु विनती की पर जब भरत कि व्याकुलता कम नहीं हुआ , उनका चित्त स्थिर ना हुआ तो माता कौशल्या स्वय आगे आई और उन्होंने भरत को बड़े हि प्रेम और स्नेह से समझाया और कहा कि हे पुत्र गुरु और अन्य मंत्रीजन कि बात तुम्हें अवश्य माननी चाहिए, इसी से तुम्हारे भाई राम और तुम्हारे पिता को संतोष प्राप्त होगा और उन्हें ख़ुशी मिलेगी। ऐसे समय में तुम्हें समस्त शोक का त्याग कर राज को सम्हालना चाहिए।
माता के सरल और प्रेम से भरे उपदेश सुन कर भरत जी का ह्रदय अत्यंत पीड़ा से भर उठा, क्योंकि वो तो स्वय को अपने प्रभु श्रीराम का चाकर मानते हैं फिर भला वो ये सिंहासन कैसे स्वीकार कर सकते थे। अत: उन्होंने सभी से अत्यंत भावुकता और प्रेम में सने वचन बोलकर अपनी स्थिति प्रकट कि और कहा: -
पितु सुरपुर सिय रामु बन करन कहहु मोहि राजु।
एहि तें जानहु मोर हित कै आपन बड़ काजु॥
:-पिताजी स्वर्ग में हैं, श्री सीतारामजी वन में हैं और मुझे आप राज्य करने के लिए कह रहे हैं। इसमें आप मेरा कल्याण समझते हैं या अपना कोई बड़ा काम (होने की आशा रखते हैं)
भरत जी पुन: कहते हैं: -
हित हमार सियपति सेवकाईं। सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाईं॥
मैं अनुमानि दीख मन माहीं। आन उपायँ मोर हित नाहीं॥
:-मेरा कल्याण तो सीतापति श्री रामजी की चाकरी में है, सो उसे माता की कुटिलता ने छीन लिया। मैंने अपने मन में अनुमान करके देख लिया है कि दूसरे किसी उपाय से मेरा कल्याण नहीं है॥
भरत जी के ह्रदय की व्यथा कुछ इस प्रकार निकलती है:-
डरु न मोहि जग कहिहि कि पोचू। परलोकहु कर नाहिन सोचू॥
एकइ उर बस दुसह दवारी। मोहि लगि भे सिय रामु दुखारी॥
:-मुझे इसका डर नहीं है कि जगत् मुझे बुरा कहेगा और न मुझे परलोक का ही सोच है। मेरे हृदय में तो बस, एक ही दुःसह दावानल धधक रहा है कि मेरे कारण श्री सीता-रामजी दुःखी हुए॥
आपनि दारुन दीनता कहउँ सबहि सिरु नाइ।
देखें बिनु रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ॥
:-सबको सिर झुकाकर मैं अपनी दारुण दीनता कहता हूँ। श्री रघुनाथजी के चरणों के दर्शन किए बिना मेरे जी की जलन न जाएगी॥
और ये कहकर भरत जी अपना निश्चय सबसे कहते हैं: -
* आन उपाउ मोहि नहिं सूझा। को जिय कै रघुबर बिनु बूझा॥
एकहिं आँक इहइ मन माहीं। प्रातकाल चलिहउँ प्रभु पाहीं॥
भावार्थ:-मुझे दूसरा कोई उपाय नहीं सूझता। श्री राम के बिना मेरे हृदय की बात कौन जान सकता है? मन में एक ही आँक (निश्चयपूर्वक) यही है कि प्रातः काल श्री रामजी के पास चल दूँगा॥
भरत के मुख से अद्भुत भाई प्रेम और भाई के प्रति समर्पण को देख उन सभी के ह्रदय आत्मग्लानि से भर उठे, जिन्होंने माता कैकेयी के व्यवहार को देखते हुए भरत के बारे में भी मिथ्या धारणा बना ली थी। वे सभी अत्यंत उत्साह से भर गए, चहूं ओर प्रसन्नता घिर गई, सबको ऐसा प्रतीत होने लगा मानो कमल की पंखुड़ीयो ने अपने कैद से भ्रमर को स्वतन्त्र कर दिया है।
भा सब कें मन मोदु न थोरा। जनु घन धुनि सुनि चातक मोरा॥
चलत प्रात लखि निरनउ नीके। भरतु प्रानप्रिय भे सबही के॥
भावार्थ:-सबके मन में कम आनंद नहीं हुआ (अर्थात बहुत ही आनंद हुआ)! मानो मेघों की गर्जना सुनकर चातक और मोर आनंदित हो रहे हों। (दूसरे दिन) प्रातःकाल चलने का सुंदर निर्णय देखकर भरतजी सभी को प्राणप्रिय हो गए॥
मुनिहि बंदि भरतहि सिरु नाई। चले सकल घर बिदा कराई॥
धन्य भरत जीवनु जग माहीं। सीलु सनेहु सराहत जाहीं॥
भावार्थ:-मुनि वशिष्ठजी की वंदना करके और भरतजी को सिर नवाकर, सब लोग विदा लेकर अपने-अपने घर को चले। जगत में भरतजी का जीवन धन्य है, इस प्रकार कहते हुए वे उनके शील और स्नेह की सराहना करते जाते हैं॥
इस अंक में हमने भरत के भाई प्रेम के उस स्वरूप के दर्शन किये, जिसमें उन्होंने
१:- अयोध्या के राज सिंहासन को अपने बड़े भाई श्रीराम की छ्त्र छाया के समक्ष एक तुच्छ वस्तु मानकर उस पर सत्तारुढ होने से इंकार कर दिया।
२:- गुरु वशिष्ठ का उपदेश, मन्त्रिजन की राय और उस पर स्वय प्रभु श्रीराम की जननी माता कौशल्या के आदेश के पश्चात भी उन्होंने अपने लिए राज के सत्ता सुख और भोग के स्थान पर प्रभु श्रीराम के चरण सेवा को अत्यधिक उपयुक्त समझा।
३:- उन्होंने अपने आपको बड़े भाई के चाकर अर्थात सेवक के रूप में प्रस्तुत किया।
४:- उन्होंने अपने मृदुल, निश्चल और निस्वार्थ व्यवहार से अपने कटु आलोचकों को भी प्रसन्शा करने हेतु विवश कर दिया।
५:- उन्होंने त्याग की वो अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया कि, यदि उसका अनुकरण प्रत्येक भाई करने लगे तो प्रत्येक कुटुंब सुख से जीवन यापन करें और सम्पूर्ण समाज व्यवस्थित हो जाए।
क्या आज के आधुनिक परिवेश में इस प्रकार के त्याग और भाई प्रेम का उदाहरण देखने को मिल सकता है, नहीं ना। राजकुमार भरत के पास प्रत्येक अवसर था कि वो अनवरत निष्कण्टक १४ वर्षो तक अयोध्या के राजा बनकर सत्ता का सुख भोग सके। इतिहास भी उन्हें इसके लिए उत्तरदायी नहीं मानता, क्योंकि, गुरु, मन्त्रिजन, प्रजाजन और स्वय माता कौशल्या उनके साथ थी, परन्तु धन्य है वो भरत जिसने अपने बड़े भाई के प्रेम के सामने समस्त सुख, वैभव और भोग विलास को तुच्छ मानकर ठुकरा दिया और अपने स्वामी श्रीराम को वापस लाने का संकल्प लेकर वन में प्रस्थान करने का पवित्र निर्णय लिया।
आज ऐसा त्याग कहीं भी ना दिखाई देता है।
श्रीमद भागवत गीता के अध्याय १८ श्लोक ५ में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।।
अर्थात:-यज्ञ, दान और तपरूप कर्मोंका त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत उनको तो करना ही चाहिये क्योंकि यज्ञ, दान और तप -- ये तीनों ही कर्म मनीषियोंको पवित्र करनेवाले हैं।
अध्याय १८ श्लोक ११ में भगवान् कहते हैं
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।।
अर्थात।।कारण कि देहधारी मनुष्यके द्वारा सम्पूर्ण कर्मोंका त्याग करना सम्भव नहीं है। इसलिये जो कर्मफलका त्यागी है, वही त्यागी है -- ऐसा कहा जाता है।
लेखन और संकलन:- नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)
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